ब्रह्मपुत्र से सांगपो: एक सफ़रनामा

यात्रा वृत्तांत:
ब्रह्मपुत्र से सांगपो: एक सफ़रनामा




किन उपत्यकाओं से झरती है
तुम्हारी निःसंगता
कि फैल जाती है फिर
नदी, पहाड़, तल, कछार
से होते हुए
हमारे हृदयों में!

कितने रागों से यायावृत हो भटकता है मन
पाने को वैराग्य
और पाता है उसे राग की पीठ पर ही
हिमाच्छादित शिखरों से चिर्हक कर
फटता है दर्रों का मार्ग
और तुम यात्राओं की सहजता पर
रखते हो अपने बिम्बों
के कलश!

कहन की तृप्ति के पुष्प
जाने कितने हृदयों का अघट सुगंध बनने को आतुर
दौड़ रहे वन-विपिन, पथ-विपथ
तुम्हारी सुस्मिति के ठीक पार्श्व से ढुलकी एक बूंद!

सर्पिली मेखलाओं की अंतहीन अंत: कथाओं का वैभव
जाने कितनी दंत-पंक्तियों को देगा
गर्भ और
प्रसूत होंगी अनंत कथा-शृंखलाएँ !

मैं प्राणों के हिमनद से जन्म देना चाहती हूँ
एक दुर्लभ लय को...

तुम उसे सांगपो से त्वरित ब्रह्मपुत्र-
कहते हुए
खे सकते हो उसमें अनंत-पृष्ठक नौकाएँ-

अक्षरों के अगणित बीज
अपनी-अपनी मुद्राओं में हैं समाधिलीन
तुम खे रहे हो न
कुछ नवीन उपत्यकाओं के पग आतुर हैं।।




कविता लेखिका: डॉ. चंचला पाठक, पवनपुरी, बीकानेर 334001
प्रस्तावना
वृत्तांत ही नहीं, एक संस्कृति का आख्यान भी


यात्रा-वृत्तांत मैंने अनेक पढ़े हैं लेकिन सर्वाधिक सुखद अनुभूति 'ब्रह्मपुत्र से सांग्पो: एक सफ़रनामा' पढ़ते हुए हुई। श्री दयाराम वर्मा के इस यात्रा-वृत्तांत के बहाने पाठक अरुणाचल प्रदेश के विस्तृत, प्रामाणिक और रोचक इतिहास से भी परिचित होता चलता है। इस पुस्तक को पढ़ते हुए मैंने महसूस किया कि मैं केवल वृत्तांत नहीं पढ़ रहा, वरन एक प्रदेश की संस्कृति के समृद्ध-आख्यान से गुज़र रहा हूँ। अकसर यात्रा-वृत्तांत ‘मैं’ या ‘हम’ पर ही केंद्रित होकर समाप्त हो जाते हैं। मगर लेखक ने निःस्पृह भाव से अरुणाचल प्रदेश के वैभव और अद्भुत प्राकृतिक आभा से पाठकों को परिचित कराने का स्तुत्य कार्य किया है।

पुस्तक की प्रांजल भाषा इतनी प्रवाहमान है कि पाठक उसके साथ तादात्म्य स्थापित करके बहता चला जाता है। यह हमें अरुणाचल प्रदेश की ओर तीव्रता से खींचती है, मन करता है कि जैसे ही मौका मिले, हम 'उगते सूरज के प्रदेश' की ओर निकल जाएँ। पुस्तक के हर अध्याय को पढ़ते हुए पाठक इस प्रदेश के सौंदर्य से परिचित होकर न केवल रोमांचित होगा वरन उसके मन में वहाँ के पर्यटन का भावोदय भी होगा।

श्री वर्मा को अपनी वायु सेना की सेवा के दौरान पहली बार सन 1988-1989 में अरुणाचल प्रदेश में जाने और वहाँ की विशेषताओं को अत्यंत निकट से देखने का अवसर प्राप्त हुआ। सन 2018 में आपका प्रथम उपन्यास 'सियांग के उस पार' प्रकाशित हुआ। लेखक की लगभग तीन दशक पुरानी पूर्वोत्तर की अनूठी स्मृतियों पर केंद्रित यह उपन्यास बेहद चर्चित रहा।

इसके प्रकाशन के पश्चात एक बार फिर, सन 2019 में आपने सुदूर उत्तरपूर्व की यात्रा की और जो सुखदानुभव हुए उनको एक सफ़रनामे के रूप में जिज्ञासु पाठकों तक पहुँचाने का पवित्र कार्य किया। औपन्यासिक कथारस के विस्तार से परिचित लेखक की वही प्रतिभा इस यात्रा-वृत्तांत, में भी दृष्टव्य है। चूँकि पूरा सफ़रनामा एक कथारस-सा आस्वादन प्रदान करता है, इसलिए मैंने इस कृति को एक आख्यान की तरह ही निरूपित किया है।


पुस्तक का प्रथम अध्याय 'यार्लुंग सांगपो से ब्रह्मपुत्र: पृष्ठभूमि' पढ़कर पाठक मानो किसी नए लोक में ही पहुँच जाता है। ‘उगते सूरज के प्रदेश’ की मनभावन विस्तृत पृष्ठभूमि, अरुणाचली संस्कृति के अनेक आयामों यथा, इसकी प्राचीन सभ्यता व संस्कृति, आचार-विचार, खान-पान और लोक परंपराओं से लेकर राजनीतिक, आर्थिक परिस्थितियों, प्राकृतिक संसाधनों आदि से हमारा परिचय कराती है।

दूसरे अध्याय 'अद्भुत संयोग' में लेखक ने सचमुच अद्भुत संयोगों का सुखद वर्णन किया है, जैसे कि फ़ेसबुक के माध्यम से उनका कैसे अरुणाचल प्रदेश के पुराने परिचितों से पुन: संपर्क स्थापित हो सका। जब लेखक ने सियांग वादी में बिताए अपने पुराने दिनों की उनकी यादें ताज़ा कीं, तो वे सारे लोग लेखक के आत्मीय मित्रों में तबदील हो गए। इस अध्याय से हमें पता चलता है कि अरुणाचलवासी कितने सहज-सरल और शिद्दत से रिश्तों को जीने वाले लोग हैं।

बाद के अध्यायों में लेखक ने जिस सुंदर ढंग से अरुणाचल प्रदेश के स्थानों का वर्णन किया है, उसे पढ़ कर ऐसा महसूस होता है मानो लेखक अरुणाचल प्रदेश में ही वर्षों से रह रहा है और पाठक एक गाइड के साथ पर्यटन स्थलों की सैर कर रहा हो। किसी लेखन की यही विशेषता होनी चाहिए कि पाठक लेखक के साथ प्रवास करता चले। वास्तव में लेखक ने बड़े मनोयोग से पूरी पुस्तक को एक विनम्र गाइड की तरह लिखा है।

सातवें अध्याय 'तुतिंग' और गेल्लिंग: चीनी सीमा पर आख़िरी भारतीय गाँव’ में पाठक का परिचय प्रदेश की चीन की सीमावर्ती आदिवासी संस्कृति, कलाकृतियों, शिल्प, मनभावन पोशाकों व वहाँ के सीधे-साधे निवासियों से होता है।

अध्याय बारह में 'मेचुका' का वर्णन भी काफ़ी सुखद है। वहाँ एक पवित्र गुरुद्वारा भी दर्शनीय है। मेचुका के जनजीवन में गुरु नानक जी मानो रच-बस गए हैं। लेखक ने मेज़र ग्रेवाल के माध्यम से बताया कि वहाँ का एक लामा बीमार बच्चे को दवा दे रहा था तो कुछ मंत्र बड़बड़ा रहा था और उस मंत्र में बार-बार वह नानक शब्द उच्चारित कर रहा था। इतिहासकार बताते हैं कि गुरु नानक देव जी ने कुछ समय के लिए यहाँ प्रवास किया था।


गुरु नानक देव जी द्वारा इस दुर्गम स्थल की सदीयों पूर्व यात्रा चकित व रोमांचित करती है।

मेचुका में आज भी वह चट्टान दर्शनीय है, जहाँ गुरु नानक देव जी अपने दो शिष्यों के साथ तपस्या कर रहे थे। माना जाता है कि जब एक भालू ने उन पर हमला कर दिया तब वह चट्टान अपने आप बीस फ़ुट ऊपर उठ गई थी। मेज़र ग्रेवाल के प्रयासों से वहाँ सन 1987 में 'श्री तपोस्थल साहिब जी' गुरुद्वारे का निर्माण हुआ।

अरुणाचल प्रदेश में हिंदी के प्रबुद्ध प्राध्यापक हैं, वहाँ हिंदी भाषा में उच्चतम स्तर का अध्ययन व अध्यापन होता है और वहॉं के बच्चों में हिंदी सीखने की ललक भी है, यह एक बड़ी बात है। इस यात्रा वृत्तांत में लेखक ने अरुणाचल प्रदेश के उच्च कोटि के कुछ साहित्यकारों से भी परिचय कराया है।

ये वे स्थानीय आदिवासी लेखक हैं, जो अरुणाचल प्रदेश की आत्मा को, उसकी अस्मिता को अपनी लेखनी के माध्यम से उकेरते रहे हैं। इनमें से एक हैं, डॉ. जोराम यालाम, हिंदी की श्रेष्ठ लेखिका। उनके लेखन की कुछ पंक्तियाँ मैं यहाँ उद्धृत करना चाहता हूँ, "सतर्कता का नाम जंगल है। चुनौती का नाम जंगल है। जो भटके हुए से लगते हैं, वही रास्ता ढूँढ़ सकते हैं। जंगल भटका सकता है लेकिन वह ज़िंदा भी करता है। बचने का आनंद भी उसी में है।"

अपने परिवार के साथ-साथ लेखक, पाठक को भी ईटानगर, दोइमुख, पासीघाट, यिंगकिओंग व मेचुका से लेकर चीनी 8सीमा के आख़िरी भारतीय गाँव गेल्लिंग सहित 'तुतिंग' व वहाँ के प्रसिद्ध हैंगिंग ब्रिज, कोदाक ब्रिज, शिल्प केंद्र, पाल्युल मंदिर व मठ आदी की सैर कराते हुए डिब्रूगढ़ ले चलता है। यह पुस्तक ‘बेयुल पेमाको’ के रहस्यों से पर्दा उठा कर तिब्बती बौद्ध धर्म की एक रहस्यमयी जानकारी से भी पाठक को अवगत कराती है।

चौदह अध्यायों में फैला यह यात्रा-वृत्तांत पाठक को कुछ हद तक अरुणाचल प्रदेश का विशेषज्ञ बना सकता है। अरुणाचल प्रदेश की सैर करनी है तो यात्रा से पहले इनर-लाइन परमिट लेना आवश्यक है। ऐसा संभवत: वहाँ की आदिवासी संस्कृति को बचाए रखने के उपायों में से एक है। बहुधा कई यात्रा-वृत्तांत आंकड़ों का मकड़जाल सा होते हैं जिनमें पाठक उलझ कर रह जाता है। लेकिन इस पुस्तक का पाठक, लेखक के प्रभावी शब्दशिल्प से निर्मित नयनाभिराम दृश्यबन्धों में खो जाता है। लेखक की रोचक व आख्यानपरक शैली, पाठक को अंत तक बांधे रखने में बेहद सफल है। पुस्तक को पढ़ने के पश्चात आप सहमत होंगे कि मैंने कुछ भी अतिरंजित नहीं कहा।

छुटपुट यात्रा वृत्तांत तो लिखे जाते रहे हैं, लेकिन एक पुस्तक के रूप में किसी राज्य पर केंद्रित वृहद यात्रा-वृत्तांत बहुत कम लिखे गए हैं। कुल मिलाकर दयाराम वर्मा की यह समूची पुस्तक अद्भुत, रोचक और चिरस्मरणीय यात्रा वृत्तांत का एक उत्कृष्ट नमूना है। सहज, सरल मगर साहित्यिक भाषा व किस्सागोई के अंदाज़ में लिखा गया यह वृत्तांत पाठक को इस प्रकार सम्मोहित करता है कि इसे पढ़ने के बाद वह एक बार अरुणाचल प्रदेश की सैर ज़रूर करना चाहेगा।

ख़ुद मेरा मन भी लालायित हो रहा है। हालांकि दो दशक पहले मुझे तत्कालीन राज्यपाल और साहित्य के गम्भीर अध्येता माताप्रसाद जी ने अरुणाचल आने का निमंत्रण दिया था, लेकिन तब किसी कारणवश जाना नहीं हो पाया। मगर अब कभी अवसर मिला तो सपरिवार ज़रूर जाऊँगा।

अब अंत में लेखक का हार्दिक अभिनंदन कि उन्होंने अपनी अविस्मरणीय अरुणाचल यात्रा को लिपिबद्ध कर साहित्य की ‘यात्रा-वृत्तांत’ विधा को समृद्ध किया। पुस्तक की प्रस्तावना लिखने के बहाने मैंने भी सुंदर पूर्वोत्तर प्रदेश की एक अद्भुत सैर कर ली। मैं श्री वर्मा के उज्ज्वल भविष्य की कामना करता हूँ।


गिरीश पंकज, (व्यंग्यश्री, 2018, हिंदी भवन, नई दिल्ली) - रायपुर 

 एक प्रतिक्रिया– दोइमुख से



भारतीय प्राचीदिगंत की अक्षुण साहित्य साधना के केंद्र में बहु-विध कृतियाँ सृजित हुईं जो समयानुसार अपनी गौरवता को सिद्ध करती रही हैं, इसी क्रम में एक और नाम जुड़ता है लेखक दयाराम वर्मा कृत ‘ब्रह्मपुत्र से सांगपो एक सफ़रनामा’ का जो अरुणाचल-प्रदेश भ्रमण पर आधारित एक अद्भुत यात्रा-वृत्तांत है।

पूर्वोत्तर आधारित कई यात्रा-वृत्तांत आपने पढ़े होंगे जिनमें ‘राहुल सांकृत्यायन’ से लेकर ‘अज्ञेय’ और ‘अनिल यादव’ के बाद भी लिखी जाने वाली यात्रा-कृतियाँ सम्मिलित होंगी, लेकिन ‘ब्रह्मपुत्र से सांग्पो एक सफ़रनामा’ को पढ़कर देखिए, यहाँ यात्रा में आनेवाले रास्ते ही नहीं हैं बल्कि ‘रिश्ते’ भी हैं जो तीन दशकों से हृदय-पटल पर सँजोकर रखे गए हैं।

इस यात्रा-कृति में लेखक का कठिनाइयों से परिवाद नहीं है, यहाँ तो सूदूर यात्रा पर निकला एक ‘परिवार’ है जो, पूर्वोत्तर के पारिवारिक परिवेश में घुल-मिल कर भारतीय एकत्वभाव को परिपुष्ट कर रहा है, यथा- “इस यात्रा में मेरे हमस़फर बने पारिवारिक सदस्य भोपाल से पत्नी निर्मला, हैदराबाद से पुत्री शेफाली, चेन्नई से पुत्र ऋषभ, ईटानगर से शोधार्थी सुश्री यालम तातिन, यिंगकिओंग से श्री जीतेश अग्रवाल, सुश्री पुन्यिक नितिक व सुश्री मिसा।”

भावनाओं के पीछे मानव हृदय संतुष्टि को खोजा करता है, लेखक ने इस सफ़रनामे में उसे प्राप्त किया है जिसे तीन दशक पहले वह समय के हाथों छोड़ आया था। एक प्रकार से यह यात्रा अरुणाचल के प्रति लेखक के अतीव प्रेम को उजागर करती है।

पुस्तक चौदह अध्यायों में यात्रा-वृत्त को समेटे हुए है। इसमें लेखक ने स्थान-विशेष के संपूर्ण वैभव, प्रकृति, रस्मों-रिवाज, रहन-सहन, आचार-विचार, मनोरंजन के तरीकों तथा जीवन के प्रति दृष्टिकोण का चित्रण किया है। प्रदेश-विशेष की यात्रा में लेखक को जिस तत्व ने सबसे ज़्यादा प्रभावित किया, आमतौर से उसे वह प्रधानता देता गया। इसलिए उसके चित्रण में कहीं विवरण तो कहीं भावों की प्रधानता मिलती है। कभी-कभी वह तुलनात्मक पद्धति का सहारा भी लेता है।

प्रकृति-सौंदर्य के चित्रण में उसकी शैली भावात्मक हो उठती है तो जल्दी में किसी स्थान की विशेषता को व्यक्त करते समय उसकी शैली वर्णनात्मक हो जाती है। अपने देश या प्रांत की अन्य प्रांत या विदेश से तुलना करते समय लेखक तुलनात्मक शैली का भी सहारा लेता है। लेखक ने कई विदेशी विद्वानों के कथन-उपकथन के माध्यम से अरुणाचल से संबंधित तथ्यों एवं टिप्पणियों को पुष्ट किया है। एक यात्रा-वृत्तांत में जो गुण होने चाहिए जैसे– स्थानीयता, तथ्यात्मकता, आत्मीयता, वैयक्तिकता तथा रोचकता वह सब ‘ब्रह्मपुत्र से सांग्पो एक सफ़रनामा’ में पूर्णरूपेण अपनी गौरवता के साथ उपस्थित है।



डॉ. विश्वजीत कुमार मिश्र, सहायक प्राध्यापक (हिंदी)
राजीव गांधी विश्वविद्यालय-दोइमुख, ईटानगर
मेरी नज़र से


तीन दशक पूर्व अरुणाचल प्रदेश के अधिकांश भागों में न सड़कें थीं, न रेल मार्ग, न संचार के कोई साधन। सुरम्य-शांत वादियाँ, पहाड़ी चंचल नदियों में दौड़ता पारदर्शी नीलवर्ण जल, सघन हरे-भरे जंगल, सर्द झरने, बर्फ़ से ढकी चोटियाँ, महीनों अनवरत बारिशें और लकड़ी व बाँस के झूलते पुल! औद्योगिक विकास और आधुनिकता ने तब तक प्रदेश की सरहदों का अतिक्रमण नहीं किया था।

यहाँ के ठेठ आदिवासी रहन-सहन, खान-पान, पहनावे और सभ्यता व संस्कृति से रू-ब-रू होना, इतिहास के किसी प्राचीन कालखंड में पहुँचने सदृश था; तथापि वह दुनिया किसी भी समकालीन सभ्य और आधुनिक समाज से कहीं अधिक जीवंत, उन्मुक्त और आत्मनिर्भर भी थी!

पूर्वी-हिमालय के ऊपरी सियांग क्षेत्र की एक सम्मोहक वादी की एक छोटी सी बस्ती 'तुतिंग' में भारतीय वायु सेना में अपनी सेवा के दौरान, वर्ष 1988-89 में मुझे कुछ महीने गुजारने का अवसर मिला। ऐसे इलाकों में किसी वायुसैनिक की तैनाती एक दुष्प्राप्य अवसर होता था। संभवत: यही कारण था कि दिलो-दिमाग में बस जाने वाली हर घटना, विचार या शक्स को मैं तस्वीरों और डायरी के माध्यम से यथा-संभव सँजोता रहा। कई दशकों बाद, वर्ष 2018 में इन स्मृतियों ने उपन्यास ‘सियांग के उस पार’ का आकार लिया।

अपने शैशव काल में ही इस रचना ने 'तुतिंग' के मेरे विस्मृत रिश्तों के तार फिर से जोड़ दिए और सियांग उपत्यका से साक्षात्कार करने की मेरी प्रच्छन्न अभिलाषा मुखर हो उठी। बाद की अनेक अनुकूल घटनाओं ने ईटानगर से आगे पासीघाट, यिंगकिओंग व 'तुतिंग' होते हुए गेल्लिंग तक सियांग के समानान्तर, अक्टूबर 2019 में मेरी यात्रा का मार्ग प्रशस्त किया।

इस यात्रा में मेरे हमस़फर बने पारिवारिक सदस्य भोपाल से पत्नी निर्मला, हैदराबाद से पुत्री शेफाली, चेन्नई से पुत्र ऋषभ, ईटानगर से शोधार्थी सुश्री यालम तातिन, यिंगकिओंग से श्री जितेश अग्रवाल, सुश्री पुन्यित नितिक व सुश्री मिसा।

राजीव गांधी केन्द्रीय विश्वविद्यालय दोइमुख के हिन्दी के सहायक प्राध्यापक, आदरणीय डॉक्टर विश्वजीत कुमार मिश्र ने न केवल हमारे ईटानगर भ्रमण को सुगम बनाया बल्कि अपने विभाग के प्रतिष्ठित प्राध्यापकों और शोधार्थियों से संवाद का एक दुर्लभ अवसर भी प्रदान किया।

यात्रा के प्रमुख पड़ाव 'तुतिंग' में लामांग तेदो, कामुत निजो, याकेन निजो और ओलाक उर्फ एपी की आत्मीयता से लबरेज़, पारंपरिक आदिवासी मेज़बानी, सच में अभूतपूर्व थी। इस दौरान 'तुतिंग' के बौद्ध मठ के अतिथि गृह में हमें ठहराया गया, जो पूर्व निर्धारित न होकर, याकेन द्वारा किया गया एक तात्कालिक प्रबंध था। लेकिन इस प्रवास के कारण ही ‘बेयुल-पेमाको’ व दूसरे बुद्ध का दर्जा प्राप्त, तिब्बती बौद्ध गुरु ‘पद्मसंभव’ के रोमांच, रहस्य और रोचकता से परिपूर्ण आध्यात्मिक इतिहास से हमारा साक्षात्कार हुआ।

हमारी यात्रा का अंतिम सोपान भी जवाहरलाल नेहरू महाविद्यालय-पासीघाट में हिन्दी विभाग की सहृदय, सहायक प्राध्यापिका सुश्री इंग परमे के साथ, पिछले भ्रमण स्थलों की भांति जीवंत और अविस्मरणीय रहा।

आरंभ में मेरा इस यात्रा पर लिखने का कोई ठोस विचार न था लेकिन यहाँ के प्रमत्त जलप्रतापों और बर्फ़ीली नदियों में धड़कते पहाड़ी सौन्दर्य, अतुल्य प्रकृति, समृद्ध आदिवासी संस्कृति और ‘पेमाको’ जैसी महत्त्वपूर्ण जानकारी ने, एक बार फिर मुझे इसकी अद्भुत विशेषताओं को कलमबद्ध करने पर विवश कर दिया।

तिब्बत की सांगपो नदी, अरुणाचल प्रदेश में गेल्लिंग के पश्चात सियांग (या दिहांग) और पासीघाट से आगे असम में ब्रह्मपुत्र के नाम से जानी जाती है। हमारा अधिकांश सफ़र पासीघाट से गेल्लिंग तक रहा जो कि ब्रह्मपुत्र व सांगपो के बीच का क्षेत्र है; तदनुसार इस यात्रा वृत्तांत का नामकरण हुआ।

और, इन सबकी केंद्र बिंदु ‘सियांग’ के हिमशिखरों से लेकर मैदानों तक के अनुठे उदात्त सफ़र को एक सारगर्भित अनन्य कविता में ढालकर, डॉ. चंचला पाठक ने इस रचना को जो अर्थगौरवता प्रदान की है, वह बेमिसाल है।

हिन्दी पढ़ने या लिखने में अरुणाचल प्रदेश के लोग उतने सहज नहीं होते, फिर भी बाहरी व्यक्तियों से संवाद की उनकी पसंदीदा भाषा हिन्दी ही है। वे प्राय: ‘ड’ को द, ‘ट’ तो त, ‘ङ’ को र उच्चारित करते हैं, यथा-थोड़ा को थोरा, ‘ऐट’ को ऐत, ‘गाड़ी’ को गारी, ‘डाँटना’ को दाँतना इत्यादि।

उत्तर-पूर्व में स्थान विशेष या व्यक्ति विशेष के नाम के अंत या मध्य में ‘ङ्ग’ (ङ्+ग) की ध्वनि वाले अक्षर प्राय: आते हैं; जैसे यिङ्गकियाङ्ग, सियाङ्ग, चोइङ्ग, लामाङ्ग या यिङकियाङ, सियाङ, चोइङ, लामाङ आदि जो व्याकरण सम्मत वर्तनी है। परंतु इस वृत्तांत में इन्हें क्रमश: यिंगकिओंग, सियांग, चोइंग और लामांग आदि के रूप में ही लिखा गया है जो हिंदी के वर्तमान प्रचलित स्वरूप के अनुरूप है ।

और अंत में, सफ़र के सभी सह-यात्रियों, नए-पुराने मित्रों, मेज़बानों, वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय गिरीश पंकज, डॉ.विश्वजीत कुमार मिश्र और डॉ. चंचला पाठक का हृदयतल से आभार। यात्रा-वृत्तांत को प्रतिष्ठित बोधि प्रकाशन के बैनर तले प्रकाशित करने के लिए आदरणीय मायामृग जी का भी बहुत-बहुत आभार और धन्यवाद। पुस्तक पर आपकी अमूल्य प्रतिक्रिया का इंतज़ार रहेगा।

दयाराम वर्मा, जयपुर- 302021



यार्लुंग सांगपो से ब्रह्मपुत्र: पृष्ठभूमि


प्रकृति ने भारतवर्ष के किसी प्रदेश को यदि फ़ुर्सत के लम्हों में अपनी ख़ूबसूरती से सजाया-सँवारा है तो वह है अरुणाचल! ‘अरुण’ अर्थात सूर्य! यहाँ गुजरात की अपेक्षा लगभग दो घंटे पहले सूर्योदय होता है। तभी तो इसे ‘उगते सूरज का प्रदेश’ भी कहा जाता है।

वैसे तो यह प्रदेश विविध आदिवासी संस्कृतियों का एक विशाल समागम है लेकिन यहाँ की शीतल नदियों-नालों व झरनों में बहती अमृतधारा और तिब्बती बौद्धधर्म के आध्यात्मिक व सांस्कृतिक स्पंदन को यत्र-तत्र महसूस किया जा सकता है।

अफगानिस्तान से लेकर म्यांमार तक औसतन 300 किलोमीटर चौड़ाई और 2500 किलोमीटर लम्बाई में फैली आज की हिमालयन पर्वत शृंखला के स्थान पर लगभग 8 से 10 करोड़ वर्ष पूर्व एक लम्बा और संकरा समुद्र ‘टीथिस’ हुआ करता था। इसके उतर में ‘अंगारा-लैंड’ (वर्तमान एशिया महाद्वीप ) और दक्षिण में ‘गोंडवाना-लैंड’ (वर्तमान अफ्रीकी महाद्वीप) थे।

कतिपय भूगर्भीय हलचलों के कारण ‘गोंडवाना-लैंड’, अफ्रीकी उपमहाद्वीप से अलग होकर धीरे-धीरे उत्तर की ओर खिसकने लगा। लगभग 6 से 6.5 करोड़ वर्ष पूर्व जब यह ‘अंगारा-लैंड’ से टकराया तो तिब्बती पठार और केन्द्रीय हिमालय की उत्पत्ति हुई। और संभवत: लाखों वर्षों की प्राकृतिक उथल-पुथल के पश्चात, हिमालय पर्वत शृंखला अपने वर्तमान स्वरूप में आई।

बंगाल की खाड़ी व हिन्द महासागर से उठने वाले बादल यहाँ अटककर बरसने लगे। बर्फ़, नदी-नाले, झरने और झीलें बनी और फिर अनुकूल परिस्थितियों में जंगलों के साथ-साथ जीव-जंतुओं का यहाँ प्रादुर्भाव हुआ।

यह भी माना जाता है कि हिमालयन नदियाँ इस टक्कर से पूर्व भी अस्तित्व में थीं; हाँ उनके बहाव के मार्ग परिवर्तित होते रहे। विश्व के सबसे बड़े शुद्ध पानी के भण्डारों में से एक, रफ़्ता-रफ़्ता पिघलते ये हिमनद जब अल्हड़


झरनों और चंचल पहाड़ी नालों के रूप में मैदानों की ओर दौड़ते हैं तो छोटी-बड़ी झीलों व नदियों का स्वत: निर्माण होता चलता है।

यार्लुंग सांगपो, गंगा व सिंधु सहित हिमालय से निकलने वाली अनेक नदियों के जलस्रोत, हज़ारों वर्ग किलोमीटर में फैले तिब्बत के विशाल ग्लेशियर्स हैं। तिस पर भी सियांग नदी के उद्गम स्रोत और वहाँ से इसके भारत में प्रवेश के मार्ग के बारे में, उन्नीसवीं सदी के अंत तक कोई ठोस प्रमाण नहीं था। पूर्वोत्तर के गहरे अभेद्य जंगलों में क्रूर जनजातीय कबीलों का वर्चस्व होने के कारण सियांग के उद्गम स्थल की खोज, कोई साधारण कार्य नहीं था। जंगलों में यदि कोई बाहरी व्यक्ति इनके हत्थे चढ़ जाता तो उसके बचने के आसार न के बराबर होते थे। उस समय तिब्बत चारों ओर से बंद एक सुरक्षित राज्य था। ब्रिटिश विस्तारवाद की आशंका के चलते वहाँ के शासक नेपाल और लद्दाख के केवल कुछ चिर-परिचित व्यापारियों को ही अपने देश में प्रवेश की अनुमति प्रदान करते थे। जब औपचारिक तरीके काम नहीं आए तो ब्रिटिश सर्वे ऑफ इंडिया के अधिकारियों ने सियांग या ब्रह्मपुत्र के उद्गम स्थल तक के मार्ग को खोजने के लिए जासूसों को व्यापारियों और बौद्ध तीर्थयात्रियों के रूप में प्रशिक्षित करना आरंभ कर दिया।

ब्रिटिश काल में वर्ष 1865 में सर्वे ऑफ इंडिया ने पहला अभियान पंडित नैन सिंह रावत की अगुवाई में चलाया। बाद में ऐसे और अभियान चलते रहे। कई दशकों तक चले इन अभियानों में ‘किंथुप ’ नाम के दार्जिलिंग के एक अनपढ़ लेप्चा दर्जी, खोजकर्ता नेमसिंह और एक जापानी ज़ेन भिक्षु ‘एकाई-कावागुची’ आदि के नाम उल्लेखनीय हैं।

ये जासूस या पंडित (पढे-लिखे या प्रशिक्षित) लोग, ‘सेक्सटेंट्स’ (दो वस्तुओं के बीच कोणीय दूरी नापने के यंत्र) और ‘प्रिज्मेट्रिक’ दिशासूचक यंत्रों के अनुप्रयोग के अतिरिक्त खौलते पानी के तापमान बिन्दु से किसी स्थान की ऊँचाई निर्धारित करना भी जानते थे। समुद्र तल से ऊँचाई की ओर बढ़ने पर वायुदाब कम होने लगता है, फलत: पानी का क्वथनांक (उबलने का तापमान) भी कम होने लगता है।

समुद्र तल पर जहाँ पानी 212 डिग्री फ़ॉरेनहाइट पर उबलता है वहीं 12000 फ़ुट की ऊँचाई पर यह 190 डिग्री फ़ॉरेनहाइट पर ही खौल उठता है। इस आधार पर प्रशिक्षित जासूस, किसी स्थान विशेष की ऊँचाई का सटीक अनुमान लगा लेते थे। अपने यंत्रों को वे बौद्ध धर्म-चक्रों के बीच छुपा कर रखते और कदमों की गिनती के आधार पर तय की गई दूरी का अंदाज़ा लगाया जाता।

‘किंथुप’ को पहली बार ‘नेमसिंह’ नामक जासूस के साथ ईस्वी सन 1878 में अभियान पर भेजा गया। इन्हें मध्य तिब्बत से सांगपो के साथ-साथ चलते हुए अरुणाचल प्रदेश (उस समय असम) में प्रवेश करना था। लगभग 200 मील चलने के बाद वे ‘ग्याला’ नामक स्थान पर पहुँचे तो सांगपो नदी हिमालय पर्वत शृंखला के एक विशाल दर्रे में प्रवेश कर कहीं गायब हो गई । अथक प्रयासों के बावजूद भी वे आगे नहीं बढ़ पाए तो वापिस दार्जिलिंग लौट आए।

पुन: दो वर्ष बाद, ब्रिटिश अधिकारी कैप्टन हरमन ने किंथुप को एक चीनी लामा के साथ इस अभियान पर भेजा। इस अभियान के लिए इन्हें 100 रूपये और चाँदी की कुछ मुद्रा दी गई । चूँकि लामा के पास चीन का पासपोर्ट था और वह पढ़ा-लिखा भी था, अत: किंथुप को बतौर नौकर, साथ भेजने पर पकड़े जाने का डर नहीं था। कई महीनों तक चलने के बाद वे वर्ष 1881 में ‘ग्याला’ गाँव पहुँचने में सफल हो गए।

लेकिन चीनी लामा एक जुआरी, लम्पट और ठग निकला और उसने अभियान के लिए सुरक्षित सारी मुद्रा अपने शौक पर उड़ा दी। ‘ग्याला’ से आगे बढ़ते हुए जैसे-तैसे वे ‘पेमाको चुंग’ नामक एक छोटे से बौद्ध मठ तक पहुँचे। इस स्थान पर हिमालय की गगनचुंबी चोटियों और घने जंगलों से आगे का मार्ग अवरुद्ध था। इसी बीच चीनी लामा ने धोखे से किंथुप को गाँव के एक अमीर को 50 रूपये में बेच दिया और स्वयं गायब हो गया।

किंथुप अब गाँव के ‘जोंगपो ’ का दास बनकर रह गया। नौ माह बाद जब वह किसी प्रकार वहाँ से भाग निकलने में सफल हुआ तो बजाय वापिस लौटने के उसने अकेले ही अधूरे अभियान को पूरा करने की ठान ली। लगातार भूख और ठंड से जूझते हुए, वह जंगली जानवरों, ख़ून चूसने वाले मक्खी-मच्छर, जौंक और जहरीले साँप व अजगरों से बचते-बचाते, भयानक नदी नालों और जंगलों को सांगपो के समानान्तर पार करता रहा।

अंतत: वह ‘पेमाको क्षेत्र’ के एक छोटे से मठ ‘मारपुंग’ में आ पहुँचा। लेकिन भाग्य अब भी उसके साथ नहीं था। ‘जोंगपो’ के आदमियों ने पीछा करते हुए उसे यहाँ धर दबोचा; तथापि यहाँ के मठाधीश ने पचास रूपये देकर ‘किंथुप’ का उनसे पीछा छुड़ाया और अपने पास रख लिया। अब वह ‘मारपुंग’ गोम्पा के मठाधीश का ज़रख़रीद गुलाम था।

लगभग दो वर्ष तक विभिन्न झंझावतों से गुज़रते हुए जब एक बार किंथुप को मठाधीश से तीर्थयात्रा पर जाने की अनुमति मिली तो उसने पूर्व निर्धारित रणनीति के अनुसार निशान लगे पाँच सौ लकड़ी के लट्ठे तैयार कर इनको एक गुफा में छुपा दिया। इसके पश्चात किंथुप ने अपनी आपबीती और लट्ठों को नदी में डालने के कार्यक्रम के बारे में एक पत्र लिखवाकर ‘ल्हासा’ से किसी जानकार के माध्यम से, हिंदुस्तान में ‘कैप्टन हरमन’ को भिजवा दिया और गोम्पा लौट आया।

नौ माह बाद एक बार फिर उसने मठाधीश से किसी पवित्र पहाड़ की तीर्थयात्रा पर जाने की अनुमति मांगी। इस बार मठाधीश ने न केवल उसे तीर्थयात्रा के लिए इजाज़त दी बल्कि सदा- सदा के लिए अपनी दासता से भी मुक्त कर दिया।

किंथुप यहाँ से चलकर सीधे उस गुफा में पहुँचा जहाँ उसने लकड़ी के पाँच सौ लट्ठे छुपा कर रखे थे। अब उसने ‘कैप्टन हरमन’ को लिखे पत्र के अनुसार, तिब्बती कलैंडर की एक निश्चित तारीख से सांगपो नदी में प्रतिदिन 50 लट्ठों के हिसाब से कुल 500 लट्ठों को दस दिन में प्रवाहित किया। योजना के मुताबिक लकड़ी के ये लट्ठे यदि असम में ब्रह्मपुत्र में कहीं दिखाई दिए तो इस बात की पुष्टि हो जाती कि ब्रह्मपुत्र ही तिब्बत की सांगपो है।

अपने अभियान का महत्त्वपूर्ण कार्य संपादित करने के बाद ‘किंथुप’ सांगपो के साथ दक्षिण की ओर चल पड़ा और लगभग चार वर्ष बाद सन 1884 में दार्जिलिंग पहुँचा। इतना सब करने के बावजूद, जब किंथुप ने दार्जिलिंग पहुँच कर अपनी दास्तां वहाँ के ब्रिटिश अधिकारी को सुनाई, तो किसी ने उसकी बात पर सहज विश्वास नहीं किया।

जिस अंग्रेज़ अधिकारी ‘हरमन’ ने किंथुप को इस अभियान पर भेजा था उसकी एक बीमारी के कारण मृत्यु हो चुकी थी। किंथुप ने जो पत्र ल्हासा से कैप्टन हरमन के लिए भिजवाया था वह शायद किसी ने पढ़ा भी नहीं। बहुत वर्षों पश्चात, सन 1913 में अन्वेषणकर्ता ‘फ़्रेडरिक मार्शमेन बैले’ की रिपोर्ट में यह स्वीकार किया गया कि किंथुप का सर्वे सटीक था।

इस प्रकार के खोजी अभियान आगे भी जारी रहे और बाद के वर्षों में इन अन्वेषणों की कड़ियाँ मिलाकर सांगपो के उद्गम स्थल से ब्रह्मपुत्र तक के मार्ग का ठीक-ठीक आंकलन किया जा सका। ब्रिटिश सर्वे कर्ताओं ने सांगपो नदी के निचले भाग की तुलना कश्मीर घाटी से की और सांगपो के मार्ग को असम को तिब्बत से जोड़ने वाला भविष्य का संभावित मार्ग माना।

इन अन्वेषणों में स्थानीय आदिवासियों सहित हज़ारों लोगों और सैनिकों ने प्राण गवाएँ। उस समय की भयानक व प्रतिकूल परिस्थितियों में सांगपो और ब्रह्मपुत्र के मध्य पेमाको क्षेत्र के अज्ञात संबंधों की गुत्थी को सुलझाने वाला किंथुप संभवत: पहला व्यक्ति था। इस अभियान में किंथुप द्वारा झेले गए शारीरिक और मानसिक कष्ट, स्तब्ध करते हैं।

अनपढ़ होने के बावजूद, बिना किसी विशेष मेहनताने या पद-प्रतिष्ठा के लालच के,उसकी कर्तव्यपरायणता, उद्देश्य पूर्ति का जुनून और तमाम प्रतिकूल परिस्थितियों में भी बुलंद हौसलों के साथ आगे बढ़ते रहने का अदम्य साहस व जीवटता बेमिसाल है।

तिब्बत में हिमालय का चक्कर लगाती सांगपो, पूर्व की ओर घने स्थानापन्न जंगलों से होकर ‘पेमाको’ के पवित्र क्षेत्र से गुज़रती है। ‘पेमाको चुंग ’ नामक मठ से दो मील की दूरी पर सांगपो, 100 से भी अधिक फ़ुट की ऊँचाई से एक पहाड़ी चोटी ‘सिंजी चोग्याल’ पर गिरती है। वहाँ तलहटी में एक बड़ी झील है, जहाँ सदैव अनुपम इंद्रधनुषों के चारों ओर धुँध के बादल तैरते रहते हैं। पेड़ों की असंख्य प्रजातियाँ और बाँस से समृद्ध जंगल सदैव पहाड़ियों को ढांपे रखते हैं।

यह वह क्षेत्र है जहाँ 1998 से पूर्व कोई भी बाहरी व्यक्ति पहुँचने में सफल नहीं हुआ। ‘पेमाको चुंग ’ मठ से आगे सांगपो उत्तर की ओर बढ़ते हुए अचानक यू-टर्न लेती है; इस यू-टर्न को ‘द ग्रेट बेंड’ भी कहा जाता है। इस बेंड का चक्कर लगाती यह नदी, लगभग 7500 फ़ुट तक की ऊँचाई खो देती है।

इस तथ्य से इस स्थान पर किसी सैलाब की तरह बहती नदी और उसमें समाहित अपार जल शक्ति का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है-जो चीनी शासकों के लिए एक गुप्त खजाने से कम नहीं। यहाँ ‘पो-सांगपो’ नदी का इसमें समागम होता है और फिर यह दक्षिण की ओर रुख़ करती है।

‘द ग्रेट बेंड’ के आसपास की हिमाच्छादित पहाड़ी ढलानों से परावर्तित सूर्य के दिव्य प्रकाश पुञ्ज, सम्पूर्ण ‘पेमाको’ क्षेत्र को आलोकित करते हैं। प्रकृति के इस मंत्रमुग्ध कर देने वाले सौन्दर्य, चिर-आध्यात्मिक शांति, विशुद्ध प्राणवायु और निर्मल जल को अपनी लहरों में समेटे, सांगपो, जब अरुणाचल में प्रवेश करती है तो सियांग या दिहांग कहलाती है!

यार्लुंग सांगपो या यार्लुंग जंगबो का वास्तविक उद्गम स्रोत ‘कुंग्यु झील’ और हिमालय की कैलाश पर्वत शृंखला पर मानसरोवर झील से लगभग तरेसठ किलोमीटर दक्षिण पूर्व में स्थित ‘कांग्लुंग-कांग’ ग्लेशियर हैं। यह समुद्र तल से लगभग चार हज़ार नौ-सौ मीटर की ऊँचाई पर स्थित अपने उद्गम स्थल से लोहित (पासीघाट) तक के एक हज़ार नौ सौ किलोमीटर के लंबे सफ़र का अधिकांश भाग (एक हज़ार छ: सौ बीस किलोमीटर) तिब्बत में और शेष (दो सौ अस्सी किलोमीटर) भारत में ‘सियांग ’ के रूप में तय करती है।

प्रदेश की पाँच प्रमुख नदियों; ‘तिरप’, ‘सुबनसिरी’, ‘लोहित’, ‘सियांग’ और ‘कामेंग’ में सबसे लंबी नदी सियांग है, जो ‘सियोमी’, ‘दिबांग’ और ‘लोहित’ जैसी नदियों के साथ मिलकर पासीघाट में विश्व की प्रमुख नदियों में से एक ब्रह्मपुत्र का निर्माण करती हैं। असम में आगे चलकर ‘सुबनसिरी’ और ‘कामेंग’ नदियां भी ब्रह्मपुत्र में समाहित हो जाती हैं। फिर यह गुवाहाटी होते हुए बांग्लादेश की ओर बढ़ती है।

बांग्लादेश में इसका नामकरण ‘जमुना’ हो जाता है और ‘गंगा’ नदी, जोकि ‘पद्म’ नदी के नाम से जानी जाती है, से मिलकर यह विश्व के सबसे विशाल डेल्टा ‘गंगा-ब्रह्मपुत्र’ डेल्टा का निर्माण करती हैं।

वहाँ से ये दोनों नदियाँ मिलकर बन जाती हैं ‘मेघना’ और अपना आगे का अंतिम सफ़र तय करते हुए बंगाल की खाड़ी में विलीन हो जाती हैं। इस प्रकार विभिन्न नामों से जानी जाने वाली ब्रह्मपुत्र, अपने उद्गम स्थल से कुल 2880 किलोमीटर का सफ़र तय करते हुए, विश्व की तीसरी और भारत की सबसे बड़ी नदी होने का गौरव हासिल करती है।

भौगोलिक दृष्टि से अरुणाचल प्रदेश एक पर्वतीय राज्य है। उत्तर पूर्व हिमालय की तेईस हज़ार फ़ुट ऊँची चोटी ‘कांगतो’, जो कि तिब्बत की सीमा से सटी है; राज्य की सर्वाधिक ऊँची चोटी भी है। प्रदेश की अंतरराष्ट्रीय सीमाएँ पश्चिम में भूटान से एक सौ साठ किलोमीटर, उत्तर व उत्तर पूर्व में तिब्बत (अब चीन) से एक हज़ार अस्सी किलोमीटर और पूर्व में चार सौ चालीस किलोमीटर म्यामार से लगती हैं।

सन 1823 से 1861 की एंग्लो-बर्मीज लड़ाई से पूर्व ऊपरी सियांग एक स्वतंत्र क्षेत्र था। इस लड़ाई के पश्चात अंग्रेजों ने इसे अपना विजित इलाका घोषित कर दिया। ब्रिटिश हुकूमत ने ईस्वी सन 1914 में इसे ‘उत्तर-पूर्व सीमांत भू-भाग’, नेफ्ट का नाम दिया जो स्वतन्त्र भारत में वर्ष 1951 में ‘उत्तर-पूर्व सीमांत अभिकरण’ नेफ़ा के नाम से जाना जाने लगा। और अंतत: 20 फ़रवरी, 1987 को अरुणाचल प्रदेश को भारतीय गणतन्त्र के पूर्ण राज्य का दर्जा हासिल हुआ।

इस प्रदेश का उल्लेख कालिका पुराण और महाभारत के साहित्य में भी मिलता है। पुराणों में इस प्रदेश का वर्णन ‘प्रभु पर्वत’ के रूप में पाया गया है। ऐसा माना जाता है कि यहीं पर ऋषि परशुराम ने अपने पाप का प्रायश्चित किया, ऋषि व्यास ने ध्यान लगाया, राजा भीष्मक ने अपना राज्य स्थापित किया और भगवान श्री कृष्ण ने रुक्मिणी से विवाह रचाया।

एक पड़ोसी के नाते, सदियों से तिब्बत के अरुणाचल प्रदेश से गहरे व्यापारिक और सांस्कृतिक संबंध रहे हैं। सहज तिब्बती बौद्ध धर्म ने प्रदेश में आध्यात्मिक चेतना की एक नई ज्योत प्रज्ज्वलित की वहीं अथाह जल से लबरेज़ तिब्बती नदियों ने यहाँ की वन सम्पदा, प्राणियों और जीव-जंतुओं की तमाम मूलभूत ज़रूरतों की पूर्ति करते हुए उनका भरण-पोषण किया है।

पर्यावरण का सम्मान करना, तिब्बती लोगों के संस्कारों में है। जंगलों, नदियों और पर्वतों का मूल्य वे अपने धर्म और पूर्वजों के उन तौर तरीकों से सीखते हैं, जिनके द्वारा उन्होंने हज़ारों वर्षों से अपनी धरती की रक्षा की। शायद इन्हीं संस्कारों के कारण तिब्बती, सदियों से अपनी प्राकृतिक विरासत को बचाने में सफल रहे हैं।

1950 ईस्वी तक अत्यंत कम जनसंख्या वाला धार्मिक और शान्तिप्रिय राष्ट्र तिब्बत, चीन की सीमा पर अपने स्वायत्त प्रभुत्व को अक्षुण बनाए हुए था; लेकिन सन 1950 में चीन की नई कम्युनिस्ट सरकार ने इसे स्थायी रूप से ‘पीपल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना’ में शामिल कर लिया। तिब्बत पर कब्जे के बाद चीन ने इस क्षेत्र के असीमित प्राकृतिक संसाधनों के दोहन के लिए अपनी पूरी शक्ति झोंक दी। वर्षों तक विशाल पैमाने पर सर्वेक्षण किए गए और इन दुर्गम पहाड़ी इलाकों में बांधों, सड़कों और रेलमार्गों के निर्माण की योजनाओं को धीरे-धीरे अमली जामा पहनाने की प्रक्रियाएँ आरंभ कर दी गईं।

वर्ष 2017 में भूटान और सिक्किम की सीमावर्ती ‘चुम्बी’ घाटी में ‘डोकलाम’ को लेकर लम्बे समय तक भारत व चीन, दोनों देशों की सेनाओं के बीच तनातनी रही। 15 जून 2020 के रोज, चीनी सैनिकों ने लद्दाख की गलवान घाटी में धोखे से हमारे बीस जवानों को घेर कर मार डाला। शांति काल में चीनी सीमा पर, इससे पूर्व कभी इतनी बड़ी संख्या में हमारे जवान शहीद नहीं हुए थे।

विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, इस सदी की सबसे बड़ी त्रासदी बन चुके ‘कोरोना’ का पहला प्रकरण, दिनांक 8 दिसंबर, 2019 को चीन में ही पाया गया। अभी दो वर्ष भी नहीं हुए हैं कि इसने करोड़ों लोगों को अपनी चपेट में ले लिया है, लाखों मारे जा चुके हैं; बड़ी बड़ी अर्थव्यवस्थताएँ ध्वस्त हो गईं हैं।

चीन से निकला यह जिन्न, जैसे पूरी मानव जाति को निगलने पर आमादा है। यदि यह वायरस प्रकृति जनित है तो किसी पर दोषारोपण नहीं किया जा सकता। लेकिन इसके वुहान की एक प्रयोगशाला में ईजाद किए जाने की अपुष्ट खबरें, जिन्हें चीन की विश्व शक्ति बनने की कुत्सित, भयानक और विध्वंसक सोच से जोड़कर देखा जा रहा है; बेहद डरावनी और दिल दहलाने वाली हैं।

और इधर गत कुछ वर्षों से सियांग नदी के माध्यम से भी चीन एक नई समस्या भारत को परोस रहा है; जो किसी भी संदेह से परे है। यह समस्या है सियांग का कालापन। कभी स्वच्छ और नीलवर्ण रहने वाला सियांग का पानी अब काला हो चला है। ऐसे लगता है मानो इसमें सीमेंट जैसी कोई वस्तु मिली हो। नदी के किनारे की सुनहरी बलुई मिट्टी भी अब कालापन लिए हुए गाद-युक्त हो चुकी है।

क्या यह महज एक संयोग है? या किसी विशाल भू-स्खलन के कारण ऐसा हो रहा है? लेकिन भू-स्खलन से उत्पन्न गाद और मैलापन या वर्षा काल के कारण पानी में मैलापन क्या वर्ष-पर्यन्त बना रह सकता है? कुछ लोग आशंका व्यक्त करते हैं कि चीन सांगपो नदी पर विशाल बांधों का निर्माण कर रहा है और उसके पानी को अन्य क्षेत्रों में ले जाने की बड़ी योजनाएँ बना रहा है। हो सकता है वह सैंकड़ों किलोमीटर लंबी सुरंगों का निर्माण कर रहा हो। सियांग जैसी विशाल नदी के जल का स्थायी रूप से रंग परिवर्तन कोई साधारण घटना नहीं हो सकती।

सतत प्रदूषण का कारण नदी के मार्ग में व्यापक स्तर पर निर्माण कार्यों का होना अधिक तर्कसंगत है। सियांग का कालापन एक चेतावनी है और इसके वास्तविक कारणों को जानने के प्रति लापरवाही या उदासीनता, कालांतर में सम्पूर्ण पूर्वोत्तर के लिए विनाशकारी साबित हो सकती है!

विस्तारवादी चीन ने सन 1962 में हिन्दी चीनी भाई-भाई का नारा देते हुए भारत की पीठ में खंजर घोंपा था। अक्साई चीन में उसने पूर्वी लद्दाख की अड़तीस हज़ार वर्ग किलोमीटर ज़मीन हथिया ली। भारत की अंतरराष्ट्रीय सीमा को लेकर वह सदैव नए-नए विवादों को जन्म देता रहा है। गाहे बगाहे चीन अरुणाचल प्रदेश पर भी अपना दावा ठोकता रहता है।

परंतु इतिहास, चीन के इन खोखले दावों को नकारता है। ब्रिटिश राज के अलावा वे कभी किसी विदेशी साम्राज्य के अधीन नहीं रहे। दुर्गम भौगोलिक परिस्थितियों ने बाहरी प्रत्यक्ष हस्तक्षेप के विरुद्ध, आदिवासियों के लिए एक सुरक्षा कवच का काम किया है। सम्राट चाहे जो भी रहा, प्रदेश के आदिवासी, सदैव संप्रभु कबीलों के रूप में रहते आए हैं-भारत की आज़ादी से पूर्व भी और पश्चात भी। जल, ज़मीन व जंगल से उनका अविभाज्य और निर्विकार रिश्ता आज भी कायम है।

इस संप्रभुता ने न केवल इनकी सभ्यता व संस्कृति, आचार-विचार, खान-पान और लोक परंपराओं को आज तक अक्षुण बनाए रखा बल्कि राजनैतिक व आर्थिक मोर्चे पर भी उन्हें अपने अनुकूल निर्णय लेने की आज़ादी प्रदान की। यही कारण हैं कि यहाँ के आदिवासी, विकसित समाज के शोषण और गुलामी से बचे रहे और धीरे-धीरे ही सही शिक्षा, रोजगार और व्यवसाय के क्षेत्रों में सम्मानजनक सोपान तय करते रहे।

लेकिन यह भी सच है कि पिछले कुछ एक दशकों से पक्के मकानों, गाङियों व पाश्चात्य तड़क-भड़क की लालसा, यहाँ के बाशिंदों को अपने मोहपाश में जकड़ते हुए तीव्र उपभोक्तावाद की ओर धकेल रही है। हालांकि पक्की सड़कों और पुलों ने आवागमन को सुगम तो बना दिया है, परंतु इनसे बाहरी लोगों के यहाँ व्यावसायिक, राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक व सांस्कृतिक हस्तक्षेप की संभावनाएँ भी बढ़ गई हैं।

यदि इस क्षेत्र में विकास के नाम पर अनियंत्रित व अंधाधुँध गतिविधिओं को बढ़ावा दिया गया तो उत्तरकाल में इसके भयावह दुष्परिणाम हो सकते हैं। हिमालयी वनोपज़, जीव-जन्तु, नदियाँ और ग्लेशियर्स; चीन, तिब्बत व भारतीय उपमहाद्वीप के राष्ट्रों सहित दुनिया की लगभग आधी आबादी को प्रत्यक्षत: प्रभावित करते हैं।

इस सम्पूर्ण क्षेत्र के पर्यावरणीय, सामरिक और पारिस्थितिकी संतुलन को बनाए रखने में हिमालयीन पर्वत शृंखलाओं, नदियों और जंगलों की अहम व निर्विकार भूमिका है। इन सबके मद्देनज़र प्राकृतिक संसाधनों के दोहन में अत्यंत सावधानी रखने और विकास के एक संतुलित उपागम को बनाए रखने की आवश्यकता है।

लगातार................................ 

Publication- Nonfiction -31st May, 2022 Bodhi Publisher Jaipur, 184 Pages 
Selected parts published in Sahitya Saraswati Magazine of Sagar M.P. in the year 2022

सफ़रनामा तस्वीरों की बानगी


वर्ष 1989 में  तुतिंग ए.एल.जी. पर (बाएँ से), दावा दोल्मा, सोनम व लेखक और पेमा वांगचु


आकेंग निजो के साथ लेखक, तुतिंग का स्वागत द्वार  वर्ष -1988


29 सितंंबर, 2019: नाहरलगुन रेलवे स्टेशन- ईटानगर


29 सितम्बर, 2019: गंगा झील, ईटानगर 

29 सितम्बर, 2019: गंगा झील, ईटानगर के पास  स्थानिय शाक-सब्जी और बेम्बू शूट्स 


30 सितंबर, 2019: ‘थुप्तेन गात्सेलिंग विहार’ईटानगर


30 सितंबर, 2019: ‘थुप्तेन गात्सेलिंग विहार’ईटानगर (ऋषभ वर्मा)


30 सितम्बर, 2019: बौद्ध स्तूप, ईटानगर


30 सितंबर, 2019: ‘थुप्तेन गात्सेलिंग विहार’ईटानगर


30 सितंबर, 2019: इंदिरा गांधी उद्यान, ईटानगर


30 सितम्बर, 2019: दोन्यी-पोलो मंदिर, ईटानगर


30 सितम्बर, 2019: राजीव गांधी विश्वविद्यालय- दोईमुख, ईटानगर
हिन्दी विभाग के
विद्यार्थियों व शोधार्थियों के साथ लेखक  एवं परिवार के सदस्य


30 सितम्बर, 2019: राजीव गांधी विश्वविद्यालय- दोईमुख, ईटानगर
बाएँ से, सर्वश्री डॉ. राजीव रंजन प्रसाद, डॉ. श्याम शंकर सिंह (विभागाध्यक्ष), डॉ. विश्वजीत कुमार मिश्र,
डॉ. हरीश कुमार शर्मा (डीन), लेखक, श्रीमती निर्मला, डॉ. जमुना बीनी तादर और डॉ. जोराम यालाम 

30 सितम्बर, 2019: ईटाफोर्ट-ईटानगर


1 अक्टूबर, 2019: सुबनसिरी नदी


1 अक्टूबर, 2019:  मिथुन -अरुणाचल प्रदेश का राजकीय पशु


1 अक्टूबर, 2019: पासीघाट से यिंगकिओंग मार्ग के समानान्तर बहती सियांग नदी


1 अक्टूबर, 2019: एक आदिवासी युवती: हथकरघे पर कपङा बुनती हुई


1 अक्टूबर, 2019: पासीघाट-यिगकिओंग मार्ग पर एक आदिवासी झोंपड़ी 


1 अक्टूबर, 2019: यिंगकिओंग का निरीक्षण बंगला


1 अक्टूबर, 2019: अपर मार्केट यिंगकिओंग


1 अक्टूबर, 2019:  एक पारम्परिक झोंपङी- यिंगकिओंग


2 अक्टूबर, 2019: यिंगकिओंग के नज़दीक  सियांग पर बना ब्योरुंग पुल


2 अक्टूबर, 2019: ब्योरुंग पुल के पास पुराना झूलता गाँधी पुल


2 अक्टूबर, 2019: ब्योरुंग पुल के पास पुराना झुलता गाँधी पुल 

2 अक्टूबर, 2019:यिंगकिओंग से जान्बो के मध्य कहीं रास्ते पर



2 अक्टूबर, 2019: पहाङी रास्ते पर आवासीय झोंपङियां


2 अक्टूबर, 2019: मौलिंग टी गार्डन (यिंगकिओंग के पास)


2 अक्टूबर, 2019: जान्बो गाँव 


2 अक्टूबर, 2019: रास्ते में विचरण करते 'मिथुन' का एक झुंड


2 अक्टूबर, 2019: जान्बो गाँव  की दुकानें 


2 अक्टूबर, 2019: जान्बो गाँव  के एक मैदान में 


2 अक्टूबर, 2019: जान्बो गाँव 


2 अक्टूबर, 2019: सड़क किनारे ढाबा (जान्बो से तुतिंग मार्ग पर)


2 अक्टूबर 2019: सङक किनारे ढाबे पर दिन का भोजन करते हुए


2 अक्टूबर, 2019: नार्को दिंगो जलप्रपात 


2 अक्टूबर, 2019: नार्को दिंगो जलप्रपात 


2 अक्टूबर, 2019: तुतिंग - लामांग तेदो मोबाइल की रोशनी में 1988-89 की 
पुरानी फोटो देखती हुई (साथ में हैंं,यालम तातिन और लेखक)



तुतिंग-लामांग तेदो के घर में लामांग, लेखक व वायु सेना साथी, वर्ष 1988-89


02 अक्टूबर, 2019: तुतिंग- कामुत के घर में रात्री भोज 


3 अक्टूबर, 2019: गेल्लिंग बस्ती में दोर्जी वांगचु का आवास


3 अक्टूबर, 2019: गेल्लिंग में दोर्जी वांगचु के साथ लेखक


3 अक्टूबर, 2019: गेल्लिंग बस्ती में दोर्जी वांगचु का पूजा गृह



तीन सौ फ़ुट सीधे नीचे गिरने वाले इस झरने को सिविदिलिंगोया सिबि जल-प्रपात कहते हैं। यह बिशिंग बस्ती में केयपांग-दर्रे के पास है जो कभी तिब्बत व भारत के मध्य व्यापार का मुख्य मार्ग था। बिशिंग, सियांग नदी के उस पार की हिंदुस्तान की आख़िरी बस्ती है तो गेल्लिंग इस पार की। जलप्रपात की गिरती हुई जलधारा को गेल्लिंंग से लगभग साढ़े चार किलोमीटर दूर से भी साफ़-साफ़ देखा जा सकता है. (3 अक्टूबर 2019)


3 अक्टूबर, 2019: गेल्लिंग बस्ती में दोर्जी वांगचु का पूजा गृह


3 अक्टूबर, 2019: गेल्लिंग बस्ती में दोर्जी वांगचु का पूजा गृह


3 अक्टूबर, 2019: गेल्लिंग बस्ती में दोर्जी वांगचु का पूजा गृह
(बांए से - यालम तातिन, याकेन निजो, निर्मला वर्मा, शेफाली और ओलाक )


3 अक्टूबर, 2019: गेल्लिंग बस्ती में दोर्जी वांगचु का आवास

                                      
तुतिंग और गेल्लिंग के बीच स्थित 'चाता री ' झरना :याकेन और निर्मला : 3 अक्टूबर 2019


सियांग के एक किनारे से दूसरे किनारे सामान पहुंचाने के लिए
रोपवे के सहारे झुलती एक लोहे की टोकरी (3 अक्टूबर, 2019)

                                                               
  
औपचारिक आदी परिधान में लामांग़ तेदो के पिता लातोंग़ तेदो’ की एक तस्वीर
 


3 अक्टूबर, 2019: तुतिंग  बस्ती का एक छोर


3 अक्टूबर, 2019: न्यसांग डोंगक जंगचुब धारजे लिंग निंगमा मठ-तुतिंग 


4 अक्टूबर, 2019: पाल्युल बौद्ध मंदिर, तुतिंग


3 अक्टूबर, 2019:  तथागत गौतम बुद्ध - पाल्युल मंदिर तुतिंग


4 अक्टूबर, 2019: ए.टी.सी. परिसर, अग्रिम हवाई पट्टी, तुतिंग 
जे.डबल्यू.ओ. रजत (बाएँ से दूसरे)

वर्ष 1989 तुतिंग अग्रिम हवाई पट्टी पर दुर्घटनाग्रस्त सतलुज का मलबा
तस्वीर में पुष्पेन्द्र यादव, लेखक और सोनम-ली-जिंग


4 अक्टूबर, 2019: ‘गेलोंग मेदो’ का घर तुतिंग 


तस्वीर में पीछे जो एक टीन शेडेड ईमारत नजर आ रही है ,
यही वायुसैनिकों का 1988-89 में रिहायशी क्वार्टर
हुआ करता था. (लेखक और लामांग तेदो- तुतिंग 04 अक्टूबर, 2019)


 
4 अक्टूबर, 2019:  क्राफ़्ट सेंटर, तुतिंग के हस्तशिल्प


4 अक्टूबर, 2019: तुतिंग का प्रसिद्ध हैंगिंग ब्रिज-'लादुंग'


4 अक्टूबर, 2019: सियांग किनारे: याकेन, यालम, निर्मला, ओलाक और कामुत के साथ लेखक


4 अक्टूबर, 2019: लादुंग ब्रिज के नीचे सियांग नदी


4 अक्टूबर, 2019:  सियांग नदी पर झूलता पुल (हैंगिंग ब्रिज)-तुतिंग


4 अक्टूबर, 2019: कामुत के फ़ार्म हाउस -(तुतिंग) पर पिकनिक


4 अक्टूबर, 2019: कोदाक ब्रिज (तुतिंग) पर याकेन निजो


तुतिंग का हैंगिंग ब्रिज 1989: लेखक के साथ, परवीर कुमार, पुष्पेंद्र और अमित आदि


5 अक्टूबर, 2019: लामांग तेदो के साथ लेखक (तुतिंग)


मेचुका अग्रिम हवाई पट्टी पर एम. आई.-17  हेलिकॉप्टर और वायुसैनिक साथी: 1988-89


6 अक्टूबर, 2019: पासीघाट में सियांग किनारे सुश्री इंग परमे (दाहिनी ओर)


7 अक्टूबर, 2019: दुर्गा उत्सव का एक दृश्य: डिब्रूगढ़



समीक्षा: ‘ब्रह्मपुत्र से सांगपो : एक सफरनामा’ (यात्रा वृत्तांत): 25 दिसंंबर, 2022
समीक्षक: श्री वीरेन्द्र परमार
लेखक - दयाराम वर्मा, प्रकाशक-बोधि प्रकाशन, जयपुर,
प्रथम संस्करण: वर्ष-2022, मूल्य- रू.200/-, पृष्ठ-184


नैसर्गिक सौंदर्य, सदाबहार घाटी, वनाच्‍छादित पर्वत, बहुरंगी संस्‍कृति, समृद्ध विरासत, बहुजातीय समाज, भाषायी वैविध्‍य एवं नयनाभिराम वन्‍य-प्राणियों के कारण देश में अरुणाचल का विशिष्‍ट स्‍थान है। लोहित, सियांग, सुबनश्री, दिहिंग इत्यादि नदियों से अभिसिंचित अरुणाचल की सुरम्‍य भूमि में भगवान भाष्‍कर सर्वप्रथम अपनी रश्‍मि विकीर्ण करते हैं। इसलिए इसे उगते हुए सूर्य की भूमि कहा जाता है । अरुणाचल प्रदेश के आदी, न्यिशी, आपातानी, तागिन, सुलुंग, मोम्पा, खाम्ती, शेरदुक्पेन, सिंहफ़ो, मेम्बा, खम्बा, नोक्ते, वांचो, तांगसा, मिश्मी, बुगुन, आका, मिजी इत्यादि आदिवासियों की प्राकृतिक जीवन शैली किसी भी सभ्य समाज के लिए अनुकरणीय है। 

अरुणाचल प्रदेश की अधिकांश जनजातियां ‘दोन्यी–पोलो’ के प्रति अपनी श्रद्धा निवेदित करती हैं, लेकिन दोन्यी–पोलो की अवधारणा के संबंध में मतभिन्नता है। सामान्यतः इसे सूर्य और चंद्रमा का प्रतीक माना जाता है I इसे सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापी, सर्वांतर्यामी और सर्वहितकारी माना जाता है। यह नैतिकता, प्रेम और अच्छाई का आध्यात्मिक स्रोत है। दोन्यी–पोलो वादियों के अतिरिक्त इस प्रदेश में बौद्ध धर्मावलंबी भी रहते हैं। यहाँ बौद्ध धर्म की जड़ें बहुत गहरी हैं। श्री दयाराम वर्मा ने अपनी पुस्तक ‘ब्रह्मपुत्र से सांगपो : एक सफरनामा’ में अरुणाचल प्रदेश के सांस्कृतिक, सामाजिक व धार्मिक विशिष्टताओं को रेखांकित किया है। उन्होंने इस यात्रा वृत्तांत में इतिहास, समाजशास्त्र, नृविज्ञान, लोक साहित्य सबको समेट लिया है जिसका प्रतिफल है कि यह पुस्तक अरुणाचल प्रदेश का एक सर्वसमावेशी रूप प्रस्तुत करती है। 

वर्मा जी किसी सैलानी की भांति प्रदेश का भ्रमण नहीं करते, बल्कि वे लोकजीवन में डूबकर वहाँ से मोती की खोज करते हैं और सकारात्मकता के पुष्प-पराग बिखेरते हैं। यह पुस्तक अरुणाचल प्रदेश की एक मुकम्मल छवि प्रस्तुत करती है। इस यात्रा वृत्तांत को पढ़ते हुए मैं 29-30 वर्ष पहले अपने ईटानगर प्रवास की स्वर्णिम स्मृतियों में खो गया। वर्माजी ने अत्यंत लगन और निष्ठा से इस सफरनामा को आकार दिया है। यह सफरनामा अनेक कारणों से विशिष्ट है। प्रस्तुत पुस्तक लेखक की सकारात्मकता, मिट्टी से जुड़ाव, लोकपरंपरा के प्रति आदर भाव और संवेदनशीलता का साक्षी है। 

पुस्तक 14 अध्यायों में विभक्त है। प्रथम अध्याय ‘यार्लुंग सांगपो से ब्रह्मपुत्र’ में अरुणाचल प्रदेश की भौगोलिक, सांस्कृतिक और धार्मिक पृष्ठभूमि का संक्षिप्त परिचय दिया गया है। उन्होंने यार्लुंग सांगपो के बारे में लिखा है-‘यार्लुंग सांगपो, गंगा व सिंधु सहित हिमालय से निकलने वाली अनेक नदियों के जलस्रोत, हजारों वर्ग किलोमीटर में फैले तिब्बत के विशाल ग्लेशियर्स हैं। तिस पर भी सियांग नदी के उद्गम स्रोत और वहाँ से इसके भारत में प्रवेश के मार्ग के बारे में उन्नीसवीं सदी के अंत तक कोई ठोस प्रमाण नहीं था।’ इस प्रदेश का उल्लेख कालिका पुराण और महाभारत में भी मिलता है। वर्मा जी ने लिखा है-‘पुराणों में इस प्रदेश का वर्णन ‘प्रभु पर्वत’ के रूप में पाया जाता है। ऐसा माना जाता है कि यहीं पर ऋषि परशुराम ने अपने पाप का प्रायश्चित किया, ऋषि व्यास ने ध्यान लगाया, राजा भीष्मक ने अपना राज्य स्थापित किया और भगवान श्री कृष्ण ने रुक्मिणी से विवाह रचाया। ’द्वितीय अध्याय ‘अद्भुत संयोग’ में लेखक ने पुस्तक की रचना प्रक्रिया, 27 वर्ष पहले वायु सैनिक के रूप में अरुणाचल में व्यतीत समय, भौगोलिक कठिनाइयों, अपने सहयोगियों का सान्निध्य, अरुणाचल भ्रमण की रूपरेखा इत्यादि का विस्तार से वर्णन किया है। इस अध्याय में उन्होंने अपने मित्रों और सहयोगियों की सदाशयता के लिए उन्हें धन्यवाद ज्ञापित किया है। 

यात्रा वृत्तांत के तृतीय अध्याय ‘ईटानगर : स्थानीय भ्रमण’ में ईटानगर के महत्वपूर्ण स्थलों का विवरण दिया गया है। लेखक ने ईटानगर स्थित जैविक उद्यान, बौद्ध गोम्पा, नेहरू संग्रहालय, गंगा झील इत्यादि का विवेचन किया है। लेखक ने ईटानगर के प्राकृतिक सौंदर्य का मनोहारी चित्र खींचते हुए लिखा है-‘यहाँ से सामने की पहाड़ी ढलानों पर बसे शहर का अधिकांश भाग देखा जा सकता था। शेष तीन दिशाओं में जंगलों से ढंकी छोटी-बड़ी पर्वत शृंखलाएँ थीं जिन पर काले-भूरे बादलों का डेरा था। आसमान में भी घने बादलों के समूह उमड़-घुमड़ रहे थे। कभी-कभी बादलों की किसी दरार को चीरते हुए सूरज की किरणें वादी को रोशन कर जातीं, लेकिन पुनः अगले ही पल उस दरार को कोई बदली ढांप देती और क्षणिक उजास लुप्त हो जाता।’ 

चतुर्थ अध्याय ‘ईटाफोर्ट और दोइमुख’ में ईटाफोर्ट, नाहरलगुन, दोइमुख, रोनोहिल्स इत्यादि का वर्णन किया गया है। आधुनिकता की दौड़ में आदिवासी जीवन शैली में बदलाव हो रहा है। वर्मा जी ने इस बदलाव की ओर संकेत किया है- ‘उन्नत जीवन के सपनों, आधुनिकता की चकाचौंध, मुआवजे और अस्थायी नौकरी के लालच में फाँसकर विकास रूपी अजगर आदिम सभ्यता की मौलिकता को अपने नशीले सम्मोहन में जकड़े शनैः शनैः निगलता जा रहा है। जनजातियों की विलुप्त होती जा रही पुरातन जीवन शैली के विषाद की यथार्थ अनुभूति स्वयं एक आदिवासी से बढ़कर भला और कौन कर सकता है। ’पंचम अध्याय ‘ईटानगर से यिंगकिओंग’ में अरुणाचली जनजातियों की जीवन शैली, हिमालय पर्वत शृंखला का सौंदर्य,सियांग नदी, अरुणाचल के राजकीय पशु मिथुन की उपयोगिता का विवरण है। लेखक ने लिखा है-‘अब यह राजमार्ग अरुणाचल की इनर-लाइन के लगभग समानांतर आगे बढ़ता है और सड़क के दोनों ओर मीलों लंबे धान के लहलहाते खेत नज़र आने लगते हैं। इनमें जहाँ-तहां बाँस व लकड़ी की झोंपड़ियाँ, मछली पालन के लिए छोटे तालाब और गायों व भैसों के विचरण करते झुंड देखे जा सकते हैं। मार्ग में जगह-जगह ब्रह्मपुत्र की ओर सरपट दौड़ लगाती छोटी नदियाँ व नाले आते रहते हैं।’ 

‘यिंगकिओंग से तुतिंग’ शीर्षक अध्याय में लेखक ने आपातानी समुदाय की धान-सह-मछली पालन की प्राचीन कृषि प्रणाली का वर्णन किया है-‘आपातानी जनजातीय कबीले ने आज से कोई पाँच सौ वर्ष पूर्व अरुणाचल प्रदेश में सर्वप्रथम पानी खेती के साथ मछली पालन की शुरुआत की थी। मछली के अतिरिक्त टिड्डे और मेंढक भी पानी खेती में पैदा हो जाते हैं जो खाने के काम आते हैं। झूम खेती को स्थानीय भाषा में आदि-आरिक कहा जाता है जबकि व्यवस्थित खेती को आसि-आरिक। ‘तुतिंग और गेल्लिंग : चीनी सीमा पर आखिरी भारतीय गाँव’ शीर्षक अध्याय में लेखक ने लामांग दीदी से पुनर्मिलन का अत्यंत भावुक वर्णन किया है-‘लामांग दीदी से तुतिंग की धरती पर पुनर्मिलन यक़ीनन मेरे लिए जीवन की एक विशेष संकल्प-सिद्धि थी।’ इस अध्याय में बौद्ध धर्म, बौद्ध प्रतीक और अरुणाचल की बौद्ध धर्मावलंबी जनजातियों की जीवन शैली का विवेचन किया गया है। चीनी सीमा पर स्थित आखिरी भारतीय गाँव गेल्लिंग में मेम्बा जनजाति का निवास है। मेम्बा जनजाति के लोग बौद्ध धर्म की महायान शाखा में आस्था रखते हैं। लेखक ने भारत के अंतिम गाँव में रहनेवाले एक बौद्ध धर्मावलंबी के पूजा कक्ष के बारे में लिखा है-‘छोटे से पूजा कक्ष को बड़े करीने से सामने की दीवार के पास एक लम्बी मेज पर तथागत बुद्ध की धातु की मूर्तियों के अतिरिक्त फ्रेम की हुई तस्वीरें, महामहिम दलाई लामा की एक बड़ी तस्वीर, चीनी-मिट्टी के प्याले, तश्तरियाँ, फूलदानों में सजे पुष्प, लाल रंग के मेजपोश और पीले रंग की झालरें सुशोभित कर रही थीं ।’लोसर,तोरग्या, ध्रुबा, और सोबुम इस गाँव के बौद्ध त्योहार हैं । 

‘लामांग तेदो और याकेन निजो’ शीर्षक अध्याय में तुतिंग के नैसर्गिक सौंदर्य, आदी समुदाय के धार्मिक विश्वास, रीति-रिवाज, गृह निर्माण इत्यादि का विवरण है। मदिरा अरुणाचली जीवन शैली का एक अनिवार्य घटक है। लेखक ने कई बार स्थानीय मदिरा आपोंग का वर्णन किया है। अरुणाचल प्रदेश में चावल या महुआ से बननेवाली मदिरा का नियमित उपयोग किया जाता है जिसे ‘आपोंग’ कहा जाता है। आपोंग के अधिक अल्कोहल वाले रूप को ‘रोक्सी’ कहा जाता है। ‘बेयुल पेमाको, पाल्युन मंदिर और मठ’ शीर्षक अध्याय में बौद्ध धर्म के मठ, गुरु पद्मसंभव की शिक्षा,पाल्युन बौद्ध मंदिर इत्यादि का चित्रण किया गया है। लेखक ने उल्लेख किया है कि बेयुल के पवित्र क्षेत्र को ‘द हिडनलैंड’ के रूप में जानते हैं जो बौद्ध गुरु पद्मसंभव की तपोस्थली रहा है। तथागत बुद्ध ने हीनयान और महायान की शिक्षा दी थी, लेकिन उन्होंने अपने कुछ चुनिन्दा शिष्यों को वज्रयान की शिक्षा प्रदान की थी। गुरु पद्मसंभव ने वज्रयान की शिक्षा को समग्रता प्रदान की। ‘शिल्प केंद्र और अग्रिम हवाई पट्टी’ तथा ‘हैंगिंग ब्रिज, कोदाक ब्रिज और पिकनिक’ शीर्षक अध्यायों में अरुणाचली काष्ठशिल्प, वस्त्रों के प्रकार, विभिन्न पुलों और हवाई पट्टी का वर्णन किया गया है। 

सियांग नदी के बारे में लेखक का कथन पाठकों को भावुक कर देता है-‘सियांग कभी विश्राम नहीं करती, न वह थकती है। वह बूढ़ी भी नहीं होती। जन्म से लेकर आज तक लगातार पहाड़ों की गोद में उछलती-कूदती, दौड़ती सियांग सदैव एक नवयौवना है।’ 

अगले अध्यायों ‘वापसी और स्मृतियों में बसा मेचुका’ एवं ‘पासीघाट का एक यादगार दिन’ में लेखक ने मेचुका नामक खुबसूरत गाँव, इस अंचल में गुरु नानक देव का प्रवास तथा ‘श्री तपो स्थल साहिब जी’गुरुद्वारा के निर्माण के बारे में वर्णन किया है। लेखक ने मेचुका के बारे में लिखा है-‘समुद्र तल से छह हजार फुट की ऊँचाई पर बसा मेचुका या मेंचुखायोमी जिले की मेकमोहन रेखा के अत्यंत समीप एक छोटा खूबसूरत गाँव है। मेंचुखा का स्थानीय भाषा में अर्थ है औषधीय जल। संभवतः यहाँ के पानी में औषधीय गुणों के कारण कस्बे का यह नामकरण हुआ। ’अरुणाचल प्रदेश के सबसे पुराने शहर पासीघाट को वर्ष 1911 में अंग्रेजों ने स्थापित किया था। इसे अरुणाचल प्रदेश का प्रवेश द्वार माना जाता है। यह सियांग नदी के तट पर अवस्थित है। प्रकृति ने इस स्थल का भरपूर श्रृंगार किया है। कुछ लोगों का मानना है कि उन्नीसवीं शताब्दी के प्रथम दशक या नोएल विलियमसन की पहली यात्रा के दौरान ब्रिटिशों के आगमन के बाद शहर को पासीघाट नाम दिया गया। मान्यता है कि पासीघाट आदी जनजाति की उपजाति ‘पासी’ शब्द से उत्पन्न हुआ है। ‘ब्रह्मपुत्र से सांगपो : एक सफरनामा’ में लेखक ने पासीघाट के इतिहास, नगरीय जीवन, बाज़ार, स्मारक इत्यादि का जीवंत वर्णन किया है। 

सियांग की बलुई मिट्टी को स्मृति चिह्न के रूप में बोतल में भरने का उपक्रम इस बात का साक्षी है कि लेखक का अरुणाचल से कैसा स्नेहिल व अटूट जुड़ाव है। ‘डिब्रूगढ और घर वापसी’ शीर्षक अंतिम अध्याय में हवाई अड्डे पर सुरक्षाकर्मी द्वारा बलुई मिट्टी के बारे में पूछने पर लेखक का यह कथन अभिभूत कर देता है-‘यह बेशकीमती गोल्डन सैंड है। ‘ दयाराम वर्मा की पुस्तक ‘ब्रह्मपुत्र से सांगपो : एक सफरनामा’ अत्यंत रोचक और पठनीय है। पुस्तक की भाषा सरल और बोधगम्य है। इस यात्रा वृत्तांत में लेखक ने मार्ग में आने वाले नदी-नाले, पर्वत शृंखला, जलप्रपात, ब्रिज, मंदिर, मठ,गुरुद्वारा इत्यादि का शोधपरक विवरण प्रस्तुत किया है जो अरुणाचल प्रदेश की यात्रा करनेवाले पर्यटकों का मार्गदर्शन करने में समर्थ है। प्रस्तुत पुस्तक अरुणाचल प्रदेश की उन सांस्कृतिक विशिष्टताओं को सामने लाती है जिन पर अभी तक बहुत कम लेखकों एवं अनुसंधानकर्ताओं का ध्यान गया है। यह पुस्तक पर्यटकों, संस्कृति कर्मियों, अनुसंधानकर्ताओं के साथ-साथ आम पाठकों के लिए भी उपादेय है।

यह समीक्षा, डॉ. वीरेन्द्र परमार द्वारा की गई साहित्यिक समीक्षाओं के संग्रह  'समकालीन साहित्य की परख' में शीघ्र प्रकाश्य 



वीरेंद्र परमार












10 मार्च , 1962 को जयमल डुमरी, जिला- मुजफ्फरपुर में जन्मे डॉ. वीरेंद्र परमार ने भारत सरकार के राजभाषा विभाग, ग्रह मंत्रालय में हिंदी प्राध्यापक के पद पर हिंदी शिक्षण योजना के ईटानगर, पटना, कोरापुट, कोलकता, गुवाहटी और सिलचर में 19 वर्षों तक प्राध्यापन किया. बाद में वे भारत सरकार के अनेक मंत्रालयों में राजभाषा विभागों में पदस्थ रहे. सेवानिवृत्ति के बाद आप स्थाई रूप से फरीदाबाद (हरियाणा) में रह रहे हैं. अरुणाचल के लोकजीवन, लोक साहित्य, पर्व-उत्सव, रीति-रिवाज और संस्कृति पर आधारित उनकी 20 से अधिक शोधपरक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं. ई-मेल : bkscgwb@gmail.com  

 
विमोचन समारोह - 4 जून, 2022
पंजाब नैशनल बैंक, नेहरू प्लेस टोंक रोड- जयपुर 


बाएं से सर्व श्री महेंद्र कुमार चंदेल-उप-प्रमुख ज़ेड.ए.ओ. जयपुर, 
श्री नवीनचंद्र पांडे-प्रमुख ज़ेड.ए.ओ. जयपुर, श्री एन. आर. बंजारा उप-अंचल प्रबंधक जयपुर, 
श्री राधाकृष्ण वाजपेयी-अंचल प्रबंधक जयपुर, 
लेखक, एवंं श्री सुनील कुमार अनेजा उप-महाप्रबंधक (पंजाब नैशनल बैंक)



26/02/2023 रविवार: फिरोजाबाद: ब्रह्मपुत्र से सांगपो-एक सफ़रनामा का विमोचन करते हुए
पद्मश्री डॉ. अशोक चक्रधर, उच्च शिक्षा आयोग उत्तर प्रदेश के विशेष सचिव आई.ए.एस. डॉ. अखिलेश मिश्रा, केंद्रीय हिंदी संस्थान नवीनीकरण एवं भाषा प्रसार विभाग के अध्यक्ष प्रो. उमापति दीक्षित,
डिप्टी कलेक्टर फिरोजाबाद, श्री विवेक मिश्रा, डॉ. रामसनेही लाल शर्मा "यायावर"
श्रीमती शीलमणि मानसिंह शर्मा, श्री यशपाल 'यश' एवं श्री अभिषेक मित्तल "क्रांति"




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