संस्मरण: बे-टिकट- दिल्ली से मद्रास
मई 1985 में अंबाला वायु सेना स्टेशन से भारतीय वायु सेना में मेरे चयन की अंतिम प्रक्रिया सम्पन हुई। मेरे साथ हरियाणा के यमुनानगर शहर का हरीश महेंद्रु नामक एक और हमउम्र युवक भी था। हमें वायु सेना के भर्ती कार्यालय से सैनिकों को दिए जाने वाले यात्रा वारंट की प्रति और चयन व प्रशिक्षण से संबंधित आवश्यक दस्तावेज़ सौंप दिए गए। रेडियो तकनीशियन की जिस ट्रेड में हमारा चयन हुआ, उस पूरे बैच का कुछ दिन पूर्व ही बंगलौर में प्रशिक्षण आरम्भ हो चुका था, अत: हमें अविलंब रवाना होने के आदेश थे। हमने उसी रोज अंबाला से दिल्ली के लिए ट्रेन पकङ ली। संयोग से हरीश के अग्रज पूर्ण प्रकाश, दिल्ली राजा गार्डन में किसी निजी कम्पनी में नौकरी कर रहे थे, अत: दिल्ली रेलवे स्टेशन से हम सीधे उनके पास ही चले गए।
अगले रोज एक टैक्सी से वे हमें स्टेशन छोङने आए। जब हम निर्धारित प्लेटफ़ार्म पर पहुँचे तो वहाँ मद्रास जाने वाली ‘जी.टी. एक्सप्रेस’ तैयार खङी थी। सभी लम्बी दूरी की गाङियों की भांति, इसमें भी सामान्य दर्जे के दो ही कोच थे। हमने एक कोच में शूरु से आख़िर तक घूम कर देखा लेकिन कहीं जगह नहीं मिली। सामान रखने वाली ऊपर की सीटों पर भी लोग जमे हुए थे। दूसरे कोच का भी यही हाल था। गर्मी बढ़ती जा रही थी और बदन पसीने से तरबतर हो चुके थे।
एक कम्पार्टमेंट में सफ़ेद लुंगी पहने, एक अधेङ मद्रासी व्यक्ति बैठा था। सामान से ठुंसे दो बङे थैले उसके बगल में इस प्रकार रखे हुए थे कि कोई और वहाँ बैठ ना सके। खिङकी के पास आलथी-पालथी मारे, सूती साङी में लिपटी एक महिला, हाथ का पंखा झलने में व्यस्त थीं, सम्भवत उसकी पत्नी थीं! पूर्ण प्रकाश ने निवेदन किया।
“जरा, खिसक कर बैठिए भाई साहब। सामान नीचे रख लो।”
“इध्धर सीट खाली नहीं है। आगे जाओ।”
“आगे-पीछे, सब जगह देख लिया। कहीं जगह नहीं है। जरा बैठने दो।”
“हमारा बच्चा लोग बैटेगा, बोला ना।”
“यह रिजर्व डिब्बा नहीं है। आपने फ़ैल कर कैसे सारी जगह घेर रखी है!”
“ऐ! कैसा बात करता है? मैनर्स नहीं है क्या?”
उसके तल्ख़ जवाब से भाई साहब को भी ताव आ गया। उन्होंने तुरंत थैलों को उठाकर सीट के नीचे धकेल दिया। थोङी सी जगह बनते ही हमने सीट पर क़ब्ज़ा जमा लिया।
“चार आदमी बैठते हैं एक सीट पर। आप दो लोग बैठे हैं। मुझे मैनर्स समझा रहो हो?” भाई साहब का स्वर तेज हो उठा। दोनों के बीच बहस होने लगी। तभी सामने वाली सीट पर बैठे सज्जन बीच बचाव पर उतर आए।
“अय्यो छोङो जी, सबको जाना है। झगङा नहीं करना जी। एक दो स्टेशन के बाद भीङ कम हो जाएगा। बैटो-जी बैटो।” उसने सामने वाले को अपनी भाषा में समझाने वाले अंदाज में गुङ-मुङ, गुङ-मुङ शैली में कुछ कहा। हमारी सीट वाला व्यक्ति कुछ देर तक तमतमाता रहा पर अंतत: शांत हो गया। अब गाङी के छुटने का समय हो चला था।
तभी उसकी पत्नी सुराही में पानी ले आने के लिए आग्रह करने लगी। लेकिन समय कम होने के कारण वह मद्रासी भाई साहब हिम्मत नहीं जुटा पा रहे थे। उन दिनों पानी की बोतलें नहीं मिलती थीं। इसलिए प्रकाश भाई साहब ने आते समय हमारे लिए एक मिट्टी की सुराही खरीद ली थी।
“मैं पानी भर लाता हूँ-सुराही दो।” हरीश से सुराही लेकर वे अभी बाहर जाने को उद्यत हुए ही थे कि जाने क्या सोच कर थोङा रुके और मद्रासी सज्जन से बोल उठे, “लाइए, आपकी सुराही भी दीजिए”। इस अप्रत्याशित सद्भावना से हतप्रभ मद्रासी व्यक्ति तुरंत कुछ कह नहीं पाया। उसी समय गार्ड की सीटी बजने लगी। अब प्रकाश भाई साहब ने लगभग छीनते हुए उनसे सुराही ली और कोच के बाहर दौङ पङे।
हम एक दूसरे को देख रहे थे-मद्रासी सज्जन मुँह बाए कभी हमें कभी अपनी पत्नी को देख रहा था। बाहर खङे लोग तेजी से कोच में चढ़ने लगे। गाङी रवाना होने ही वाली थी। हरीश तेजी से गेट की ओर लपका। उसके पीछे-पीछे मद्रासी भी भागा। गाङी धीरे-धीरे खिसकने लगी थी। मैंने खिङकी से झांक कर देखा- भाई साहब दोनों सुराहियाँ अपने हाथों में लटकाए दौङते हुए कोच की तरफ़ आ रहे थे। जैसे-तैसे वे गेट तक आने में सफ़ल हो गए और हरीश व मद्रासी सज्जन ने सही सलामत उनके हाथों से सुराहियाँ थाम लीं। ट्रेन अब गति पकङ चुकी थी। प्लेटफ़ार्म पर खङे पूर्ण प्रकाश भाई साहब हाथ हिलाते हुए शीघ्र ही हमारी नजरों से ओझल हो गए।
हमारे सामने की सीट पर तीन बच्चों व बीवी सहित वही बीच-बचाव करवाने वाले सज्जन विराजित थे। ऊपर की सीटों पर भी दो-दो युवकों ने अपने बैठने का जुगाङ बना रखा था। बाईं ओर की एकल सीटों में से एक पर पैंट-शर्ट पहने एक बाबू सरीखा युवक, छोटे गोल ग्लास वाली चश्मा से लगातार खिङकी से बाहर नजरें गङाए बैठा था। दूसरी एकल सीट पर मटमैली धोती-कुर्ता पहने, खिचङी बालों वाला एक कृशकाय वृद्ध था।
गाङी हजरत निजामुद्दीन से होते हुए दिल्ली की घनी आबादी को पीछे छोङ जब खुले में आई तो बाहर की साफ़ आबोहवा से काफ़ी राहत मिली। मेरे और हरीश के लिए यह जीवन का पहला सबसे लम्बा सफ़र था। पहली बार हम भारत के विभिन्न बङे शहरों से गुजरने वाले थे।
सामने वाले सज्जन ने हमसे बातचीत शुरु की। हम कौन हैं, कहाँ जा रहे हैं? जब उन्हें पता चला कि हम दोनों बंगलौर वायु सेना में प्रशिक्षण के लिए जा रहे हैं तो वह बोल उठा, “बेंगलुरू! वेरी नाइस सीटी। आप लोग इंजाय करेगा।” वह स्वयं मद्रास के नज़दीक किसी छोटे कस्बे से ताल्लुक रखता था। उसके लम्बे चौङे नाम का अंतिम शब्द ‘राव’ ही मेरे पल्ले पङा। हमारे बगल वाले भाई साहब के मिज़ाज भी अब नरम थे। वह भी वार्तालाप में शामिल हो गए। इनका नाम था सुंदरम। आपसी बातचीत से जल्द ही हम सब के बीच सौहार्द स्थापित हो गया। उनकी अंग्रेजी मिश्रित टूटी-फ़ूटी हिन्दी सुनने का अलग ही अनुभव और आन्नद था।
आगरा के पश्चात, चम्बल के बीहङ प्रारम्भ हो गए। दूर-दूर तक मिट्टी के उबङ-खाबङ पहाङ! उनमें भूलभुलैया सी टेढ़ी-मेढ़ी रेतीली पगडंडियाँ। छोटी-छोटी अर्द्ध-झुलसित झाङियाँ। कहीं-कहीं छोटे आकार के रुखे-सूखे पेङ। मीलों तक फ़ैले इस वीरान बीहङ की गहरी खाई और पानी के कटाव से निर्मित मिट्टी की कुदरती कलाकृतियों को देखकर मैं अवाक् था।
आगरा के बाद अगला स्टेशन था झांसी, जहाँ गाङी कुछ देर के लिए रुकी। मैं खाने-पीने का सामान लेने नीचे उतरा। नज़दीक के एक टी-स्टाल पर ख़ासा भीङ थी। उसी भीङ में घुसकर मैंने कुछ सामान खरीदा। कोच में लौटा तो देखा, हमारे सामने वाली ऊपर की सीट पर हरीश बिस्तर बंद फ़ैला रहा था। यहाँ पर बैठे दोनों लङके झांसी उतर गए थे। यह अच्छा ही हुआ, हमारे लेटने की व्यवस्था हो गई। झांसी से रवाना हुए अभी पंद्रह-बीस मिनट ही बीते होंगे कि अनायास मेरा हाथ पैंट की पिछली जेब पर चला गया। यह क्या? जेब तो खाली थी। मैं घबरा उठा, इसमें तो ट्रेन की टिकट थीं। तुरंत मैंने अपनी दूसरी जेब टटोली, टिकट वहाँ भी नहीं थी।
“हरीश, क्या ट्रेन की टिकट तुम्हारे पास है?” उद्वेलित स्वर में मैंने हरीश से पूछा। हरीश ने करवट लेते हुए नीचे देखा और सहजता से कहा।
“नहीं। टिकट तो तुम्हारे पास ही हैं।”
“हाँ, मगर, मिल नहीं रही। जरा अपनी जेबें चैक करो तो।”
“मुझे अच्छी तरह याद है, अंबाला, एम.सी.ओ. से वारंट के बदले टिकट लेकर तुमने रख ली थीं।” वह ठीक ही तो कह रहा था। हो न हो जब मैं झांसी के प्लेटफ़ार्म पर उतरा था तो भीङ में किसी ने जेब से पैसे या पर्स समझ कर हाथ साफ़ कर दिया होगा। मेरा दिल बैठने लगा।
फ़िर हम दोनों ने बार-बार अपनी पैंट और शर्ट्स की जेबें टटोलीं, शायद किसी कोने में छुपी टिकट मिल जाए! बैग और बिस्तर बंद खंगाले। कम्पार्टमेंट की सीटों के नीचे, टॉयलेट में, हर जगह छान मारी, लेकिन परिणाम -शून्य। हम घबरा उठे। बिना टिकट यदि पकङे गए तो क्या होगा? दोनों के पास कुल मिलाकर चार-पाँच सौ रूपये रहे होंगे, इतने में तो जुर्माना भी नहीं भर पाएंगे! राव ने हमें परेशान देखकर कहा “डोंट वरी, टी.टी. को अपना डिफेंस का लैटर दिखा देना। बोलना टिकट पिक पॉकेट हो गया।”
लेकिन हम जानते थे कि इससे कोई बात नहीं बनने वाली थी।
“तम्पि! लिसेन, अबी नेक्स्ट स्टेशन भोपाल है, उससे पहले कोई टी. टी. नहीं आ सकता। बहुत टाइम है, अब तुम लोग रेस्ट करो।” सुंदरम ने भी हमें दिलासा दी। यह अच्छी बात थी कि हमारा कोच अन्य कोचों से इंटर-कनेक्टेड नहीं था। इस कारण ट्रेन के किसी स्टेशन पर ठहरने से पहले टी.टी.ई. के आने की सम्भावना नहीं थी।
हमारे पास कोई और चारा भी नहीं था। गाङी अपने गंतव्य की ओर सरपट दौङी जा रही थी। धीरे-धीरे रात गहराने लगी। नींद से परेशान राव के बच्चे एक दूसरे के ऊपर उल्टे-सीधे गिर रहे थे। यह देख मैंने राव से कहा। “राव साहब, बच्चों को ऊपर सुला दो, हम नीचे बैठ जाएंगे।”
“नहीं, आप को तकलीफ़ होगा।” लेकिन थोङी ना-नुकुर के बाद उसने हमारी बात मान ली। मध्य रात्री के बाद, गाङी भोपाल स्टेशन पर रुकी। हम दोनों सावधानी से प्लेटफ़ार्म पर उतर गए। यद्यपि कोई टी.टी.ई. नहीं आया फिर भी हम गाङी के रवाना होने पर ही कोच में चढ़े।
खुली खिङकियों से प्रवेश कर रही शुद्ध शीतल हवा ने कम्पार्टमेंट में ताजगी भरी ठंडक पैदा कर दी थी। भोपाल के बाद तापमान में सांगोपांग गिरावट थी। उत्तर भारत की असहनीय गर्मी के बरअक्स यहाँ का मौसम अत्यंत खुशगवार था। गाङी अपनी पूरी रफ़्तार से भागी जा रही थी। पटरियों पर पहियों की खटर-पटर का अनवरत लय बद्ध संगीत जारी था। यदा-कदा रात के सन्नाटे को भेदती, इंजन की कर्कश सीटी बज उठती। गाङी के समानांतर, अंधकार में पेङों के काले साये विपरीत दिशा में भागे जा रहे थे। कभी किसी नदी का पुल तो कभी कोई छोटा स्टेशन पलक झपकते ही पार हो जाता। रात गुजरती जा रही थी। फिर कब गहरी नींद ने हमें आ घेरा, पता ही नहीं चला।
अचानक मेरी नींद खुली। सुंदरम मुझे झिंझोङ रहा था। गाङी किसी स्टेशन पर खङी थी। पर्याप्त उजाला फ़ैल चुका था। चाय- नाश्ते की आवाज लगाते हॉकर्स इधर-उधर दौङ रहे थे। “उटो, उटो! जल्दी!” सुंदरम व्यग्रता से हम दोनों के कंधे हिला रहा था।
“क्या हुआ?” मैंने आँखें मलते हुए पूछा।
“टी.टी. इथर लेफ़्ट साइड से घुसा है, तुम लोग दूसरा गेट से बाहर जाओ, फ़ास्ट!” हमारी आलस भरी नींद फ़ौरन काफ़ूर हो गई, और लगभग भागते हुए से हम दाहिनी ओर के गेट से कूद कर प्लेटफ़ार्म पर आ गए। अब देखा, वाकई काला कोट पहने एक टी.टी.ई. कोच में टिकट चैक कर रहा था। हम बाल-बाल बचे! यह नागपुर स्टेशन था। यानी हम महाराष्ट्र में पहुँच चुके थे। सुबह के आठ बज रहे थे, इस लिहाज़ से गाङी लेट चल रही थी। हमने इत्मिनान से चाय नाश्ता किया। जब गार्ड ने हरी झंडी हिलाते हुए सीटी बजानी शुरु की तो टी.टी.ई. कोच से नीचे उतर गया और आगे बढ़ गया। हमने मुस्करा कर एक दूसरे को विजयी भाव से देखा और कोच में लौट आए। कल टिकट खोने के बाद से हमारे चेहरों पर यह पहली मुस्कान थी।
“थैंक्स, सुंदरम साहब!” हरीश ने कृतज्ञता जताई।
“इट्स ओके, इट्स ओके, हमको ठीक टाइम पर पता चल गया, नहीं तो प्रोब्लेम हो सकता था।”
नागपुर के बाद अगला बङा स्टेशन आंध्रप्रदेश का वारांगल था। यदि गाङी कहीं और न रूकी तो हमारे पास चैन से बैठने के लिए कई घंटे थे। अब राव, सुंदरम और उसकी फ़ैमिली से हम घुल मिल चुके थे। दोनों ओर, जहाँ तक नजर जा रही थी, शाक-सब्जियों और फ़सलों से लहलहाते खेत ही खेत थे। यहाँ का मौसम और भी अधिक सुहावना था। खुली खिङकियों से ताजी हवा अंदर भागी आ रही थी। बच्चे जी भरकर सोने के बाद नीचे आ बैठे थे, अब हमने ऊपर की सीट पर विश्राम कर लेना उचित समझा। दोपहर के दो बजे के आसपास मेरी आँख खुली।
“कहाँ पहुँचे अन्ना!” मैंने नीचे बैठे सुंदरम से सवाल किया।
“वारांगल चला गया।”
“क्या?” मैं चौंक उठा।
“तुम लोग सो रहा था। आई वाज टेकिंग केयर। टी.टी. इधर आता तो मैं तुम लोग को उठा देता।”
“ओह! थैंक्स-थैंक्स अन्ना।” तमिल में बङे भाई को अन्ना कहते हैं। यह शब्द हमने राव के बच्चों से सीखा, जो हमें बार बार अन्ना कह रहे थे।
“नेक्सट विजयवाङा। एक्कम् इल्लई।”
राव और सुंदरम के सहयोग और लगातार हौसला-अफ़ज़ाई से, बिना अधिक चिंता-फ़िक्र के हमारा शेष सफ़र भी कट गया। अगले दिन, अर्थात 19 मई की सुबह लगभग नौ बजे गाङी मद्रास पहुँची। राव ने हमें प्लेटफ़ार्म टिकट लाकर दीं। और तब हम पूर्ण आत्मविश्वास के साथ प्रस्थान द्वार से बाहर निकले। दो दिन और दो रात तक साथ रहने के बाद दोनों मद्रासी परिवार अपने-अपने रास्ते पर निकल पङे। हमने टिकट खिङकी से टिकट खरीदी और रात्री की गाङी से बंगलौर रवाना हुए। लेकिन इस बार टिकट को हिफ़ाजत से रखने का ज़िम्मा हरीश का था!
@ दयाराम वर्मा, जयपुर (राजस्थान)
Publication: सत्य की मशाल – मासिक साहित्यिक पत्रिका, भोपाल मई, 2023 अंक