व्यंग्य: गुप्त दान महा कल्याण


आज से लगभग एक दशक पहले, जब एक खास नस्ल के राजनीतिक दल को आर्यावर्त भारत की सत्ता हासिल हुई तो उन्होंने संकल्प लिया कि अब सब कुछ बदल कर ही दम लेना है, सारे पाप या तो धो लेने है या धो देने हैं. उन्होंने बेबसी के तहखानों में बरसों से जंग खा रहे अपने अरमानों को रेगमाल से रगङ-रगङ कर चमकाना आरंभ कर दिया. उनकी ख़्वाहिशों के मुरझाते पौधों पर उम्मीद की नव-कोंपलें खिलने लगीं. लेकिन जैसा कि मियां मिर्जा गालिब कह गए हैं,

हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले
बहुत निकले मिरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले

पाँच साल के एक छोटे से कार्यकाल में भला कितने अरमान निकल सकते हैं! शिंज़ो आबे वाली बुलेट ट्रेन से चलें तो भी कई दशक चाहिए. हर पाँच साल बाद सत्ता बरकरार रहे इसके लिए जरूरी है चुनावों में लगातार जीत. चुनावी जीत के लिए चाहिए भरपूर प्रचार-प्रसार. और भरपूर प्रचार-प्रसार लिए चाहिए ढेर सारा पैसा!

लिहाजा, सर्वप्रथम खास नस्ल वाले राजनीतिक दल के अत्यंत: दूरदर्शी, घुटे-घुटाए, तपे-तपाए प्रबुद्ध मंडल ने वैचारिक मंथन किया और विक्रम संवत 2074 के पौष माह की शुक्ल पूर्णिमा, वार मंगलवार को पूर्ण विधि-विधान से एक संकट मोचन, विघ्नहारी, महा कल्याणकारी यंत्र की स्थापना की. अंग्रेजी जैसी आसान भाषा में इसका सुग्राही नाम रखा गया ‘इलेक्टोरल बॉन्ड’, जो हॉलिवुड के प्रसिद्ध जासूसी किरदार ‘जेम्स बॉन्ड’ जैसा रोमांचक भी था. हिंदी क्षेत्र में इसका देशी तर्जुमा ‘चुनावी बॉन्ड’ प्रचलन में आया!

पहले के चुनावी चंदे के नियमों में बङे झोल थे, चाहकर भी कोई श्रद्धालु कंपनी, एक निश्चित राशि से ज्यादा का चंदा नहीं दे सकती थी. यदि कंपनी को लगातार तीन साल से मुनाफा न हो तो भी वह चंदा नहीं दे सकती थी. प्रबुद्ध मंडल की कई दशक दूर तक जाने वाली दृष्टि ने इस विसंगति को भलीभांति भांप लिया था; अतएव नए ‘चुनावी बॉन्ड’ को खरीदने की पात्रता से लेकर भुनाने तक के नियमों का सरलीकरण कर दिया गया. एक विशेष बैंक को इसकी ज़िम्मेवारी दी गई. अब कोई भी व्यक्ति, संस्था या कंपनी, कितनी ही राशि के ‘चुनावी बॉन्ड’ ले सकता था, दे सकता था. चूँकि भारतीय संस्कृति में गुप्त दान को महा कल्याण माना जाता है और ऐसा भी उल्लेख है कि यदि दायाँ हाथ दान दे तो बाएँ हाथ को पता न चले. अतएव ठोक बजाकर यह सुनिश्चित कर लिया गया कि ‘चुनावी बॉन्ड’ पर न खरीदने वाले का नाम होगा, न लेने वाले का-बिल्कुल रूपये के नोट की तरह! और महा कल्याण की परंपरा को एक कदम आगे बढ़ाते हुए ऐसी व्यवस्था भी कर ली गई कि यदि दायाँ हाथ दान ले तो बाएँ को पता न चले! इस प्रकार चेहरे से ‘चुनावी बॉन्ड’ दिखने वाला यह यंत्र चाल और चरित्र से विशुद्ध ‘गुप्त दान पत्र’ था.

इन्हीं आदर्शों के धरातल पर विकसित यह यंत्र जब चलन में आया तो भक्तों ने अमुक पात्र दल के चरणों में इसे अर्पित करना प्रारंभ कर दिया. आयकर, कस्टम, ई.डी., सी.बी.आई. जैसे विभागों ने संभावित श्रद्धालुओं को पहचानने से लेकर उनका उचित मार्गदर्शन करने तक का काम समर्पित स्वयं सेवकों की तरह किया. श्रद्धालुओं के रुके हुए टेंडर, अटके हुए सरकारी बिल फटाफट पास होने लगे. उनके कोर्ट-कचहरी के झगङे-टंटे, और विभिन्न सरकारी विभागों के दिन प्रति दिन के टणटणों और भभकियों में तेजी से गिरावट आने लगी.

सरकारी अनुदान पर रियायती जमीन का आवंटन, विभिन्न प्रकार की दवाओं या अन्य फैक्टरी उत्पादों की गुणवत्ता परीक्षण से लेकर इधर से उधर आवाजाही, सब में ‘बॉन्ड’ दाता को अपार राहत मिलने लगी. कई जगह तो यह भी देखने में आया कि सच्चे मन से ‘चुनावी बॉन्ड’ खरीदकर अमुक दल को समर्पित करने के संकल्प मात्र से ही अग्रिम कृपा हो गई. शैने-शैने ‘चुनावी बॉन्ड’ के इन चमत्कारों की धूम दूर-दराज तक पहुँचने लगी.

उङते-उङते इस धूम की धूल विपदाग्रस्त, घाटे से जूझती कुछ कंपनियों तक भी पहुँची या उनके शुभचिंतकों द्वारा पहुँचाई गई. उन्होंने करबद्ध, सच्चे मन से प्रार्थना की-‘हे देवेश! इस चमत्कारी यंत्र की हम पर भी कृपा दृष्टि बना दे. हमारी भी बिगङी बना दे-देवेश!’ और कमाल यह कि जैसे ही उनकी प्रार्थना पूरी हुई, आकाश से फुसफुसाती आवाज में आकाशवाणी हुई. ‘अवश्य वत्स! तुम्हारे सारे विघ्न, सारे संताप और दरिद्रता दूर हो जाएगी, अटके काम बन जाएंगे.’

‘सच! मुझे क्या करना होगा देवेश?’

‘वत्स तुम्हें अमुक राशि के ‘गुप्त दान-पत्र’ अमुक राजनीतिक दल के चरणों में अर्पित करने होंगे.’

‘लेकिन महाराज अमुक राजनीतिक दल के ही चरणों में क्यों’?

‘क्योंकि दलों की दलदल में एक मात्र वही सिद्धहस्त है, सक्षम है, दिव्य शक्तियों का मालिक है.’

‘जी, लेकिन मैं उसे पहचानूंगा कैसे?’

‘बहुत आसान है वत्स! उसकी जङें तो दलदल में होंगी लेकिन उसकी टहनियाँ, फूल-पत्तियां, दलदल के बाहर नजर आएंगी.’

‘जी समझ गया. लेकिन एक सवाल …… ’

‘देखो, यह समय सवालों का नहीं है. हम जो कह रहे हैं आँख बंद करके वही करो. जैसे ही तुम्हारा ‘गुप्त दान-पत्र’ स्वीकार होगा, कृपा बरसनी शुरु हो जाएगी. अन्यथा तुम्हारी कुंडली में भयानक विनाश के योग बन रहे हैं, वत्स!’

साक्षात आकाशवाणी के साथ-साथ यथार्थ भविष्यवाणी सुनते ही वत्स के सारे संशय दूर हो गए. अब चूँकि इष्ट का आह्वान कर लिया तो कर लिया. जिनके गुल्लक में धेला न था, जेब में फूटी कौङी न थी, उन्होंने भी जोङ-तोङ की विशुद्ध स्वदेशीय ‘जुगाङ आर्थिक प्रबंधन नीति’ के व्यवहारिक सिद्धांत का अनुसरण करते हुए वांछित राशि की व्यवस्था की. वैसे महान व्यक्तियों ने कहा भी है जब उद्देश्य पवित्र और उच्च कोटि का हो तो पूरी कायनात साथ देती है. और सचमुच जैसे ही ‘गुप्त दान पत्र’ अमुक दिव्य शक्तियों वाले दल के चरण कमलों में अर्पित हुए, संकटग्रस्त कंपनियों को पुण्य लाभ प्राप्त होना आरंभ हो गया.

लेकिन होनी को कुछ और ही मंजूर था. कुछ वर्षों तक सब कुछ सुचारु चलते रहने के बाद एक-सदैव दूसरों की फटी में टांग अङाने वाले वकील और एक-खुराफाती संस्था ने हल्ला बोल दिया और ‘चुनावी बॉन्ड’ की वैधता पर सवाल खङे कर दिए. वे इसके ‘तिलस्मी रहस्य’ की मर्यादा के पीछे हाथ धोकर पङ गए. ‘परदा है परदा, परदे के पीछे?, ’क्विड-प्रो-को!’, ‘मनी लॉन्ड्रिंग!’, ‘एक्स्टोर्शन!’ और न जाने क्या-क्या इल्ज़ामात. अदालतों में मामला खिंचता रहा लेकिन वकील की दलील और तथ्य थे ही ऐसे कि जज साहब भी करे तो क्या करे. कभी-कभी अदालतें भी अंतर्निहित भावनाओं, जज़्बातों और पावन उद्देश्यों को समझ नहीं पातीं. बात खुलने लगी, परदे गिरने लगे, परदानशीं, बेपरदा हो गए, भेद खुल गया और शोर मच गया!

मालूम पङा, खुले दिल से प्रसाद बटोरा गया है. बाएँ हाथ ने शिकायत की कि उसे बहुत कम हिस्सा मिला और बङा हिस्सा दायाँ हाथ डकार गया. दाएँ हाथ ने दलील दी-‘सारा काम हमने किया, मुँह में निवाला ठूंसने से लेकर, डंडा चलाने, डंडा घुमाने, ऊपर-नीचे धोने-निचोने तक में हमारा ही सर्वाधिक योगदान रहा. हमने अपनी दिव्य शक्तियों से भक्तजनों की सारी मुरादें पूरी कीं, तुम्हारे पल्ले था ही क्या? फिर यदि हमें ज्यादा मिल गया तो इसमें गलत क्या है’?

बेचारे बैंक के तो हवन करते हाथ जल गए. यद्यपि उसने आखिरी वक़्त तक पुरज़ोर कोशिश की कि अपात्र लोगों तक बॉन्ड का ‘गूढ़ तत्वज्ञान’ न पहुँचे, अन्यथा घोर अनर्थ हो जाएगा. लेकिन आँखों पर पट्टी बांधे बैठे लोगों ने एक न सुनी और ‘चुनावी बॉन्ड’ का ‘पावन रहस्य’ जग जाहिर हो ही गया. और भाग्य की विडंबना देखिए, जैसे ही यह सार्वजनिक हुआ, ‘चुनावी बॉन्ड’ उर्फ ‘गुप्त दान-पत्र’ की तमाम दिव्य चमत्कारी शक्तियां समाप्त हो गईं.

खैर जो हुआ सो हुआ. खास नस्ल के राजनीतिक दल के अत्यंत: दूरदर्शी, घुटे-घुटाए, तपे-तपाए प्रबुद्ध मंडल ने आपातकालीन बैठक की और पाया कि (1) प्रवर्तन निदेशालय, केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो, आयकर विभाग आदि ने सुधारात्मक उपायों के जरिए सैंकङों भटके हुए लोगों और कंपनियों को राह पर लाने का सराहनीय कार्य किया है. (2) देश के बङे-बङे नामी-गिरामी धन्ना सेठों को पछाङते हुए एक लॉटरी वाली कंपनी ने सबसे ज्यादा ‘गुप्त दान’ देकर सिद्ध कर दिया है कि कोई भी काम छोटा नहीं होता. (3) घाटे में रहकर भी चुनावी यज्ञ में ‘गुप्त दान’ देकर बहुत सी कंपनियों ने राष्ट्रभक्ति के जज़्बे को कायम रखा है. (4) ‘चुनावी बॉन्ड’ यंत्र की स्थापना से पूर्व प्रबुद्ध मंडल की तपस्या में कहीं न कहीं कमी रह गई थी, भविष्य में ऐसा नहीं होने दिया जाएगा (5) यह कलियुग नहीं घोर कलियुग का दौर है. जब तक यह घोर कलयुगी प्रजातांत्रिक व्यवस्था बनी रहेगी, हमारे द्वारा किए जा रहे नेक प्रयास असफल होते रहेंगे. अत: इस व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन करना होगा.

@ दयाराम वर्मा, जयपुर (राज.) 11.04.2024 (R) 22.04.2024

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