कविता: झूठ अनंत अपार



सच के आगे स पीछे च
न व्यंजना, न मात्रा, न अलंकार
न फरेब, न चमत्कार
सत्यमेव जयते नानृतम्
यही दर्शन, विश्वास यही आधार!

बिना लाग, बिना लपेट
जो है वही सच, सचमुच कहता है
बदले में होता ट्रोल
लानत, मलामत, ताङना-प्रताड़ना
सब फिर सहता है!

शिल्प में, अभिनय में
है झूठ बेजोङ, बेहद दमदार है
इ के साथ खङी पाई
तिस पर बङे ऊ की मूँछ सजाई
ठ ठसके ज्यूँ सरदार है!

झूठ बहुत खास है
विमर्श में घोलता शहद सी मिठास है
ठग, बेईमान, चोर-उचक्के
मंत्री, संतरी, मांत्रिक या तांत्रिक रखते
इससे उत्कट अभिलाष है!

सच कहूँ तो झूठ
भाववाचक संज्ञा सरूप है
वृत्ति में, राज में, काज में, व्यवहार में
घाट, बाट, हाट, व्यापार में
अगणित बहुरूप हैं!

आश्वासन, भय, भ्रम
कहीं लालच, कहीं जरूरत, कहीं अनाचार
झूठे झांसे में बुलबुल भटकी
सैयाद को समझी रांझे का अवतार
झूठ रूपक अलंकार!

उङे झूठ जब
अफवाहों के पंख लगाए
चंपत चपलु, चतुर सुजान कहलाए
ज्ञानी पपलु, भए मूढ़ अज्ञानी
घर-घर पहुँचे ये कहानी

सच बंधा सीमाओं से
रहता सकुचाता, सिकुङा, मौन
बदले पाला, पहने माला, ओढे दुशाला
राजा, प्रजा करते जैजैकार
झूठ अनंत अपार!


© दयाराम वर्मा, जयपुर (राज.)- 24 अगस्त, 2024



कविता: मनमौजी



राज सिंहासन का
है बङा गजब इकबाल
छल कपट से वोट झपट के
आँख दिखा के लाल!

जो विराजते इस गद्दी पर
बल-बुद्धि माया से
हो जाते मालामाल!

हरखू परखू घुग्गी या हो दौला
मनमौजी भी बन बैठता
हरफनमौला[1]!

खिलाफत में जो बोले
हल्का सा कभी मुँह भी खोले
कलम उसकी कहलाती
दुश्मन प्रायोजित औजार!

विरोधी सुर-स्वर-अक्षर
गुनगुनाने-सुनने-लिखने वाले
समझाते मनमौजी
हैं जयचंद देश के गद्दार!

हो जाए गरचे अपराध
प्रतिकारी प्रतिपक्षी के हाथों
ध्यान-विधान विशेष दिया जाता
घर है अवैध
प्रथम दृष्टया जान लिया जाता!

बिना अपील बिना दलील
सबल-मनमौजी
चपल-बुलडोजर न्याय दिलाता!

सङकों पर जब होते
धरने अनशन विरोध प्रदर्शन
हो जाते दंगे फ़साद
कोई मांगे अभिव्यक्ति की आजादी
मीडिया बोले करते जेहाद!

आंदोलनजीवी या अर्बन नक्सल
जुट जाते लोग चुनिंदा
करे संशय मनमौजी
शामिल इनमें साज़िश-कुनिंदा[2]!



© दयाराम वर्मा, जयपुर (राज.)-10 अगस्त, 2024




[1] हरफनमौला- हर क्षेत्र का जानकार व्यक्ति; अनेक विद्याओं का ज्ञाता और आविष्कारक
[2] साज़िश-कुनिंदा- षड्यंत्री, कुचक्री, साजिश रचने वाला


कविता: जाति कबहूँ न जाती



एक जाति सुशोभित मुख से
एक सजी स्कंध पर
जंघा से भई एक प्रकट
अंतिम पर आया भारी संकट!

बाँध दी गई पाँवों में जैसे जंजीर
लिखा यही था उसकी तकदीर
जाति अब छूटेगी नहीं
कर लो चाहे कोई भी तदबीर!

मिलेगा किसको अधिकार
या करना होगा इंतिज़ार
आएगा किसके हिस्से में तिरस्कार
मुखमंडल-जंघा-स्कंध या पाँव
समझो पैमाने ये चार!

ऊँच नीच की पहचान भी
है बहुत सरल-सटीक
तय हो जाता जन्म से
बामण-खत्री-बनिया-खटीक!

लम्बी मूँछें हरिया की
देख दिमाग भैरू का सटके
घुड़चढ़ी लालू की बालू को खटके!

दलित-आदिवासी गरीब के
मुख पर मूते सरे बाजार
जातीय श्रेष्ठता का बेखौफ अहंकार!

नंगा करते कालिख लगाते
डाल गले में माला जूतों की गाँव घुमाते
बाईसवीं सदी के बोले अखबार
क्या होती मानवता शर्मसार!

मास्साब ने लिखी
बालक ननकू की जात
गाँव चौपाल का हुक्का पूछे
बोळ कुण तेरी पात
रिश्ते नातों को सदा सुहाती
दादी मांगे पोते से-बहू स्व-जाति!

तन-बदन ही नहीं
आत्मा से भी रहती लिपटी
जाति चली संग मुर्दे मरघट तक
बाद तेरहवीं
तस्वीर के बैठक में जा चिपटी!

जाति ने जोङा है या है तोङा
हक़ीक़त सब जानते हैं
नेता लोग यह मर्म पहचानते हैं!

तभी तो
भरी संसद में भी पूछी जाती
इसकी जाति उसकी जाति
जाति कबहूँ न जाती!

© दयाराम वर्मा, जयपुर 06 अगस्त, 2024

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