प्रकाशक पैन मैकमिलन ऑस्ट्रेलिया प्रा. लि.
पहला प्रकाशन वर्ष 2020 मूल्य 599 रू. पृष्ठ संख्या 194
आज से लगभग अस्सी वर्ष पूर्व सर्वाधिक ख़ौफ़नाक नाजी यातना शिविर ‘ऑस्त्विच’ से जिंदा बच निकले एडवर्ड (एडी) जाकू द्वारा अपनी मृत्यु से एक वर्ष पहले लिखी गई पुस्तक ‘द हैप्पीएस्ट मेन ऑन अर्थ’ मानव इतिहास के निकृष्टतम अमानवीय कृत्यों का एक प्रामाणिक दस्तावेज तो है ही, यह सकारात्मक दृष्टिकोण के उत्कृष्टतम उदाहरण भी प्रस्तुत करती है। वर्ष 2020 में पैन मैकमिलन ऑस्ट्रेलिया प्रा. लि. से प्रकाशित यह संस्मरण, अपने निहितार्थ में धार्मिक एवं नस्लीय नफ़रत की उन्मादी लहरों पर मनुष्यता की हिचकोले खाती कश्ती के लिए किसी प्रकाश स्तंभ से कम नहीं है।
पहले विश्व युद्ध में जर्मनी की हार, घोर आर्थिक संकट, बेरोजगारी, लचर राजनैतिक नेतृत्व और यहूदियों के प्रति सदियों से जर्मन लोगों में अंतर्हित नफ़रत ने एडोल्फ़ हिटलर जैसे अति महत्वाकांक्षी व्यक्ति के लिए वह जमीन उपलब्ध करा दी जिसने कालांतर में उसे इतिहास का क्रूरतम तानाशाह बना डाला। हिटलर न केवल साठ लाख यहूदियों के नरसंहार का प्रत्यक्ष रूप से जिम्मेवार था बल्कि द्वितीय विश्व युद्ध को आरंभ करने और उसमें लगभग चार से छ: करोङ लोगों की मौत का भी परोक्ष रूप से उत्तरदायी था।
राइख्समिनिस्टर जोसेफ गोएबल्स बर्लिन के लुस्टगार्टन में एक भीड़ को संबोधित करते हुए
यहूदी-स्वामित्व वाले व्यवसायों का बहिष्कार करने का आग्रह कर रहे हैं,
वे इस बहिष्कार का विदेशों में रहने वाले यहूदियों द्वारा फैलाए जा रहे जर्मन विरोधी "अत्याचार प्रचार"
के प्रति एक वैध प्रतिक्रिया के रूप में बचाव करते हैं
उसका विश्वास था कि जर्मन जाति सभी जातियों से श्रेष्ठ है और उन्हें विश्व का नेतृत्व करना चाहिए जबकि यहूदी सदा से संस्कृति में रोड़ा अटकाते आए हैं। आगे चलकर यहूदियों के प्रति अपनी नफरत को उसने एक हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया। उसने जर्मनी की हार का ठीकरा देश में छुपे गद्दारों के सर फोङा, जो उसके अनुसार यहूदी और कम्युनिस्ट थे! जबकि यह सौ फ़ीसद झूठ पर आधारित उसकी सोची-समझी कूटनीति का हिस्सा था। प्रथम विश्व युद्ध में कम से कम एक लाख जर्मन-यहूदी सैनिकों ने भाग लिया था और इनमें से ज़्यादातर अग्रिम मोर्चों पर लङे और बारह हजार शहीद भी हुए। लेकिन अति राष्ट्रवाद के सुनहरी आवरण तले, नाजी पार्टी सुनियोजित ढंग से अपने नफ़रती अभियान को आगे बढ़ाती रही और चंद वर्षों में ही जर्मनी में यहूदी नस्ल विरोध की देशव्यापी हिंसक लहर पैदा करने में कामयाब हो गई।
सन 1935 में जर्मनी के एक गाँव के बाहर टंगा एक बोर्ड और उसे निहारते हुए एक मोटर साइकिल चालक.
बोर्ड पर लिखा है ‘यहाँ यहूदियों का स्वागत नहीं है
यहूदी-नफ़रत अर्थात एंटी-सेमिटिज्म के रथ पर सवार नाजी पार्टी का सर्वेसर्वा हिटलर सन 1933 में जर्मनी का चांसलर नियुक्त हुआ। सत्ता प्राप्त होते ही हिटलर अपने मुख्य एजेंडे पर जुट गया-जो था यहूदियों का समूल नाश! यहूदियों के स्वतंत्र व्यवसाय और कामकाज को प्रतिबंधित, हतोत्साहित और बाधित किया जाने लगा। जर्मन बच्चों के साथ यहूदियों के पढ़ने पर पाबंदी लगने लगी। उनके उत्सव, पूजा-प्रार्थना आदि पर रोक लगा दी गई। अपने ही देश में वे दोयम दर्जे के नागरिक बना दिए गए।
इन सबसे बेखबर पूर्वी जर्मनी के शिक्षा, संगीत और ओपेरा के क्षेत्र में अग्रणी, प्रबुद्ध और परिष्कृत शहर ‘लीपजिग’ में यहूदी बालक ‘एडवर्ड जाकू ’ भविष्य में एक इंजीनियर बनने के सपने संजोए, प्रवेश के लिए शहर के महाविद्यालयों के चक्कर लगा रहा था। लेकिन उसे बाहर खदेङ दिया गया। किसी प्रकार जाली दस्तावेजों के आधार पर, उसके पिता ने उसका दाखिला एक अनाथ जर्मन बच्चे के रूप में एक दूसरे शहर में करवाया। इस प्रकार तेरह वर्षीय एडवर्ड जाकू ने घर की तमाम सुख सुविधाओं को छोङकर, नकली पहचान के साथ विषम परिस्थितियों में एक अनाथ आश्रम में रहकर पाँच वर्ष तक अध्ययन किया। इंजीनियरिंग की डिग्री हासिल करने और नौकरी लगने के बाद 9 नवंबर, 1938 के दिन वह अपने माता-पिता से उनकी बीसवीं शादी की सालगिरह पर मिलने ‘लीपजिग’ जाता है। और यही उसके जीवन की सबसे बङी भूल साबित होती है।

क्रिस्टल नाचट के समय उन्मादी जर्मन भीङ यहूदी गिरजाघर को आग के हवाले करते हुए
बीते पाँच वर्षों में अनाथ आश्रम और महाविद्यालय में रहते हुए एडी को किसी प्रकार के समाचार पत्र पढ़ने और रेडियो सुनने की छूट नहीं थी, लिहाजा इस दौरान जर्मनी में यहूदियों के प्रति नफ़रत, हिंसा और दमन के विकराल स्वरूप का उसे कोई अहसास नहीं था। उस रोज जब वह लीपजिग शहर में अपने घर पहुंचता है तो देखता है कि घर में उनके पालतू कुत्ते के अलावा कोई नहीं है। उसे कुछ समझ नहीं आता-जैसे-तैसे रात बीतती है, लेकिन अगली सुबह ही नाजी पुलिस उसे गिरफ्तार कर लेती है। उसे बुरी तरह पीटा जाता है, नुकीले चाकू से उसके बाजू पर स्वस्तिक का चिन्ह गोदा जाता है।
इतिहास में जर्मनी और ऑस्ट्रिया में यहूदी-विरोधी हिंसा के व्यापक अभियान के रूप में 9-10 नवंबर 1938 की रात ‘क्रिस्टल नाचट’, या ‘टूटे हुए कांच की रात,’ के नाम से दर्ज है। नाजी सरकार समर्थित उग्र भीङ और अर्द्ध सैनिक बलों ने यहूदियों के घरों, गिरजाघरों और दुकानों पर जमकर तोङ-फोङ एवं आगजनी की और तमाम कीमती सामान लूट लिया। असंख्य बच्चों को उनकी माँओं की गोद से छीनकर बर्फीली नदी में फेंक दिया गया। कितने ही लोगों को गोलियों से भून दिया गया। उग्र भीङ में शामिल तथाकथित सभ्य पढ़े लिखे जर्मन नाजी जिनमें यहूदियों के सदियों पुराने पङोसी, दोस्त, सहपाठी और परिचित भी थे, एकाएक इंसान से हैवान बन चुके थे। उस रोज न केवल एडवर्ड जाकू का दो सौ वर्ष पुराना घर ध्वस्त हुआ बल्कि उसकी खुद्दारी, स्वतंत्रता और इंसानियत में उसका विश्वास भी ध्वस्त हो गया। इस घटना पर लेखक ने अपनी पीङा को कुछ इस प्रकार से बयान किया है।
‘जब मैं उन जर्मनों के बारे में सोचता हूँ जो हमारे दर्द का आनंद ले रहे थे, तो मैं उनसे पूछना चाहता हूँ, 'क्या तुम्हारे पास आत्मा है? क्या तुम्हारे पास दिल है?' यह सच्चे अर्थों में पागलपन था ………। उन्होंने भयानक अत्याचार किए और इससे भी बुरा, उन्होंने इसका आनंद लिया। उन्हें लगा कि वे सही काम कर रहे थे। और यहाँ तक कि जो लोग खुद को यहूदी दुश्मन नहीं मानते थे, उन्होंने भी भीड़ को रोकने के लिए कुछ नहीं किया……। अगर क्रिस्टल नाचट के समय पर्याप्त लोग खड़े होकर कहते, 'बस! तुम लोग क्या कर रहे हो? तुम्हें क्या हो गया है?' तो इतिहास का रास्ता अलग होता। लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। वे डरे हुए थे। वे कमजोर थे। और उनकी कमजोरी ने उन्हें नफ़रत के पक्ष में धकेल दिया।’
… तो इतिहास का रास्ता अलग होता! हाँ, यह कटु सत्य है और यह केवल क्रिस्टल नाचट के अमानवीय बर्ताव पर ही लागू नहीं होता बल्कि हिंसक भीङ द्वारा की गई हर उस घटना पर लागू होता है जो धर्म, जाति, संप्रदाय, नस्ल आधारित नफ़रत के वशीभूत निर्दोष और निहत्थे लोगों को अपना निशाना बनाती है।
एडी को लगभग 150 अन्य कैदियों के साथ एक ट्रक में भरकर जर्मनी के यातना शिविर ‘बुचेनवाल्ड’ ले जाया गया। माइनस 8 डिग्री की हाङ जमा देने वाली ठंड, संकरी जगह। अपर्याप्त कपङे, सीमित खाना और पानी। एक लम्बी खाई पर बने खुले पाखाने पर एक साथ 25 लोगों को बैठना पङता। कैदियों को बूटों की ठोकर से मारना, गाली देना, अपमानित करना सामान्य था। प्रतिदिन सुबह नाजी एक और भयानक खेल खेलते -वे शिविर के दरवाजे खोल देते और 300-400 कैदियों को भागने के लिए कहते। जब लोग 30-40 मीटर बाहर तक जाते तो वे उन पर मशीन गन से फायर करना आरंभ कर देते!

लात्विया के शहर लिपाजा के स्केड तट पर एक यातना शिविर में यहूदी महिलाओं को पहले
कपङे उतारने के लिए मजबूर किया जाता है और फिर उन्हेंं गोली मार दी जाती है
अंतहीन नारकीय यातनाओं से छुटकारा पाने के लिए कुछ लोग शिविर के चारों ओर लगी विद्युतीकृत कंटीली तारों को दौङ कर पकङ लेते। एक बार एडी को इस शिविर से बाहर जाने का मौका मिला तो वह भागकर नीदरलैंड के रास्ते बेल्जियम पहुँच गया। वहाँ बेल्जियम सरकार ने उसे ‘एग्जार्डे’ के एक शरणार्थी शिविर में डाल दिया। एक वर्ष बाद, मई 1940 में जर्मनी द्वारा बेल्जियम पर विजय प्राप्त कर लेने के बाद शरणार्थियों के लिए यह जगह भी सुरक्षित नहीं रही। फ्रांस और बेल्जियम में मित्र देशों की सेनाओं और जर्मन नाजी सेनाओं के बीच घमासान जारी था। जर्मन सब को परास्त करते हुए आगे बढ़ रहे थे। ‘डनक्रीक’ तट पर मित्र देशों के सैनिकों की लाशें बिछीं थीं। हवाओं में चारों तरफ बारूदी गंध फैली थी। अनेक नाटकीय घटनाक्रमों के बाद, बार-बार नाजी पुलिस को चकमा देते हुए एडी और हजारों अन्य शरणार्थी छोटे गाँवों और दुर्गम कठिन रास्तों से गुजरते हुए लगातार फ्रांस की ओर भाग रहे थे।
यातना शिविर की विद्युतिकृत कंटीले तारों की बाङ
इस दौरान लेखक ने फ्रांस के ग्रामीण गरीब लोगों के मानवीय दृष्टिकोण की भूरी-भूरी सराहना करते हुए लिखा है ‘अक्सर जब मैं अलसुबह चलना शुरू करता तो गाँव वाले फ्रेंच में पुकारते, 'क्या तुमने कुछ खाया है? क्या तुम भूखे हो?' और वे मुझे अपने नाश्ते में शामिल करते। पहले से ही युद्ध की कठिनाइयों से जूझ रहे ये वे गरीब किसान थे जिनके पास देने लिए बहुत कम था, लेकिन वे एक अजनबी यहूदी के साथ अपना सब कुछ साझा करने के लिए तैयार रहते।’
लेकिन दुर्भाग्यवश यहूदियों के लिए फ्रांस और पोलैंड भी अल्पकाल के लिए ही सुरक्षित रहे और जैसे ही इन दोनों देशों पर हिटलर का आधिपत्य हुआ, ये लोग फिर से नाजियों की गिरफ्त में आ गए। एडी सहित 823 लोगों को एक ट्रेन में ठूंसकर पोलैंड के ‘ऑस्त्विच’ नामक यातना शिविर के लिए रवाना कर दिया गया। जब ट्रेन जर्मनी की सीमा से मात्र 10 किलोमीटर की दूरी पर थी, एडी और उसके कुछ अन्य साथी किसी तरह चलती ट्रेन से कूदने में कामयाब हो गए। हर स्टेशन पर चेकिंग हो रही थी। ऐसी परिस्थितियों में, छुपते-छुपाते एक के बाद दूसरी ट्रेन बदलते हुए, एडी एक सप्ताह बाद ब्रुसेल्स में अपने परिवार के पास पहुँचता है। यहाँ उसका परिवार एक गुप्त स्थान पर लगभग ग्यारह माह तक छुपने में कामयाब रहा, लेकिन उसकी माँ नाजियों की गिरफ्त में आ गईं और मार दी गई।
सन 1943 की फरवरी माह की एक सर्द शाम एडी, उसकी बहिन और पिता को भी गेस्टापो पुलिस ने पकङ लिया। उन्हें 1500 अन्य लोगों के साथ एक ट्रेन में भरकर ‘ऑस्त्विच’ यातना शिविर के लिए रवाना कर दिया गया। लगातार 9 दिन की अमानवीय यात्रा के बाद जब ये लोग ‘ऑस्त्विच-II-बिर्केनाउ’ रेलवे स्टेशन पहुँचे तो 40% लोग, भूख और प्यास से मर चुके थे। एडी ने शिविर के लोहे के प्रवेश द्वार पर पहली बार कुख्यात सूक्ति ‘काम आपको मुक्त करता है’ देखी। अपने संस्मरण में इस घटना को लेखक ने इस प्रकार से अभिव्यक्त किया है।
ऑस्त्विच शिविर के लोहे के प्रवेश द्वार पर कुख्यात सूक्ति ‘काम आपको मुक्त करता है
‘हमें प्लेटफॉर्म से नीचे धकेला गया जहाँ एक आदमी साफ सफेद लैब कोट में कीचड़ के ऊपर खड़ा था, उसके चारों ओर एस.एस. गार्ड थे। यह डॉ. जोसफ मेंगले थे, जिन्हें "मौत का देवदूत" कहा जाता था, और मानव इतिहास के सबसे दुष्ट व्यक्तियों में से एक थे। जैसे ही नए आए कैदी गुजरते, वह इशारा करते कि उन्हें बाएं जाना है या दाएं। हमें पता नहीं था, लेकिन वह अपनी कुख्यात 'चयन' प्रक्रिया कर रहे थे।’
दरअसल, जोसफ मेंगले कैदियों में से अपेक्षाकृत मजबूत लोगों को मजदूरी के लिए ऑस्त्विच के लिए चयन कर रहे थे और शेष लोगों को (जो उनके किसी काम के नहीं थे) सीधे गैस चैंबरों में भेज रहे थे। ऑस्त्विच में दास श्रमिक का मतलब था धरती पर नारकीय जीवन जीते हुए लगातार मौत की ओर बढ़ना और गैस चैंबर में जाने का मतलब था, अंधेरे में एक भयानक मौत! यद्यपि एडी ने गैस चैंबर में मरने वालों की आपबीती का वर्णन इस पुस्तक में नहीं किया है लेकिन इसके बारे में अनेक और लोगों ने विस्तार से बताया और लिखा है। पोलैंड के एक मृत्यु शिविर के गैस चैंबर्स की दीवारों पर आज भी जहरीली गैस से तङपते हुए लोगों के नाखूनों से खुरचने के निशान, उनके अंतिम क्षणों के असहनीय दर्द, छटपटाहट और किसी तरह बाहर निकलने की जद्दोजहद के सबूत हैं। हताशा और दर्द की इंतहा में उन्होंने दीवारों को अपने नाखूनों से इतना अधिक खुरचा कि उनके नाखून तक निकल गए! ऐसे गैस चैंबर्स में दस लाख यहूदियों को तङपा-तङपा कर मारा गया, जिनमें अधिकांश छोटे-छोटे बच्चे, अशक्त और वृद्ध लोग थे! ऑस्त्विच यातना शिविर में एडी के पिता को भी गैस चैंबर में डाल कर मार दिया गया।
एस.एस. प्रचार-एल्बम 1940-41 से ली गई एक तस्वीर जिसमें ‘रावेंसब्रुक’ यातना शिविर में
बंधुआ मजदूर के रूप में महिला कैदी खाई खोदते हुए दिखाई दे रही हैं
आगे एक स्थान पर एडी लिखते हैं -"सबसे बुरा, मेरी गरिमा मुझसे छीन ली गई थी। जब हिटलर ने अपनी नफ़रत भरी किताब, ‘मीन कैम्फ’, लिखी थी, जिसमें उसने दुनिया की सभी समस्याओं का दोष यहूदियों पर मढ़ा था, उसने एक ऐसी दुनिया की कल्पना की थी जिसमें हमें (यहूदियों को) अपमानित किया जाएगा - सूअरों की तरह खाना खाते हुए, चिथड़ों में लिपटे हुए, दुनिया के सबसे दयनीय लोग। अब यह सच हो गया था। मेरा नंबर 172338 था। यही अब मेरी एकमात्र पहचान थी…… मुझे अब भी समझ में नहीं आता कि जिन लोगों के साथ मैं काम पर जाता था, जिनके साथ मैंने पढ़ाई की और खेल खेले, वे कैसे जानवर बन सकते हैं। हिटलर कैसे दोस्तों को दुश्मन बना सकता था, सभ्य लोगों को अमानवीय ज़ॉम्बी बना सकता था? ऐसी नफ़रत कैसे पैदा की जा सकती है?’
ऑस्त्विच-II-बिर्केनाउ
ऑस्त्विच शिविर में कैदियों को कभी पता नहीं होता था कि सुबह उठने के बाद वे अपने बिस्तर पर वापस आ पाएंगे या नहीं। एक पंक्ति में दस लोग, बिना गद्दे, बिना कंबल के आठ फुट से कम चौड़े कठोर लकड़ी के तख्तों वाले बंक्स पर नग्न सोने के लिए मजबूर किए जाते। ऑस्त्विच एक साक्षात नरक था जहाँ कैदियों का औसत जीवन मात्र सात माह था। कैदियों के छोटे मोटे घावों के इलाज की कोई व्यवस्था नहीं थी। खाना बहुत ही कम दिया जा रहा था। भुखमरी लगातार उनके शरीर को हड्डियों के ढांचे में बदल रही थी।
लेखक के मन में भी अपने जीवन को समाप्त करने के विचार कई बार आए, लेकिन इसी शिविर में उसे अपने पुराने दोस्त कुर्त का साथ मिल जाता है। पुस्तक के छटे अध्याय में एडी ने लिखा है- ‘एक अच्छा मित्र मेरा पूरा संसार है।’ यह कुर्त की सच्ची दोस्ती की ताकत ही थी जो उसे हर अगली सुबह जिंदा रहने का नया हौसला देती रही।
समय-समय पर कैदियों का मेडिकल परीक्षण होता और देखा जाता कि कौन है जो बहुत अधिक कमजोर या बीमार हो गया है और मजदूरी करने लायक नहीं बचा है और उसे गैस चैंबर में भेज दिया जाता। एडी को भी तीन मर्तबा गैस चैंबर भेजा गया लेकिन हर बार उसकी योग्यता (मैकेनिकल इंजीनियर) को देखते हुए वापिस शिविर में भेज दिया जाता। लेखक ने कई बार इस बात को रेखांकित करते हुए अपने पिता की शिक्षित बनने की सीख और दूरदर्शिता को स्मरण किया है। वह लिखते हैं यह मेरी शैक्षणिक योग्यता ही थी जिसने मुझे बार-बार मौत के मुँह से बाहर निकाला।
कुछ समय बाद एडी को ‘आई.जी. फारबेन’ नामक फैक्टरी में भेज दिया गया। यहाँ तीस हजार से भी अधिक बंधुआ मजदूर थे। इस फैक्टरी में ‘जाइक्लोन-बी’ गैस निर्मित होती थी। इस गैस ने ही गैस चैंबर्स में दस लाख यहूदियों को मौत के घाट उतारा। इसी फैक्टरी में उसे मुंडे हुए सर और जीर्ण-शीर्ण ढाँचे के रूप में अपनी बहिन हेन्नी भी मिलती है। पोलैंड, हंगरी, चेकोस्लोवाकिया, फ्रांस, रूस आदि सभी देशों के यहूदी यातना शिविरों में थे। कैदियों में कुछ ऐसे गद्दार दुष्ट भी थे जो चंद ब्रेड के टुकङों, गर्म कपङों या श्नेप्स (शराब) के लिए नाजियों का सहयोग करते और अपने ही साथियों पर निगरानी रखते।ऑस्ट्रिया के ऐसे ही एक यहूदी ‘कापो’ ने अपने अनेक साथियों को गैस चैंबर भिजवाया।
डेविड का सितारा जिसे यहूदियों को नूर्नबर्ग कानूनों के अनुसार अपने कपड़ों पर सिलना अनिवार्य था
लेकिन इस नरक में किसी-किसी की आत्मा जिंदा भी थी। एडी लिखते हैं, फैक्टरी में कभी कभार एक चौकीदार उसके लिए शौचालय में दलिया और दूध छिपाकर रख आता। ‘क्राउस्स’ नाम के ऐसे ही एक और दयालु व्यक्ति ने एडी के लिए भागने का एक प्लान बनाया-कुछ हद तक वह सफ़ल भी रहा लेकिन भयंकर चोटों के साथ आधे रास्ते उसे लौटना पङा। कैदियों में एक डॉक्टर ‘किंडरमैन’ था। रात के अंधेरे में वह अपने साथियों के घावों और चोट का बिना उपकरण, बिना दवा इलाज करता। किसी कैदी के शरीर पर जूँ मिलने की भी सजा मौत थी! एक रोज एडी को मालूम पङा कि उनकी सुबह की कॉफी में ‘ब्रोमाइड’ मिलाया जाता है। ब्रोमाइड एक रसायन है जो व्यक्ति की मर्दानगी को घटा देता है और इसका अधिक सेवन उसे नपुंसक भी बना सकता है।
बुचेनवाल्ड यातना शिविर के बैरक में कैदी
1945 के आखिरी महीनों में विश्वयुद्ध के हालात तेजी से बदलने लगते हैं। 18 जनवरी, 1945 की सुबह ऑस्त्विच शिविर में नाजी सैनिक अत्यधिक परेशान और भयभीत दिखाई दे रहे थे। रूस की फौज महज़ 20 किलोमीटर की दूरी पर थी। ऊपर से आदेश मिला कि शिविर को खाली कर दिया जाए और कैदियों को जर्मनी के अंदर किसी और शिविर में भेजा जाए। माइनस बीस डिग्री तापमान में हजारों कैदियों को बिना भोजन, बिना पानी पैदल रवाना कर दिया गया। इतिहास में इस घटना को ‘ऑस्त्विच से मौत का मार्च’ के रूप में जाना जाता है। तीन दिन की इस यात्रा में ठंड, भूख और प्यास से पंद्रह हजार से अधिक लोग मारे गए, जो बचे उनको ‘बुचेनवाल्ड’ जाने वाली एक ट्रेन के खुले माल-डिब्बों में बैठा दिया गया।
डेथ मार्च:- लगभग 56,000 पुरुष और महिला कैदियों को 17-21 जनवरी, 1945 के बीच
ऑस्त्विच शिविर और इसके उप-शिविरों से बाहर, भारी हथियारों से लैस
एस.एस. पहरेदारों की निगरानी में मार्च कराया गया
जब यह ट्रेन बुचेनवाल्ड स्टेशन पर पहुँची तो माल-डिब्बों में बैठे लोगों पर आधा मीटर तक मोटी बर्फ़ की चद्दर जम चुकी थी। एक बार फिर एडी ‘बुचेनवाल्ड’ शिविर में था। करीब चार माह बाद नाजी सेना के लिए हालात और बदतर हो गए, रूसी सेना लगातार उनको खदेङती हुई आगे बढ़ रही थी। यहूदी कैदियों को डर था कि नाजी अपने कुकर्मों के सबूत मिटाने के लिए उनको मार न डालें। ‘बुचेनवाल्ड’ शिविर खाली कर दिया गया-और कैदियों को पैदल ही हाँकते हुए नाजी सेना बिना किसी तय गंतव्य के चलती रही। इसी मार्च के दौरान मौका पाकर एडी एक नदी में कूद जाता है, कई दर्जन गोलियाँ उसका पीछा करती है लेकिन वह बच निकलता है और अगले दिन उसे अमेरिकी सैनिक मिल जाते हैं।
अमेरिकी सैनिक(30.04.1945)
डाखाऊ जर्मनी, के एक उप-शिविर, काउफरिंग, के पीड़ितों के शवों को देखते हुए
एक सप्ताह बाद जर्मनी के एक अस्पताल में उसकी आँख खुलती है- उस समय उसका वजन मात्र 28 किलोग्राम था और डॉक्टरों के अनुसार उसके बचने के केवल 35% अवसर थे। लेकिन लंबे इलाज के बाद उसने मौत को हरा दिया। वह पुन: एक स्वतंत्र नागरिक के रूप में बेल्जियम में अपने पुराने घर आता है। आगे चलकर उसे अपनी बहिन और प्यारा दोस्त कुर्त भी मिल जाते हैं और वे साथ रहने लगते हैं। एडी की बहिन की शादी के बाद वह ऑस्ट्रेलिया बस जाती है। एडी की भी फ्लोर नाम की एक लङकी से बेल्जियम में शादी हो जाती है लेकिन शायद उद्देश्य विहीन जीवन के वास्तविक लगाव से वह अब भी दूर था।
सन 1945 में स्वतंत्र कराए गए डाखाऊ यातना शिविर की बैरकों के बाहर बचे हुए लोग
उस समय के अपने अवसाद के विचारों को लेखक ने इस प्रकार से व्यक्त किया है- ‘मैं एक खुशहाल आदमी नहीं था। सच कहूं तो, मुझे यकीन नहीं था कि मैं अब भी जीवित क्यों था या वास्तव में मैं क्यों जीना चाहता था? ……। मैं चुपचाप, सबसे कटा-कटा और दुखी रहने वाला इंसान!’
लेकिन अपने पहले पुत्र माइकल के जन्म के बाद एडी का जैसे अचानक हृदय परिवर्तन हो गया और वह अपने परिवार व बच्चों के प्रति एक समर्पित व जिम्मेवार व्यक्ति की भांति पेश आने लगा। मार्च 1950 में एडी परिवार सहित ऑस्ट्रेलिया आ जाता है। यहाँ कालांतर में वह अपने आप को एक सफल उद्यमी के रूप में स्थापित कर लेता है। वर्षों गुजर जाते हैं और तब एक रोज उसे ख्याल आता है-‘मैं ही जीवित क्यों हूँ, वे सभी अन्य क्यों नहीं जो इतनी भयानक तरीके से मार डाले गए? अपने इस सवाल का जवाब भी उसे अपनी अंतर-आत्मा से मिलता है-‘शायद मैं इसलिए जीवित हूँ क्योंकि मुझे नफ़रत के खतरों के बारे में दुनिया को शिक्षित करने का कर्तव्य निभाना है।’
इस इकलौते विचार ने उसकी जिंदगी में क्रांतिकारी परिवर्तन ला दिया और उसने अपनी दास्तां साझा करनी शुरू की। बच्चे, जवान, बूढ़े, विद्यार्थी, सैनिक, होलोकॉस्ट से बचे हुए और सभी तबकों के लोग उसके साथ जुङते गए। जल्द ही वह ऑस्ट्रेलिया का एक लोकप्रिय प्रेरक शिक्षक बन गया जिसके लाखों प्रशंसक थे। अंतिम अध्यायों में एडी लिखते हैं- ‘कभी-कभी मुझे लगता है कि हम में से जिन्होंने अपनी कहानियाँ लंबे समय तक नहीं बताईं, उन्होंने गलती की। ऐसा लगता है कि हमने एक पीढ़ी को खो दिया जो इस दुनिया को एक बेहतर जगह बनाने में मदद कर सकती थी, जो अब दुनिया भर में बढ़ रही नफ़रत को रोक सकती थी। शायद हमने इसके बारे में पर्याप्त बात नहीं की।’
मई 2013 में एडवर्ड जाकू को ऑस्ट्रेलिया के सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘ऑर्डर ऑफ ऑस्ट्रेलिया मेडल’ से नवाजा गया। होलोकॉस्ट की भयानक यंत्रणाओं को याद करते हुए अक्सर उसके दिमाग में एक प्रश्न कौंधता-‘नाजियों ने ऐसा क्यों किया?’ और उसे एक ही उत्तर मिलता- नफ़रत! पुस्तक का समापन लेखक की भावी पीढ़ी से खुश रहने और दूसरों को खुश रखने की मार्मिक अपील से होता है! वे कहते हैं ‘ मैं चाहता हूँ कि दुनिया एक बेहतर जगह बने…कभी भी आशा मत छोड़ें…। दयालु, विनम्र, और प्रेमपूर्ण इंसान बनने में कभी भी देर नहीं होती।’
यद्यपि इस पुस्तक में होलोकॉस्ट के जिन अत्याचारों से पाठक रूबरू होता है वे नाजियों द्वारा किए गए संपूर्ण अत्याचारों का एक छोटा सा अंश मात्र है फिर भी एडी ने अपने जीवन के आखिरी समय में इस पुस्तक के रूप में पूरी दुनिया को एक ऐसी साहित्यिक सौगात दी है जो व्यक्ति के भीतर छुपे शैतान और उस शैतान को पोषित करने वाले विचारों और अवधारणाओं के भयावह नतीजों से हमारा साक्षात्कार कराती है। जहाँ एक ओर यह पुस्तक सचेत करती है कि धर्म के आधार पर एक इंसान की दूसरे इंसान से नफ़रत और नस्लीय श्रेष्ठता का मिथ्याभिमान मानवता को किस प्रकार तबाह कर सकता है, वहीं दूसरी ओर जीवन के प्रति सकारात्मक रहने, भूतकाल के अन्याय और अत्याचार को भुला कर वर्तमान पर अपने को केंद्रित करने और खुशियों को बाँटने का महान और उदार संदेश देती है। 12 अक्टूबर 2021 को एडवर्ड जाकू ओएएम ने 101 वर्ष की उम्र में अपनी सांसारिक यात्रा पूरी की। एडी के अनुभवों और विचारों को अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचाना ही उनके प्रति हमारी सच्ची श्रद्धांजलि होगी।

होलोकॉस्ट मेमोरियल मियामी बीच फ्लोरिडा, अमेरिका
© दयाराम वर्मा, जयपुर 17 जुलाई 2024
फोटोग्राफ्स- (सौजन्य): जेविश वर्चुअल लाइब्रेरी, पिक्साबे, द नेशनल वर्ल्ड वार-II म्यूजियम, होलोकॉस्ट इनसाइक्लोपीडिया इत्यादि
समीक्षा प्रकाशन विवरण-
1.सागर मध्यप्रदेश की त्रैमासिक साहित्यिक पत्रिका 'साहित्य सरस्वती' के 44 वें अंक (अक्टूबर-दिसंबर, 2024) में प्रकाशित
Bhai behatreen lekhan
जवाब देंहटाएंबेहतरीन, मर्मस्पर्शी संवेदनशील कहानी है
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