कविता: सर्वद्रष्टा इतिहास

मिटाने चले हो तुम इतिहास
स्वयं से, स्वयं का
यह कैसा उपहास!
जानते हो
इति+ह+आस
ऐसा ही-निश्चित रूप से था!
और था जो निश्चित
अडिग, अमिट, शाश्वत
सही-गलत, मधुर या कष्टकर
था निश्चित!
बहुत चयनात्मक
पा लेना चाहते हो छुटकारा
चाहते हो कर देना विस्मृत, भस्मीभूत[1]!
दर-ओ-दीवार से
इमारतों से, गली-कूचों से
ग्रंथों-किताबों, दिलो-दिमाग से
इतिहास!
लेकिन मत भूलो
इतिहास सृजन है तो संहार भी
नफरत है तो प्यार भी!
मिटाया नहीं जा सकता
न झुठलाया! दुरस्त भी नहीं!
समय के पदचिन्ह
सर्वद्रष्टा है इतिहास!
पेङों की छाल
चारकोल, हड्डियां, खाल-खून
जीवाश्मों में आवेष्टित[2]
कार्बन कैलेंडर!
अंतिम हिमयुग, नवपाषाण, कांस्य युग
कुदरती स्लेट पर
गुदा है इतिहास!
वर्गभेद, वर्णभेद, नस्लभेद, दासता
शोषण-मुक्ति
क्रूर- करुण, विभत्स-मनोहर
दानवीयता बनाम मानवीयता
आत्म सम्मान, आत्मबोध!
संघर्ष, क्रांति-प्रतिक्रांति
स्वतंत्र चेतना का
सतत विकास है इतिहास!
राजवंशीय महिमामंडन
चाशनी में लिपटी कपोल कथाएं
बदरंग अतीत को ढांपती रंगीन चद्दर
आदर्शवाद का भौंडा प्रहसन[3]
प्रशंसा, चरण वन्दना में डूबा पर्वचन!
नहीं, केवल सत्य
कटु-सत्य का सपाट दर्पण
है इतिहास!
अतीत का निरपेक्ष, निर्लिप्त[4] तर्पण
है इतिहास!
@ दयाराम वर्मा जयपुर 06.01.2024
[1] भस्मीभूत: जलकर पूरी तरह से नष्ट होना
[2] आवेष्टित: छिपा हुआ
[3] प्रहसन: नाटक, परिहास
[4] निर्लिप्त: लगाव न रखने वाला
प्रकाशन विवरण:
1. राजस्थान साहित्य अकादमी की मुख पत्रिका मधुमती के दिसंबर-2024 के अंक में 6 अन्य कविताओं के साथ प्रकाशन
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें