कविता: नराधम हैं वे कौन




दो नवंबर, वर्ष दो हजार तेइस
बनारस हिंदू विश्वविद्यालय
कैम्पस की बाईस वर्षीय एक छात्रा!
अपहरण- गैंग रेप
दरिंदे थे पहुँचवाले रसूख़दार!
हफ़्तों-महीने
बेखौफ़ करते रहे चुनावी प्रचार!

कौन थे सरपरस्त गुनहगारों के
किसने चुना था मौन!
बतलाओ गुनाह से पहले, गुनाह के बाद
नराधम थे वो कौन!

चौदह सितंबर, वर्ष दो हजार बीस
गाँव बूलगढी हाथरस
उन्नीस वर्षीय एक अबला लाचार
लङी कई रोज़ जंग साँसों की
लेकिन आखिरकार
सम्मुख दरिंदगी के, गई जिंदगी हार!

आनन-फ़ानन
आधी रात पुलिस ने जलाई चिता!
तमाम दर्द छुपाए सीने में
हो गई चिर-ख़ामोश अंगारिता[1]!

कौन बचा रहा था गुनहगारों को
किसने चुना था मौन!
बतलाओ गुनाह से पहले, गुनाह के बाद
नराधम थे वो कौन!

दस जनवरी, दो हजार अठारह और
मासूम कठुआ की गुङिया
सिर्फ़ आठ वर्षीय!
सात आरोपी और दरिंदगी सप्ताह भर!
स्वयं पुजारी था शामिल
विक्षिप्त लाश ने किए दुष्कर्म उजागर!

लेकिन
जानते हो पक्ष में गुनाहगारों के
बहुत बेशरम खङे थे
लिए तिरंगा, धरने प्रदर्शन पर अङे थे!

किसने दी शह गुनहगारों को
किसने चुना था मौन!
बतलाओ गुनाह से पहले, गुनाह के बाद
नराधम थे वो कौन!

चार जून, वर्ष दो हजार सत्रह
उन्नाव उत्तरप्रदेश
सत्रह वर्ष की एक दलित लङकी
न जाने थे कितने वहशी
लगाई गुहार न्याय की तो गए पिसते
पिता चाचा भाई हितैषी!

निडर, निर्लज्ज, निर्दयी
विधायक आरोपी और संगी-साथी
छुट्टे घूम रहे थे
अपयश, हमले, धमकी, ताङना-प्रताङना
पीङित झेल रहे थे!

कौन खङा था गुनहगारों के साथ
किसने चुना था मौन!
बतलाओ गुनाह से पहले, गुनाह के बाद
नराधम थे वो कौन!

तीन मार्च, वर्ष दो हजार दो
गाँव छप्परवाङ, जिला दाहोद, गुजरात!
इक्कीस साल की बिलकिस
गर्भ में थी बच्ची और ग्यारह दरिंदे
दिन दहाङे हुई थी वारदात
अख़बार में या टी.वी. पर जरूर
पढ़ा या देखा होगा!

बाईस बरस का अदालती संघर्ष
लेकिन दुष्कर्मी हत्यारे
थे किसी की नजरों में बहुत मानीख़ेज़[2]!

इंसाफ़ के पावन मंदिर में
हुए प्रस्तुत रिहाई के कुटिल दस्तावेज़!
स्वतंत्रता दिवस पर
जब हो रहा था तिरंगे का वंदन!
कर रहा था दुष्कर्मियों का कोई तिलक-अभिनंदन!

कौन था पक्षधर गुनहगारों का
किसने चुना था मौन!
बतलाओ गुनाह से पहले, गुनाह के बाद
नराधम थे वो कौन!

मंचों पर चिल्लाते
काव्य रचते, कथाएं छपवाते हैं!
यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता
गर्व से जपते मंत्र यह
स्त्री मां है, बहन-बेटी है, बतलाते हैं!

एक से बढकर एक
संस्कारी, नारीवादी, झंडाबरदार
कहां है स्वयंभू वीर-भारती?
भीष्म, पार्थ, द्रोण, धर्मराज युधिष्ठिर
संजय या सारथी!

कौन खङा है गुनहगारों के साथ
धार लेता है मौन!
बतलाओ गुनाह से पहले, गुनाह के बाद
नराधम हैं वे कौन!


[1] अंगारिता: पलाश की ताजा कली
[2] मानीख़ेज़: महत्वपूर्ण

 
@ दयाराम वर्मा जयपुर 24.01.2024














कविता: मैदान-ए-जंग



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आभासी, अथाह-अंतहीन ब्रह्माण्ड में
चल रही है
हर रोज चौबीसों घंटे, एक जंग!

दशों दिशाओं से बरसते हैं अविरत[1]
तल्ख़ शाब्दिक बाण
और दनादन दागे जाते हैं
आरोप-प्रत्यारोप के आग्नेय प्रक्षेपास्त्र!

गरजते हैं मिथकीय जुम्ला-बम
उङ जाते हैं कर्णभेदी धमाकों के साथ परख़चे
बंधुता, विश्वास और सदाचार के
ढह जाते हैं क़दीमी[2] किले
ज्ञान, विज्ञान, सभ्यता और सुविचार के!

की-पैड पर
चलती हैं तङातङ
द्वेष-विद्वेष से प्रसाधित[3] गोलियां
बिछती हैं प्रतिपल, चरित्र-हंता[4] बारूदी सुरंगें
फैल जाती हैं चारों तरफ
अभिज्वाल्य[5], कुंठित गल्प[6] टोलियां!

प्रतिद्वंदियों पर
टूट पङती हैं ट्रोल आर्मी
विशाक्त मधुमक्खियों की भांति
और निर्रथक बहसों के, घने कुहासे में
खो जाती है ठिठुरती मनुष्यता!

इस जंग के कोई नियम नहीं है
कोई सीमा नहीं है
अशिष्ट, अमर्यादित, भाषा-आचरण-व्यवहार
छल-कपट, झूठ-फ़रेब, संत्रास[7]
इस जंग में सब कुछ युक्तिसंगत है
उन्मुक्त हैं, आजाद हैं!


[1] अविरत: लगातार
[2] कदीमी: पुरातन
[3] प्रसाधित: सुसज्जित
[4] चरित्र-हंता: किसी के चरित्र का अंत करने वाली
[5] अभिज्वाल्य: प्रज्वलित करने योग्य" या जलाया जा सकने वाला
[6] गल्प: मिथ्या प्रलाप
[7] संत्रास: भय, डर, त्रास

@ दयाराम वर्मा जयपुर 17.01.2024

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