संस्मरण: लंगर का धर्म: (अंग्रेजी से हिंदी में अनुवाद)



एक रोज मुझे व्हाट्स-ऐप पर अंग्रेजी में एक संस्मरण पढ़ने को मिला। दिल छू लेने वाले इस प्रसंग ने मुझे इतना प्रभावित किया कि मैं तुरंत इसका हिन्दी अनुवाद करने बैठ गया। इस संस्मरण का मैंने शीर्षक रखा 'लंगर का धर्म'

'लंगर का धर्म'

“पिछले नवंबर में, मैं देहरादून से चंडीगढ़ के लिए ड्राइव कर रहा था - चार घंटे की मनोहारी यात्रा में ‘पांवटा साहिब’ गुरुद्वारे के दर्शन का अतिरिक्त आकर्षण भी था। मुझे स्वयं और अपनी कार को कुछ आराम देने के लिए रास्ते में ब्रेक लेना ही था और भला ऐसे में गुरुघर में प्रवेश करने से बेहतर क्या हो सकता था? सुखदायक कीर्तन के अलावा, यहाँ जीवन के सभी क्षेत्रों के लोगों की भीड़, एक साथ फर्श पर बैठ कर लंगर का स्वाद ग्रहण करती है। कुछ लोग यहाँ छककर भोजन करते हैं, क्योंकि अपनी भूख को तृप्त करने का उनके पास कोई और साधन नहीं है।


उन सब लोगों के साथ बैठकर भोजन करना एक अवर्णनीय आध्यात्मिक ऊँचाई देता है। और यह अनुभव करने के लिए, किसी एक धर्म विशेष से संबंधित होना आवश्यक नहीं है। मैंने भी, लंगर का आनंद लिया और अपनी आगे की यात्रा के लिए गुरुघर से बाहर निकला। सामने एक खोखे (छोटी दुकान) पर सजावटी सामान पर निगाह पड़ी तो वहाँ खरीददारी के लिए रूक गया। तभी, मैंने एक चाय विक्रेता के सामने गुर्जरों (मुस्लिम खानाबदोश) के एक परिवार को देखा, जो अर्ध- पहाड़ों में मवेशियों की खरीद-फरोख्त और दूध का धंधा करते हैं। वे किसी खास विमर्श में मशगूल थे। परिवार में एक बुजुर्ग दंपति, दो मध्यम आयु वर्ग के जोड़े और चार बच्चे शामिल थे। तीन महिलाओं ने आंशिक रूप से पर्दा किया हुआ था। पहली नजर में ही वे बेहद गरीब प्रतीत हो रहे थे। उनमें सबसे बड़े सज्जन (शायद पिता) सिक्कों और कुछ तुड़े-मुड़े नोटों की गिनती कर रहे थे।


निस्संदेह मुद्दा यह था कि वे कितना खरीद सकते थे। उन्होंने तीन कप चाय और चार समोसे (लोकप्रिय भारतीय स्नैक्स) मांगे। साहस जुटाते हुए, मैंने उनसे पूछा, "क्या आप सब खाना खाएंगे” ? वे एक दूसरे को आश्चर्य, आशंका और एक आहत-आत्म-सम्मान के मिश्रित भाव से ताकने लगे। एकाएक सन्नाटा छा गया। कभी-कभी, मौन बहुत प्रखर होता है। बच्चों की मासूम आँखों में आशा की एक किरण जगी। बुजुर्ग व्यक्ति ने संभलकर उत्तर दिया, "हम पहले ही खा चुके हैं।” लेकिन बच्चों की ओर से तुरंत प्रतिरोधी जबाब आया "कहाँ खाया है सुबह से कुछ भी? अब्बा!"


यह सुन, मेरे सीने में हैरानी के साथ-साथ,एक मंद दर्द भरी टीस उठी। तीन पुरुषों की रूखी नजरों और महिलाओं की नम आँखों ने बिना बोले ही बहुत कुछ कह डाला था। मैंने पुन: थोड़ा जोर देकर कहा, “आप लोग मेरे साथ आओ।”। वे थोड़ा सहमे हुए थे; तथापि मेरे आग्रह पर अनिच्छापूर्वक सहमत हो गए और हमने गुरुद्वारे में प्रवेश किया।


‘जोड़ा घर’ (जूते रखने का स्थान) में उनके जूते जमा करवाते हुए मुझे असीम आत्मिक संतुष्टि का भान हो रहा था। गुरुद्वारे के वास्तुशिल्प को देख बुजुर्ग चकित हो रहे थे। हालांकि, उनकी आंखों में भय का एक भाव भी स्पष्ट परिलक्षित था। संभवत: वे पहली मर्तबा एक गैर-इस्लामिक पूजा स्थल में प्रवेश कर रहे थे। लेकिन मासूम बच्चों का सम्पूर्ण ध्यान तो भोजन पर केंद्रित था।


कुछ तमाशबीनों ने अपनी आँखों के कोने से उन पर विचित्र नजर डाली। लेकिन, मैंने बच्चों का सहज मनोभाव अपनाते हुए उनका अनुसरण किया जो गुरुद्वारे की सरल परंपरा के मुताबिक उत्साहपूर्वक,अपने सर को ढांपने के लिए, विभिन्न रंगों के कपड़े चुन रहे थे। सबसे बड़े सदस्य को छोड़कर, सभी मेरे साथ थे, और मेरा अनुकरण करते हुए उन्होंने शीश नवाया और माथे से फर्श को छूआ। कई अन्य लोगों ने देखा होगा, जैसा कि मैंने किया, इन बच्चों ने पूर्ण श्रद्धा के साथ इस अनुष्ठान को संपादित किया। उन्होंने भाईजी से प्रसाद लिया, भाईजी ने उनसे पूछा कि क्या उन्हें और प्रसाद चाहिए, तो बच्चों ने खुशी-खुशी सिर हिलाया।


हमने लंगर हॉल में प्रवेश किया और मैं बच्चों को खाने की थाली लेने के लिए साथ ले गया। उन्होंने इसे भी सहर्ष किया, जैसे कि केवल बच्चे कर सकते हैं। हमारे सामने एक नव-विवाहित जोड़ा बैठा था। दुल्हन ने, जिसकी लाल चूड़ियाँ उसका आकर्षण बढ़ा रही थी, बच्चों को अपने पास बैठने के लिए कहा। दो बच्चे उनके मध्य में बैठ गए। जिस तरह से दुल्हन ने बच्चों को अपनत्व दिया, मैं कह सकता हूँ कि आगे चलकर वह एक प्यार करने वाली माँ साबित होगी।


लंगर (भोजन) परोसा गया, और चूंकि मैंने पहले ही खा लिया था, फिर भी अपने मेहमानों को सहज करने के लिए थोड़ा और खाया। उनकी खुशी देखते ही बनती थी। शुरुआती आशंका समाप्त हो जाने के बाद उन्होंने भरपेट खाया। आनंद के उन पलों का वर्णन करने के लिए मेरे पास कोई शब्द नहीं थे।




हम लगभग भोजन समाप्त करने ही वाले थे जब एक बुजुर्ग सिक्ख और बिखरी दाढ़ी वाले एक युवक (शायद मुख्य-ग्रंथी और सेवादार-सहायक) मेरी ओर देखकर चिल्लाए। मैं एकाएक भयभीत हो उठा और मुझसे भी ज्यादा, मेरे मेहमान डर गए थे। हाथ जोड़ते हुए मैं उनके पास पहुँचा।


उन्होंने पूछा, "इन्हानू तुसी अंदर ले के आए हो”? (क्या तुम इन्हें अंदर लेकर आये हो?)। मैंने हामी में सिर हिलाया।


उनका अगला सवाल मुझे चकित कर गया, “तुसी हर दिन पाठ करदे हो”? (क्या आप प्रतिदिन अरदास (प्रार्थना) करते हैं?)। मैं लगभग “हाँ” कहने ही वाला था, लेकिन यह तो झूठ होगा, इसलिए अत्यंत विनम्रता के साथ मैंने कहा "नहीं"।


`मेरी इस बात पर, मुझे उनसे एक नसीहत की उम्मीद थी लेकिन उसने मुझे आश्चर्यचकित कर दिया, “तुहान्नु तो कोई लोड़ ही नहीं। अज तुहान्नु सब कुछ मिल गया है जी।” (आपको तो कोई जरूरत ही नहीं है। आज आपको सब कुछ मिल गया है, जी।)।”


मैं हतप्रभ था। यह सलाह थी या व्यंग्य? उन्होंने आगे कहा, “इन्हानू बाबे दे घर ल्याके ते लंगर छका के तुसी सब कुछ पा ल्या। तुहाडा धनवाद। असि धन हो गए”। (इन लोगों को गुरुघर में लाकर और लंगर करवाकर आपने सब कुछ प्राप्त कर लिया। आपका धन्यवाद, हम धन्य हुए।)


`फिर, करबद्ध , वह बुजुर्ग दंपति के पास गया और उनसे निवेदन किया, “आप जब भी इधर आएं तो लंगर खा के जाइए। ये तो उपरवाले का दिया है जी।” मैंने अपने मेहमानों को लंगर हॉल से बाहर निकाला। जैसे ही हम अपने जूते लेने वाले थे, बच्चों में से एक ने कहा, "हमें और हलवा दो ना।" हम पांचों और प्रसाद पाने के लिए पुन: अंदर गए। अंत में, जैसे ही वे विदा होने वाले थे, बूढ़ी औरत अपने पति के पास कुछ फुसफुसाई। मैंने पूछा, "कोई बात, मियां जी”?


लगभग विनती करते हुए, बुजुर्ग ने कहा, "ये कह रही है, क्या आप के सर पर हाथ रख सकती है”? मैं झुक गया, बूढ़ी औरत ने जब मेरे सिर पर हाथ रख कर आशीर्वाद दिया तो उसकी आँखों में आँसू थे। मैं जैसे भावनाओं की लहर में बह निकला।


क्या यह मेरी कल्पना है, या वास्तविक है? मैं अक्सर एक मुस्लिम महिला का पवित्रता और प्रेम में लिपटा सुंदर हाथ,अपने सर पर महसूस करता हूँ।


{मूल लेखक (अंग्रेजी में): मेजर जनरल एस.पी.एस. नारंग (सेवानिवृत्त)-देहरादून} 

हिंदी अनुवाद- दयाराम वर्मा, जयपुर (राज.)

Publication: संडे जागरण भोपाल (21.07.2019), सत्य की मशाल भोपाल (जुलाई, 2019)
Image-courtesy Adobe Stock

 

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