समीक्षा: उपन्यास सियासत
लेखक श्री सुरेश कांत प्रकाशक ‘प्रलेक प्रकाशन मुंंबई ’ प्रथम संस्करण - फरवरी 2022, मूल्य (पेपर बैक) रू. 299/-
राजस्थान की सामंती पृष्ठभूमि पर अनेक सशक्त उपन्यास लिखने वाले स्व. यादवेंद्र शर्मा ‘चंद्र’ की एक रचना है ‘राजमहल की रंगरलियाँ’. इसका प्रथम संस्करण सन 1983 में प्रकाशित हुआ था. काल्पनिक सियासत ‘सामेर’ के महाराजा, दीवान और बडारन की मुख्य भूमिका के इर्द-गिर्द, राजमहल में पल्लवित अनैतिक संबंध, भोग-विलास, नारी-शोषण, उच्छृंखल यौनाचार, छुद्र राजनीति, षङयंत्रो व अंतरकलहों का यह एक बेबाक आख्यान है.
बाहरी तौर पर पटरानी के अतिरिक्त अनेक रानियों और डावङियों की लम्बी फ़ौज महाराज की आन-बान और शान का प्रतीक होती होंगी लेकिन भीतर का सच तो कुछ और था. अतृप्त और असंयमित वासनाओं का ज्वर, न केवल सामेर सियासत को अपने ताप में झुलसाता है बल्कि राज परिवार के वंशजों को भी एक के बाद एक भस्म कर डालता है.
इस उपन्यास में लेखक ने एक बहुत ही ह्रदयविदारक घटना का जिक्र किया है. एक बार राजवी ठाकुर चेतसिंह के सम्मान में ढोलनियों के नृत्य का आयोजन रखा गया. लेकिन उनके कुनबे में किसी जवान स्त्री की मृत्यु के शोक में ढोलनियों ने मना कर दिया. ठाकुर ने इसे अपना अपमान समझा और सैनिकों द्वारा उन गरीब-अबला औरतों को न केवल महल में जबरन लाया गया बल्कि वस्त्रहीन कर नाचने-गाने पर भी विवश किया गया. नशे में धुत, कामांध चेतसिंह ने उनमें से एक किशोरी की इज्जत से खिलवाङ करना चाहा, तब किशोरी के विरोध करने पर उस नर-पिचाश ने उसकी टांगों को चीर कर उसे मार डाला. कितना पाश्विक, कितना विभत्स कुकृत्य और कितनी दर्दभरी मौत!
जिस सियासत के महाराजा में कोई नैतिकता और संयम न हो तो उसके सामंत, सिपहसलार, कामदार, अधिकारी या प्रजा से इन मूल्यों की क्या अपेक्षा की जा सकती है. लेकिन ऐसे राज्य में शोषण और प्रताणना की सबसे अधिक शिकार तो नारी ही बनती है चाहे शोषण शारीरिक हो, मानसिक हो या आत्मिक!
हाल ही में सामंती पृष्ठभूमि पर एक और उपन्यास पढ़ने को मिला, ‘सियासत’ जिसे लिखा है, भारतीय स्टेट बैंक के भूतपूर्व उप-महाप्रबंधक और वरिष्ठ साहित्यकार, श्री सुरेश कांत जी ने. आजादी से पूर्व सन 1909 से लेकर आजादी के बाद के पहले आम चुनाव के बीच, उत्तर भारत की एक छोटी सी सियासत ‘गढ़ी मलूक’ को केंद्र में रखते हुए यह उपन्यास, वहाँ के अनसुने, अनैतिक भोग-विलास व नारी-शोषण के किस्सों, छुद्र राजनीति, सत्ता के अंतरकलहों एवम् षङयंत्रो को परत-दर-परत अनावृत करता है. कृति की मुख्य शैली वर्णनात्मक है. लेखन ने लगभग एक सदी के इतिहास को इसमें समेटा है, संभवत: इसी कारणवश, कई स्थानों पर कहानी तेज छलांग लगाते हुए कई वर्ष आगे जा पहुँचती है. लेकिन उपन्यास के सभी घटनाक्रम, पात्रों की मनोदशा और संवाद; समय, काल और परिस्थितियों का सधे हुए शब्दों में, सटीक व सजीव चित्रण करते हैं. रोचकता और नवीनता से भरपूर हर अनुच्छेद, विस्तृत अंतर्वस्तु समेटे, लगातार पाठकीय कौतुहल बनाए रखने में सक्षम हैं.
गढ़ी मलूक के नवाब के शौक, अय्यासियां, निष्ठुरता, अदूर्दर्शिता, मक्कारियां, गर्ज यह कि हर तरह की बुराई जो सोची जा सकती है-और जो सोची नहीं जा सकती, सब पूर्ण विविधता, विशिष्टता और रोचकता के साथ ‘सियासत’ में मौजूद हैं. किरदारों के बोलने, सोचने, पहनावे, खाने और अन्य विशेषताओं को लेखक ने इतनी बारीकी से उकेरा है कि शुरु के कुछ पृष्ठ पढने के बाद ही पाठक, चंदर, बङे सरदार, हरख़ू चाचा, बिल्कीस बानो, आयशा बी, रईस मियां आदि किरदारों से घुल मिल जाता है.
यद्यपि उपन्यास में गढ़ी मलूक के बहाने राजप्रासादों में पर्दे के पीछे चलने वाले अनेक उल्टे-सीधे कारनामों का संजीदगी और ईमानदारी से बख़ान है लेकिन जो बात सबसे अधिक विचलित करती है वह है- नवाबों का अय्यासी के लिए सैंकङों औरतों को अपने शाही हरम में रखना. जहाँ सब सुख-सुविधाओं के बावजूद, सोने के पिंजरे में कैद पंक्षी की तरह वे अपने अरमानों, ख्वाहिशों, जरुरतों और जज्बातों को तिल-तिल कर खत्म होते देखती हैं. ऐसे माहौल में रियासत के ख़ास मुलाजिमों के साथ बेगमों के संबंध बनते हैं- बिगङते हैं. बदनामी और जान के भय से अवैध, अवांछित संतानों को बेरहमी से मार दिया जाता है.
देश में अकाल पङता है, लेकिन नवाबों के खर्चों में, भोग-विलासिता व दावतों में कहीं कोई कमी नहीं होती; आम जनता अपना पेट काटकर बदस्तूर लगान देने पर विवश है. ललकारने और लोहा लेने की बजाय, नैतिक साहस-विहीन नवाब, रियाया को नोंचने-खसोटने और अंगरेजी हुकूमत की खुशामदी में लगे रहते हैं. फिर देश के बंटवारे के बाद वह दौर भी आता है, जब छोटी-बङी रियासतों का विलीनिकरण हो जाता है. राजाओं-नवाबों को प्रीवी पर्स मिलता है. गढ़ी मलूक का भी यही अंजाम होता है, लेकिन वहाँ के नए वारिस अब भी अपने आप को नवाब ही समझते हैं- उनके शौक, दावतें, शराब और शबाब, व रंगरलियाँ बदस्तुर जारी रहती हैं. हुकूमत और दौलत का नशा आसानी से नहीं उतरता, इस बात को लेखक ने नए नवाब रईस मीयां और हफ़ीज मीयां की कारगुजारियों के जरिए बखूबी स्थापित किया है.
ऐसे माहौल में चंदर भी भला कब तक पाक-साफ़ रहता. एक घटना उसे भी आयशा बी के साथ दिली तौर पर ही नहीं जिस्मानी तौर भी जोङ देती है, लेकिन गढ़ी मलूक के साथ वफ़ादारी की खुद की खींची लकीरों को वह कभी लांघ नहीं पाता और जब लांघने की सोचता है तब तक बहुत देर हो चुकी होती है. नईमा जैसी एक और शख़्सियत उसकी और गढ़ी मलूक की जिंदगी में दाख़िल होती है लेकिन यहाँ स्वयं नईमा के सिद्धांत दोनों के बीच कभी न पट सकने वाली खाई बन जाते हैं.
कुल मिलाकर, यह कृति नवाबी युग की उन कङवी सच्चाइयों और ओछी मानसिकता को बेपर्दा करती हैं, जो दर्शाती हैं कि आम जनता के माली हालात, शिक्षा, स्वास्थ्य, आधारभूत विकास आदि शासकों के शब्दकोष में होते ही नहीं थे. राजशाही में कामी राजाओं के लिए औरतों का वजूद, किसी खिलौने से अधिक न था. यह कहना भी अतिशयोक्ति न होगा कि ऐसे राजा और नवाब देश को अंगरेजी दासता के गर्त में ढकेलने के लिए बहुत हद तक उत्तरदायी थे.गढ़ी मलूक के संवेदनशील पात्रों के जरिए, समकालीन हिन्दी साहित्यकार, व्यंग्यकार, उपन्यासकार, नाटककार, कथाकार, लेखक, अनुवादक तथा प्रबन्धन गुरु श्री सुरेश कांत की सधी हुई कलम से निकली, नि:संदेह यह एक पठनीय और संग्रहणीय, कालजयी कृति है.
@ समीक्षक: दयाराम वर्मा, जयपुर (राजस्थान)
प्रकाशन विवरण - प्रतिभा तिमाही पत्रिका पंजाब नेशनल बैंक अंक जनवरी-मार्च, 2024
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