समीक्षा: सारे बगुले संत हो गए (व्यंग्य संंग्रह)
लेखक: श्री गोकुल सोनी, प्रकाशक: पहले पहल प्रकाशन भोपाल
प्रथम संस्करण वर्ष- 2017 मूल्य (पेपर बैक- रू. 193/-, साजिल्द रू. 250/-)

भोजन में जो स्थान अचार और सलाद का है वही साहित्य में व्यंग्य का है। भोजन चाहे जैसा हो, लेकिन खुशबूदार, खट्टा मीठा, तीखा अचार और ताजा-ताजा कच्चा सलाद न हो तो भोजन फीका-फीका लगता है। ‘सारे बगुले संत हो गए’ काव्य संग्रह गोकुल जी के पैनी धार वाले व्यंग्य बाणों का, समाज की विसंगतियों पर प्रखर और अचूक निशाना है। इस काव्य संग्रह की बहुत सी रचनाएँ इन्होने वर्षों पहले लिखी और वे विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में साया भी होती रही तथापि वे कवितायें आज भी उतनी ही युक्तियुक्त और तर्क संगत हैं।
संग्रह के प्रारम्भ में कवि ने छोटे-छोटे शब्दों का विन्यास कर उनको बड़ी खूबी से व्यंग्य में ढाला है जो किसी शरारती बच्चे द्वारा, पीठ पीछे किए गए पटाखे के अचानक विस्फोट की तरह चौंका देता है। जैसे,
सुर मिलता है तो स-सुर और बिगड़ता है तो अ-सुर।
शादी से पहले अबला और शादी के बाद बला।
नौकरी लगने से पहले कामना और नौकरी मिलते ही काम- ना।
प्रिय से प्रियतम के परिवर्तन और फिर प्रिय के कहीं खो जाने और सिर्फ तम के शेष रह जाने को देखिये कैसे जोड़ा है,
समय के साथ, बदलती परिभाषा को
वैवाहिक संबंध, अच्छी तरह बताता है
व्यक्ति, शादी के पहले ‘प्रिय’
शादी के बाद ‘प्रियतम’
और बाद में सिर्फ ‘तम’ नजर आता है।
इसी प्रकार एक जगह वे लिखते हैं,
चुनाव जीतने के बाद,
वे इतने खास और ‘भारी’ हो गए
कि क्षेत्र के सारे चोर, उचक्के, गुंडे, बदमाशों
तक के ‘आ-भारी’ हो गये।
वैसे व्यंग केवल उनकी कविता में ही नहीं बल्कि उनके स्वभाव और दिनचर्या में भी रचा बसा है जो कि उनकी बातचीत मेँ स्पष्ट परिलक्षित होता है। जब भी आप उनके साथ होते हैं तो वार्तालाप चाहे किसी भी विषय पर हो, हर दूसरी, तीसरी कड़ी मेँ वे व्यंग का तड़का लगा ही देते हैं। और यही एक व्यंग लेखक की विशिष्टता है जो उसे अन्य विधाओं के लेखकों से अलग करती है।
एक और विशेषता उनकी रचनाओं की यह है कि वे व्यंग्य शैली के बने बनाए रास्तों पर नहीं चलते, वरन जब-तब मुख्य रास्ता छोडकर अनजान, उबड़ खाबड़ पगडंडियों पर चल पड़ते हैं और नए रास्ते गढ़ डालते हैं। विषय चाहे जितना गंभीर हो, उसके अंदर छुपे छल और विरोधाभाष को सहजता और पक्षपात रहित, सरल शब्दों मेँ उजागर कर देना उनकी लेखनी की खूबी है।
एक कविता मेँ बस यात्रा का वर्णन किया है। यात्रियों की मजबूरी को भुनाते बस चालक और गड्ढों भरी सड़क पर हिचकोले खाती, सवारियों से ठूस-ठूस कर भरी बस। ऐसी बस में गंतव्य तक पहुंचना किसी साहसिक कारनामे से कम नहीं। इस कविता का एक पैरा है:
इतने में मेरे दोनों पैर किसी ने जोर से खींचे,
देखा तो एक बच्चा ऊपर था और एक नीचे।
एक सेठ जी खींसे निपोर रहे थे,
विनम्र होकर हाथ जोड़ रहे थे।
बोले साईं पाँच बच्चे तो मैंने बिठा लिए हैं,
बस दो बच्चों को आप बैठा लीजिए
चलती गाड़ी में पुण्य कमा लीजिये।
और सेठ जी के दोनों पुण्य, मेरे ऊपर सवार हो गए
सेठ जी खुशी से गुलजार हो गए
लेकिन इन की बहुत सी कविताओं में सतही हास्य-व्यंग से इतर, दार्शनिक अंदाज भी झलकता है जो कि इनके लेखन को साधारण से विशिष्ट श्रेणी में लाकर खड़ा कर देता है। जैसे कि ‘बच्चा, पोस्टर और मैं’, ’ईसा’, ‘वह लड़की’, ‘सुनो सूरजमुखी’, ‘संघर्षरत वह’, इंसानियत आदि। ऐसी ही एक कविता है- ‘इतिहास’ इस कविता के कुछ अंश निम्न प्रकार है-
इतिहास हर विद्वान की दृष्टि में
एक, गलत बुना गया स्वेटर
करता है पुन: समीक्षा
तलाशता है, नये सिरे से
नये संदर्भ, नये अर्थ
गलत, सही, सही गलत
पर भूल जाता है वह
कि, कितना ही सुंदर
क्यों न बुने
वह नया स्वेटर
अगली पीढ़ी, उसको भी उधेड़ेगी
और गढ़ेगी, एक नया इतिहास
यानि, फिर एक नया स्वेटर
अपने कटाक्ष में इन्होंने होली, दीपावली, दशहरे जैसे पर्वों को भी शामिल किया है। होली तो होली है इन्होंने होली कविता में बड़ी खूबी के साथ दर्शाया है कि होली के विभिन्न लोगों के लिए क्या मायने हैं। जीजा-साली, मजनू और राधा श्याम की होली, सबकी होली के रंग अलग अलग। इसी तरह दिवाली एक पुलिस वाले के लिए क्या मायने रखती है? एक पत्तेबाज, दीपावली को किस नज़रों से देखता है? एक गरीब बच्चा दिवाली पर क्या सपने संजोता है? एक शराबी की दीपावली क्या होती है या फिर वी.आई.पी. लोगों के लिए दीपावली के क्या अर्थ हैं? ‘दिवाली अपनी-अपनी’ नामक कविता में कवि ने बड़ी सफाई से एक ही पर्व पर व्यक्ति विशेष की सोच और नजरिये के विभिन्न आयाम दिखाये हैं।
‘आत्माओं का प्रोजेक्टर’ इनकी लकीर से हटकर एक प्रयोग वादी रचना है, जिसमें एक प्रॉजेक्टर पर अलग अलग लोगों की भटकती हुई आत्माओं का आव्हान किया जाता है। इस कविता का एक पैरा है:-
पर्दे पर अगली आत्मा आई
आते ही कर दिया भाषण शुरू
मैंने कहा आपके तो कंठ में ही लाउडस्पीकर फिट है, वाह गुरु
धाराप्रवाह में बोलती रही वह आत्मा
मुझे याद आ गए परमात्मा
बड़े-बड़े तरक्की के वादे किए
देश की एकता अखंडता को भारी खतरे में बताया
अंत में वही पुराना घिसा पिटा राग सुनाया
बोली हम प्रजातंत्र के रखवाले हैं
भ्रष्टाचार मिटाने वाले हैं
कीमत कुछ भी ले लीजिये
पर अपना अमूल्य वोट
मुझको ही दीजिये
कवि ने इस संग्रह में कुछ बुंदेलखंडी रचनाओं को भी शामिल किया है जिनमें, ‘मंत्री जी दौरे पर आए’ नामक सत्य घटना से उपजा एक बड़ा ही गुदगुदाने वाला व्यंग है।
56 कविताओं के इस संग्रह में कवि ने सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, धार्मिक, नैतिक, शैक्षणिक आदि समाज के सभी क्षेत्रों में व्याप्त दोगलेपन और विरोधाभास को पुरजोर तरीके से उजागर किया है। समाज में चारों और फैली अव्यवस्था, भ्रष्टाचार, लूट आदि पर प्रहार करती ‘सारे बगुले संत हो गए’ जैसी कवितायें, निसंदेह समसामयिक साहित्य की जरूरत भी है और आईना भी।
समीक्षक @ दयाराम वर्मा, ई-5 कम्फर्ट गार्डन, चूना भट्टी, कोलार रोड, भोपाल 462016 दिनांक 05.11.2017
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें