एक संस्मरणात्मक श्रद्धांजली:
स्मृति शेष, ठा. दशरथ सिंह राठौर सेवानिवृत्त महाप्रबंधक
ओरियंटल बैंक ऑफ कॉमर्स
(देहावसान 15 अगस्त, 2022)
मुझे पहली बार ओरियंटल बैंक ऑफ कॉमर्स के प्रादेशिक कार्यालय में उनके साथ काम करने का अवसर मिला, जब ढाबां शाखा से पदौन्नति के पश्चात मई 2003 में मेरा जयपुर स्थानांतरण हुआ. यहाँ मुझे वसूली विभाग मिला. थोङे ही अंतराल में, राठौङ साहब भी स्थानांतरित होकर प्रादेशिक कार्यालय में आ गए. उस समय वे मुख्य प्रबंधक थे और कुछ एक अन्य विभागों के अलावा वसूली विभाग भी उन्हें सौंपा गया. इस कारण मेरा उनसे नियमित एवम् सीधा सम्पर्क था. वे बहुत ही हल्के, सधे हुए शब्दों में अपनी बात रखते, मातहत कर्मचारी या ग्राहक, या कोई प्रोफ़ेसनल, सभी की सहज भाव से बात सुनते और उसके कार्य या समस्या का अविलंब निपटारा कर देते. यदि काम न हो सकने वाला होता तो साफ़-साफ़ ना भी कर देते, लेकिन असमंजस या टालमटोल की स्थिति में किसी को नहीं रखते.
उन्हीं दिनों, जून-2003 के एक रोज मुझे, आयकर अधिनियम 1961 की धारा 272 ए (2) (एफ) के अंतर्गत आयकर कमिशनर बीकानेर की ओर से एक नोटिस मिला, जो मेरी पिछली शाखा, ढाबां (संगरिया तहसील, जिला हनुमानगढ) में गत वर्ष के फॉर्म 15-एच विलंब से जमा करवाने के बाबत था. प्रादेशिक कार्यालय श्री गंगानगर, कार्मिक विभाग में बात हुई तो मालूम हुआ कि आयकर विभाग, अपीलीय अधिकरण, जोधपुर में अपील करनी पङेगी. साथ ही ज्ञात हुआ कि मेरे साथ-साथ दो और शाखा प्रबंधकों को भी ऐसे ही नोटिस मिले हैं, जिनमें एक श्री बी.एल. सैनी, शाखा प्रबंधक-संगरिया थे. फोन पर उनसे बातचीत हुई; सैनी जी मेरे परिचित वरिष्ठ अधिकारी थे. नोटिस के मुताबिक ढाबां शाखा पर रू. 151010/- की पैनल्टी थी. ऐसे प्रकरण में यदि विलंब शुल्क अदा करना पङे तो यह संबंधित कर्मचारी की व्यक्तिगत देयता भी बन सकती है. स्वभाविक था, मेरे हाथ पाँव फूल गए. अब अपील के लिए क्या किया जाए! जोधपुर जाना होगा, वहाँ किसी सी.ए. से संपर्क करना होगा, क्या फीस होगी, पैरवी सही ढंग से होगी या नहीं, आदि सवाल घुमङने लगे.
बात ही बात में सैनी जी को ख्याल आया कि प्रादेशिक कार्यालय जयपुर में तो दशरथ सिंह जी राठौङ भी हैं, और अविलम्ब उन्होंने मुझे इस विषय पर उनसे सहायता लेने की सलाह दे डाली. राठौङ साहब उस समय अपने केबिन में ही थे. यद्यपि उस समय तक हमारा नया-नया परिचय ही था, तथापि उन्होंने मेरी बात बहुत इत्मिनान से सुनी, और फिर बिना कोई सवाल किए, उसी समय अपने फोन से किसी का नम्बर डायल किया. सम्पर्क होने पर उन्होंने बहुत ही संक्षिप्त शब्दों में मेरा प्रकरण सामने वाले व्यक्ति को समझाया जो कि एक चार्टर्ड एकाउंटेंट थे. लेकिन उनकी बातचीत दो प्रोफ़ेसनल्स के बीच औपचारिक बातचीत कम और दो घनिष्ठ मित्रों के बीच एक आत्मीय संवाद अधिक था. सी. ए. को विनम्र लेकिन आदेशात्मक लहजे में उन्होंने कहा कि वर्मा जी हमारे साथी हैं और इनका काम हो जाना चाहिए. दूसरी ओर से तुरंत बिना किसी टीका-टिप्पणी या सवाल, प्रति-सवाल के स्वीकारात्मक हामी थी.
जब उनकी बातचीत समाप्त हो गई तब राठौङ साहब ने मुझे उक्त चार्टर्ड एकाउंटेंट के फोन नंबर देते हुए कहा कि आप उनसे बात कर जरूरी काग़ज भेज दो, आपका काम हो जाएगा. ये सी.ए. श्री मनीष गुप्ता थे. और फिर बिना कहीं भागदौङ किए, बहुत जल्द तीनों शाखाओं की अपील दाखिल कर दी गई. अगले कुछ माह में ही हम सबके पक्ष में फैसला भी हो गया और सारी पैनल्टी माफ़ कर दी गई. हमारे लिए यह बङी राहत की बात थी. इस प्रकरण के बाद, उनके प्रति मेरे दिल में जो सम्मान पैदा हुआ वह फिर कभी कम नहीं हुआ. उनके साथ काम कर चुके, पुराने साथियों से शाखाओं में उनके वसूली के मजेदार किस्से सुनते, यह भी सुनते कि उन्हें जवानी के दिनों में शिकार करने और दोस्तों के साथ खाने-पीने की पार्टियाँ करने का बहुत शौक था. अपने इस शौक पर वे दिल खोलकर खर्च करते.
कागजों पर भरोसा करने की अपेक्षा, व्यक्ति विशेष को परखने और पहचाने में राठौङ साहब को महारथ हासिल थी. सम्पर्क में रहने वाले हर कर्मचारी के न केवल वे मो. नंंबर सहेज कर रख लेते बल्कि उस व्यक्ति की योग्यता, अभिरुचि, सामर्थ्य, दुर्बलता, आदि विषेशताओं का भी एक ख़ाका अपने दिमाग में तैयार कर लेते थे. अपने अधिकारियों, कर्मचारियों की अत्यंत चतुराई और समझदारी से उचित तैनाती, एक मंडल या अंचल प्रभारी के लिए सबसे महत्वपूर्ण और चुनौतीपूर्ण कार्य होता है. राठौङ साहब की अनेक खूबियों में से ‘इंसान को परखने की खूबी’ उनकी सबसे बङी ख़ासियत थी. वे यह बहुत अच्छी तरह से जानते थे कि किस अधिकारी को ऋण की सीट पर बैठाना है, किसे शाखा प्रबंधक का दायित्व सौंपना उचित होगा, कार्मिक विभाग के लिए कौन ठीक रहेगा, वसूली में बेहतर परिणाम कौन ला सकता है, मार्केटिंग में अधिक सफल कौन हो सकता है, एक बिगङी हुई शाखा को पटरी पर लाना किसके बस की बात है आदि, आदि. और यही खूबी, आगे चलकर बतौर मंडल प्रमुख उनकी शानदार उपलब्धियों में परिणत हुई.
अपने साथ काम कर चुके हर कर्मचारी या अधिकारी के लिए वे सदैव अभिगम्य थे. यदि किसी पुराने साथी ने पाँच साल बाद भी उनको फोन किया तो गर्मजोशी से उसका नाम लेकर हाल-चाल पूछते और उसे चकित कर देते. और यदि किसी कारणवश तुरंत किसी कॉल को वे ले नहीं पाते तो बाद में जैसे ही समय मिलता स्वयं कॉल कर लेते. लेकिन यहाँ इस बात को रेखांकित करना प्रासंगिक होगा कि औपचारिकता से परे, उनकी बातचीत, सदैव न केवल आत्मीयता से लबरेज होती बल्की दिलचस्प भी होती. अपने संवाद और भाषणों के बीच हल्के-फुल्के हास्य का पुट देकर वे गंंभीर से गंभीर माहौल को ठहाकों में बदल देते. यही सब वे कारण हैं जिनके चलते वह अपने मित्रों व परिचितों के दिमाग में नहीं बल्कि दिलों में बसते थे.
प्रादेशिक कार्यालय में एक बार लंच के समय उन्होंने मुझे बताया कि मुम्बई में जब अचानक उनको हॉर्ट की दिक्क्त हुई तो हॉस्पिटल में भर्ती हो गए. डॉक्टर को जब उनकी दस से अधिक बार की एंजियोप्लास्टी की जानकारी मिली तो वह हैरान रह गया. उसने कहा- ‘कमाल है, यह आदमी अभी तक जीवित है!’ यद्यपि सादा खाना, नियमित व्यायाम, सही समय पर सोना, सुबह जल्दी उठना, जैसी उनकी अनुशासित दिनचर्या, बीमारियों से लङने में सहायक रही होंगी लेकिन आखिरी समय तक जिस जीवंतता के साथ उन्होंने इस सफ़र को तय किया वह उनके उच्च मनोबल, जुझारूपन और कभी हार न मानने के जज्बे की बदौलत ही सम्भव हुआ.
सेवाकाल में कर्मचारियों के लिए पदौन्नति एक महत्वपूर्ण प्रक्रिया है. अपने योग्य साथियों के कैरियर निर्माण के लिए राठौङ साहब जी-जान लगा देते. उच्चाधिकारियों को आश्वस्त करने की उनकी विलक्षण प्रतिभा के मद्देनजर, शायद ही कोई उनकी बात को टालता. सहायक महा-प्रबंधक पद के उनके साक्षात्कार से कुछ समय पहले, जयपुर मंडल में पुराने खातों में वसूली का एक विशेष अभियान चल रहा था. उन्होंने, उस समय मंडल की सबसे बङी और पुरानी शाखा एम. आई. रोड के वर्षों पुराने, बट्टे खाते में डाले गए 25-30 खातों को चिन्हित किया और उनकी सारी फाईलें अपने पास मंगवा कर अध्ययन किया. ये ऐसे ख़ाते थे जिनमें किसी प्रकार की प्रतिभूति नहीं थी. उसके बाद उन्होंने प्रत्येक ख़ाते के लिए एक रणनीति बनाकर, सम्बंधित ऋणियों व जमानतदारों से सम्पर्क करना शुरू किया. मुझे ठीक से याद नहीं पर (सम्भवत) लगभग 20-25 लाख की वसूली, बहुत ही कम समय में उनके प्रयासों से इनमें हुई- जो उन दिनों एक चमत्कार जैसा ही था.
ए.जी.एम. के साक्षात्कार के समय, जब उनकी इस उपलब्धी पर चर्चा हुई तो साक्षात्कार बोर्ड की अध्यक्ष, तत्कालीन कार्यकारी निदेशक, मैडम दारुवाला कैसे बिना प्रभावित हुए रह सकती थीं. परिणाम भी आशानुरूप रहा. और जब उनको प्रधान कार्यालय से पदौन्नति की सूचना मिली तो उन्होंने सर्वप्रथम मुझे अपने केबिन में बुलाकर इस खुशी को साझा किया. यह उनका बङप्पन और मेरे प्रति विशेष स्नेह और विश्वास ही था. उन्हें आभाष था कि उनको अगला दायित्व, श्री गंगानगर के मंडल प्रमुख का या शाखा प्रबंधक एम. आई. रोड (जो उस समय ए. जी.एम हेडेड शाखा थी) मिल सकता है, सो बोले, ‘वर्मा जी, यदि मेरा स्थानांतरण श्री गंगानगर हुआ तो क्या आप वहाँ चलना चाहोगे?’ लेकिन तब तक मैंने जयपुर में सैटल होने का मानस बना लिया था. बच्चे भी यहाँ के विद्यालय और वातावरण में तेजी से ढलते जा रहे थे, तदनुसार मैंने खेद सहित उन्हें अपनी असहमति जताई.
राठौङ साहब के साथ एक बार पुन: वर्ष 2012-13 में, लेकिन बहुत ही कम समय के लिए काम करने का मौका मिला. उस समय वे जयपुर मंडल के महाप्रबंधक थे. मैं पंजाब की एक शाखा से स्थानांतरित होकर जयपुर आया तो बिना किसी औपचारिकता के उन्होंने मुझे मंडल कार्यालय में ही रख लिया. हालांकि अब उनकी सेवानिवृत्ति का समय हो चला था , लिहाजा इस बार बहुत ही कम समय के लिए मुझे उनका मार्गदर्शन व सानिध्य मिला.
सेवा निवृत्ति के बाद आप अपने गाँव श्यामपुरा लौट आए और अपनी कृषि भूमी पर पानी के भण्डारण के टैंक आदि बनवाकर अनथक प्रयास करते हुए ऑर्गेनिक खेती- ग्रीन हाउस व फलों के वृक्षों से भूमी को हरा-भरा बना डाला. इस काम में आपने अपना पूरा समय और उर्जा झोंक दी. अनूठी कार्यशैली, कुशल प्रबंधन, साहस, दबंगता, जिंदादिली, आत्मीयता और मेहमानवाजी जैसी विशेषताओं ने उन्हें अपने कार्यक्षेत्र, समाज, रिश्तेदारों व मित्रों में विशिष्ट पहचान और प्रतिष्ठा दिलवाई. सभी के जीवन में उतार-चढाव और अच्छा-बूरा समय आता है लेकिन जो बिना रुके, बिना झुके, बिना हारे, कर्तव्य-पथ पर अविरल, अविचल चलते चले जाते हैं, इतिहास उनको ही याद रखता है.
एक साधारण क्लर्क से बैंकिंग कैरियर आरम्भ करते हुए महाप्रबंधक के पद तक और उसके बाद भी आखिरी समय तक एक कर्मठ, समर्पित व आदर्श जीवन शैली से निर्मित उनके व्यक्तित्व और कृतित्व की अमिट छाप, हम सब के दिलों पर सदा-सदा रहेगी.
सादर, दयाराम वर्मा, जयपुर
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