समीक्षा: जब आदिवासी गाता है


जब आदिवासी गाता है
(कविता संग्रह)


लेखिका: डॉ. जमुना बीनी तादर (ई-मेल jamunabini@gmail.com); परिंदे प्रकाशक-दिल्ली, प्रथम संस्करण वर्ष 2018, पृष्ठ संख्या मूल्य रू. 230/-

 


उन्नत जीवन के सपनों, आधुनिकता की चकाचौंध, मुआवजे और अस्थाई नौकरी के लालच में फाँसकर ‘विकास रूपी’ अजगर ‘आदि’ सभ्यता की मौलिकता को अपने नशीले सम्मोहन में जकड़े शैने-शैने निगलता जा रहा है। जन-जातियों की विलुप्त होती जा रही पुरातन जीवन शैली के विषाद की यथार्थ अनुभूति स्वयं एक आदिवासी से बढ़कर भला और कौन कर सकता है? उसी मिट्टी में जन्मी-पली-बढ़ी लेखिका ‘जमुना बीनी तादर’ अपने परिवेश और परम्पराओं के ह्रास के दंश की साक्षी भी हैं और पीड़ित भी। संभवत: यही कारण है कि सरल, सपाट शब्द शिल्प होते हुए भी इस काव्य संग्रह की रचनाएँ अरुणाचली आत्मीय संवेदनाओं की एक अद्भुत परंतु सार्थक संगीतमय अभिव्यक्ति है। वर्तमान से लिपटी इनकी कविताओं का एक छोर बारंबार अतीत में डूबता उतरता है। “असभ्य लोगों की अर्धविकसित भाषा/ यदि यह सत्य है / तो जब आदिवासी गाता है/ तो मन में/ सिहरन क्योंकर पैदा होता है/ उन अस्फुट ध्वनियों को सुन/ क्यों रोना आता है/ क्यों वर्तमान अतीत हो जाता है/ और क्यों अतीत वर्तमान...”

भले ही मैदानी लोंगों के लिए अरुणाचल आज भी सर्वाधिक वन संपदा, अल्पतम जनसंख्या और भरपूर प्राकृतिक सुषमा से परिपूर्ण सुंदर प्रदेश है लेकिन इसके प्राकृतिक, मानवीय और सांस्कृतिक संसाधनों के लगातार दोहन और शोषण से जनजातीय ताने-बाने को अस्त-व्यस्त होता देख विक्षुब्ध कवि मन विद्रोह कर बैठता है। नहीं चाहिए यह आधुनिकता और विकास जो उनके ‘स्वयं’ के होने के अहसास को ही नष्ट कर रहा है। संग्रह की अधिकांश रचनाएँ बेधड़क अपनी संस्कृति और संपदा के अपकर्ष को केंद्र में रख कर सभ्य समाज से सवाल करती हैं और मिथ्या स्तुति से पाठक को बहलाने का कोई छद्म प्रयास नहीं करती। “अब हम नहीं रहते/ बांस के घरों में/ अब नहीं बहती रोशनियाँ/ उन छिद्रों से/ अब हमारा घर/ बनता है कंक्रीट से/ अब हम नहीं सोते बहुत जल्द/ रात भर टी.वी., मोबाईल फोन या लेपटॉप में डूबे रहते।”

‘वे अलसाये दिन’ कविता की ये पंक्तियाँ सहसा मुझे पहाड़ी नदी के किनारे बसी एक छोटी सी आदिवासी बस्ती में तीन दशक पूर्व बाँस के घरों के बीच सुलगती अंगीठी के चारों ओर बैठे, हँसते, अपोंग पीते आदि परिवार के बीच ले जाती है जहाँ पहाड़ के दूसरी ओर सूरज लुढ़कते ही घुप्प अंधेरा तेजी से पूरी बस्ती को स्याह कंबल से ढाँप देता था। अल सुबह खेत खलिहान को कूच करते मर्द, पीठ पर टोकरी लटकाए स्त्रियॉं की टोलीयाँ, पारदर्शी, बर्फीली, गुर्राती, गरजती सियांग, घने हरे जंगलों से ढँके, ऊँचे पर्वत शिखर, उन पर तैरते यायावर बादलों के झुण्ड! अंतहीन बारिशें! पहाड़ों के सीनों को छलनी करती न कोई सड़क न रेल मार्ग। लोगों का खान-पान, जीवन शैली, क्रीड़ा-आखेट, सोलुंग, रेह, तोरग्या! सब सरल, प्राकृतिक और जीवंत!

उगते सूरज की धरती पर पिछले दो दशकों में पक्की काली सड़कें दूर-दराज तक पहुँच गई है। अब यहाँ के लोग बाहर और बाहर के लोग यहाँ तेजी से आ जा रहे हैं। लेकिन ‘वे और हम’ में बाहर के लोगों का उस अंचल में जाने का व्यावसायिक दृष्टिकोण रचनाकर को नहीं भाता। ‘इन्हे सिखाया जाना चाहिए/ पेड़ जंगल/और पहाड़ अनमोल है परंतु/इन्हे चीरना, उखाड़ना और काटना चाहिए/अधिक से अधिक संसाधन विकास और/ सभ्यता के लिए/ आदिवासियों को बदलते हैं वे/ अपने फायदे के लिए। और फिर “क्या ‘अरुणाचल’ को कोई जनजातीय नाम नहीं मिल सकता था? सवाल करती लेखिका का अपनी बोली और जाती से अटूट स्नेह छलक पड़ता है।

आदिवासियों की जमीन पर गड़ते कोरपोरेट्स के विषैले पंजे, जंगल आदमी या फिर आर्मी के बीच पीसता युवा ‘वाड़पान’? दैहिक, मानसिक, आर्थिक शोषण की शिकार, रोजगार और बेहतर कल के सपने सँजोये पहाड़ों से उड़कर मैदानी शहरों में आने वाली परियों की डरावनी कहानियाँ। हाइडल बिजली के उजियारे के पीछे छुपा अंधकार। तथाकथित सभ्य समाज के छल,कपट और शोषण के विरुद्ध हर रचना में किसी न किसी रूप में कवयित्री कुपित हो उठती है।

और इन सब से थोड़ा अलग हटकर, संग्रह की ‘डर’ व ‘टीवी चैनल’ सरीखी रचनाएँ, लेपटॉप, टीवी और मोबाईल आदि के माध्यम से परोसे जा रहे निर्रथक, स्तरहीन समाचार, सीरियल्स और भड़काऊ हिंसा से संवेदनहीन होते जा रहे समाज को आगाह करती नजर आती है। ‘खूनी लहरें’ समुद्र से उसकी हदें तोड़ कर सुनामी लाने पर सवाल पूछती हैं। अरुणाचल का साहित्य हो और उसमें बारिश का जिक्र न हो, यह कैसे हो सकता है? जब ‘धूसर आसमान’ से ‘बारिश की बूँदों’ का लयबद्ध नृत्य आरंभ होता है तो घाटी पर एक धुंधनुमा विशाल चद्दर तन जाती है। “छप-छप बूँदें बारिश की/ कानों को बहुत सुहाती/ छोटी-छोटी लड़ियाँ जल की/ नभ से नीचे आती/ झिलमिल-झिलमिल बूँदें हिलमिल/ सब्ज धुले पत्तों पर/ देती मोती सा आभास...”

‘आज मुझे घेर लिया/ फिर से स्मृतियों ने/ मन मेरा नहीं मेरे पास/ कहाँ ओझल हुआ...”। प्रेमी से मन या तन की दूरियाँ विरह को जन्म देती है, ‘हंसी गूँजती रही’, ‘प्रेम का रंग’, ‘चाँद का कराह’, ‘तुमसे प्रेम हुआ’,’सीढ़ी पर बैठी वह लड़की’ आदि कविताओं में कवयित्री काव्य के इस चिर विषय को अपने अनूठे अंदाज में विशेष भावाभिव्यक्ति प्रदान करने में सफल रही हैं।

वक्त कहाँ ठहरता है? तो फिर कोई सभ्यता व संस्कृति अपने आप को परिवर्तन के बहाव से कैसे रोक सकती है? परिवर्तन अवश्यंभावी है परंतु अपने स्व को अंतिम स्वांस तक बचा लेने की तड़प या जिजीविषा रचनाकार की इन पंक्तियों में मर्मस्पर्शी आव्हान कर उठती है। ‘तुम्हारे आदिवासी-बोध ने बतलाया/ तुम्हें पहाड़ों की ओर भागना चाहिए/ वहाँ ऊपर/ दुश्मनों से महफूज रहते आए/ अनगिनत काल से/ तुम भागते जाते हो/ जब तक तुम्हारी साँसे नहीं रुकती/ पैर जवाब नहीं देता/ फिर तुम आश्वस्त होते हो कि/ तुम्हारे लोग/ तुम्हारे बाद भी जीयेंगे/ तुमसे अधिक जीयेंगे/ संसार को बतलाने/ तुम्हारी अद्भुत-अनोखी संस्कृति/ आदिवासी संस्कृति के बारे में।’ डॉ. जमुना बीनी तादर ने इस प्रवाह की पीड़ा को अपने अन्तर्मन की गहरी संवेदनाओं के साथ विभिन्न आयाम दिये हैं। हिन्दी भाषी न होते हुए भी हिन्दी में ऐसे अर्थपूर्ण काव्य संग्रह का सृजन आपकी विशेष उपलब्धि है। इस अमूल्य सौगात के लिए आपका बहुत बहुत साधुवाद और अनंत शुभकामनाएँ। 

समीक्षक:- दयाराम वर्मा, जयपुर (राज.)



डॉ. जमुना बीनी तादर

प्रकाशन विवरण: 

अक्षरा- मासिक साहित्यिक पत्रिका भोपाल (मार्च, 2019)
पी.एन.बी. प्रतिभा (जुलाई-सित. 2022)
सत्य की मशाल भोपाल (जन. 2019)


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