यात्रा वृत्तांत: पहाङों की रानी दार्जिलिंग
यद्यपि गर्मी विदाई ले चुकी थी फिर भी कलकत्ता में अत्यधिक आर्द्रता के कारण अब भी मौसम ख़ुशगवार नहीं था. इन्हीं दिनों, अक्टूबर 2011 में सपरिवार हमने दार्जिलिंग भ्रमण का कार्यक्रम बनाया. कलकत्ता से न्यू जलपाईगुङी तक हमने रेलगाङी से यात्रा की. आगे के लिए हमने वहीं से एक टैक्सी किराए पर ली. जलपान और सुबह के जरूरी कार्यों से निवृत्त होने के पश्चात लगभग सात बजे हम न्यू जलपाईगुङी से रवाना हुए.
न्यू जलपाईगुङी से दार्जिलिंग जाने के कई रास्तों में से एक वाया ‘मिरिक’ है. यह रास्ता थोङा लंबा है लेकिन प्राकृतिक दृश्यों से भरपूर होने के कारण हमने इसी को चुना. इस रास्ते से दार्जिलिंग की दूरी लगभग 115 किलोमीटर थी, जो पाँच घंटे में तय होनी थी.
प्रारम्भिक सफ़र समतली भू-भाग पर ही था. बंगाली भाषी स्थानीय टैक्सी ड्राइवर अपने चिर-परिचित मार्ग पर छोटे-बङे गाँव और कस्बों को तेज गति से पार करता जा रहा था. ‘मिरिक’ कस्बे के बाहर एक रेस्तराँ के सामने हमने गाङी रुकवाई. इस कस्बे का नाम लेपचा शब्द ‘मिर-योक’ से पङा है जिसका शाब्दिक अर्थ है, ‘जली हुई आग का स्थान’. यह समुद्र तल से लगभग 4900 फ़ीट की ऊँचाई पर अवस्थित एक छोटा सा सुंदर पहाङी गाँव है. हल्की ठंड के कारण हमने स्वेटर, शाल आदि गर्म कपङे निकाल लिए थे.
हमारे कैमरे की बैटरी ख़राब हो गई थी, और बिना कैमरे के रास्ते के सुंदर दृश्यों की फ़ोटोग्राफ़ी सम्भव नहीं थी. इसलिए हमने कस्बे से बैटरी ख़रीद लेने का मानस बनाया. मिरिक कस्बा और बाज़ार करीब एक किलोमीटर आगे था. कस्बे की ओर जाने वाले मार्ग पर दूर तक फ़ैली सुमेंदु (मिरिक) झील को देख हम पैदल ही चल पङे. मार्ग पर लोगों की हल्की आवा-जाही होने लगी थी.
हमने कस्बे में प्रवेश किया तो बंद दुकानों को देखकर माथा ठनका. पता चला बाज़ार दस बजे के बाद ही खुलता है. अभी नौ ही बजे थे. अन्य कोई विकल्प नहीं था, अत: हम आगे बढ़ते गए. बहुत आगे जाने के बाद एक जनरल-स्टोर खुला मिल गया. दुकानदार साफ़-सफ़ाई कर रहा था, संभवत: यह अभी-अभी खुला था. सौभाग्य से हमें यहाँ वांछित बैटरी मिल गई और हमने राहत की साँस ली. लौटते समय हमने ‘सुमेंदु झील’ के 80 फ़ुट लंबे ‘मेहराब’ पुल के दूसरी ओर देवदार के पेङो और बाँस के झुंडों को नज़दीक से जाकर देखा.
मिरिक से आगे के सफ़र में ऊपर की चढ़ाई शुरू हो गई. सङक के दोनों ओर पहाङी ढलानों पर चाय के ख़ूबसूरत बागान थे. यहाँ ‘तिंगलिंग’ व्यू-पॉइंट से ‘तिंगलिंग’ और आसपास के अन्य चाय बागानों के विहंगम दृश्य हमने कैमरे में कैद किए. पहाङी ढलानों पर कतारबद्ध, चाय के बागान अपनी नैसर्गिक सुंदरता से पहली दृष्टी में ही दर्शक का मन मोह लेते हैं. जैसे-जैसे हम ऊपर जा रहे थे तापमान भी गिरता जा रहा था. कलकत्ते की चिपचिपी गर्मी के बर-'अक्स मौसम की यह तब्दीली बेहद पुर-सुकून थी.
हरी पत्तियों से आच्छादित चाय की झाङियाँ और उनके बीच में पतली-पतली सर्पिल पगडंडियाँ ऐसे प्रतीत हो रही थीं मानो किसी चित्रकार ने एक विशाल कैनवास पर हरे रंगों से बागान चित्रित कर उसे जमीन पर बिछा दिया हो. जैसे-जैसे गाङी चढ़ाई चढती जा रही थी, दूर नीचे घाटी में बस्ती के मकान किसी खिलौने सदृश छोटे होते जा रहे थे.
अब मौसम और सर्द हो चला था. ऊँचाई के साथ-साथ प्राकृतिक ख़ूबसूरती भी बढ़ती जा रही थी. आगे चलकर, हम भारत और नेपाल के बॉर्डर पर स्थित नेपाली चैक-पोस्ट पर आ पहुँचे. सुंदर प्रवेश द्वार पर बङे-बङे अक्षरों में देवनागरी लिपी और नेपाली भाषा में लिखा था ‘नेपाल तपाईको हार्दिक स्वागत गर्दछ’. हम लोग, लगे हाथ विदेशी जमीन छू लेने का लोभ संवरण न कर सके. चैक-पोस्ट पर वर्दीधारी सिपाहियों ने बिना किसी औपचारिकता के हमें अंदर आने दिया. नेपाली लोग छोटे कद लेकिन गठीले बदन के होते हैं. अंदर सङक के दोनों ओर कम ऊँचाई के लाल-पीले रंगो से पुते, तिब्बती शैली जैसे मकान अत्यंत आकर्षक थे. यह सङक नेपाल के पशुपति मार्केट की ओर जा रही थी, जो कि यहाँ से दो किलोमीटर की दूरी पर था. इस समय यहाँ इक्का-दुक्का शैलानियों के अतिरिक्त केवल स्थानीय लोग ही थे. कुछ एक फ़रलांग अंदर जाकर हम लौट आए.
यहाँ से थोङी दूरी पर, एक मोङ के बाद सङक के किनारे, अस्थाई दुकानें सजाए कुछ स्थानीय महिलाएँ नज़र आईं. वे चाय-नाश्ते के अलावा छोटे-छोटे खिलौने और हस्तशिल्प के सामान बेच रही थीं-और जोर जोर से ‘सार, चाय’, ‘सार-चाय’ की आवाज लगा रही थीं. ड्राइवर ने गाङी रोक दी. इतनी ऊँचाई पर और इस ठंडे मौसम में चाय पीने का मज़ा ही कुछ और था. मालूम हुआ कि यह ‘सिमना’ व्यू-पॉइंट है और यहाँ से नेपाल दिखाई पङता है. लेकिन उस ओर की पहाङियों को धुंध के घने बादलों ने ढाँप रखा था, अत: चंद सौ मीटर के बाद सिवाय कोहरे और धुंध के कुछ भी देख पाना सम्भव नहीं था.
सिमना के बाद, घने जंगलों और धुंध के बादलों को चीरते हुए, घुमावदार हिल कार्ट रोड पर गाङी दौङने लगी. सङक के दोनों ओर सैंकङों फ़ुट लंबे, पुराने देवदार (चीङ) और बलूत (शाहबलूत) के पेङ, एक दूसरे से आसमान छूने की जैसे होङ लगा रहे थे. अंतहीन पहाङी शृंखलांओं पर बुरांस (बुरुंश) के सदाबहार पेङों की भी कोई कमी नहीं थी. दार्जिलिंग से 15-20 किलोमीटर पहले एक और शानदार कस्बा आता है- ‘लेपचा जगत’. समुद्र तल से करीब 7000 फ़ुट की ऊँचाई पर स्थित यह एक छोटा सा गाँव है. मुख्य सङक पर ‘लेपचा जगत’ नाम के व्यू-पॉइंट से सदा बर्फ़ से ढँकी, नेपाल-सिक्किम सीमा पर अवस्थित कंचनजंगा चोटी को देखा जा सकता है. हमने कुछ देर रुककर इस दुर्लभ दृश्य को अपनी स्मृतियों में संजोना चाहा, लेकिन पहाङियों पर सर्वत्र बादल डेरा डाले बैठे थे. तथापि यहाँ से पहाङी ढलानों पर धुंध में लिपटे, दूर-दूर तक बसे दार्जिलिंग शहर का नजारा अवश्य देखने को मिल गया.
मुख्य मार्ग से 1.5 किलोमीटर उत्तर की ओर 7900 फ़ुट की ऊँचाई पर ‘घूम रॉक’ व्यू-पॉइंट है, वहाँ से कंचनजंगा एवम उसके सूर्योदय को और भी अच्छी तरह से देखा जा सकता है. दिन के तीन बजने वाले थे, मिरिक में अधिक रुकने के कारण हम अपने तय समय से काफ़ी देरी से चल रहे थे अत: हमने ‘घूम रॉक’ की ओर जाने का विचार त्याग दिया.
अब हम अपने अंतिम लक्ष्य की ओर चल पङे. दार्जिलिंग की औसत ऊँचाई समुद्र तल से 6982 फ़ुट है. इस शब्द की उत्त्पत्ति दो तिब्बती शब्दों, दोर्जे (बज्र) और लिंग (स्थान) से हुई है। इस का अर्थ है ‘बज्र का स्थान’. बज्र धनुष को भी कहते हैं. एक हिल-स्टेशन की सभी खूबियों के अलावा यह अपनी दार्जिलिंग चाय के लिए विश्व विख्यात है.
टैक्सी ड्राइवर ने हमें पहले से आरक्षित होटल में छोङ दिया. यद्यपि इस इलाके में बहुत संकरी गलियाँ थी और बहुत अधिक भीङ-भाङ थी लेकिन होटल के कमरे खुले-खुले, पर्याप्त सफ़ाई और सुविधायुक्त थे. हमने होटल में ही खाना ऑर्डर किया. यहाँ बंगाली भाषी लोगों का बाहुल्य था, लेकिन हिंदी या अंग्रेजी में बातचीत करने में कहीं कोई परेशानी नहीं थी. आज सभी का मूड आराम करने का था और समय भी कम था अत: अगले दिन से हमने स्थानीय भ्रमण के लिए एक टैक्सी किराए पर ले ली.
दूसरे दिन बहुत सवेरे-सवेरे ही ड्राइवर हमें कंचनजंगा चोटी के सूर्योदय को दिखाने के लिए ‘टाइगर हिल्स’ ले गया. रास्ते में पर्यटकों की गाङियों का लंबा काफ़ीला था. काफ़ी इंतजार के बाद हमें कंचनजंघा की चोटियों पर सूर्योदय की हल्की लालीमा दिखाई पङी. इसके बाद हमने जापानी पीस पैगोडा का रुख किया. जापान के एक बौद्ध भिक्षु ने इसे बनवाया था. यह बहुत विशाल और सौम्य है. शहर से लगभग 10 किलोमीटर तलहटी में एक रॉक-गार्डन है. इसकी सजावट और रख-रखाव बहुत अच्छा था. यहाँ पत्थरों को काट कर अलग-अलग स्तर पर बैठने की बैंच बनाई गई हैं. दोपहर भोजन के बाद हम ‘घूम मोनास्ट्री’ देखने निकल पङे. तिब्बती स्थापत्य शैली में निर्मित यह मठ एक आकर्षक दर्शनीय स्थल है. इसके अंदर बुद्ध के जीवन के विभिन्न पहलुओं को दर्शाती चित्रकारी के साथ-साथ विभिन्न लामाओं की भी तस्वीरें देखने को मिलती हैं.
अगले रोज हम ‘पद्माजा नायडु हिमालयन ज़ूलोजिकल पार्क’ देखने पहुँचे. यह देश के प्रमुख ज़ूलोजिकल पार्क में से एक है. क्षैत्रफल की दृष्टि से भी यह बहुत बङा है और सैंकङों जानवरों और पक्षियों की प्रजातियाँ यहाँ देखने को मिलती हैं. हिमालयन काला भालू, हिम तेंदुआ, गोराल जैसे दुर्लभ जानवरों के अलावा, लाल पांडा यहाँ का मुख्य आकर्षण है।
दोपहर बाद हमने ‘नेहरू’ रोड पर स्थित व्यस्त बाज़ार में कुछ ख़रीददारी की. भांति-भांति के रंग-बिरंगे परिधानों, हस्तशिल्प, चमङे के सामान, गर्म कपङे, शाल-स्वेटर, चाय, सजावटी सामान और खिलौनों आदि से दुकाने अटी पङी थीं. भीङ भी ग़ज़ब की थी. ‘बतासिया-लूप’ के नाम से मशहूर एक और बाज़ार है, यहाँ रेलवे ट्रैक पर तिरपाल, चटाई बिछाकर बङे मज़े में लोग सब्ज़ी, खिलौने, गर्म कपङे और खाने-पीने आदि सामान बेच रहे थे. नेरो-गेज की ‘खिलौना ट्रेन’ अत्यंत धीमी गति से खिसकते हुए जब ट्रैक पर आती तो लोग वहाँ से हट जाते और गाङी के निकल जाने पर फिर से अपना धंधा जमा लेते
अगले एक दिन और हमने दार्जिलिंग के आसपास के दर्शनीय स्थलों का भ्रमण किया और फिर वापसी की राह पकङी. सचमुच इस दौरे में एक साथ बहुत कुछ अविस्मरणीय देखने को मिला, जो शायद किसी अन्य हिल स्टेशन पर संभव नहीं था. इसीलिए ही तो दार्जिलिंग को ‘पहाङों की रानी’ कहते हैं.
@ दयाराम वर्मा, जयपुर (राजस्थान)
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