व्यंग्य: गुप्त दान महा कल्याण


आज से लगभग एक दशक पहले, जब एक खास नस्ल के राजनीतिक दल को आर्यावर्त भारत की सत्ता हासिल हुई तो उन्होंने संकल्प लिया कि अब सब कुछ बदल कर ही दम लेना है, सारे पाप या तो धो लेने है या धो देने हैं. उन्होंने बेबसी के तहखानों में बरसों से जंग खा रहे अपने अरमानों को रेगमाल से रगङ-रगङ कर चमकाना आरंभ कर दिया. उनकी ख़्वाहिशों के मुरझाते पौधों पर उम्मीद की नव-कोंपलें खिलने लगीं. लेकिन जैसा कि मियां मिर्जा गालिब कह गए हैं,

हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले
बहुत निकले मिरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले

पाँच साल के एक छोटे से कार्यकाल में भला कितने अरमान निकल सकते हैं! शिंज़ो आबे वाली बुलेट ट्रेन से चलें तो भी कई दशक चाहिए. हर पाँच साल बाद सत्ता बरकरार रहे इसके लिए जरूरी है चुनावों में लगातार जीत. चुनावी जीत के लिए चाहिए भरपूर प्रचार-प्रसार. और भरपूर प्रचार-प्रसार लिए चाहिए ढेर सारा पैसा!

लिहाजा, सर्वप्रथम खास नस्ल वाले राजनीतिक दल के अत्यंत: दूरदर्शी, घुटे-घुटाए, तपे-तपाए प्रबुद्ध मंडल ने वैचारिक मंथन किया और विक्रम संवत 2074 के पौष माह की शुक्ल पूर्णिमा, वार मंगलवार को पूर्ण विधि-विधान से एक संकट मोचन, विघ्नहारी, महा कल्याणकारी यंत्र की स्थापना की. अंग्रेजी जैसी आसान भाषा में इसका सुग्राही नाम रखा गया ‘इलेक्टोरल बॉन्ड’, जो हॉलिवुड के प्रसिद्ध जासूसी किरदार ‘जेम्स बॉन्ड’ जैसा रोमांचक भी था. हिंदी क्षेत्र में इसका देशी तर्जुमा ‘चुनावी बॉन्ड’ प्रचलन में आया!

पहले के चुनावी चंदे के नियमों में बङे झोल थे, चाहकर भी कोई श्रद्धालु कंपनी, एक निश्चित राशि से ज्यादा का चंदा नहीं दे सकती थी. यदि कंपनी को लगातार तीन साल से मुनाफा न हो तो भी वह चंदा नहीं दे सकती थी. प्रबुद्ध मंडल की कई दशक दूर तक जाने वाली दृष्टि ने इस विसंगति को भलीभांति भांप लिया था; अतएव नए ‘चुनावी बॉन्ड’ को खरीदने की पात्रता से लेकर भुनाने तक के नियमों का सरलीकरण कर दिया गया. एक विशेष बैंक को इसकी ज़िम्मेवारी दी गई. अब कोई भी व्यक्ति, संस्था या कंपनी, कितनी ही राशि के ‘चुनावी बॉन्ड’ ले सकता था, दे सकता था. चूँकि भारतीय संस्कृति में गुप्त दान को महा कल्याण माना जाता है और ऐसा भी उल्लेख है कि यदि दायाँ हाथ दान दे तो बाएँ हाथ को पता न चले. अतएव ठोक बजाकर यह सुनिश्चित कर लिया गया कि ‘चुनावी बॉन्ड’ पर न खरीदने वाले का नाम होगा, न लेने वाले का-बिल्कुल रूपये के नोट की तरह! और महा कल्याण की परंपरा को एक कदम आगे बढ़ाते हुए ऐसी व्यवस्था भी कर ली गई कि यदि दायाँ हाथ दान ले तो बाएँ को पता न चले! इस प्रकार चेहरे से ‘चुनावी बॉन्ड’ दिखने वाला यह यंत्र चाल और चरित्र से विशुद्ध ‘गुप्त दान पत्र’ था.

इन्हीं आदर्शों के धरातल पर विकसित यह यंत्र जब चलन में आया तो भक्तों ने अमुक पात्र दल के चरणों में इसे अर्पित करना प्रारंभ कर दिया. आयकर, कस्टम, ई.डी., सी.बी.आई. जैसे विभागों ने संभावित श्रद्धालुओं को पहचानने से लेकर उनका उचित मार्गदर्शन करने तक का काम समर्पित स्वयं सेवकों की तरह किया. श्रद्धालुओं के रुके हुए टेंडर, अटके हुए सरकारी बिल फटाफट पास होने लगे. उनके कोर्ट-कचहरी के झगङे-टंटे, और विभिन्न सरकारी विभागों के दिन प्रति दिन के टणटणों और भभकियों में तेजी से गिरावट आने लगी.

सरकारी अनुदान पर रियायती जमीन का आवंटन, विभिन्न प्रकार की दवाओं या अन्य फैक्टरी उत्पादों की गुणवत्ता परीक्षण से लेकर इधर से उधर आवाजाही, सब में ‘बॉन्ड’ दाता को अपार राहत मिलने लगी. कई जगह तो यह भी देखने में आया कि सच्चे मन से ‘चुनावी बॉन्ड’ खरीदकर अमुक दल को समर्पित करने के संकल्प मात्र से ही अग्रिम कृपा हो गई. शैने-शैने ‘चुनावी बॉन्ड’ के इन चमत्कारों की धूम दूर-दराज तक पहुँचने लगी.

उङते-उङते इस धूम की धूल विपदाग्रस्त, घाटे से जूझती कुछ कंपनियों तक भी पहुँची या उनके शुभचिंतकों द्वारा पहुँचाई गई. उन्होंने करबद्ध, सच्चे मन से प्रार्थना की-‘हे देवेश! इस चमत्कारी यंत्र की हम पर भी कृपा दृष्टि बना दे. हमारी भी बिगङी बना दे-देवेश!’ और कमाल यह कि जैसे ही उनकी प्रार्थना पूरी हुई, आकाश से फुसफुसाती आवाज में आकाशवाणी हुई. ‘अवश्य वत्स! तुम्हारे सारे विघ्न, सारे संताप और दरिद्रता दूर हो जाएगी, अटके काम बन जाएंगे.’

‘सच! मुझे क्या करना होगा देवेश?’

‘वत्स तुम्हें अमुक राशि के ‘गुप्त दान-पत्र’ अमुक राजनीतिक दल के चरणों में अर्पित करने होंगे.’

‘लेकिन महाराज अमुक राजनीतिक दल के ही चरणों में क्यों’?

‘क्योंकि दलों की दलदल में एक मात्र वही सिद्धहस्त है, सक्षम है, दिव्य शक्तियों का मालिक है.’

‘जी, लेकिन मैं उसे पहचानूंगा कैसे?’

‘बहुत आसान है वत्स! उसकी जङें तो दलदल में होंगी लेकिन उसकी टहनियाँ, फूल-पत्तियां, दलदल के बाहर नजर आएंगी.’

‘जी समझ गया. लेकिन एक सवाल …… ’

‘देखो, यह समय सवालों का नहीं है. हम जो कह रहे हैं आँख बंद करके वही करो. जैसे ही तुम्हारा ‘गुप्त दान-पत्र’ स्वीकार होगा, कृपा बरसनी शुरु हो जाएगी. अन्यथा तुम्हारी कुंडली में भयानक विनाश के योग बन रहे हैं, वत्स!’

साक्षात आकाशवाणी के साथ-साथ यथार्थ भविष्यवाणी सुनते ही वत्स के सारे संशय दूर हो गए. अब चूँकि इष्ट का आह्वान कर लिया तो कर लिया. जिनके गुल्लक में धेला न था, जेब में फूटी कौङी न थी, उन्होंने भी जोङ-तोङ की विशुद्ध स्वदेशीय ‘जुगाङ आर्थिक प्रबंधन नीति’ के व्यवहारिक सिद्धांत का अनुसरण करते हुए वांछित राशि की व्यवस्था की. वैसे महान व्यक्तियों ने कहा भी है जब उद्देश्य पवित्र और उच्च कोटि का हो तो पूरी कायनात साथ देती है. और सचमुच जैसे ही ‘गुप्त दान पत्र’ अमुक दिव्य शक्तियों वाले दल के चरण कमलों में अर्पित हुए, संकटग्रस्त कंपनियों को पुण्य लाभ प्राप्त होना आरंभ हो गया.

लेकिन होनी को कुछ और ही मंजूर था. कुछ वर्षों तक सब कुछ सुचारु चलते रहने के बाद एक-सदैव दूसरों की फटी में टांग अङाने वाले वकील और एक-खुराफाती संस्था ने हल्ला बोल दिया और ‘चुनावी बॉन्ड’ की वैधता पर सवाल खङे कर दिए. वे इसके ‘तिलस्मी रहस्य’ की मर्यादा के पीछे हाथ धोकर पङ गए. ‘परदा है परदा, परदे के पीछे?, ’क्विड-प्रो-को!’, ‘मनी लॉन्ड्रिंग!’, ‘एक्स्टोर्शन!’ और न जाने क्या-क्या इल्ज़ामात. अदालतों में मामला खिंचता रहा लेकिन वकील की दलील और तथ्य थे ही ऐसे कि जज साहब भी करे तो क्या करे. कभी-कभी अदालतें भी अंतर्निहित भावनाओं, जज़्बातों और पावन उद्देश्यों को समझ नहीं पातीं. बात खुलने लगी, परदे गिरने लगे, परदानशीं, बेपरदा हो गए, भेद खुल गया और शोर मच गया!

मालूम पङा, खुले दिल से प्रसाद बटोरा गया है. बाएँ हाथ ने शिकायत की कि उसे बहुत कम हिस्सा मिला और बङा हिस्सा दायाँ हाथ डकार गया. दाएँ हाथ ने दलील दी-‘सारा काम हमने किया, मुँह में निवाला ठूंसने से लेकर, डंडा चलाने, डंडा घुमाने, ऊपर-नीचे धोने-निचोने तक में हमारा ही सर्वाधिक योगदान रहा. हमने अपनी दिव्य शक्तियों से भक्तजनों की सारी मुरादें पूरी कीं, तुम्हारे पल्ले था ही क्या? फिर यदि हमें ज्यादा मिल गया तो इसमें गलत क्या है’?

बेचारे बैंक के तो हवन करते हाथ जल गए. यद्यपि उसने आखिरी वक़्त तक पुरज़ोर कोशिश की कि अपात्र लोगों तक बॉन्ड का ‘गूढ़ तत्वज्ञान’ न पहुँचे, अन्यथा घोर अनर्थ हो जाएगा. लेकिन आँखों पर पट्टी बांधे बैठे लोगों ने एक न सुनी और ‘चुनावी बॉन्ड’ का ‘पावन रहस्य’ जग जाहिर हो ही गया. और भाग्य की विडंबना देखिए, जैसे ही यह सार्वजनिक हुआ, ‘चुनावी बॉन्ड’ उर्फ ‘गुप्त दान-पत्र’ की तमाम दिव्य चमत्कारी शक्तियां समाप्त हो गईं.

खैर जो हुआ सो हुआ. खास नस्ल के राजनीतिक दल के अत्यंत: दूरदर्शी, घुटे-घुटाए, तपे-तपाए प्रबुद्ध मंडल ने आपातकालीन बैठक की और पाया कि (1) प्रवर्तन निदेशालय, केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो, आयकर विभाग आदि ने सुधारात्मक उपायों के जरिए सैंकङों भटके हुए लोगों और कंपनियों को राह पर लाने का सराहनीय कार्य किया है. (2) देश के बङे-बङे नामी-गिरामी धन्ना सेठों को पछाङते हुए एक लॉटरी वाली कंपनी ने सबसे ज्यादा ‘गुप्त दान’ देकर सिद्ध कर दिया है कि कोई भी काम छोटा नहीं होता. (3) घाटे में रहकर भी चुनावी यज्ञ में ‘गुप्त दान’ देकर बहुत सी कंपनियों ने राष्ट्रभक्ति के जज़्बे को कायम रखा है. (4) ‘चुनावी बॉन्ड’ यंत्र की स्थापना से पूर्व प्रबुद्ध मंडल की तपस्या में कहीं न कहीं कमी रह गई थी, भविष्य में ऐसा नहीं होने दिया जाएगा (5) यह कलियुग नहीं घोर कलियुग का दौर है. जब तक यह घोर कलयुगी प्रजातांत्रिक व्यवस्था बनी रहेगी, हमारे द्वारा किए जा रहे नेक प्रयास असफल होते रहेंगे. अत: इस व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन करना होगा.

@ दयाराम वर्मा, जयपुर (राज.) 11.04.2024 (R) 22.04.2024

व्यंग्य : मंच और नेपथ्य


 
पहला मंच

मंच से भारी भरकम आवाज उभरी- ‘भाइयों और बहनों, देश में गरीबी घटी की नहीं घटी?’ इससे पहले कि कोई गरीब भाई या बहिन जवाब देते, लहालोटिए अख़बारों ने मोटे-मोटे अक्षरों में सुर्खी छाप दी- ‘देश में अब गरीबी का कोई स्थान नहीं’. असरकारी संस्थाओं ने औंधे पङे डैशबोर्ड पर एकदम चटक रोशनाई से संपन्नता और विपन्नता की अदला-बदली कर अपनी आधिकारिक वेबसाइट पर आंकड़ों की रंग बिरंगी रंगोलियाँ सजा दीं.

तथागत बुद्धिजीवियों, हुङकचुल्लू कलमकारों और ऊपरले दर्जे के राजनीतिक विश्लेषकों ने सजे-धजे सेमिनारों में ताल ठोंकी, ‘आम आदमी के जीवन स्तर में अभूतपूर्व सुधार, गरीबी मरणासन्न’.

अघायी आवासीय सोसाइटी के सेवा के साथ-साथ मेवा से भी निवृत्त चाचाओं ने संध्या कालीन भ्रमण के समय, मुद्दे की गहराई में कई मर्तबा गोते लगाकर अनमोल मोती बाहर निकाले-‘गरीबी वरीबी सब नाटक है. काम करने वालों के लिए कोई गरीबी नहीं. घरेलू गैस सब्सिडी पर, इलाज मुफ़्त, टैक्स देना नहीं, इंदिरा आवास योजना में मकान. जनता को मुफ़्त की रेवड़ियां खाने की आदत पङ गई है.’ मसख़रे किस्म के एक चचा ने अपने सफ़ाचट चेहरे पर कुटिल मुस्कान बिखेरते हुए कहा-‘वैसे जमीन के नीचे ही नीचे सरकार बङी सफ़ाई से रेवङियों की जङें काट रही हैं. ही-ही-ही.’

दूर से दर्शन कराने वाले चैनलों की बहसें, ऐसे झूम उठीं जैसे सावन में मोर, ‘हट गई जी हट गई, गरीबी देश से हट गई, सरकार ये करिश्माई है, सभी के मन को भाई है. झूम बराबर झूम…’

दूसरा मंच

उक्त बहस का चरमोत्कर्ष अभी शेष था कि वह भारी भरकम आवाज दूसरे मंच से प्रकट हो उठी- ‘भाइयों और बहनों, देश में बेरोजगारी घटी कि नहीं घटी?’ और किसी बेरोजगार भाई या बहिन की आवाज़ मंच तक पहुँचती, उससे पहले ही; लहालोटिए अख़बारों ने राग मल्हार अलापना शुरु कर दिया-‘बेरोजगारी दर में अप्रत्याशित गिरावट’. असरकारी संस्थाओं के विशाल स्वरोजगारी पोस्टरों ने सरकारी रोजगार के बौनेपन को पूरी तरह से ढक लिया. उत्साह अतिरेक में रोजगार के फोंट का आकार इतना बङा हो गया कि एक पोस्टर में ‘रोज’ तो दूसरे में ‘गार’ छापना पङा.

मूर्धन्य कलमकारों, बुद्धिजीवियों और धरती धकेल राजनीतिक विश्लेषकों ने कशीदाकारी की, ‘वास्तविक बेरोजगारी दशकों बाद निम्नतम पायदान पर’.

अघायी सोसाइटी के चाचाओं ने प्रातःकालीन चुहलकदमी के समय, मुद्दे की गाँठें ढीली कीं-‘साहिब ने छ:-छ: पहर जागकर, बिना एक भी अवकाश लिए काम किया है. रोजगार और स्वरोजगार के हजारों हजार नए अवसरों का सृजन हुआ है. अब अग्निवीर को ही लो, लाखों रोजगार तो एक झटके में पैदा हो गए.’ एक अन्य चचा ने अनन्य विश्लेषण प्रस्तुत किया- ‘आजकल के युवाओं को तो अफ़सर बनना है- वह भी सरकारी! हराम की खाना चाहते हैं सब. और भी तो काम है, स्टार्ट-अप खोलो, पकौङे तलो, डिलीवरी बॉय का काम करो, सब्जी बेचो. इन दिनों लोग धार्मिक पर्यटन पर खूब पैसा खर्च कर रहे हैं; वहाँ हर तरह का काम है. गाँवों में निठल्ले लोग घर बैठे नरेगा का पैसे पा रहे हैं और किसानों को बुआई, कटाई के लिए मजदूर नहीं मिल रहे. भाई साहब, कमी नीयत की है काम की नहीं’.

दूरदर्शन चैनलों की प्राइम टाइम बहसी मंडलियों ने ताजातरीन जुमले को कूदकर लपक लिया और उसके साथ गलबहियां डाल थिरकने लगीं, ‘दुख भरे दिन बीते रे भैया, द्वार-द्वार लक्ष्मी आई रे, काम काज की कमी नहीं अब, रोजगार की गमीं नहीं अब. झूम बराबर झूम…’

तीसरा मंच

कुछ समय पश्चात तीसरे मंच पर वही भारी भरकम आवाज नमूदार हुई- ‘भाइयों और बहनों, देश में अल्पसंख्यकों का पुष्टकरण होना चाहिए कि नहीं?’ सहमा, घबराया सा कोई अल्पसंख्यक, मुनादी सवाल का बुनियादी अर्थ समझने की चेष्टा कर ही रहा था कि, नतमस्तक अख़बारों ने अपने पहले पन्ने पर सनसनी फैलाई ‘देश में अल्पसंख्यकों की तकदीर पलट सकती है’.

असरकारी संस्थाओं ने सरकार की मंशा को स्पष्ट किया-अल्पसंख्यक लोग टायर-पंचर से लेकर सब्जी बेचने, कारीगरी, फेब्रिकेशन, ऑटो रिक्शा, दुकानदारी आदि हर काम में दक्षता रखते हैं लिहाजा कर्मठ और साधन संपन्न होते हैं. लेकिन पिछली सरकारों की तुष्टीकरण की नीति उन्हें लगातार आलसी और अकर्मण्य बना रही थी, अतएव उन्हें पुष्ट होने के लिए तुष्ट होना छोङना पङेगा. कोई अपात्र पुष्ट न हो जाए, इसलिए पुष्टीकरण भी किया जाएगा’.

अति विशिष्ट बुद्धिजीवियों, कलमकारों और राजनीतिक विश्लेषकों ने अल्पसंख्यकों को पटरी पर लाने के लिए दिल से दुआ की ‘हम चाहते हैं कि अल्पसंख्यकों का तुष्टीकरण नहीं पुष्टीकरण हो’.

अघायी सोसाइटी के सेवानिवृत्त चाचाओं ने बगीचे में गप्प-गोष्ठी करते समय मुद्दे के अदृश्य पहलू को खुरचा, ‘वोट बैंक की राजनीति ने सर चढ़ा कर रखा था इतने सालों से. खाएंगे हिंदुस्तान का, गाएंगे पाकिस्तान का! जाने चले आते हैं कहाँ-कहाँ से, हिंदुस्तान को सराय समझ रखा है क्या? अब वक्त आ गया है, इन्हें असल जमीन दिखलाने का.’ गंजे चचा ने खोपङी पर हाथ फिराते हुए पूछा- ‘ये पुष्टकरण है कि पुष्टीकरण?’ मोटी तोंद वाले दूसरे चचा ने स्पष्ट किया-‘कभी-कभार वक्ता के मुँह से पूरा शब्द नहीं निकलता, असल भाव पुष्टीकरण ही है.’

दूरदर्शन चैनलों की बहस मंडलियों में राष्ट्रीय एकता से सरोबार जोशीले काव्य पाठ होने लगे. ‘एक राष्ट्र एक ध्वज एक ही पहचान, छोङो अपनी डपली अपनी तान, सीखो सबक खोल आँख और कान, बोलो जय श्री साहिब महान, झूम बराबर झूम……’

चौथा मंच

चारण परंपरा की इस कविता के आनन्द में जनता मग्न थीं कि चौथे मंच से वही सम्मोहक आवाज गूँजी- ‘भाइयों और बहनों-देश में विकास हुआ कि नहीं हुआ?’ और इससे पहले कि …… , स्वयं के विकास से कृतार्थ अख़बारों ने अतिरिक्त संस्करण निकाल दिया-‘देश में चतुर्दिक विकास की न केवल गंगा बल्कि कृष्णा, कावेरी, गोदावरी, जमुना और सरस्वती भी बह रही है.’

असरकारी संस्थाओं ने ढूंढ-ढूंढ कर पुराने बोर्डों, दीवारों, बसों, गाङियों, झोंपङियों, खंडहरों हर जगह को विकास ब्रांड के कभी न छूटने, कभी न धुलने वाले पक्के रंग से पोत डाला. पारंगत बुद्धिजीवियों, कलमकारों और राजनीतिक विश्लेषकों ने न केवल साहित्य, ज्ञान विज्ञान और राजनीति बल्कि समाज शास्त्र, दर्शन शास्त्र और अर्थशास्त्र आदि के क्षेत्र में भी विकास का इतना महिमा मंडन किया कि पत्र-पत्रिकाएं, मंच-मुशायरे, आभासी मचान, इत्यादि सब विकास रूपी शिखर पर पहुँच गए.

अघायी आवासीय सोसाइटी के स्वच्छंद चाचाओं ने पार्क की मखमली दूब पर नंगे पाँव टहल कदमी करते हुए, मुद्दे को धोया-निचोया और फटका तो यकायक दर्शन की एक अतुल्य चमक कौंध उठी- ‘पिछली सरकारों ने सत्तर सालों में किया ही क्या? जबकि इस सरकार ने नोट बंदी, जीएसटी, तीन सौ सत्तर, तीन तलाक, मान-सम्मान, प्राण-प्रतिष्ठा, चीन-पाकिस्तान, शमशान-कब्रिस्तान जैसे मुद्दों पर दिन रात परिश्रम करते हुए अल्पकाल में ही सबको निपटा दिया!’ संजीदा रहने वाले एक चचा ने गंभीर मुद्रा बनाई- ‘ऐसा विकास तो किसी दिव्य आत्मा के द्वारा ही संभव है जो हजारों सालों में एक बार जन्म लेती है.’

दूरदर्शन चैनलों की बहसें जुमले की प्रभावशीलता से इतने जोश में भर उठीं कि होश खोने लगी और उछलते हुए न्यूज़रूम की छत से टकराने लगीं- ‘देश अब रुकने वाला नहीं, गद्दारों के आगे झुकने वाला नहीं, विकास अब बेलगाम है, बच के रहना रे बाबा, विश्वगुरु हम महान है, झूम बराबर झूम…’.

पाँचवाँ मंच

जनता को जश्न के इस माहौल में छोड़कर चिर परिचित आवाज पहुँच गई पाँचवें मंच पर-‘भाइयों और बहनों-देश में महंगाई कम हुई कि नहीं हुई?’ इससे पहले कि महंगाई से त्रस्त कोई भाई या बहिन अपना सुखा गला तर कर कुछ बोल पाता; सरकारी विज्ञापनों के ढेर पर फिसल पट्टी खेलते अख़बारों ने संपादकीय आलेखों में सिद्ध करना आरंभ कर दिया कि पिछले एक दशक में जितनी तेजी से आय बढ़ी है उसकी तुलना में महंगाई कुछ भी नहीं बढ़ी. असरकारी संस्थाओं ने आंकङों की बाजीगरी का दुर्लभ नमूना पेश करते हुए, पुष्ट कर दिया कि वास्तव में महंगाई बढ़ी नहीं, घटी है.

सर्वमान्य बुद्धिजीवियों, कलमकारों और राजनीतिक विशेषज्ञों ने भांति-भांति के तर्क देकर जनता को अच्छे से न केवल समझा दिया बल्कि बुझा भी दिया कि बढ़ती हुई महंगाई देश की सकल घरेलू आय की वृद्धि के समक्ष प्रगतिशीलता की द्योतक है और उन्नति का एक प्रामाणिक सूचकांक!

अघायी सोसाइटी के अनुभवी चाचाओं ने सामुदायिक हॉल की तम्बोला पार्टी में पनीर-पकौड़ों पर हाथ साफ़ करते हुए इस मुद्दे पर जुगाली की- ‘माना कि चीजें महंगी हुई है, लेकिन आमदनी कितनी बढ़ी ये भी तो देखो. प्लम्बर को एक नल कसने के लिए बुलाओ तो पाँच सौ रुपया विजिटिंग फीस माँग लेता है. हमारी काम वाली बाई तक महीने के पच्चीस-तीस हजार कमा लेती है. आज ससुरा मजदूर आदमी भी बिना गाङी के नहीं चलता, कूलर चलाता है, पक्के घरों में रहता है फिर भी महंगाई का रोना!’ लाल-लाल आँखों वाले एक चचा ने माथे पर त्योरियां चढ़ाईं- ‘देश में ये जो इतना विकास हो रहा है, यदि ऐसा ही होता रहा तो हम पाँच सौ रुपया प्रति लीटर पेट्रोल-डीजल और पाँच हजार रुपया प्रति सिलेंडर गैस का दाम भी खुशी-खुशी बर्दाश्त करे लेंगे.’

दूरदर्शन चैनलों की प्राइम-टाइम बहसों को अरसे बाद चिर-परिचित, अजर अमर अविनाशी मुद्दा मिला. थुलथुले मुद्दे की ढीली त्वचा पर अरंडी के तेल की मालिश की गई. इसके सफेद बालों को पतंजलि केश कांति से धोकर सुनहरी भूरे-काले रंग वाली गोदरेज हेयर-डाई से रंगा गया. अब नए कलेवर, नए अंदाज में न्यूज़रूम के फ्लोर पर कूल्हे मटकाती, महंगाई अपनी मोहक अदाओं के साथ प्रविष्ट हुई. ‘हम महंगे हैं तो क्या हुआ, हम कोई गैर नहीं, तिजोरी का पहलू छोङो, हमसे नाता जोड़ो, हम तुम्हारे तलबगार हैं, अपना कोई बैर नहीं, झूम बराबर झूम…’

छठा मंच

महंगाई के साथ झूमती हुई जनता को अलविदा कर चिर परिचित आवाज अब छठे मंच से मुख़ातिब थी-‘भाइयों और बहनों-देश में भ्रष्टाचार कम हुआ कि नहीं?’ और इससे पहले कि कोई भाई या बहिन अपने दिल की बात ज़बान पर लाता, आम और ख़ास अख़बारों ने विपक्षी दलों और विरोधियों पर नित पङने वाले ई.डी., सी.बी.आई., आयकर आदि के छापों और सुत्रों के हवाले से प्राप्त रहस्यमयी सुचनाओं के आधार पर अपने पहले पन्नों को रंगीन और संगीन बना डाला. ‘विपक्ष के फलां नेता के घर ईडी ने छापा मारा. डैस-डैस-डैस करोङ के घोटाले का भंडाफोड़!’

असरकारी संस्थाओं ने विपक्षी दलों और विरोधियों पर मढ़े हर छोटे बङे भ्रष्टाचार को चुन-चुनकर सूचीबद्ध किया और तथाकथित घोटालों की राशि के आगे हजार या लाख की जगह शून्य लगाकर बताया कि इस सरकार के कार्यकाल में कितनी बङी राशि के घोटाले और ग़बन उजागर हुए हैं. तथापि जो आरोपित नेता और विरोधी हृदय परिवर्तन हो जाने के कारण शरणागत हो गए, उनके आरोपों को सिरे से खारिज करते हुए कूड़ेदान में डाल दिया गया.

तथागत बुद्धिजीवियों, हुङकचुल्लू कलमकारों और ऊपरले दर्जे के राजनीतिक विश्लेषकों ने मीडिया की खबरों का त्वरित संज्ञान लेते हुए भ्रष्टाचार के आरोपी विपक्षी नेताओं और विरोधियों को केवल पानी ही नहीं, सोडा और व्हिस्की पी-पी कर कोसा. विभिन्न टीवी और यूट्यूब चैनलों पर प्रायोजित चर्चाओं में ऐसे आरोपियों, उनकी विचारधारा, उनकी विरासत और यहाँ तक कि उनके पूर्वजों तक को लानत-मलामत भेज कर उन्होंने अपने समर्पित उत्तरदायित्व का निर्वहन किया.

अघायी सोसाइटी के सेवा और मेवा निवृत्त चाचाओं ने बगीचे में गप्प-गोष्ठी करते समय चटकारा लिया, ‘अब आ रहे हैं ऊँट पहाङ के नीचे. पानी में, शराब में, बिजली में, सङक में, रेल में, खेल में, जेल में, हर ठेके, हर टेंडर में, हर अप्रूवल में रिश्वत. यहाँ तक कि जानवरों के चारे और बच्चों के मिड-डे मील तक को भी नहीं छोङा! सब के सब आकंठ भ्रष्टाचार में डूबे थे. धन्य है सरकार और सरकार की ईमानदारी.’ राजनीति की कम समझ रखने वाले एक गंजे चचा ने चिंता जाहिर की-‘लेकिन ये जो विपक्ष के दागी हैं, उनको शामिल कर क्लीन चिट देना ….. ठीक नहीं लगता.’ घुटी हुई खोपङी और मोटी तोंद वाले दूसरे चचा ने तुरंत उसकी शंका का निवारण किया, ‘अरे भाई साहब, आप समझे नहीं; उनकी लंका लगाने के लिए विभीषण चाहिए कि नहीं?’ …… ‘हो-हो-हो; ही- ही-ही.’

दूरदर्शन चैनलों ने अपनी सायंकालीन मुख्य बहसों के लिए तुरंत भ्रष्टाचार जैसे मलाईदार और मसालेदार विषय पर लाइट-कैमरा केंद्रित किया और एक्शन आरंभ कर दिया. गर्मा-गर्म चर्चाओं में विपक्ष या विरोधी पक्ष के वक्ता को सिलबट्टे पर बैठाकर दूसरे पक्ष के वक्ता, उनके हिमायती एंकर और उनसे सहमति रखने वाले राजनीतिक विशेषज्ञ, घिसाने, कूटने और पीसने लगे. ‘घोटाले बाजों की खैर नहीं, शरणागत से बैर नहीं, माल जो उङाया है हिसाब देना होगा, या मेल वरना जेल जाना होगा, झूम बराबर झूम….’

नेपथ्य

और यकीनन अख़बार के दफ्तर में, संस्थाओं के वातानुकूलित कमरों में, कॉफी हाउस पर-स्वयंभू बुद्धिजीवियों, विशेष गुण संपन्न कलमकारों और विशेष योग्यता धारी राजनीतिक विश्लेषकों के बीच, शहरों की कुलीन आवासीय सोसाइटीज के भीतर और दूरदर्शन चैनलों के न्यूज़रूम में, न कोई गरीब था, न कोई बेरोजगार, न कोई पिछड़ा. चारों ओर विकास के जलवे थे. कर्मणा मनसा वाचा, सरकार के साथ खङे एक भी शख्स को भ्रष्टाचार का भ भी छू नहीं सकता था! नई नवेली दुल्हन के नाज नखरों की तरह महंगाई सबको प्रिय थी.. वहाँ अगर किसी की गैर मौजूदगी थी तो वह थी उन भाइयों और बहनों की जिसे मंच से भारी भरकम आवाज बार-बार संबोधित कर रही थी.

@ दयाराम वर्मा, जयपुर 06.04.2024 (R) 22.04.2024
कविता: सवालों की मौत




बहुत नागवार है उसे
हर तनी हुई मुट्ठी, हर दुस्साहसी नज़र
हर स्वावलंबी कशेरुका-दंड
अभिव्यक्ति की हर एक आवाज़
सवालों को पोषती हर एक अभिव्यंजना!

वह चाहता है
अपने सम्मुख सदैव फैले हुए याचक
या जयघोष में उठे हाथ
दृष्टि विहीन नमित आंखें और
झुकी हुई फ़रमाँ-बरदार मेरुदण्ड!

वह जानता है
उलझा देना सवाल को सवाल से
कथनी करनी और मुद्दों पर तथ्यपरक
सवालों की घेराबंदी को
बेधना तोड़ना मरोड़ना और अंततः
ढाल लेना अपने अनुकूल!

वह अमन पसंद है
नहीं चाहता कुनमुनाते भुनभुनाते
टेढ़े-मेढ़े पङे या खङे सवाल
असहज भूखे-नंगे वृत्तिहीन रेंगते सवाल
और
सङक पर चीखते चिल्लाते!
तो कतई नहीं

और अब
उसका मूक उद्घोष है
इससे पहले की कोई अनचाहा सवाल
अवतरित हो किसी गर्भ से
गर्भपात हो!
या हो प्रसूता की अकाल मृत्यु!
उसे विश्वास हो चला है
दैवीय शक्ति से लैस परमेश्वर वही है


@ दयाराम वर्मा जयपुर 31.03.2024




कशेरुका-दंड: रीढ़ की हड्डी
अभिव्यंजना: अभिव्यक्ति
फ़रमाँ-बरदार: आज्ञाकारी, आज्ञा-पालक, ताबेदार
शिरोधरा: ग्रीवा, गर्दन

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