कविता: रेखाचित्र





रेखाओं ने उकेरी आकृतियाँ
परवाज करते सारस, बाज, गरुङ
लहरों पर डोलती नौका, खेवट और पतवार
धनुष, तीर, तलवार
शशक, सारंग, बाघों का शिकार
रेखाओं में गोपित[1] मोना लिसा की मुस्कान
हतप्रभ सारा जहान!


प्रस्तर लकीरों में लिपटे
इंसानी कदमों के निशान, हल थामे किसान
सुस्ताते श्वान, तिनकों के परिधान
रहट में जुते बैल, झुमते छैल
अचल, उदात्त, हिमाच्छादित शैल
कंठी, कर्णफूल, समुद्री सीपियों की माला
सजती-संवरती आदि-बाला!


छोटे-छोटे बिंदुओं के अद्भुत संयोजन
अपरिमित इनके प्रयोजन
बिंदुओं से रेखा, रेखा से त्रिभुज-चतुर्भुज बने
बने आयत, वृत, घन, घनाकार
ढल गए असंख्य अनुहार[2]
अंक-बीज-रेखा गणित, भौतिकी और भूगोल में
नापी दूरी सितारों की खगोल ने!


रेखाओं से उपजी लिपि
लिपि से भाषा, भाषा से व्याकरण
व्याकरण से भाषाई शुचिता, नियमन, संगठन
स्पष्ट और प्रभावी हुआ पाठन-पठन
शब्द-वर्ण-वाक्य विचार
रेखाओं पर अवलंबित
ज्ञान-ध्यान-विज्ञान, ग्रंथ-पोथी-शास्त्राचार!


रेखाओं के पंख सजाए
उङी कल्पना सुदूर, सप्तरंगी जगत अनजान
आदित्य, अंगारक, चंद्र-नक्षत्र
मुग्ध मंदाकिनी दैदीप्यमान
विस्तृत व्योम, परिमित व्यष्टि, अनंत सृष्टि
देव-दानव, सुर-असुर, गंधर्व या थे जो निराकार
रेखाचित्रों में हुए सब साकार!


© दयाराम वर्मा, जयपुर (राज.) – 23 नवंबर, 2024




[1] गोपित: गुप्त या छुपा हुआ


[2] अनुहार -आकृति या रचना



कविता- अनेक थे नेक थे




हमारे मोहल्ले में रहते थे
भांति-भांति के लोग
जाट जमींदार कारीगर कुम्हार सुथार
ठाकुर तेली सुनार चमार
हमारे ठीक पङोस में थे एक दर्जी
कमरुद्दीन भाई
लेखराम धोबी भोला बनिया हंसराज नाई
वैसे तो हम अनेक थे
लेकिन दिल के सब नेक थे
भाईचारा और प्रेम आपस में बंटता था
समय आराम से कटता था


वहाँ गली के आखिरी छोर पर था
सरदार केहरसिंह का बङा सा पक्का मकान
पीपल के पास था एक छोटा देवस्थान
देवस्थान के अहाते में
रहते थे लंबी चोटी वाले पंडित घनश्याम
सुबह शाम
बजती थीं मंदिर में मधुर घंटियाँ
और आती थी दूर मस्जिद से सुरीली अजान
सेवइयां लड्डू तो कभी हलवा बंटता था
कुहासा भेद भ्रम का छंटता था
यद्यपि हमारे इष्ट अनेक थे
लेकिन पैगाम सबके एक थे नेक थे


ढाब वाले स्कूल में
बरगद के पेङों तले लगती थी क्लास
अमर अर्जुन शंकर बलबीर हरदीप अल्ताफ़
बैठते थे टाट पट्टी पर पास-पास
पंद्रह अगस्त छब्बीस जनवरी होते थे पर्व खास
जब चलता सफाई अभियान
खेल मैदान में करवाया जाता श्रमदान
नंद पीटीआई काम बांटते
गड्ढे पाटते बबूल छांटते घास काटते
हमारे दीन-धर्म जात-कर्म अनेक थे
गुरुजी की नजरों में सब एक थे


दिवाली ईद गुरु-परब
हर साल हर हाल मनाए जाते
सिलवाते कपङे नए घर द्वार सजाए जाते
कुछ महिलाएं निकालती थीं घूंघट
कुछ पहनती थीं हिजाब
कभी कभार आपस में हो जाती थी तकरार
इससे पहले कि उगती कोई दीवार
सही गलत तुरंत आँकते
सौहार्द सद्भाव शांति बुजुर्ग बांटते
बेशक
खान-पान रिती-रिवाज अनेक थे
इरादे सबके नेक थे


© दयाराम वर्मा, जयपुर (राज.) 11-11-2024

Publication details: 
Sandesh Apr-Sep 2025, HY Magazine of Punjab National Bank ZO-Jaipur
Satya Kee Mashal Jan-2025, Monthly magazine



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