पोस्टमार्टम
नुकीले और तेज़ औज़ारों से
हर रोज मैं उधेड़ता हूँ उनकी चमड़ी
वज़नी प्रहारों से खंडित करता हूँ
कठोर कपाल!
और मांस के लोथड़े काट-काट कर
अंतड़ियों और पसलियों तक को
भेद डालता हूँ!
बिखरे अंगो और कटे लोथडों में
फँसे पीतल के कुछ टुकड़े या ख़ंजर के गहरे घाव
जमे हुए रक्त के थक्के
या उदर में अधपचा भोजन
मदद करते हैं मेरी
पोस्टमार्टम रिपोर्ट बनाने में!
राम, रहीम, जॉन और करतार
हर एक को मैंने चीर डाला
हर अंग ख़ुर्दबीन[1] तले परख डाला!
लाल रक्त, सफ़ेद अस्थियाँ, हृदय, फेफड़े या पसलियाँ
कहीं कोई भेद नहीं!
फिर वह कौनसा अंग है
चुन देता है मज़हबी दीवारें!
बाँट देता है मानव से मानवता, इंसान से इंसान को!
शहर से बस्ती, खेत से खलिहान को!
हो जाता है तब्दील
पल भर में
इंसान से हैवान, हैवान से शैतान
कामुक दरिंदा-दृष्टिहीन
रक्त पिपासु, वहशी जानवर-हृदयहीन
मगर
माँओं के अश्रुओं में लरजती वेदना
बेवाओं के विरक्त[2] चेहरों पर सिसकते सन्नाटे
और अनवसान[3] तमस[4] में भटकती
यतीमों की आहत निगाहें
क्या राम, रहीम, जॉन
या करतार के संदर्भ में जुदा हैं!
हर बार
धर्म, भाषा और नस्ल की नींवों पर
एक नई दीवार उगती हुई
फैल जाती है
अमरबेल की तरह, ख़ूनी पंजे गड़ाए
गाँव-गाँव, शहर-शहर, देश-देश!
फिर किसी मतांध[5] भीङ का उन्माद[6]
किसी सरफिरे का जुनून
फिर कोई खंजर, फिर कोई धमाका
लपकते शोले, दहकते मकान
छलनी शरीर, बिखरे अंग, रक्तरंजित लाशें
पोस्टमार्टम, रूदन, और सन्नाटा!
नर कंकालों के ढ़ेर पर
कौनसे मूल्य होंगे स्थापित
कौनसी सभ्यता होगी विकसित
कौनसा मजहब होगा दिग्विजयी[7], लहराएगा परचन
वीरान हवेली से प्रतिध्वनि की भांति
मेरे सवाल लौट आते हैं!
[1] ख़ुर्दबीन: सूक्ष्मदर्शक यंत्र
[2] विरक्त: जिसे चाह न हो, जिसकी किसी पर आसक्ति न रह गई हो
[3] अनवसान-अंतहीन
[4] तमस-अंधकार
[5] मतांध: बिना समझे-बूझे या आँखें बंद करके किसी मत को मानने वाला
[6] उन्माद: पागलपन, सनक
[7] दिग्विजयी: सभी दिशाओं को जीतने वाला
(c) दयाराम वर्मा, जयपुर (राजस्थान) 302026
ब्लोगर पर मेरी पहली पोस्ट (कुछ संशोधनों सहित). वैसे यह रचना 1984 में लिखी थी, जब भारत में खालििस्तानी आतंक अपने चरम पर था-वह दौर तो समाप्त हो गया लेकिन धर्म-जाति-भाषा या रंग का उन्माद पूरी तरह से कभी समाप्त नहीं होता. यह एक वायरस की तरह है, जैसे ही अनुकूल वातारण मिलता है जीवित हो उठता है.
प्रकाशन विवरण-
ब्लोगर पर मेरी पहली पोस्ट (कुछ संशोधनों सहित). वैसे यह रचना 1984 में लिखी थी, जब भारत में खालििस्तानी आतंक अपने चरम पर था-वह दौर तो समाप्त हो गया लेकिन धर्म-जाति-भाषा या रंग का उन्माद पूरी तरह से कभी समाप्त नहीं होता. यह एक वायरस की तरह है, जैसे ही अनुकूल वातारण मिलता है जीवित हो उठता है.
प्रकाशन विवरण-
(1) दैनिक ...... बीकानेर (राज.)
(1) सत्य की मशाल (मार्च 2019),
(2) साहित्य समीर दस्तक (अप्रेल मई 2019)
(3) अक्षरा (भोपाल)- अप्रैल, 2025 के अंक में 'कलम की अभिलाषा' और तीन अन्य कविताओं के साथ प्रकाशित
(4) राजस्थान साहित्य अकादमी की मुख पत्रिका मधुमती के दिसंबर-2024 के अंक में 6 अन्य कविताओं के साथ प्रकाशन
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