कविता: जाति कबहूँ न जाती
एक जाति सुशोभित मुख से
एक सजी स्कंध पर
जंघा से भई एक प्रकट
अंतिम पर आया भारी संकट!
बाँध दी गई पाँवों में जैसे जंजीर
लिखा यही था उसकी तकदीर
जाति अब छूटेगी नहीं
कर लो चाहे कोई भी तदबीर!
मिलेगा किसको अधिकार
या करना होगा इंतिज़ार
आएगा किसके हिस्से में तिरस्कार
मुखमंडल-जंघा-स्कंध या पाँव
समझो पैमाने ये चार!
ऊँच नीच की पहचान भी
है बहुत सरल-सटीक
तय हो जाता जन्म से
बामण-खत्री-बनिया-खटीक!
लम्बी मूँछें हरिया की
देख दिमाग भैरू का सटके
घुड़चढ़ी लालू की बालू को खटके!
दलित-आदिवासी गरीब के
मुख पर मूते सरे बाजार
जातीय श्रेष्ठता का बेखौफ अहंकार!
नंगा करते कालिख लगाते
डाल गले में माला जूतों की गाँव घुमाते
बाईसवीं सदी के बोले अखबार
क्या होती मानवता शर्मसार!
मास्साब ने लिखी
बालक ननकू की जात
गाँव चौपाल का हुक्का पूछे
बोळ कुण तेरी पात
रिश्ते नातों को सदा सुहाती
दादी मांगे पोते से-बहू स्व-जाति!
तन-बदन ही नहीं
आत्मा से भी रहती लिपटी
जाति चली संग मुर्दे मरघट तक
बाद तेरहवीं
तस्वीर के बैठक में जा चिपटी!
जाति ने जोङा है या है तोङा
हक़ीक़त सब जानते हैं
नेता लोग यह मर्म पहचानते हैं!
तभी तो
भरी संसद में भी पूछी जाती
इसकी जाति उसकी जाति
जाति कबहूँ न जाती!
© दयाराम वर्मा, जयपुर 06 अगस्त, 2024
बहुत सुंदर । एक बार दीक्षा फिल्म जरूर देखिए। शायद कुछ कुछ यही है।
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