व्यंग्य: राष्ट्रीय फसल




वर्षों की भक्ति से प्रसन्न, बाबा भूतनाथ ने अपने परम शिष्य लच्छूलाल बङबोले को गुदड़ी में छिपाकर रखी नक़्क़ाशीदार बोतल थमाते हुए कहा-“वत्स! तुम्हारी सेवा चाकरी से प्रभावित होकर हम तुम्हें अपना सबसे खास तोहफ़ा भेंट कर रहे हैं.”

लच्छूलाल ने उलट-पलट कर बोतल को देखा. इस पर हरे रंग का रैपर चिपका था; रैपर पर लंबे-लंबे दाँतों, डरावनी आँखों, फङफङाती भुजाओं और सफ़ाचट खोपङी वाले किसी दैत्य की तस्वीर छपी थी. वैसे तो बङबोले को सैंकङों किस्म की ब्रांडेड सोमरस चखने का दीर्घकालीन अनुभव था, लेकिन उसकी पारखी नज़रों के सामने ऐसी अजीब-ओ-ग़रीब बोतल पहली मर्तबा पेश हो रही थी. अपेक्षाकृत वज़्नी बोतल में सोमरस की तरल-दिलकश हलचल के स्थान पर कोई ठोस वस्तु लुढ़क रही थी. उसे इस तरह हैरान-परेशान देख, बाबा भूतनाथ ने ज़ोरदार ठहाका लगाया.

“तुम जो समझ रहे हो, वह इसमें नहीं है लच्छू! इसमें है जिन्न-आईटी जिन्न. जैसे ही ढक्कन खोलोगे, बाहर आ जाएगा, हा…हा…हा…..”

“क्या! मारे अचरज के लच्छूलाल उछल पङा, बोतल उसके हाथ से गिरते-गिरते बची.”

“अरे.रे…. रे, संभल कर! जिन्न बहुत आज्ञाकारी और उसूलों का पक्का है. जो कहोगे करेगा. लेकिन….”

“लेकिन क्या गुरुदेव”?

“जिन्न को हर वक्त किसी न किसी काम में उलझा कर रखना अति आवश्यक है, अन्यथा बाजी उलटी भी पङ सकती है.”

“अवश्य गुरुदेव.” लच्छूलाल की आँखें चमकने लगी. वर्षों से उसे ऐसी ही किसी चमत्कारी चीज की तो तलाश थी! उसका बायाँ हाथ फ़ुर्ती से बोतल के ढक्कन की ओर लपका.

“ठहरो! ऐसे नहीं, इतना जल्दी भी नहीं. पहले सोच लो इससे क्या काम करवाना है”? बाबा भूतनाथ ने आगाह किया. लेकिन लच्छूलाल बङबोले तो चमत्कार को जल्द से जल्द साक्षात कर लेना चाहता था, बोला-“सोच लिया गुरुदेव, ऐसा काम दूंगा कि जिन्न भी याद रखेगा.”

“ठीक है वत्स, जैसी तुम्हारी मरजी.”

आनन-फ़ानन में लच्छूलाल ने बोतल का ढक्कन खोल दिया. बोतल से पहले धीरे-धीरे, फिर तेज़ी से धुआँ उठने लगा. देखते ही देखते धुएं ने विशाल आकार ग्रहण कर लिया और भयंकर अट्टहास करते हुए इसमें से एक दैत्य प्रकट हुआ. यह दैत्य हू-ब-हू बोतल के रैपर पर छपी तस्वीर सदृश था. लगभग आठ फिट लम्बे-चौङे, हट्टे-कट्टे जिन्न ने झुककर लच्छूलाल बङबोले को सलाम किया.

“मैं हूँ आईटी जिन्न, आपका गुलाम. आप जो कहेंगे-वही करूंगा. हुक्म करो, हुक्म करो मेरे आका.”

लेकिन लच्छूलाल बङबोले तो डर के मारे कांप रहा था. बाबा ने हाथ उठाकर शांत स्वर में कहा-“घबराओ नहीं, वह तुम्हारा गुलाम है. उसे आदेश दो.”

लच्छूलाल ने हिम्मत जुटाई. “जाओ, जाकर फलां-फलां को गालियाँ देकर आओ.”

“जो हुक्म मेरे आका.” अगले ही पल जिन्न अंतर्धान हो गया. बाबा भूतनाथ के इस चमत्कारी तोहफे को पाकर लच्छूलाल न केवल आश्चर्यचकित एवं खुश था बल्कि अत्यंत कृतज्ञ भी था. उसने बाबा के चरणों पर बारंबार माथा रगङा.

उधर जिन्न ने अपना नवीनतम एप्पल मोबाइल निकाला, कीपैड पर दनादन अंगुलियां दौड़ाईं और एक दमदार मैसेज जिन्न बिरादरी के देश भर में फैले विशाल व्हाट्सएप समूहों और फेसबुक, ट्विटर आदि पटलों पर पोस्ट कर दिया. दूसरे दिन शाम तक मैसेज का प्रभाव हर गली-कूचे में नजर आने लगा. काम पूरा होते ही वह लंबे-लंबे डग भरता हुआ-लच्छूलाल बङबोले के घर जा पहुँचा.

“हुक्म मेरे आका! बोल अब क्या करना है”? लच्छूलाल ने प्रशंसनीय नजरों से जिन्न को देखा.

“ऐसा करो, फलां-फलां के जो-जो दोस्त हैं; उन सबको भी गालियाँ दे डालो.”

“जो हुक्म मेरे आका.” जिन्न तुरंत हुक्म-बरदारी में जुट गया. अगली सुबह तक फलां-फलां के सभी यार-दोस्तों की पहचान कर ली गई और शुद्ध घासलेट में तली हुई, गर्मा-गरम गालियाँ उनके फेसबुक, ट्विटर, व्हाट्सएप आदि पटलों पर चस्पा कर दी गईं. जिन्न का उसूल था कि जैसे ही काम पूरा होता, अगले आदेश के लिए वह तुरंत आका के सामने हाजिर हो जाता.

सुबह-सुबह लच्छूलाल बङबोले हल्का होने संडास की ओर जा ही रहे थे कि कॉलबैल बज उठी. दरवाज़े पर चिर परिचित अंदाज़ में जिन्न खङा था. लच्छूलाल को देखते ही झुककर बा-अदब सलाम ठोका, “बोल मेरे आका, अब क्या हुक्म है.”

“अरे! इस बार तो बहुत जल्द काम खत्म कर लिया. वाकई तुम कमाल के हो….. हम्म…हाँ, ऐसा करो-पता लगाओ, कौन लोग हैं जो फलां-फलां से हमदर्दी रखते हैं, और उन सबके मुँह पर भी एकदम ताजा और तीखी गालियां चिपका दो.”

“जो हुक्म मेरे आका.” अगले ही पल जिन्न अंतर्धान हो गया. इंटरनेट, एल्गोरिदम और ए.आई. के जमाने में जिन्न के लिए इस प्रकार के काम बहुत आसान हो गए थे. शाम ढलते-ढलते, उसने फलां-फलां के सभी हमदर्दों के आभासी ठिकानों पर नए डिजाइन की नमकीन गालियों के डिब्बे बख़ूबी पहुँचा दिए.

“हुक्म मेरे आका….”

लच्छूलाल बङबोले की मुट्ठी में कसी हुई मुर्गे की टाँग अभी हवा में ही लहरा रही थी. इस वक्त जिन्न को देख, उन्हें बङी झुंझलाहट हुई. लेकिन उसे इंतिज़ार के लिए भी तो नहीं कह सकते थे. बाबा के बताए अनुसार, एक काम पूरा होते ही, तुरंत उसे दूसरा काम देना आवश्यक था. लच्छूलाल को एक आइडिया सूझा.

“अच्छा बताओ, कौनसी गाली दी? माँ की या बहन की”?

“माँ की मेरे आका.” लच्छूलाल को जैसे राहत मिली. तुरंत हुक्म दिया.

“जाओ, जिनको माँ की गाली दी है, उन सभी को बहन की गालियां भिजवाओ.”

“जो हुक्म मेरे आका.” कहते हुए जैसे ही जिन्न गायब हुआ, लच्छूलाल ने एक गहरी साँस छोङी. ‘चलो अब कम से कम कल शाम तक की छुट्टी’, और वह स्वाद ले-लेकर मुर्गे की मसालेदार टाँग को दाँतो से नोचने लगा. दो पैग स्कॉच के साथ लज़ीज़ खाना समाप्त कर लच्छूलाल सोफे पर पसर गया और टीवी ऑन कर लिया.

इस बीच जाने कब उनकी आँख लग गई और जब अचानक नींद खुली तो देखा कोई दरवाज़ा पीट रहा है. बिजली गुल थी. मोबाइल टॉर्च जलाकर दरवाज़ा खोला-सामने जिन्न खङा था. खीजते हुए उन्होंने आँखें झपझपाई-“इस वक्त! रात के बारह बज रहे हैं. सुबह होने का तो इंतिज़ार कर लेते?”

“मेरे आका. फलां-फलां को, उनके यार-दोस्तों को और उनके हमदर्दों को-बहन की खुशबूदार, चटपटी गालियाँ परोस दी गई हैं. जिन्नात के दिन रात नहीं होते. आप तो बस अगला आदेश दीजिए.”

“अमा यार. इतनी जल्दी कैसे कर लेते हो सब”? स्वर में थोङी नरमी लाते हुए लच्छूलाल ने आश्चर्य व्यक्त किया.

“हम जिन्नात का नेटवर्क बहुत स्ट्रांग है मेरे आका. फिल्ड जिन्नात को प्रति फॉरवर्ड, दो गिन्नी प्रोत्साहन राशि दी जाती है. लेकिन आप इन सब की चिंता छोङो. आपका गुलाम मैं हूँ; हुक्म करो, अब किसकी माँ-बहन करनी है”?

क्या मुसीबत है. लच्छूलाल बङबोले ने बङबङाते हुए दिमाग पर जोर डाला; थोङा विचार करने के उपरांत जिन्न से मुख़ातिब हुए.

“इन सबको बाप की गाली निकालो.” जिन्न ने वहीं खङे-खङे मोबाइल पर कुछ टाइप किया और बोला, “जिन्नात को हिदायत दे दी गई है-काम थोङी देर में हो जाएगा. मैं फिर हाजिर होता हूँ मेरे आका.”

अपेक्षा से कम समय में यह काम भी संपन्न हो गया. लच्छूलाल बङबोले के आगामी आदेशानुसार, फलां-फलां के दादा, परदादा यहाँ तक की सैंकङों साल पहले मर चुके पूर्वजों तक को गालियाँ चस्पा करवा दी गई. देश के हर आम और खास के मोबाइल में रोज गालियों की नई-नई खेप आती और ड्राइंग रूम से होते हुए, गली-मोहल्ले-ऑफिस, चौपाल और मंचों तक छा जातीं.

लेकिन रोज़-रोज़ गालियों के नए विषय ढूँढना लच्छूलाल के लिए अब चुनौती बनता जा रहा था. तमाम तरह के रिश्ते नातों का नंबर लग चुका था. लच्छूलाल के विशेष सलाहकार ने कुछ और विषय सुझाए जैसे-पहनावा, रीति-रिवाज, पूजा-अर्चना पद्धति, धर्म-स्थल, खान-पान आदि; जिनके माध्यम से जिन्न को कुछ और दिनों के लिए व्यस्त कर दिया गया. लेकिन यह सब भी निपट गया … अब आगे क्या? थक-हारकर लच्छूलाल ने बाबा से जिन्न को काबू करने का उपाय पूछा.

“बङा आसान है, वत्स. जिस बोतल में वह कैद था, उसमें राई के बीज भरकर जिन्न से कहना कि इनको गिनकर बताओ. और जैसे ही वह बोतल में घुसे, चुपचाप मौका देखकर बाहर से ढक्कन बंद कर देना. लेकिन वत्स फिर बोतल मुझे लौटानी होगी-जिन्न अपने साथ धोखा करने वालों को कभी माफ़ नहीं करता. लच्छूलाल बङबोले को जिन्न से छुटकारा पाना था-सो बाबा के बताए अनुसार उसे पकङा और बोतल बाबा को सौंप दी.

उधर देश के हर टीवी चैनल पर गाली आधारित प्राइम टाइम चर्चाओं में कहीं कोई कमी नहीं हुई. बङे-बङे सेमिनार, चुनावी रैलियाँ, सभाएं गालियों से आरंभ होती, गालियों से ही परवान चढ़ती और समाप्त भी किसी गाली पर जाकर ही होती.

व्हाट्सएप, ट्विटर, फेसबुक, यू-ट्यूब आदि आभासी पटलों पर नई-नवेली गालियों, प्रति-गालियों से अलंकृत, सुसज्जित मैसेज, मीम, चुटकुलों और रील्स आदि की बाढ़ बदस्तूर बह रही थी. छोटे-छोटे गाँवों से लेकर महानगरों तक, डिजाइनर गालियों का बेतहाशा उत्पादन और आदान-प्रदान हो रहा था. इस दौङ में छुटभैयों से लेकर बङे-बङे स्वनामधन्य (तथाकथित) कवि, लेखक, चिंतक, विद्वान, साहित्यकार और धर्मगुरु भी शामिल थे.

हर तबके, जाति, धर्म, पेशे, दल और विचारधारा के लोग गालियों को परोक्ष या अपरोक्ष ग्रहण कर रहे थे. एक विशेष वर्ग के लोग तो गालियों के इस कदर व्यसनी हो चुके थे कि गाली खाते, गाली की जुगाली करते, गाली मूतते और गाली ही हगते. ऐसे लोगों को जब कभी क़ब्ज़ की शिकायत होती और डॉक्टर एनीमा करते तो आंतों से गालियों की सङी हुई गाँठें बाहर निकलती.

चपरासी से लेकर कलेक्टर, सिपाही से लेकर आई.जी., नेता-अभिनेता, पत्रकार, मंत्री, मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री, न्यायाधीश, सचिव, यहाँ तक की सैन्य अधिकारी, शहीद एवं उनकी विधवाएं तक भी गालियों की जद में आ चुके थे. गालियाँ हवाओं में घुल चुकी थीं. किसी को पता नहीं था कि कब, क्यों, कैसे और किस दिशा से उस पर गालियाँ बरसने लगेंगी.

एक रोज़ लच्छूलाल बङबोले ने अपने विशेष सलाहकार से पूछा-“सलाहकार महोदय, जिन्न को तो हमने बोतल में डाल दिया था, फिर भी गालियों की फसल कैसे लहलहा रही है? इसे कौन खाद-पानी दे रहा है भाई”?

सलाहकार ने थोङा सोचा, फिर सधे हुए शब्दों में विनम्रता पूर्वक निवेदन किया, “सर, गुस्ताख़ी माफ़ हो तो अर्ज़ करूँ.

“कहो-कहो, बेफ़िक्र होकर कहो.”

“सर, गालियों के लिए अब किसी जिन्न की जरूरत नहीं रही. अधिकांश लोग गाली परस्त हो चुके हैं. अनियंत्रित जातिगत भेदभाव और धार्मिक उन्माद से देश की आत्मा पहले से ही छलनी थी; अब वैचारिक और तार्किक असहिष्णुता और हद दर्जे की कूपमंडूकता ने रही सही कसर भी पूरी कर दी है. बाज़ लोग घरों में गालियाँ बोते हैं, गमलों की तरह सजाते हैं, मालाओं में पिरोते हैं, एक दूसरे को देते और लेते हैं. गाली अब राष्ट्रीय फसल बन चुकी है सर!”

लच्छूलाल बङबोले ने बात की गहराई को समझा. परम संतुष्टि के भावों से उसका रोम-रोम खिल उठा. धीरे-धीरे विजयी मुस्कान की एक लंबी लकीर उसके चेहरे पर खिंचती चली गई.


© दयाराम वर्मा, 17 मई, 2025-जयपुर (राज.)



आलेख: डॉ. त्रिलोक चंद माण्डण की मूर्तिकला और काव्यधारा 

एक अद्भुत मूर्तिकार:

भारतीय परंपरा में 64 कलाओं का उल्लेख मिलता है, जिन्हें "चौषष्ठि कलाएं" कहा गया है. इनमें जीवन के प्रत्येक पहलू को कला के रूप में देखा गया है, चाहे वह संगीत हो, नृत्य हो, वास्तु हो या मूर्तिकला. आधुनिक दृष्टिकोण से कला को तीन प्रमुख श्रेणियों में बाँटा गया है: दृश्य कला, श्रव्य कला और दृश्य-श्रव्य कला.

पाश्चात्य संस्कृति में शास्त्रीय कलाओं को मुख्यतः आठ भागों में विभाजित किया गया है, तथापि मूर्तिकला इन सभी वर्गीकरणों में अनिवार्य रूप से विद्यमान है. किसी टेढ़े-मेढ़े पत्थर या लकङी के टुकङे को छैनी-हथौड़े के माध्यम से एक सुंदर और सजीव रूप प्रदान करना केवल श्रमसाध्य कार्य ही नहीं, बल्कि एक कलाकार की एकाग्रता, धैर्य और कल्पनाशक्ति की कठोर परीक्षा भी है. राजस्थान के हनुमानगढ़ जिला मुख्यालय से लगभग 67 किलोमीटर दक्षिण की ओर नोहर तहसील के एक छोटे से गाँव-ढंढेला निवासी श्री त्रिलोक चंद माण्डण काष्ठकला के ऐसे ही एक समर्पित साधक हैं.

सन 1986 में हाईस्कूल तक की शिक्षा पूर्ण करने के पश्चात आपने अपने पुश्तैनी व्यवसाय, ‘फर्नीचर निर्माण’ में पदार्पण तो किया, परंतु यह कार्य उन्हें मानसिक संतुष्टि नहीं दे पा रहा था. वस्तुत: उनका मन तो कुछ और, सृजन के कुछ अलग-अभिनव प्रयोग करने को उद्वेलित था. उनका अंतस किसी आराध्य, किसी घरेलू सामान, किसी क्रांतिकारी या किसी प्रसिद्ध व्यक्ति की त्रिआयामी ज्यामितीय आकृतियों में उलझा रहता. अंगुलियाँ काष्ठ के उबड़-खाबड़ टुकड़ों पर कल्पनाओं को मूर्त रूप प्रदान करने के लिए मचलती रहतीं.

और अंतत: गणेश चतुर्थी सं. 2054 (वर्ष 1997) के रोज आपने भगवान गणेश की एक मूर्ति बनाकर काष्ठकला का विधिवत श्री गणेश कर ही दिया. इसके बाद इन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा. एक के बाद एक विविध कलाकृतियां, मूर्तियां, गहने, चित्रकारी और घरेलू उपयोग की वस्तुएं बनाते हुए वे अपनी कला को निरंतर निखारते गए. यद्यपि लकङी की कारीगरी इन्हें पुश्तैनी धंधे के रूप में मिली लेकिन इसे एक कला के रूप में विकसित करने का विचार इनका अपना था. बाद में हरियाणा के एक कस्बे शेखूपर दड़ौली के श्री साहबराम भथरेजा के सान्निध्य में आपने कला की बारीकियों को सीखा. इसी क्रम में इन्हें पेंटर श्री एस. कुमार नांगल से भी काफ़ी प्रोत्साहन मिला.

"मैं अकेला ही चला था जानिब-ए-मंज़िल मगर/ लोग साथ आते गए और कारवाँ बनता गया”

पिछले तीन दशकों में श्री माण्डण ने एक हजार से अधिक नायाब काष्ठ की मूर्तियों और कृतियों को गढ़ा है और अनेक कीर्तिमान स्थापित किए हैं. गौरतलब है कि आप बिना किसी प्रकार की मशीन, उपकरण या ग्लू आदि की सहायता के केवल परम्परागत औजारों से ही मूर्तियों को उकेरते हैं. आपने पतंजलि योग-दर्शन के समाधिपाद के 51 संस्कृत सूत्रों और संविधान की प्रस्तावना को भी काष्ठ पट्टिका पर उकेरा है. इनके शिल्प की सफ़ाई और बारीकी, देखने वालों का ध्यान अपनी ओर बरबस ही आकृष्ट कर लेती हैं. विशेष बात यह भी है कि आप इन अनमोल कलाकृतियों का विक्रय नहीं करते.

अनेक स्थानीय पुरस्कारों के अतिरिक्त, देश भर की विभिन्न संस्थाओं द्वारा श्री माण्डण को दो दर्जन से अधिक राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार एवं सम्मान और अन्य प्रतिष्ठित संस्थाओं से लगभग एक सौ सम्मान मिल चुके हैं. इनमें राजस्थान का ‘विश्वकर्मा रत्न’ सम्मान, पंजाब का ‘राष्ट्रीय गौरव अवॉर्ड’, नई दिल्ली का ‘द लीजेंड ऑफ सुभाष चन्द्र बोस राष्ट्रीय अवॉर्ड’, महाराष्ट्र का ‘ग्लोबल रत्न अवार्ड’ आदि उल्लेखनीय हैं.

अमेरिकन आर्ट्स वोसा, वर्ल्ड ह्युमेन राइट्स ऑर्गेनाइजेशन और आर्ट एंड लिटरेचर इंटरनेशनल डायमंड एकेडमी (हंगरी) द्वारा आपको मानद डॉक्टरेट की उपाधि प्रदान की गई. डायनामिक रिकॉर्ड बुक ने मई 2019 में इनके द्वारा बनाई गई 6mm की काष्ठ-आटा चक्की (flour mill) को विश्व की सबसे छोटी आटा चक्की के रूप में दर्ज किया. अंतरराष्ट्रीय विश्व कीर्तिमान की पुस्तक ने अपने वर्ष 2025 के संस्करण में आपको ‘राइजिंग स्टार’ के रूप में शामिल किया. रॉयल पीस फेडरेशन द्वारा मई 2025 में ‘रॉयल पीस अवार्ड’, आइडियल इंडियन बुक ऑफ रिकॉर्ड्स की ओर से वर्ष 2022 का ‘लाइफ टाइम अचीवमेंट अवार्ड’, ‘गोल्डन स्टार ऑफ द वर्ल्ड’-जुलाई 2024. रॉयल ट्रस्ट इंटरनेशनल द्वारा ‘बेस्ट एनवायरनमेंट स्पोर्टर’ और ऑस्कर मैगजीन फॉर अरब एंड इंटरनेशनल आर्ट्स एंड लिटरेचर द्वारा ‘द गोल्डन मेडल’ से नवाजा जा चुका है.

एक ओर जहाँ श्री माण्डण, एक समर्पित साधक की तरह काष्ठ कला को उत्कृष्टता की ऊंचाइयों पर पहुँचाने का अतुल्य और प्रशंसनीय कार्य निस्वार्थ भाव से करते आ रहे हैं, वहीं दूसरी ओर-‘उच्च विचार-सादा जीवन’ सुक्ति वाक्य को चरितार्थ करते हुए, एक साधारण किसान की भांति अपने खेतों को भी शिद्दत से संभालते हैं.

कृत्रिम मेधा और आधुनिक CNC लेजर कटिंग मशीनों के प्रादुर्भाव के कारण वर्तमान में मूर्तिकला जैसी परंपरागत कलाओं पर गहरा संकट छा गया है. जो काम एक कलाकार कई दिन की अथक मेहनत से करता था, वह चंद घंटों में ही इन मशीनों द्वारा किया जा सकता है. लेकिन श्री माण्डण जैसे अद्भुत कलाकार की मौलिक कलाकृतियों का स्थान कोई मशीन कभी नहीं ले सकती. निश्चित रूप से आपने, काष्ठ कला को एक नई ऊंचाई प्रदान की है और अपने गाँव, अंचल और देश का नाम रोशन किया है.

एक अलबेला कवि और लेखक:

बहुमुखी प्रतिभा के धनी श्री माण्डण जितने अच्छे काष्ठ मूर्तिकार हैं उतने ही अच्छे लेखक और कवि भी हैं. आपके लेखन में, आध्यात्मिक दर्शन एवं चिंतन, सांस्कृतिक समावेश, व्यवहारिक दृष्टिकोण और सामाजिक सरोकार की धाराएं एक साथ प्रवाहमान हैं. इनके छंदात्मक दोहे, बरबस ही अकबर के नवरत्नों में से एक कवि ‘अब्दुर रहीम ख़ानख़ाना’ के ‘गागर में सागर’ सरीखे, नीतिगत दोहों की याद दिलाते हैं.

बिना किसी औपचारिक शिक्षा के इस तरह का उच्च कोटि का काव्य सर्जन चकित करता है. इनके दोहों में अनुभवजन्य यथार्थ, आलंकारिक सौंदर्य, धार्मिक और सांस्कृतिक सहिष्णुता और मानव संबंधों की सूक्ष्म समझ का प्रभावशाली संमिश्रण है. आपने अपनी काव्यधारा में राजस्थानी-मारवाड़ी अंचल के देशज शब्दों का सांगोपांग प्रयोग किया है. प्रस्तुत है भावार्थ सहित, इनके द्वारा रचित चंद दोहे.


“मन ठोकरां ठिकर हुआ, हीरां पकड़ी गेल/ धी बोध उलट धर दिया,इन्ह विद रचा खेल”


“मन ठोकरां ठिकर हुआ,हीरां पकड़ी गेल”: इस पंक्ति में कवि का आशय है कि मन जब तक वासनाओं, इच्छाओं और भ्रमों में उलझा रहा, तब तक वह ठोकरें खाता रहा और टूटे हुए ठीकरों (मिट्टी के बर्तनों) की तरह बिखरा हुआ था. लेकिन जब ज्ञान, विवेक या सत्संग के माध्यम से जागृति आई, तब 'हीरा' (अर्थात् सच्चा आत्मबोध या परम सत्य) हाथ लग गया. यानी जीवन का असली रत्न जब मिल गया तो मन भटकाव से मुक्त हो गया.

“धी बोध उलट धर दिया, इन्ह विद रचा खेल”: जब ज्ञान (धी = बुद्धि, बोध = जागरूकता) प्राप्त हुई, तो दृष्टिकोण ही उलट गया. दुनिया को देखने का नजरिया पूरी तरह बदल गया. वही संसार, वही जीवन, पर अब उसे देखने की ‘विद्या’ (अर्थात विवेकपूर्ण दृष्टि) अलग है. और इसी 'बदलाव' के साथ एक नया 'खेल' रचा गया – यानी जीवन को अब एक लीलामय, जागरूक दृष्टि से देखा जाने लगा.


“सेंवरा साथ जिंदगी, सहारा ले निभाय/ चार दिना री चाँदणी, बिछेड़ा ह निर्धाय”


"सेंवरा साथ जिंदगी, सहारा ले निभाय”: "सेंवरा" यानी जीवन का साथी, प्रियतम, जीवनसाथी या जिसे जीवन में सहारा माना गया हो. कवि कहता है कि जीवन अपने साथी (सेंवरा) के साथ बीता है, लेकिन यह साथ भी एक "सहारा" था, स्थायी नहीं. यह साथ निभाना, जीना, सब केवल एक सहारे के भरोसे हुआ, यानी अस्थायी आधार पर टिका था.

"चार दिना री चाँदणी, बिछेड़ा ह निर्धाय”: चार दिनों की चाँदनी-यह एक मुहावरा है जिसका अर्थ होता है थोड़े समय की सुखद स्थिति. यहाँ बताया गया है कि यह जीवन या साथ केवल कुछ समय की चाँदनी की तरह चमका, बहुत सुंदर, लेकिन अस्थायी. और अंत में "बिछेड़ा ह निर्धाय"-अर्थात् बिछड़ना (वियोग) तो पहले से ही तय था. यह साथ जितना भी प्यारा था, उसका अंत विछोह से होना था.


“जळ जन जीवन जेवड़ी,जळ प्राण जगदीश/ सहज समित जळ राखणा,करो भूमि प्रवेश”


भावार्थ-जल ही जन जीवन का मूल स्रोत है. यह केवल मानव का ही नहीं, बल्कि समस्त सृष्टि और ईश्वर की चेतना का भी आधार है. अतः जल को सहजता और संतुलन के साथ संरक्षित रखना चाहिए, और उसे भूमि में प्रवेश कराकर भूजल स्तर को बनाए रखना चाहिए.


“चुग चुगली झोळी भरी, बां'ट घणा परवान/ निज आत्म ओळख बिना, भौंक रह्यो स्वान”


भावार्थ: कपटी व्यक्ति चुगली और निंदा से अपनी झोली भर रहा है और समाज में उसे मान्यता भी मिल रही है. लेकिन जिसने अपनी आत्मा को नहीं पहचाना, वह तो बस एक कुत्ते के समान भौंकता ही रह गया, शोर करता है, पर अर्थहीन.


“भौंक ध्ये धर्म धरिया, झोळी कपट खोरिया/ मार-मार जीव भरमा'व, निज स्वार्थ कारण जारिया”


भावार्थ: जो केवल ऊपरी धार्मिकता के नाम पर भौंकते हैं, वे धर्म की गहराई नहीं समझते. उनकी झोली कपट और पाखंड से भरी है. वे दूसरों को डराकर, उलझाकर अपने स्वार्थों की पूर्ति करते हैं. निज स्वार्थ के लिए दूसरों को भ्रम में डालते हैं.


“भेख देख जगत भरमाई, झोळी मांय राग समाई/ राग पलट मन द्वेषा आई, गौचर शिद्ध हुआ रे भाई”


भावार्थ: दुनिया केवल उनका भेख (वेशभूषा) देख कर भ्रमित हो जाती है, जबकि उनकी झोली में राग (आसक्ति) भरी होती है. जब वह राग (मोह) बदलता है, तो उनके मन में द्वेष (घृणा) आ जाती है. ऐसे लोग गौचर (ज्ञेय, जानने योग्य) सत्य से दूर हो जाते हैं, और वास्तविक सिद्धि से च्युत हो जाते हैं.

काव्य सृजन के अतिरिक्त, श्री माण्डण, प्रेरणाप्रद आध्यात्मिक एवं सामाजिक आलेखन भी करते हैं. विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में साया इनके आलेखों में से कुछ एक के शीर्षक इस प्रकार से हैं- ‘इच्छाएं ऐसी हों जो सुख का कारण बने’, ‘मन शुद्धि के लिए पाँच कोषों की अहम भूमिका’, ‘क्या गीता पढ़ने से कल्याण व मोक्ष हो जाएगा’? ‘युवाओं के लिए हर क्षेत्र में ध्यान की अहम भूमिका’, ‘त्रि-गुणात्मक माया भजनानंदी के लिए व्यवधान’, ‘विघ्न अप्रत्यक्ष व प्रत्यक्ष दोनों रूपों में मनुष्य के लिए घातक’. जिस प्रकार इनकी पद्य शैली, काव्य की गहराइयों को छूती हुई पाठक को आह्लादित करती है-ठीक वैसे ही प्रेरक और उत्कृष्ट गद्य शैली भी सम्मोहित करती है.

इस आलेख को अंतिम रूप देने से पूर्व डॉ. त्रिलोक चंद से जब मेरी बातचीत हुई तो उन्होंने अपने उद्गार इस प्रकार व्यक्त किए: “बड़ा रूप देखन चली,लघुता कूपाँ डार/ विगतवार जाने नहीं, मोटा कर प्रचार-जब तक मनुष्य की बुद्धि संसार के बड़े रूपों को देखती रहती है, तब तक वह अपने लघु (सूक्ष्म) रूप को कूप (कुएँ) में धकेलती रहती है. ‘बड़ी बातों’ के आकर्षण और प्रचार-प्रसार में ‘लघु’ यानी सूक्ष्म लेकिन महत्वपूर्ण बातों की उपेक्षा कर दी जाती है.

इस कारण बुद्धि अपने वास्तविक विस्तार (आकाश) को पहचानने में असमर्थ रहती है. लेकिन जब वह लघुता को स्वीकार करती है (ऐसी अवस्था जब बुद्धि, अहंकार और घमंड के प्रभाव से निकल कर, अस्तित्व की सच्चाई को समझ लेती है) तब वह परा-स्पर्शी चूहे की तरह काँपने लगती है, और सूक्ष्मता को ग्रहण करने लग जाती है. मेरे प्यारे दोस्त, शिल्पकार की बुद्धि सूक्ष्म होती है.

शिल्पकारों ने न जाने कितनी यातनाओं का सामना किया है, लेकिन अपनी मर्यादाओं को नहीं छोड़ा. लेखक-लेखन कार्य करते रहे; सृजनकर्ता सृजन करते रहे परंतु अपने कर्तव्य पालन में सदैव निष्ठावान बने रहे. प्राचीन शिल्प की कलाकृतियां दुनिया भरे में बिखरी पङी हैं. इन कृतियों के कारण ही आज भी हजारों साल पुराना इतिहास जीवंत है, लेकिन उनको गढ़ने वाले शिल्पकार का कहीं कोई नाम नहीं. बगैर किसी लालसा के सृजन को अपनाए रखना ही एक मूल सृजनकर्ता की वास्तविक पहचान है.”

यद्यपि एक काष्ठ मूर्तिकार के रूप में आपको देश-विदेश में एक पहचान मिली है, लेकिन यह पहचान साहित्य के क्षेत्र में भी अपेक्षित है. हम उम्मीद करते हैं कि डॉ. त्रिलोक चंद माण्डण अपनी रचनाओं को पुस्तक के रूप में संकलित करप्रकाशित करेंगे. ऐसा होने पर उनकी अनूठी-अलबेली लेखन शैली से हिंदी साहित्य-जगत न केवल परिचित होगा बल्कि समृद्ध भी होगा.

@ दयाराम वर्मा, जयपुर (राज.) 12 मई, 2025






























कविता: मेरे चले जाने के बाद मेरे चले जाने के बाद बिना जाँच-बिना कमेटी किया निलंबित आरोपी प्रोफ़ेसर-तत्काल करेंगे हर संभव सहयोग-कह रहे थे वि...