सियांग के उस पार

सियांग के उस पार: एक अछूते कथा लोक के द्वारा मन को लुभाती औपन्यासिक कृति
(जैसा कीर्तिशेष साहित्यकार, समीक्षक, कवी श्रद्धेय यूगेश शर्मा जी ने लिखा)
अपनी सात दशक की जीवन-यात्रा में मैंने अब तक कितने उपन्यास पढ़ डाले होंगे आज मैं ठीक-ठीक बताने की स्थिति में नहीं हूँ. लेकिन दूसरी तरफ यह भी सच है कि हाल ही में मैंने जिस उपन्यास को मद्धम गति से पढ़ा है वह उत्तर-पूर्वी भारत के प्राकृतिक सौंदर्य को केंद्र में रखकर उपन्यासकार श्री दयाराम वर्मा ने रचा है, जो अदभुत है. उसमें ऐसा कुछ नया सा है, जो अब तक पढ़ने को नहीं मिला था. प्रकृति तथा आदिवासी जीवन की सहज-सरल बहुरंगी छटा को जतन के साथ इस उपन्यास के पृष्ठों पर उतारने के श्री वर्मा के उपक्रम को देखकर एक बार अवाक रह जाना पङता है. इतना अत्यधिक शोध और अनुभवपरक लेखन तो आजकल अपवाक स्वरूप ही हो रहा है. उपन्यास की कथावस्तु सच और कल्पना का मिश्रण हो सकती है, लेकिन उपन्यासकार की सधी हुई कलम एवं कल्पना का अप्रतिम कमाल ही है कि अरुणाचल प्रदेश की जीवनदायिनी सियांग नदी के परिवेश में उपन्यास की जो बुनावट की गई है, वह पूरी तरह यथार्थ प्रतीत होती है, मन उसमें रम जाता है और पाठक को अनुभूति होती है-जैसे वह सियांग नदी के सौंदर्य के साथ स्वंय को एकाकार कर चुका है.
उपन्यास की विषयवस्तु में स्थानों, व्यक्तियों और अंचल के धार्मिक स्थलों का चित्रण इतनी मौलिकता के साथ आत्मविभोर होकर किया गया है कि कहीं भी लगता नहीं कि उपन्यास का सायाम लेखन किया जा रहा है. प्रकृति के सानिध्य में सब कुछ स्वाभाविक रूप से घटता चला जाता है. जिस तरह सिने-पर्दे पर क्रमश: एक के बाद दूसरे दृश्य को प्रस्तुत करती फिल्म चलती है ठीक उसी तरह से लेखक श्री दयाराम वर्मा का उपन्यास भी चलता है और उपन्यासकार द्वारा अपने वास्तविक अनुभवों के आधार पर प्रकृति की गोद में मेक्लिंग और नियामदिंग नामक काल्पनिक आदिवासी गांवों की जो रचना की गई है, वह बरबस वास्तविक लगने लगती है. इन गांवों के आदिवासियों के निश्छल जीवन और आत्मीय व्यवहार के जीवंत चित्रण ने उपन्यास का वहां के परिवेश के साथ एक अद्वैत रिश्ता कायम कर दिया है. जिस तरह अरुणाचल प्रदेश की धरती के चप्पे-चप्पे पर प्रकृति द्वारा मन को लुभाता सौंदर्य खुले हाथों बिखेरा गया है- उसी तरह वहां के पवित्र ह्रदय आदिवासियों के दुराव-छिपाव और छल-प्रपंच से मुक्त आत्मिक व्यवहार में भी एक अजीब तरह का सम्मोहन दृष्टिगोचर होता है.
ये वे आधारभूत बातें हैं जो मैंने श्री दयाराम वर्मा के उपन्यास सियांग के उस पार के मर्म के भीतर प्रवेश करने और उसके संबंध में अपनी बात कहने के लिए पूर्व पीठिका के रूप में कही है. प्रथम वृहदाकार औपन्यासिक कृति में लेखन की ऐसी परिपक्वता और कहन की ह्रदयस्पर्शी शैली सचमुच अचंभित करती है. तथ्यों और कल्पना की ऐसी सार्थक एवं बरबस आकर्षित करनेवाली सामर्थ्य हिंदी के कम ही लेखकों को नसीब हो पाती है. साहित्यिक और सम-सामयिक विषयों पर लिखना तथा चुनौतीपूर्ण कथानक पर 261 पृष्ठों का सफल प्रमाणिक उपन्यास रच डालना, लेखन के दो छोर हैं. श्री वर्मा की इस सामर्थ्य को समझने के लिए बैंक सेवा में वरिष्ठ अधिकारी के पद पर पदस्थ होने से पूर्व के उनके जीवन के पृष्ठों को पलटना पङेगा, क्योंकि ऐसा किये बिना न तो लेखक की सामर्थ्य को ठीक से समझा जा सकता है और न ही उपन्यास के भीतर प्रवेश कर उसका आनंद लिया जा सकता है. वर्ष 1985 में वे भारतीय वायुसेना में भर्ती हुए. प्रारंभिक प्रशिक्षण के पश्चात जोरहाट (असम) के वायुसेना स्टेशन पर उनकी पदस्थापना हुई. इसी स्टेशन से वे वर्ष 1988-89 में अरुणाचल प्रदेश में वायु सेना की कुछ अस्थाई हवाई पट्टियों पर प्रतिनियुक्ति पर रहे. श्री वर्मा 10 वर्ष तक वायुसेना की सेवा के पश्चात ओरियंटल बैंक ऑफ कॉमर्स के साथ जुङे.
यह उल्लेख करने के पीछे मेरा उद्देश्य यह दर्शाना है कि उपन्यास में वायुसेना और उससे संबंधित तकनीकी पक्षों पर जो आधिकारिक ब्यौरे पढ़ने को मिलते हैं, वे वायुसेना के साथ इसी संबद्धता का प्रतिफल है. उपन्यास में कहीं कहीं तो ऐसे ब्यौरे भी हैं, जो पाठकों को वायुसेना की दुनिया में ले जाकर आल्हादित करते हैं और अहसास होता है- श्री वर्मा ने जैसे उपन्यास के बहाने वायुसेना की दुनिया से सहज ही साक्षात्कार करा दिया है. उपन्यास में अरुणाचल प्रदेश के जन जीवन के अतिरिक्त वायुसेना के बारे में भी जो बारीक-बारीक जानकारियां दी गईं हैं , वे पाठकों के लिये ज्ञान की नई खिङकी खोलती प्रतीत होती हैं. ऐसा कम ही प्रतीत होता है कि कोई साहित्यिक रचना पठन-आनंद के साथ-साथ ऐसी जानकारियां भी दे, जो सामान्यत आम साहित्यिक कृतियों में नहीं मिलती. वह तो तब ही संभव है, जब संबंधित क्षेत्र के भीतर का आदमी कलम उठाकर उपन्यास अथवा कहानी की रचना करे. सियांग के उस पार का यह एक विशेष धनात्मक बिन्दु है, जो पाठक-मन को कौतूहल के साथ लुभाता है.
सियांग के उस पार कथानंद के साथ-साथ प्रकृति आनंद प्रदान करने वाली औपन्यासिक कृति है, जो श्री दयाराम वर्मा ने मन में कहीं बैठी मधुर स्मृतियों की सरिता में गहरी डुबकियां लगाकर प्रेमिल भाव से ओतप्रोत होकर लिखी है. उपन्यास का कथानक ऐसी कुशलता के साथ बुना गया है कि उसके प्रसंग नैसर्गिक रूप से प्रस्तुत होते चलते हैं और अपना रसमय प्रभाव छोङकर उपन्यास के सफर को उसके गंतव्य की ओर बढने के लिए अनुकूल माहौल बनाते हैं. कृति में कहीं भी ऐसा नहीं लगता कि वह उसके मूल सृजन-पथ से भटक गई है अथवा लेखक किसी या कई प्रसंगों में अतिरंजना से ग्रस्त हो गया है. इस तरह 261 पृष्ठों के बहुपात्रीय और बहु कथातत्व वाले उपन्यास को सम्हालकर उसको इच्छित मंजिल तक पहुंचा देना लेखक के कौशल का ही खूबसूरत प्रतिफल है. सबसे बङी बात तो यह कि लेखक ने उपन्यास में कहीं भी ऐसा प्रभाव छोङने की कोशिश नहीं की है कि वह बङा ज्ञानी पुरुष है और सियांग के उस पार उपन्यास के रूप में ऐसी रचना को आकार दे रहा है, जो अछूते और चुनौती से परिपूर्ण विषय की बुनियाद पर खङी है. सबसे बङी बात तो यह कि उपन्यास के द्वारा लेखक ने अरुणाचल के संबंधित जनजाति अंचल का एक ऐसा जीवंत चित्र पाठकों के सामने प्रस्तुत कर दिया है, जो उन्हें अनुभूति कराता है कि वे भी सियांग नदी के संसार में विचरण कर रहे हैं. किसी कृति के साथ पाठकों का ऐसा तादात्म्य स्थापित हो जाना कृति और कृतिकार दोनों की सफलता का द्योतक है.
सियांग के उस पार उपन्यास किसी अंचल का न तो भौगोलिक लेखा जोखा है और न ही समाज शास्त्रीय तथा सांस्कृतिक इतिवृत्त. उसमें भी जीवन और संघर्षों एवं उतार-चढावों को लेखन ने पर्याप्त रूचि लेकर उकेरा है. काल्पनिक पात्र देबांग और मिनी तथा बिक्रम और निसमी (निम्मी) की दो प्रेम कहानियां भी अंतर्धारा के रूप में उपन्यास में शिद्दत के साथ चलती रहती हैं. ये दो सगी बहनों से जुङी दोनों प्रेम कहानियां उथली कहानियां नहीं, अपितु आत्मानुभूति से झंकृत जमीन पर परवान चढती हैं. एक की नायिका अपने प्रेमी से दूर हो जाने पर मानसिक रोग से ग्रस्त होकर अंतत: अपनी जीवन लीला समाप्त कर लेती है, तो दूसरी अपने प्रेमी से अथाह प्रेम करने के बावजूद उसकी जीवन संगिनी नहीं बन पाती और विवशत: दूसरी राह पकङकर गृहस्थी बसा लेती है. जब प्रेमी-प्रेमिका पुन: मिलते हैं तब तक उनकी दूसरी दुनिया बस चुकी होती है. उत्कट प्रेम की ऊष्मा तब भी कायम रहती है, जो एक डायरी में सिमट जाती है.
इन दोनों प्रेम-प्रसंगो में सच्चे प्रेम का मनोहारी स्वरूप देखने को मिलता है. मिनी के प्रेमी देबांग की शारीरिक संरचना निम्मी के प्रेमी बिक्रम के साथ पूर्णत: मेल खाती है. दोनों युवतियों के साथ-साथ उनके गांव वाले भी बिक्रम को देखकर धोखा खा जाते हैं कि देबांग ही लौट आया है. मिनी भी उसी को एक बारगी अपना देबांग समझ बैठती है. कथानक में दो पहाङी बहनों के अटूट प्रेम की वह झलक भी देखने को मिलती है-जो पाठक मन को भीतर तक उद्वेलित कर देती है. छोटी बहन निम्मी, यह जानते हुए भी कि यदि बिक्रम को मिनी ने देबांग मान लिया और वह स्वस्थ हो गई, तो उसका प्रेमी उससे छिन जाएगा, बिक्रम को मेक्लिंग से अपने गांव नियामदिंग ले जाकर मिनी से उसकी मुलाकात कराती है.
निम्मी हर कीमत पर अपनी बहन को स्वस्थ-प्रसन्न देखना चाहती है. दरअसल निम्मी अपनी बङी बहन की जिंदगी के लिए अपने उद्दाम प्रेम को न्यौछावर करने का दृढ निश्चय कर लेती है. यह प्रसंग रेखांकित करता है कि पहाङी संस्कार कितने गहरे और संकल्प शक्ति से परिपूर्ण होते हैं.
उपन्यास को रोचक और ज्ञानवर्धक बनाने में उसके सुगठित कथासूत्रों तथा आंचलिक वर्णन के साथ-साथ एक तत्व और भी है, -उसकी सहज-सरल भाषा और अंचल की जनजातीय बोली का स्थानीय पात्रों द्वरा वार्तालाप में बहुत प्यारा सा प्रयोग. उपन्यासकार ने जनजाति अंचल के पात्रों को शहराती प्रगत जीवनशैली में रंगने का प्रयास न करके उपन्यास की साहित्यिक गुणवत्ता तथा ग्राहृयता में तो वृद्धि की ही है, साथ ही उसको प्रामाणिक बनाने की स्तुत्य सफल कोशिश भी की है. आंचलिक बोली के उदार प्रयोग ने यह सिद्ध किया है कि उपन्यास अरुणाचल के लोक की जमीन पर खङा है और उसमें अंचल के पात्र अपनी बोली में बाहरी पात्रों से बतियाते हैं, जिस अपनेपन और आत्म-गौरव की अनुभूति होती है- वह सहसा मंत्रमुग्ध कर देती है. म्योंग दीदी, डावा मैडम और निम्मी आदि स्थानीय पात्र जब ‘थोङा-थोङा को ‘थोरा-थोरा’, ‘पढ़ाई’ को ‘पधाई’ और ‘टोपी’ को ‘तोपी’ एवं ‘कंट्रोल’ को ‘कंत्रोल’ उच्चारित करते हैं, तो बहुत भला लगता है. लोक का ऐसा निर्वहन आजकल साहित्यिक कृतियों में प्राय: नहीं के बराबर हो रहा है.
एक महत्वपूर्ण बात और श्री दयाराम वर्मा ने अपने लेखकीय दायित्य को ठीक से निभाने के लिए नि:संदेह काफी मेहनत की है. उपन्यास के अंत में जो संदर्भ सूची छापी गई है, उसको पढ़ने से उनकी मेहनत की तीव्रता और सधनता को आसानी से समझा जा सकता है. उपन्यास के तथ्यों को अधिकतम प्रामाणिक और सटीक बनाने के लिए उन्होंने उन सारे संदर्भ और दस्तावेजों को देखा-परखा है, जो उपन्यास की कथावस्तु से साम्य रखते थे. (यह समीक्षा मध्यप्रदेश की प्रतिष्ठित साहित्यिक मासिक पत्रिका ‘अक्षरा’ के अगस्त 2018 के अंक में प्रकाशित हो चुकी है.)
स्व. श्री यूगेश शर्मा (समीक्षक)
व्यंकटेश कीर्ति 11, सौम्या एन्क्लेव एक्सटेंशन चूना भट्टी भोपाल 462013
रावतसर (जिला हनुमानगढ-राजस्थान) के प्रसिद्ध शिक्षाविद, हिंदी-संस्कृत, अंग्रेजी और राजस्थानी भाषा के विद्वान, कवि एवम साहित्यकार श्रद्धेय (स्व.) श्री मुखराम माकड़ द्वारा दिनांक 23 जनवरी 2018 को कस्बे के अन्य साहित्यकारों व गणमान्य नागरिकों की उपस्थिति में 'सियांग के उस पार' का समारोह पूर्वक विमोचन किया गया.
विमोचन समारोह में उपन्यास पर श्रद्धेय माकङ जी का समीक्षात्मक उद्बोधन:
यह उपन्यास आपकी महत्वपूर्ण एवं स्तरीय कृति है. इस उपन्यास का पूरा ताना-बाना अरुणाचल प्रदेश निवासी दो बहिनों, मिनी और निसमी की प्रेम गाथा को केन्द्रित कर बुना गया है. सियांग नदी के आसपास के गाँव तथा विभिन्न पात्रों के सभी नाम काल्पनिक हैं. सचमुच यह उपन्यास कल्पना और यथार्थ का अद्भुत मिश्रण है. इसकी भाषा सरल है, प्रसाद एवं माधुर्य युक्त है. भाषा में शांत नदी का सा स्वाभाविक प्रवाह है. कथानक बड़ा आकर्षक है और अंत तक पाठक के मन को बांधे रखने वाला है. यही लेखक की शैली की विशिष्टता है.
क्योंकि इसमें वायुसेना की विमानन प्रणाली का सटीक वर्णन किया गया है अत: इसमें अंज्रेजी के तकनीकी शब्दों का भी भरपूर प्रयोग किया गया है. वाक्य सरल एवं छोटे-छोटे हैं. भाषा का आंचलिक प्रभाव द्रष्टव्य है. पात्र जैसा और जिस रूप में बोलते हैं, संवादो में उसी शैली का प्रयोग किया गया है. यथा, सर को सार, टोपी को तोपी, थोड़ा को थोरा, पढ़ाई को पधाई, कंट्रोल को कंत्रोल इत्यादि रूप से बोला गया है.
हममें से अरुणाचल प्रदेश की जानकारी बहुत कम लोगों को होगी. इस पहाड़ी राज्य का जीता जागता चित्र देखना है तो इस उपन्यास को पढ़ लीजिये. अरुणाचल प्रदेश के प्राकृतिक दृश्यों, नदियों, नालों, झीलों, पर्वतों, घाटीयों, सघन वनों और वहाँ के जीव जंतुओं का ही नहीं बल्कि वहाँ की सभ्यता, संस्कृति, रहन-सहन, खान-पान, व्यवसाय, शिक्षा-दिक्षा आदि के सजीव एवं यथार्थ शब्द चित्र मिलेंगे आपको इस उपन्यास में.
वहाँ के बोद्ध धर्म, उनके गोम्पा व धार्मिक प्रथाओं की ही नहीं बल्कि वहाँ के आदिवासियों के जीवंत चित्र भी मिलेंगे आपको इस रोचक उपन्यास में. पहाड़ी लोगों के लकड़ी के छोटे-छोटे सादे मकानों, उनकी मिलनसारिता व अतिथिसत्कार तथा सीधे सरल स्वभाव से भी आप परिचित तथा प्रभावित होंगे.
कुल मिलाकर श्री दयाराम वर्मा की यह प्रथम कृति रोचक है तथा उनकी रचनात्मक प्रतिभा की परिचायक है. जहां-तहां वर्तनी की अशुद्धियाँ रह गई है, अच्छा होता प्रूफ रीडिंग एवं संसोधन सावधानी से किया जाता. सचमुच दयाराम वर्मा की इस कृति पर रावतसर वासियों को गर्व है. हम आशा करते हैं की उनकी कलम से और भी सुरभित साहित्यिक पुष्प प्रकट होंगे. युवा लेखक को सभी की ओर से हार्दिक बधाई.

वर्ष 1985 में वायु सेना स्टेशन बीकानेर में हमारी युनिट के एडजुटेंट थे फ्लाईट लेफ्टिनेंट लक्ष्मीनारायण वर्मा. बाद में वे सक्वाड्र्न लीडर के पद से सेवानिवृत्त हुए. इस उपन्यास के प्रकाशन की खबर मिलने पर उनकी पहल पर तत्कालीन केंद्रीय मंत्री और बीकानेर के सांसद, आदरणीय अर्जुन राम मेघवाल के कर कमलों, वायुसेना स्टेशन नाल पर दिनांक 21.02.2018 को पुस्तक का विमोचन हुआ. इस अवसर पर वायु सेना स्टेशन नाल के स्टेशन कमांंडर ग्रुप कैप्टन एम. मिश्रा के साथ वायु सेना स्टेशन बीकानेर के स्टेशन कमांंडर ग्रुप कैप्टन हरीश गर्ग भी उपस्थित थे.
उपन्यास सियांग के उस पार का मध्यप्रदेश साहित्य अकादमी की 'पाठक मंच योजना' के अंतर्गत, मई 2018 के लिए, अकादमी के तत्कालीन निदेशक श्री उमेश कुमार सिंंह द्वारा चयन किया गया और प्रदेश के लगभग 62 केंद्रोंं पर इसकी प्रतियां भिजवाई गई. बङी संख्या में पाठक मंच केंद्रों से जुङे साहित्यकारों, शोधार्थियों और साहित्य प्रेमियों द्वारा इसे पढ़ा गया और समीक्षाएं लिखी गईं. ऐसी ही अनेक उत्कृष्ट समीक्षाओं का साहित्य अकादमी भोपाल की सुविख्यात साहित्यिक पत्रिका 'साक्षात्कार' के जुलाई, 2018 के अंक में सारांशत: प्रकाशन हुआ. इनमें से कुछ एक समीक्षाएं आगामी पैराग्राफ में दी जा रही हैं.
1
औपन्यासिक कृति ‘सियांग के उस पार’ गद्य की अनेक विधाओं को स्वयं में समेटे हुए एक पूर्ण रचना है. यह क्लेवर की दृष्टि से एक उपन्यास है तो शैली की दृष्टि से यह एक लंबी कहानी. इसका कथ्य यात्रा वृतांतक है तो नेपथ्य संस्मरणात्मक. इसमें अनुभव की गहनता है तो ज्ञान की गहराई भी. इस रचना का पुरोवाक, अनुवाक और इतिवाक इसकी संपूर्णता और सिद्धि है. परिष्कृत किन्तु बोधगम्य संश्लिष्ट भाषा कृति की पहचान है. समर्पण, अस्वीकरण, प्राक्कथन की संक्षिप्तता और सहजता रचना और रचनाकार की सादगी को संकेतित करता है. कृति के इस पार और कृति के उस पार अर्थात आरंभिक और आंतिक परिच्छेद इस रचना रूपी गाड़ी के ऐसे दो चक्र (पहिये) हैं, जिनके बिना चला नहीं जा सकता था. लेखक का सीधा सपाट परिचय, विद्वानों की टिप्पणियां और संदर्भ सूची इस गाड़ी के ऐसे सवार हैं, जो गाड़ी की सार्थकता और महत्व का प्रतिपादन करते हैं.
..............कृति को आद्योपांत पढ़ने के बाद मुझे ऐसा लगा कि मानो अपने कथ्य में यह कथाकृति प्राचीन किस्सागोई का स्मरण करती हुई आधुनिक फिल्मी फ्लेशबैक पर आकर रूकती है. शिल्प की सरलता, स्पष्टता और अकृतिमता इस कृति की जीवन रेखा है. इसमें प्रेम की विशद व्याख्या नहीं किन्तु मर्मांतक अनुभूति अवश्य है. देश के पूर्वोत्तर क्षेत्र की सुरम्य प्रकृति और जनजातीय संस्कृति की सोंधी महक है. प्रेम में समर्पण का सम्मोहन संत्रास है. वायु सेना, मौसम विज्ञान और विद्युत एवं तकनीकी संचार की कार्यप्रणाली का दर्शन है. वास्तव में इसमें लेखक का अनुभव और अध्ययन दोनों का समवेत प्रवाह दृष्टिगत होता है. कुल मिलाकर ‘सियांग के उस पार’ प्रत्यक्ष और परोक्ष की अनूठी किन्तु सार्थक प्रस्तुति है.
वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. अशोक त्रिपाठी पाठक मंच छतरपुर (मध्यप्रदेश) 2
बहुत दिनों बाद एक ऐसा उपन्यास पढ़ने को मिला है जिसमें सभी नौ रस मौजूद हैं ! यदि कोई कभी अरुणाचल प्रदेश की यात्रा करना चाहें, वहां के बारे में जानकारी चाहें, वहां का रहन-सहन, खाना – पीना, वेश-भूषा, तीज-त्यौहार, सब कुछ का इस उपन्यास में सजीव वर्णन किया गया है ! ऐसा लगता है हम अरुणाचल प्रदेश की यात्रा कर रहे हैं और लेखक एक गाइड के रूप में हमें हर जगह बताता हुआ एक डंडी का एक सिरा स्वयं थाम दूसरा सिरा हमें पकड़ा कर आगे-आगे चल रहा है !
देश के पूर्व में सात बहनों के नाम से मशहूर सात राज्यों में से एक अरुणाचल प्रदेश को लेखक ने जीवंत कर दिया है ! ........... हर पात्र जीवंत है, हर बात जीवंत है, वायुसेना के जवानों की जिन्दगी, उनके ऑफिसर की जिम्मेदारियां, उनके रहन-सहन तथा उनको कितनी भी कठिनाइयाँ आयें उन सबके बीच वह कैसे हँसते-मुस्कुराते रहते हैं इन सबके बारे में बहुत ही अच्छी जानकारी इस उपन्यास में मौजूद है !
........ लेखक ने सहज और सरल भाषा में निश्छल प्यार की एक बहुत ही प्यारी कहानी लिख दी है जिसे पढ़ कर कभी भी यह नहीं लगता कि यह कहानी है, हमेशा हकीकत ही प्रतीक होती है, मन में एक जिज्ञासा बनी रहती है कि आगे क्या होगा ? एक रहस्य बराबर बरकरार रहता है कि शायद यह विक्रम ही देबांग है ! ....... कहानी में अरुणाचल प्रदेश के लोगों द्वारा बोली जानी वाली हिंदी को हुबहू लिखा है, पढ़ते समय भी लगता है कि सच में कोई अरुणाचल का रहने वाला ही बोल रहा है!........ ऐसा लगता है कि यदि कोई शोध करना चाहे तो यह पुस्तक उसके लिए बहुत उपयोगी होगी ! ........... यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि यह उपन्यास देश के सुदूर राज्य अरुणाचल प्रदेश का का प्रतिनिधित्व करता है, इसके लिए लेखक बहुत-बहुत बधाई के पात्र हैं !
वरिष्ठ साहित्यकार, श्रीमती अनीता सक्सेना, बी-143 न्यू मीनाल रेसीडेंसी भोपाल – 23 संपर्क : 9424402456 3
लेखन और प्रकाशन एक सतत प्रक्रिया है, साहित्य की सभी विधाओं में प्रतिदिन न जाने कितनी कृतियाँ पाठकों के सम्मुख आ रही हैं. अब गौर करने लायक बात यह है कि इनमें से कितनी कृतियाँ पठनीय होती हैं, जिन्हें पाठक पढ़ कर सदैव के लिए अपने ह्रदय में उतार लेता है, और उसके प्रभाव को सदैव महसूस करता है. यानी वही लेखन और सृजन सार्थक हो पाता है, जिसे पाठकों के मन में स्थान मिलता है. बाकी जिस कृति से पाठक जुड़ न पाए, ऐसे लेखन,प्रकाशन का क्या औचित्य ..? यह सचमुच चिंता का विषय है, इसी अधकचरे लेखन प्रकाशन के कारण पाठक दिनों-दिन पुस्तकों से दूर होते जा रहे हैं, परन्तु ऐसे निराशा भरे वातावरण में कभी-कभार आशा की कुछ किरणें भी दिखाई देती हैं, जिनसे सारा वातावरण नई रोशनी से भर उठता है.
मेरा कहने का आशय है कि इस लेखन प्रकाशन की धकापेल के बीच कुछ ऐंसी कृतियाँ भी पाठकों के सम्मुख आती हैं जिन्हें पढ़कर पाठक आल्हादित हो उठता है. ऐसी ही एक कृति उपन्यास के रूप में पाठकों के सम्मुख हाल ही में प्रकाशित हो कर आयी है 'सियांग के उस पार' जिसे पाठक एक बार पढ़ना प्रारम्भ करता है ,तो उसमें डूबता ही चला जाता है. उपन्यास का कथानक इतना प्रभावी और रोचक है कि पाठक को प्रारम्भ से अंत तक यह अपने में बांधे रहता है. उपन्यास की भाषा शैली सहज है और ज़रूरत के अनुरूप लेखक ने स्थानीय भाषा और संस्कृति से पाठक को जोड़े रखने, यथार्थ से रूबरू कराने के लिए क्षेत्रीय भाषा का सहज प्रयोग किया है जो उपन्यास के कथ्य को प्रभावी बनाता है .
समूचा उपन्यास लेखक की डायरी के समान है, इसे लेखक ने संस्मरणात्मक ढंग से लिखा है और इसी कारण डूब कर ह्रदय से लिखी बात ह्रदय तक पहुंचती ही है. उपन्यास से गुजरते वक्त हम स्वमं इसके साक्षी या एक पात्र से लगते हैं. पाठक उपन्यास को पढ़ते हुए यह भूल जाता है कि वह कोई कृति पढ़ रहा है बल्कि उसे लगता है वह स्वयं सियांग नदी के पास बसे मेकलिंग में निवास कर रहा है वह दुर्गम पहाड़ियों से सफर करता हुआ नियामदिंग जा रहा है . .................
उपन्यास में वायुसेना और हाइड्रो-पावर से सम्बंधित तकनीकी जानकारी विस्तृत ढंग से दी गई है, पाठक पूरी कार्यपद्धति को निकट से जान पाता है....... कुल मिला कर एक सच्चे, निश्छल प्रेम, जिसमें त्याग है, अपनापन है साथ ही पूर्वोत्तर की दुर्गम घाटी और सियांग नदी, आस-पास की छोटी-छोटी बस्तियां, बौद्ध-धर्म, उसका जीवन दर्शन, प्रकृति के अदभुत कभी न भूलने वाले अनुपम दृश्य, अनेक सर्वथा जानने योग्य नवीन जानकारियों से युक्त इस उपन्यास को लेखक ने कोरी कल्पना से नहीं लिखा है, बल्कि इस उपन्यास को स्वयं जिया भी है, अपने अनुभवों को लेखकीय कौशल से कृति के रूप में ढाला है. .....
वरिष्ठ साहित्यकार श्री घनश्याम मैथिल 'अमृत' भोपाल
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वायुसेना के विमानों में ऊँची उड़ान भरनेवाले जमीनी तकनीकी सहायक ने आसमान के अनंत विस्तार को यंत्रों से नापने का प्रयास किया किन्तु प्रेम की संकरी गली में अपने आसमान नापने के अनुभव के बावजूद फंस कर रह गया. वायुयान का अंतिम नियंता मनुष्य होता है लेकिन भटकते चंचल मन का नियंत्रण प्रेमी के पास भी नहीं है. बर्फ से ढके पहाङी शिखरों से लेकर हिंसक जंगली पशुओं से भरी घाटियों की दास्तानें इस प्रेम कथा के साथ साथ चलती है, साथ चलती है उत्तरपूर्व की पहङी नदियों की आक्रामक आवाजें, साथ चलती है अँधेरे में कमजोर आँखों के सहारे अपना मार्ग टोह लेने की कला, साथ चलता है इस वनवासियों का बरसों का अनुभव जो इन्हें हिंसक पशुओं से बचाता चलता है, साथ चलती है अंदरूनी ताकतें जो थकान से भरे शरीर को मिलों से पैदल सफ़र के बाद भी दुर्गम रपटीली पहाड़ियों पर चढ़ा देती है.
प्रेम वैसे भी सीधे रास्ते आता नहीं है, भारत में सियांग और चीन में सांग-पो नदी का भूगोल भी सीधा नहीं है, ना नदी किसी नहर की तरह बंधे किनारों में बहती है, ना बादल किसी टोकरी में कैद होकर आते है. नायक के प्रेमस्थल मेक्लिंग का नक्शा पगडंडियों, छितरी बसाहट, स्कूल, पूजास्थल, वायुसेना के अस्थायी स्थानक, वायुसैनिकों और पनबिजली तकनीशियनों के आवास का मिलाजुला दृश्य है जो आम पहाङी गावों के लिए साधारण और मैदानी नागरिक के लिए कौतुहल और नयापन लिए होता है.
वरिष्ठ साहित्यकार श्री गोविन्द शर्मा खंडवा (मध्यप्रदेश)5
सहज मानवीय संबंधों के ताने बाने के साथ अरुणाचल के प्राकृतिक सौंदर्य को समेटे हुए सहज सरल प्रवाह है, भाषा का. कहा जा सकता है कि बहुत दिनों बाद इतना अच्छा उपन्यास पढ़ने को मिला. इसमें प्रारम्भ से ही रहस्य की तलाश में जब पाठक आगे पढ़ता जाता हैं तो सियांग घाटी के प्राकृतिक सौंदर्य के बीच खुद को पाता है. जंगलों से गुजरते हुए उत्सुकता बढ़ती जाती है. विभिन्न जनजातियों से परिचित होता हुआ पाठक एक प्रेम कहानी में उलझते सुलझते हुए उनके खानपान वेशभूषा उनके अलंकारों के व विचारों से परिचित होता जाता है.
वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. पुष्पा पटेल, खरगाँव (मध्यप्रदेश)
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यह उपन्यास लेखक के जीवन के इर्द-गिर्द घूमती हुई घटनाओं का देश, प्रकृति और सामाजिक ताने-बाने की जीवंत कहानी है. इसे पढ़कर यकायक मुझे चन्द्रधर शर्मा गुलेरी की कहानी 'उसने कहा था' की याद ताजा हो गई. सचमुच वर्माजी जी बधाई के पात्र हैं जिनके एक हाथ मे तलवार है और दूसरे हाथ में कलम, आप पर सरस्वती और दुर्गा दोनों का आशीर्वाद है. हार्दिक शुभकामनायें और बधाई.
वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. दशरथ मसानिया, आगर मालवा (मध्य प्रदेश)
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उपन्यासकार दयाराम वर्मा द्वारा लिखित उपन्यास शुरू में पहाड़ी क्षेत्रों का वर्णन व वायुसेना की कई तकनीकी बातों, शब्दों व बारीकियों का वर्णन करता है तो लगता है कि कहीं यह वायुसेना का मात्र तकनीकी दस्तावेज़ तो नहीं है? परंतु धीरे धीरे जैसे-जैसे कथानक खुलता जाता है पाठक यह मानने को विवश हो जाता है कि कथानक की पृष्ठभूमि को समझ लेने के लिए यह सब ज़रूरी था. बल्कि ये जानकारियाँ नायक-नायिका के बीच पनपते प्रेम के उतार-चढ़ाव को समझने में सहायक व अनिवार्य साबित होती हैं.
उपन्यास की मुख्य विषयवस्तु प्रेमकथा ही है मगर पाठक साथ साथ अरुणाचलप्रदेश जैसे उपेक्षित व कम जाने पहचाने गए क्षेत्र की भौगोलिक स्थितियों, प्राकृतिक सौंदर्य और जनजाति की संस्कृति, सभ्यता और रीति रिवाजों से भी अवगत होता जाता है. क्षेत्रीय बोली व वायुसेना संबंधी शब्दों को यथावत रखना, रचना की जान है व उससे उसका मूल भाव व आस्वाद बना रहता है. एक बार शुरू करने पर अंत तक पढ़ने की जिज्ञासा बनी रहती है. एक पठनीय व संग्रहणीय कृति रचने के लिए लेखक बधाई के हकदार हैं.
वरिष्ठ साहित्यकार- श्री ओम वर्मा 100, रामनगर एक्सटेंशन, देवास (मध्यप्रदेश) मो. 9302379199
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उपन्यास सियांग के उस पार हिन्दी साहित्य की विशिष्ट उपलब्धि है. लेखक ने अपने उपन्यास में जिस विषय वस्तु को माध्यम बनाया है बर्तमान को उसकी दीर्घकाल से प्रतीक्षा थी. बास्तव मे इस विषय पर अभी तक किसी की इतनी सूक्ष्म दृष्टि नहीं गई थी. यह दस्तावेज अरुणांचल प्रदेश के नैसर्गिक सौन्दर्य, जनजातिय संस्कृति एवं यहां के भौगोलिक वातावरण की अविस्मरणीय झांकी है. भारत में होते हुए भी ज्यादातर भारतीय इस पूर्वोत्तर प्रांत की वास्तविकता से प्रायः अनिभिज्ञ थे.
यह दस्तावेज सियांग घाटी के इर्द-गिर्द के कई अनुभव प्रमाणिकता के साथ पाठकों से साझा करता है. शिल्प की दृष्टि से भी यह ग्रंथ बेजोङ है. भाषा सहज, सरल और प्रभाव छोडने वाली है. यद्पि उपन्यास के सभी पात्र काल्पनिक है परन्तु उनमें प्राकृतिकता का आभाष होता है, यह लेखक की गहरी साहित्यिक सूझबूझ और गहन चिन्तन का कमाल है यही उपन्यास की सफलता है.
वरिष्ठ साहित्यकार, श्री मनोज स्वर्ण पाठकमंच भिण्ड (मध्यप्रदेश)
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‘सियांग के उस पार’ में लेखक श्री दयाराम वर्मा जी ने वहाँ (अरुणाचल प्रदेश) के जनजातीय जीवन और भिन्न भिन्न कबीलों की संस्कृतियों का संघर्षमय वर्णन बड़े ही सहज जीवन रूप में सरल भाषा शैली में प्रस्तुत किया है जो कि उपन्यास को पढ़ने के लिए प्रेरित करता है. हमारे देश में हिन्दू संस्कृति में बौद्धिक वर्ग जब जनजातीय संस्कृति के बीच पहुंचता है तो मन में जनजातीय जीवन के प्रति अनचाहा लगाव हो जाता है. वह सोचने लगता है कि हमारे ही देश में एक संस्कृति ऐसी भी है जो कठिन परिस्थितियों में अपना जीवन यापन करती है. उस लगाव को वह संभाषण एवं लिपिकीय रूप से बौद्धिक वर्ग के रूप में समाज तक पहुँचने का कार्य करता है वही कार्य श्री दयाराम वर्मा जी ने किया है.
वरिष्ठ साहित्यकार श्री अखिलेष शर्मा, केंद्र संयोजक – पाठक मंच कार्यालय, जौरा, मुरैना (मध्यप्रदेश) मई 2018
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लेखक ने इस कथा के माध्मय से पूर्वोत्तर के भौगोलिक, सामाजिक, सांस्कृतिक चित्र सफलतापूर्वक उकेरे हैं. कृति की भाषा संदर्भ और पात्रों के सर्वथा अनुकूल है. स्थानीय जनजातियों में फैले अंधविश्वास, रूढि़यों तथा तांत्रिकों का प्रभाव भी स्पष्टत: दर्शाया गया है. पूर्वोत्तर के लोगों का जीवन, उनके अत्यंत कष्टकारक और दलदल से युक्त भूमि पर आवागमन, विषैले जीव-जन्तुओं, सर्प और जोंक जैसे भयानक और कष्टदायक जन्तुओं से अपनी रक्षा करना यहाँ के लोगों के जीवन संघर्ष को दर्शाता है. लेखक ने हिन्दी पाठकों के लिए इस रचना के माध्यम से पूर्वोत्तर के द्वारा खोल दिये हैं. रचना पठनीय, मननीय तथा संग्रहणीय है.
वरिष्ठ साहित्यकार आचार्य सुरेश शर्मा पाठकमंच, शिवपुरी (मध्यप्रदेश)11
उपन्यास के माध्यम से लेखक का अवचेतन तर्क रूपी मस्तिष्क और भावरूपी ह्रदय के बीच संतुलन बनाता हुआ एक ऐसी प्रेमकथा को हमारे समक्ष प्रस्तुत करता है जो संवेदनशील मानवीय के हृदयस्पंदनो को आंदोलित कर दे..जो निस्वार्थ प्रेम के सार्वभौमिक स्वरुप की, इस समकालीन विश्व में पुनर्व्याख्या कर दे.. जो प्रकृति और मनुष्य के बीच तल्ख़ होते रिश्तों पर मलहम लगाकर इस पावन सम्बन्ध में प्राण भर दे.....तो जो त्याग ,समर्पण और प्रेम की अनंत निस्चल जल धाराओं में अपने हिस्से का पानी भर दे..कुछ ऐसा स्वरुप है उपन्यास का .....कुछ ऐसा प्रभाव है इस उपन्यास का..........
उपन्यास के पात्र बड़े सजीव हैं उनके बीच होने वाले संवादों में क्षेत्रीयता के पुट के साथ साथ सहजता और आत्मीयता है. लेखक ने भाषा की सरलता को प्राथमिकता देते हुए दृश्यों को रचा है. प्रतीकों और रूपकों का प्रयोग अपेक्षाकृत कम है. उपन्यास आरम्भ होते ही कई जिज्ञासाओं को जन्म देता है. मध्य तक आते आते समस्त पात्र अपनी सम्पूर्णता के साथ सामने आते हैं. मध्योपरांत और अंत के बीच, जो उपन्यास पढ़ते वक्त का सबसे चुनौतीपूर्ण समय होता है उसमे लेखक ने कई हास्य घटनाओं.....विक्रम-निसमी के मध्य होने वाले प्रेम पूर्ण पत्राचारों ..और पहाड़ी एडवेंचर के सहारे पाठक को बांधे रखने में सफलता पायी है. इस तरह घटनाक्रमों का संयोजन भी उपयुक्त है.
उपन्यास में पहाड़ी गाँव में पदस्थ मौसम सहायक और उनके साथियों को मौसम सम्बन्धी सूचनाएँ प्रेषित करनी होती हैं. सेना की तकनीकी भाषा में दी गई इन सूचनाओं की बारम्बारता से बचा जा सकता था. साथ ही लेखक ने बिक्रम और निसमी के मध्य हुए प्रेमपूर्ण पत्राचारों में, मिनी के स्वास्थ्य के सम्बन्ध में एक ही जानकारी ( कि मिनी की हालात बेहद गंभीर है ) को कई बार उद्धृत किया है. इस प्रकार, एक ही जानकारी के बार बार आने से उपन्यास की कसावट में कमी आती है, साथ ही 'डुप्लीकेशन ऑफ़ एक्ट'' की समस्या से धाराप्रवाही घटक्रमों के बीच अवरोधक आ जाते हैं, इनसे बचा जा सकता था.
उपन्यास में अरुणाचल प्रदेश को लेकर भारत चीन संबंधों को उजागर करने का अवसर भी लेखक के पास था पर शायद लेखक उपन्यास के केंद्र में अरुणाचली जीवनयापन और प्रेम कथा को रखना चाहते थे इसलिए इस बाबत उन्होंने न के बराबर ही लिखा है. भाषा की सरलता के साथ- साथ घटनाक्रम धीरे धीरे आगे बढ़ते तो हैं परन्तु उनमें विशुद्ध साहित्यिक शब्दों से लबरेज दृश्य छायांकन के वे अनूठे अनुप्रयोग नहीं दिखते जोकि प्रायः प्रेमचंद ,कमलेश्वर ,खुशवंत सिंह आदि के लेखन में दिखते हैं....पर अंततः उपन्यास का कथानक अंत तक पाठकों को अपने वश में रखता है. कथा का अंत क्या होगा ? की उत्सुक्ता का ही असर है कि महज तीन या चार बैठकों में ही, मैं उपन्यास को पूरा पढ़ गया ......
बहरहाल, लेखक ने 261 पृष्ठीय उपन्यास ''सियांग के उस पार'' के माध्यम से साहित्य जगत को एक अद्भुत कृति सौंपी है.उत्तर पूर्वी राज्यों में ( जहाँ वैसे ही अलग अलग भाषाएँ बोली जाती हैं) हिंदी का सार्थक हस्तक्षेप स्वागत योग्य है. उपन्यास पढ़ते वक्त सन 64 में आयी फिल्म ‘’हकीकत’’ के शुरूआती दृश्य मेरे सामने आ रहे थे. चेतन आनंद द्वारा निर्देशित फिल्म ‘’हकीकत’’ में धर्मेंद्र,बलराज साहनी और प्रिया राजवंश जैसे अदाकार शामिल थे. फिल्म 1962 के भारत -चीन युद्ध पर आधारित थी.
भारत की लुक ईस्ट नीति के बाद एक्ट ईस्ट पॉलिसी ,चीन द्वारा स्टेपल वीसा के केस, अनाधिकृत चीनी घुसपैठें व समकालीन उत्तर पूर्वी राज्यों कि स्थिति के मद्देनज़र ..भारत के पश्चिम राज्यों के पूर्वी राज्यों से बढ़ते संबंधों सम्प्रति वैचारिक आदान प्रदान के लिए किये गए अधिकाधिक साहित्यिक प्रयास सम्मिलित रूप से बधाई के पात्र हैं. लेखक ने उत्तरपूर्वी राज्य पर केंद्रित उपन्यास के माध्यम से जो भी रचनाकार्य किया है उसके लिए अनेकानेक शुभकामनाएं तो प्रतीक्षारत हैं ही .....साथ ही मैं स्वयं उन्हें एक शाब्दिक पुरुस्कार से सम्मानित करना चाहूँगा और वह यह कि – 'उपन्यास ‘सियांग के उस पार’ पढ़ने के बाद मेरे ह्रदय में ठीक वैसे ही भाव उमड़ रहे थे जो कभी धर्मवीर भारती के कालजयी उपन्यास ‘गुनाहों का देवता’ पढ़ने के बाद उमड़े थे..
वरिष्ठ साहित्यकार श्री शुभम उपाध्याय, मकरोनिया, सागर (मध्यप्रदेश) मोबाईल– 8458906979, 9691753078
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'सियांग के उसपार' अरुणाचल के सौंदर्य, प्रकृति के अनदेखे मनोहारी स्थलों का अनुसरण, वहां के सुदूर क्षेत्र के जीवन ,रीति नीति, आचार विचार, खानपान, परिवेश और परिस्थितियों का सुंदर दस्तावेज है जो साथ ही साथ वायुसेना, थलसेना, माइक्रो हाइडल प्रोजेक्ट के पेचीदा पहलुओं की तथ्यात्मक तसवीर पेश करना है.
सियांग वह जीवन रेखा है जो चीन से भारत की ओर चल कर अपने तटों पर सभ्यता, दर्शन और जीवन के अमिट आकर्षक रंग बिखेरती है.............ठेठ व्यावसायिक अनुबंध से आरंभ यह कथा जीवन और प्रकृति दोनों के ही महीन सूक्ष्म रेशों से गुज़रती जीवन आदर्श में समाहित हो जाती है. इस रूप में प्रकृति और मानव ही कथा के दो मुख्य पात्र है. प्रकृति का उदार, उदात्त और गंभीर रूप कहानी में पृष्ठभूमि की तरह दिखता है. पर्वतीय सौंदर्य की विशालता और विकरालता, मदमस्त पहाड़ी झरनों की अल्हड़ता, सघन वन क्षेत्र अनोखा पृष्ठ खोलता हैं.............
कई महत्वपूर्ण पात्रों के बीच देबांग और मिनी बनाम बिक्रम और निसमी की प्रेमकथा भी इसी नैसर्गिक वातावरण से उपजती है ..............देबांग और मिनी का अथाह प्रेम जो शादी में बंधने वाला था देबांग के अचानक गायब होने से मिनी के मानसिक असंतुलन तक पहुच जाता है. इधर समय के साथ बिक्रम और निसमी का प्रेम परवान चढ़ता है. बिक्रम और देवांग का हमशक्ल होना निसमी को प्रेरित करता है कि वो बिक्रम के माध्यम से मिनी को स्वस्थ कर सके. तमाम घटनाक्रम के बाद जब वे दोनों इस महान कर्तव्य की चरम परिणती तक पहुचते है तो मिनी कुछ पल सुकून के गुज़ार परलोक चली जाती है. यहाँ स्थानीय लोगो का दवाब ,जन विश्वास बिक्रम और निसमी के रिश्ते, उनके निर्णय का रुख बदल देता है. कर्तव्यों और जनविश्वास की बेदी पर दोनों का प्यार त्याग की परिभाषा में बदल जाता है ओर वे अलग हो जाते है.
30 वर्ष पश्चात उनकी मुलाकात और स्वयं को मिनी देबांग के शाश्वत प्रेम की आत्मतुष्टि के साथ जीने का आदर्श पाठक को विचलित करता है. प्रकृति की खूबसूरती, इंसानी रिश्तों की महक,कई पात्रों के बीच ये कहानी अनेकों कार्यविधियो को समझती अपनी मन्थर गति से यात्रा वृत्तांत का आनंद देती है. लेकिन आखिर में तेज़ी से बदलता घटनाक्रम प्रवाह में ख़लल डालता है ........ फिर भी एक सुंदर, पठनीय कृति के लिए, अच्छी सैर के लिए साधुवाद. ...
वरिष्ठ साहित्यकार श्रीमती अमिता त्रिवेदी C 8 - आकाशवाणी कॉलोनी श्यामला हिल्स भोपाल-462002
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बूँद समुद्र में मिलकर विलीन भले ही हो जाती है परंतु उसका अस्तित्व समाप्त नहीं होता, वरन रूपांतरित होकर वह स्वयं समुद्र हो जाती है. इसी प्रकार बिक्रम और निसमी का लौकिक प्रेम, देबांग और मिनी के अलौकिक प्रेम में रूपांतरित होकर उपन्यास को भी अलौकिकता प्रदान करता है. मुझे उपन्यास का यह सबसे प्रभावशाली पक्ष लगता है. उपन्यास में प्राय: सभी पात्रों से उनकी स्थिति के अनुरूप ही भाषा का प्रयोग इस उपन्यास की दूसरी विशेषता है. इससे पाठक को आंचलिकता का अतिरिक्त आस्वादन अनायास ही मिल जाता है. इसी प्रकार बिक्रम तथा देबांग के बीच एकरूपता की रहस्यमयता भी पाठक को अंतिम क्षणों तक जिज्ञासु बनाए रखती है जो लेखक की शिल्प एवं शैलीगत विशेषता है.
आज जब जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में मूल्यों का अवमूल्यन, साहित्यिक प्रदूषण का प्रादुर्भाव हो रहा है, मानव जीवन मूल्यों की उपेक्षा करके कुत्सित विकृतियों का निरूपण ही लेखक का ध्येय धर्म हो गया है. व्यक्ति जब स्वार्थी होकर मात्र अपने लिए ही जीना चाहता है, सम्बन्धों में पवित्रता का अभाव हो रहा है तब सियांग के उस पार हमें आश्वस्त करती है कि समय चाहे जितना परिवर्तनशील हो, संवेदना का स्वरूप शाश्वत है, बस उसे जानने के लिए सापेक्ष दृष्टिकोण चाहिए जो लेखक में है.
वरिष्ठ साहित्यकार श्री शिवभूषण सिंह ‘गौतम’ पाठक मंच केंद्र- छतरपुर (मध्यप्रदेश) दिनांक 24 मई, 2018
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सुरवाणी संस्कृत तथा लोकवाणी अपभ्रंश से विरासत में मिली आख्यान शैली की रचनाओं को बांग्ला गल्प, बुंदेली किस्सा तथा कहानी के तत्वों को मिला-बढ़ाकर विश्ववाणी हिंदी ने अपने वाङ्मय कोश को उपन्यास विधा से समृद्ध किया. तथाकथित प्रगतिवादी चिंतक अंग्रेजी के नावेल को हिंदी उपन्यास का जनक बताते रहे हैं.
उपन्यास विधा चिरकाल से सर्वाधिक लोकप्रिय गद्य विधाओं में गण्य है. विवेच्य कृति सियांग के उस पार संस्मरणात्मक प्रेमकथात्मक उपन्यास है. पूर्वोत्तर भारत की सामान्यतः अल्पग्यात जीवनशैली तथा वायुसेना की गतिविधियाँ इसकी रोचकता में वृद्धि करती हैं. उपन्यास का कथानक निसमी-बिक्रम की घटित हो चुकी प्रेमकथा तथा मिनी-देबांग की पल्लवित होती प्रेमकथा के बीच देबांग और बिक्रम के व्यक्तित्व-साम्य से उपजे औत्सुक्य और उलझन के मध्य रोमांस और रोमांच का तड़का पाठक-मन को ऊहापोह में उलझाए रखता है.
अरुणांचल प्रदेश के प्राकृतिक सौंदर्य, सरल-सात्विक जन-जीवन तथा विकास के सोपानों पर कदम बढ़ाती युवा पीढ़ी की झलकियाँ कथा-क्रम को अग्रसारित करने के साथ-साथ पाठकीय ग्यान और अपनत्व में वृद्धि करती हैं. उपन्यास-कथा स्थिरता-अस्थिरता के धूप-छाँवी घटनाक्रम के बीच वन्य ग्राम्य जीवन और महानगरीय जीवन के गंगा-जमुनी शब्द चित्र उपस्थित कर कथा की रहस्यात्मकता बनाए रखती है.
पल-पल परिवर्तित होते मौसम के मध्य पर्वतीय उपत्यकाओं में उतरते विमान के प्रति आमजनों का औत्सुक्य, वनोपजों पर आधारित खान-पान, सैन्य गतिविधियाँ, बौद्धधर्मी मानसिकता तथा लोकाचार, दुर्गम परिस्थितियों को सहजता से जय करता मानव स्वभाव, अभावों के बीच पलता पारस्परिक अपनत्व, मोहक लोकराग, पारंपरिक रूढ़ियाँ और अंधविश्वास, समय के साथ होता विकास, देशप्रेम और आत्मोत्सर्ग भाव इस उपन्यास को पठनीय बनाते हैं.
वायुसैनिक बिक्रम का हायडल इंजीनियर देबांग से व्यक्तित्व साम्य उसे नायिका निसमी के निकट ले आता है. देबांग के अचानक लापता हो जाने पर उसकी प्रेमिका मिनी जो निसमी की बड़ी बहिन है, विक्षिप्त हो जाती है. निसमी इस साम्यता का लाभ लेकर बिक्रम को देबांग बनकर मिनी से मिलने को प्रेरित करती है. जहाँ चाह, वहाँ राह, असंख्य बाधाओं के बाद इस मिलन से हुए अतिरेकी आल्हा को हृदयाघात बनता देर नहीं लगती. 'मनचाही कबहूँ नहीं प्रभुचाही तत्काल', मिनी का निधन बिक्रम और निसमी के मिलन में बाधा बन जाता है. किनारों की खुशी के लिए दोनों बेइंतिहा प्यार को भूलकर अन्यत्र विवाह करते हैं पर जीवनांत के पूर्व एक-दूसरे से भेंट में अपने त्यागपरक सात्विक प्यार की विजय की अनुभूति कर पाते हैं.
उपन्यासकार श्री दयाराम वर्मा ने प्रसाद गुण संपन्न प्रवाहमयी भाषा शैली का प्रयोग करते हुए कथावस्तु को कई मोड़ दिए हैं जो पाठक को बाँधे रखते हैं. चरित्र चित्रण करते समय उतना ही कहा गया है जितना आवश्यक है. निसमी का चरित्र चित्रण संवदेनशील, परिश्रमी, ईमानदार, स्वाभिमानी तथा त्याग करनेवाली युवती के रूप में स्वाभाविक है. यही विशेषताएँ बिक्रम में भी हैं. सैन्य अधिकारियों में अपने एक अधीनस्थ की व्यक्तिगत आवश्यकता पर असाधारण सहयोग भाव चकित करता है. मिनी के निधनोपरांत निसमी और बिक्रम का जुदा होने का निर्णय पूरी तरह अस्वाभाविक है, भले ही उसे त्याग का आवरण पहना दिया गया हो.
अपनी पहली औपन्यासिक कृति में दयाराम जी अपनी लेखन सामर्थ्य के प्रति संभावना जगाते हैं. उनकी भावी कृतियों की प्रतीक्षा की जाएगी.
वरिष्ठ साहित्यकार आचार्य संजीव वर्मा सलील विश्ववाणी हिंदी संस्थान, 401 विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर 482001, मो. 07999559618
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इस उपन्यास में छद छद्म, बैर,चालाकी, फरेबी जैसे किरदार नहीं है. उपन्यास में भाषा गत परिवर्तन अरुणाचल की मांग थी. सर को सार, मीटर को मीतर,आदि. शुरुआत के 50 पृष्ठों में अरुणाचल की सियांग घाटी के प्राकृतिक सौंदर्य और उनके रहवासियों का चित्रण है, 175 पृष्ठ से 225 पॄष्ठ तक निमसी और बिक्रम की पैदल यात्रा है जो सियांग के इस पार से उस पार जाने की तीन दिन की यात्रा का वर्णन है.
पूरा उपन्यास एक उपन्यास कम और संस्मरण ज्यादा है. पढ़ते पढ़ते ऐसा महसूस होता है कि लेखक ने अपने जीवन के अनुभवों को 80 के दशक से उठाकर 2018 के दशक में पाठकों के सामने लाने की कोशीश की है. अरुणाचल की उस समय की यातायात और विद्युत समस्याएं, मानवीय प्रेम की भौगोलिक स्थितियों की भिन्नता के बाद भी पोषित होना, पूर्वांचल की प्राकृतिक स्थिति और अस्त व्यस्त जनजीवन की निमसी इस उपन्यास की विजयी नायिका है जो अपनी बहन के और माता पिता के लिए बिक्रम से अलग तो हुई किंतु बिक्रम के सच्चे प्रेम ने उसे मिनी बनकर शिक्षक, और उसके प्रेम ने बिक्रम को वायुसैनिक से इंजीनियर बनने के लिए मजबूर कर दिया. यह सब इस उपन्यास के विभिन्न दृष्टिकोण है हैं जिन्हें इस उपन्यास में रेखांकित किया गया है.
अधूरे परन्तु अंतःस्थल के अमर प्रेम, वायुसैनिक के अनुभव, सेना के परे सैनिक की कालजयी मानवीय संवेदनाओं, सियांग घाटी का आखों देखा हाल, सियांग नदी के प्राकृतिक वैभव, मेम्बा जनजाति और बौद्ध धर्मानुयाइयों के नजदीक पाठकों को लाने के लिए दयाराम वर्मा जी को बहुत बहुत बधाई.
वरिष्ठ साहित्यकार श्री अनिल अयान, सतना (मध्यप्रदेश) 16
लेखक व एयरफोर्स में वायुसैनिक रहे श्री दयाराम वर्मा ने अरुणाचल यात्रा के संस्मरणों को उपन्यास का आकार देकर इसे और पठनीय बना दिया है. इसमें वहाँ के लोक में प्रचलित पूरब की आदि बोली वालों में भी हिन्दी के प्रति स्नेह है या वे सेना के प्रति आदर के कारण राष्ट्रभाषा से प्रेम करते हैं. हिन्दी के टूटे-फूटे शब्द ही सही, किन्तु वे स्वयं के प्रयासों द्वारा हिंदीभाषी अधिकारी अथवा सैनिकों से संवाद स्थापित कर लेते हैं. लेखक ने इस उपन्यास के माध्यम से देश के पाठकों के सन्मुख पूर्वोत्तर संस्कृति और प्राकृतिक सुषमा को जनवाने का उत्तम प्रयास किया है.
वरिष्ठ साहित्यकार श्री ओमप्रकाश खुराना, संयोजक टी.टी. नगर, पाठक मंच भोपाल (मध्यप्रदेश) 46200317
उपन्यास सियांग के पार से गुजरते हुए कभी लगा ही नहीं कि हिमालय की चोटियों, नयनाभिराम प्रकृति, हरी भरी ऊंची नीची पगडंडियों और निश्छल भोले भाले आदिवासियों के बीच से विक्रम गुजर रहा है बल्कि यह अहसास होता रहा कि हम वहां से गुजर रहे हैं. विक्रम और स्वयं पाठक के बीच ऐसा तादात्म्य स्थापित हो जाता है कि पूरा उपन्यास अपने इर्द-गिर्द चलता लगने लगता है.
सहज सरल भाषा में घटनाओं, प्रकृति, कठिनाइयों और विभिन्न घटनाक्रमों का दृश्यात्मक विवरण, मन में सुदूर अरुणाचंल प्रदेश को अपनी आँखों से देख लेने एवं वहाँ के निवासियों के भोलेपन को ह्रदय में संजो लेने को आतुर होने लगता है. प्रेम की गहराइयों में संसार के सारे तर्क, तर्कहीन हो जाते हैं. प्रेम के अदृश्य बारीक धागों का बंधन बहुत मजबूत हो जाता है.
विक्रम और निसमी का प्रेम आसमान की ऊंचाइयों से भी ऊंचा हो जाता है जहाँ सपनों के इंद्रधनुष तो होते हैं किन्तु स्वार्थ के दलदल नहीं होते हैं. विक्रम का देवांग बनकर विकट परिस्थितियों और कठिनाइयों को झेलते हुए मिनी के स्वास्थ्य की खातिर नियामदिंग जाना न केवल प्रेम पराकाष्ठा है बल्कि इंसानियत की अद्भुत मिसाल है जहाँ जातिगत, समाजगत, क्षेत्रगत भेदभाव का कोई स्थान नहीं है.
पारलौकिक प्रेम के बंधनों में बंधा विक्रम, "उसने कहा था" के लहना सिंह की प्रतिमूर्ति लगने लगता है.
प्रेम इंसान को जहां मानसिक संबल और मजबूती प्रदान करता है वहीं उसकी टूटन भयंकर पीड़ा और आघात देती है. देवांग का बिछोह मिनी को ऐसा मानसिक आघात देता है कि वह अपनी सुध-बुध खो देती है और देवांग के इंतजार में एक जिंदा लाश बनकर रह जाती है. विक्रम को देवांग के रूप में देखकर मिनी को प्रेम की परिपूर्णता का अहसास होता है और उसकी अटकी हुई सांस निकल जाती है.
विक्रम और निसमी का प्रेम एक बार फिर से परीक्षा की कसौटी पर खड़ा हो जाता है और निसमी परिवार के लिए अपने प्रेम की तिलांजलि दे देती है एवं विक्रम को भी दूर रहने के लिए कहती हैं.
उपन्यास की पठनीयता ऐसी है कि दो बैठक में पूरा उपन्यास पढ़ गया. तकनीकी शब्दों और भावों की इतनी अच्छी अभिव्यक्ति कि तकनीकी शब्दावली और सुदूर पूर्वोत्तर के अनसुने, हमारे लिए अटपटे नाम मन में अमिट हो गए. सियांग के पार को पढ़कर बस यही उद्गार निकलते हैं कि वर्मा जी की लेखनी से ऐसे उपन्यास आते रहें और सियांग की धारा यूँही कलकल बहती रहे ताकि न केवल अरुणाचंल के बल्कि पूरे देश के सीधे साधे निवासियों का भोलापन और हम शहरी इंसानों के दिल में प्यार अक्षुण्ण बना रहे.
वरिष्ठ साहित्यकार- मधुर कुलश्रेष्ठ, गुना (मध्यप्रदेश) मो. 9329236094
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"सियांग के उस पार" अपने आप में एक अनूठा उपन्यास है जिसका कथानक लेखक के व्यक्तिगत अनुभवों की बानगी प्रस्तुत करता- सा अत्यंत ही मार्मिक है. निश्चित ही जहाँ इस उपन्यास में देवांग-मिनी (प्रथम प्रेमी युगल) के उच्च कोटि के प्रेम की गूढ़ता एवं एकनिष्ठा का आख्यान है वहीं यहाँ बिक्रम एवं निसमी (द्वितीय प्रेमी - युगल) सात्विक, पवित्र एवं त्यागमय प्रेम का प्रतीक बन जाते हैं. यह उपन्यास जहाँ पाठकों को सात्विक आहार सम सात्विक प्रेम की रसानुभूति कराता है, वहीं यह "प्लैटोनिक लव" अर्थात् वासना रहित प्रेम के दर्शन कराता है. जहाँ देवांग की प्रेमिका के रूप में मिनी का उसके वियोग में अवसादग्रस्त होकर शून्य में विलीन हो जाना कबीरदास की आध्यात्मिक रहस्यवादिता का प्रमाण देता है, वहीं बिक्रम की प्रेमिका निसमी का मिनी की मृत्यु के बाद माता - पिता की इच्छा के विरुद्ध न जाना, मातृ - पितृ भक्ति का नायाब उदाहरण प्रस्तुत करता है जो मेम्बा जनजातीय सांस्कृतिक परंपराओं के निर्वहन एवं संरक्षण हेतु भूमिका निभाता है.
बिक्रम भी अपने आचरण से यही सिद्ध करता है कि त्याग में भी सच्चा प्रेम होता है. समय का फेर इसे ही कहा जाए कि तीस साल बाद उनका पुनर्मिलन भी उसी सियांग के पुल के समीप होता है और फिर अविस्मरणीय यादों के पिटारे खुलते हैं. बिक्रम की डायरी में दर्ज संस्मरण की साझेदारी निसमी के साथ होती है. दोनों अपने गृहस्थ जीवन में अपने उच्च शिक्षा के लक्ष्य को प्राप्त करके एवं वयस्क बच्चों के साथ सुखी हैं, यही नियति है.
उपन्यास में सभी पात्रों ने भारत वर्ष के पश्चिमी, दक्षिणी, पूर्वोत्तरी छोरों को जोड़ते हुए भ्रातृत्व की भावना प्रसारित करके "वसुधैव कुटुंबकम्" के मूल मंत्र की स्थापना की है. एक राजस्थानी युवक को अरुणाचली लड़की मान्सी का बेहिचक भैया कहना, देबांग बिक्रम इत्यादि का म्योंग को दीदी कहना, डे का खुले हृदय से सबका सहयोग करना, पैदल दूर दराज के गाँवों तक यात्रा करते समय अपने झोंपड़ों में शरण देना, भोजन उपलब्ध कराना - यह सब अनजाने प्रदेश में सुदूर क्षेत्रीयता भूलकर वहाँ के लोगों का अपनापन के साथ व्यवहार करना बड़ा ही अनूठा अनुभव लगता है. इस उपन्यास को पढ़ते - पढ़ते पाठक जैसे स्वयं भी इन पात्रों के बीच स्वयं को उपस्थित महसूस करता है.
आरंभ से अंत तक लेखक पाठक को जिज्ञासा, रोचकता, पूर्वोत्तरी जनजातीय सांस्कृतिक मूल्यों की विरासत को लेखन की अदृश्य डोरियों में गूँथता चलता है. इस प्रकार उपन्यास में पठनीयता निरवरोध बनी रहती है. पाठक वहाँ की बौद्ध संस्कृति, खान - पान, पहनावे, रीतिरिवाजों, आंचलिक बोलचाल के विशिष्ट लहजों इत्यादि से भली भाँति परिचित होता चलता है. पूरे उपन्यास में पूर्वोत्तर क्षेत्रों के प्राकृतिक सौंदर्य, भौगोलिक जानकारी, वन्य जगत् , माइक्रो हाइडिल प्रोजेक्ट, मौसम विभाग और वायुसेना की कार्य प्रणाली के तकनीकी जानकारी की बारीकियों से अवगत होना - पाठकों के लिए अत्यंत ही ज्ञानवर्धक अनुभव हो जाता है.
उपन्यास पढ़ने के दौरान इस बात का एक रहस्योद्घाटन हो जाता है कि लेखक की अभिरुचि नियमित डायरी लेखन में रही है इसीलिए उपन्यास में आत्म- अनुभवों, संस्मरणों, तथ्यपरक जानकारियों एवं कल्पना का अद्भुत संगम परिलक्षित होता है.
भाषा शैली की दृष्टि से उपन्यास में लेखक ने हिंदी (खड़ी बोली) के साथ साथ राजस्थानी, अंग्रेजी और अरुणाचली आंचलिक बोलचाल के शब्दों का प्रयोग बखूबी किया है. समग्र रूप से यह उपन्यास "सियांग के उस पार" अनोखे रिश्तों के विस्तृत प्रेम तानों-बानों से बुना हुआ शाब्दिक शिल्पकारी का सुंदर नमूना है.
वरिष्ठ साहित्याकार- श्रीमती नीलम कुलश्रेष्ठ, आदर्श कॉलोनी, गुना, म. प्र. मोबाइल : 9407228314
अन्य पाठक प्रतिक्रियाएं
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देबांग, मिनी, बिक्रम और निसमी के प्रेम और रहस्य की प्रस्तुति मन की भावनाएं उद्वेलित करती हैं और लेखक, पाठक को कठिन पहाङी जंगल के रास्ते, विषम मौसम में भी मेक्लिंग से नियामदिंग की अविस्मरणीय यात्रा की जीवंत अनुभूति प्रदान कराता है. उपन्यास के बारे में सब कुछ शब्दों में कह पाना असंभव है, कहीं कुछ काल्पनिक प्रतीत नहीं होता, उपन्यास पढ़ते हुए, मानस पटल पर दृश्य उभर कर सामने आते हैं, सियांग की गर्जना सुनाई देती है, बादल दिन चढ़ने के साथ ऊपर उठते दिखाई देते हैं, बारिश की बूंदें आप को भिगोती है, अपोंग का स्वाद जिव्हा पर महसूस होता है, निसमी के विमान से उतरते समय बिक्रम की बैचेनी आप को भी विचलित करती है.
श्री अरविंद शर्मा, भूतपूर्व सहायक महा प्रबंधक –ओरियंटल बैंक ऑफ कामर्स भोपाल
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यह एक अविस्मरणीय उपन्यास है, जिसे सियांग घाटी के जन-जीवन और प्रकृति को समझने के लिए मैंने कई-कई बार पढ़ा. भारतीय वायु सेना के बारे में जानकारी, उनके काम काज और जीवनशैली, आदिवासियों के साथ उनके संबंध, पाठक के हृदयतल को छू जाते हैं. इसे पढ़कर अरुणाचल प्रदेश के बारे में जानने की मेरी उत्कंठा अधिक प्रबल हो उठी है. प्रेम आधारित कथानक वास्तव में अद्भुत है. अपने साथी श्री डी. आर. वर्मा को इस उत्कृष्ट रचना के लिए बहुत बहुत साधुवाद.
सहायक महा प्रबंधक –श्री आर. एल. दास, पंजाब नेशनल बैंक
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पुस्तक बहुत ही प्रभावशाली है और मेरे मन मस्तिष्क पर अभी तक बिक्रम और निसमी छाए हुए हैं. इसे अंंज्रेजी में भी लिखा जाये तो इसका बड़े पैमाने पर प्रसार होगा.
लेखक और रंगमंच कर्मी, श्री संजीव पारस, मुख्य प्रबंधक पंजाब नेशनल बैंक (9981638519)
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मैंने उपन्यास ‘सियांग के उस पार’ को तीन लंबी बैठकों में पढ़ा. चूँकि मैंने पर्वतीय क्षेत्रों में काफी यात्राएं की हैं अतएव मैं उपन्यास के पात्रों को बेहतर ढंग से समझ सकता हूँ. लेखक अंत तक ‘देबांग’ की रहस्यात्मकता को बनाए रखने में सफ़ल रहा है. उच्च और दुर्गम स्थलों पर तैनात वायु सैनिकों के कृतित्व की इसमें स्पष्ट और सच्ची तस्वीर झलकती है. साथ ही इसमें एक वायु सैनिक का अपनी सेवा के प्रति कर्तव्य बोध, माँ-पिता के प्रति नैतिक जिम्मेवारी और प्रयसी के प्रति अगाध सात्विक प्रेम विस्तार से दर्शाया गया है. कुल मिलाकर आद्योपांत यह उपन्यास मुझे बहुत पसंद आया. मैं लेखक को उनकी आगामी कृति के लिए शुभकामनाएं प्रेषित करता हूँ.
श्री आर. सी. कुहार, तत्कालीन उप महाप्रबंधक, ओरियंटल बैंक ऑफ कामर्स
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सियांग के उस पार ने अरुणाचल प्रदेश के सुदूर इलाकों की सुंदरता को आलोकित कर दिया है. इसमें अग्रीम हवाई पट्टियों पर वायु सैनिकों और उनके साथ-साथ स्थानिय आदिवासियों की जिंदगी और उनके आपसी रिश्तों को बहुत ही शानदार ढंग से समझाया गया है. इस उपन्यास को पढ़कर मैं 60 के दशक में वायु सेना की अग्रीम हवाई पट्टी पर बिताए अपने काल खंड में जा पहुँचा, जो मेरी जिंदगी का स्वर्णकाल था. बिक्रम और निम्मी की कहानी भली-भाँती गुंथी गई है. नि:संदेह एक अच्छा कार्य किया गया है. मैं लेखक को उसके आगामी साहित्यिक लेखन के लिए शुभकामनाएं संप्रेषित कर रहा हूँ और संस्तुति करता हूँ कि अन्य साथी सैनिक इसे अवश्य पढ़ें.
भूतपूर्व फ़्लाइट लेफ़्टिनेंट (मानद) श्री प्रभाकर नातू, नागपुर (महाराष्ट्र)- जनवरी 2018
विमोचन समारोह { इन्दिरा प्रेस कॉम्प्लेक्स एम.पी. नगर ज़ोन-1 भोपाल } विभिन्न वक्ताओं के उद्बोधनों के चुनिन्दा अंश:
(अ) कार्यक्रम के मुख्य अतिथि श्री कैलाशचंद्र पंत:- वरिष्ठ साहित्यकार एवम (तत्कालीन) मंत्री संचालक, मध्यप्रदेश राष्ट्रभाषा प्रचार समिति
.......आज आपने सुबह गणतन्त्र दिवस का एक उत्सव आयोजित किया होगा लेकिन ओरियंटल बैंक को इतिहास में आज एक और उत्सव दर्ज कराने का सौभाग्य मिल रहा है. जब मैंने पुस्तक को पढ़ना शुरू किया और रात में 1:20 पर इसे समाप्त किया तो उसके बाद नींद उड़ गई. और नींद इसलिए उड़ गई कि क्या ‘ये दयाराम वर्मा बैंक में काम करते हैं? जहां मुद्रा का लेनदेन होता है. और ये कब फौजी बन गए? ............. फिर देबांग और बिक्रम की गुत्थी को सुलझाने में काफी समय बीत गया और सोचने लगा कि आखिर इस उपन्यास में क्या है? केवल अनुभव? केवल कल्पना? तो वह कल्पना यथार्थ की भूमि के बिना साकार नहीं होती .........
कथानक का नायक तीन दिन तक घाटियों में चढ़ा-उतरा, पैदल चला. ये हालत मेरी भी रही. मुझे भी पूर्वोत्तर भारत में यात्रा का अनुभव मिला. मेरी दूसरी बार नींद खराब हुई वो इसलिए कि मैं पुन: पूर्वोत्तर के इस सुदूर प्रदेश में यात्रा पर पहुँच गया. अब यह मेरी इस पुस्तक को पढ़ने के बाद की प्रतिक्रिया कि मैं भी ब्रह्मपुत्र नदी के किनारे-किनारे उन गावों से गुजर रहा हूँ और रोद्र रूप से गरजती नदी की उस आहट को सुन रहा हूँ.......
जीवंत अनुभव को अपने शब्दों में उतार देना और आपके सामने वो चित्र खींच देना..........जिस प्रकार पहाड़ उन्मुक्त होते हैं वैसे ही वहाँ का जीवन उन्मुक्त होता है. और ये उन्मुक्तता उनके जीवन के हर चरण में आपको दिखाई देगी.....
तो सबसे बड़ा पहलू उपन्यास का है वो यह कि जो चित्रण किया जा रहा है, जो रेखांकन किया जा रहा है, वह ऐसा जीवंत कि आप उस लेखक-उस पात्र के साथ स्वयं भी यात्रा कर रहे हो. और जब पाठक और पात्र के बीच यह समरसता हो जाती है, ये जो आत्मीयता होती है पाठक की और लेखक की, यह कहाँ जुड़ रही है उसको देखना किसी उपन्यास की सफलता की कसौटी है. और इस कसौटी पर जब मैंने दो बजकर दस मिनिट पर लाईट बंद की तो आपको सफल पाया. इसलिए मैं आपको हार्दिक बधाई देता हूँ.
मैं कल्पना नहीं कर सकता था कि पहला उपन्यास लिखने वाला लेखक इतनी जीवंतता से चित्रों का सजीवीकरण करेगा! .....भाषा में जिस तरह से उन्होंने स्थानीय उच्चारणों का प्रयोग किया है वह मन को मोह लेता है. .......
हम संदेह में जीते हैं, हम परस्पर अविश्वास करते हैं...साहित्य उस अविश्वास को दूर करके विश्वास को जन्म देता है और इस विश्वास को जन्म देने में आप सफल हुए हैं.
तीसरी बात, इस उपन्यास की सबसे श्रेष्ठ बात .....कहानी शुरू होती है देबांग से ...वहाँ एक संकेत देते हैं, छोटा सा. देबांग अपने अधिकारी से निवेदन करता है कि अरुणाचल प्रदेश में उसकी जगह किसी और को भेज दिया जाय. आप जरूर पढ़िये इस उपन्यास को. एक छोटा सा संकेत है. यदि आप ध्यान नहीं देंगे तो सूत्र नहीं पकड़ पाएंगे. एक उपन्यास में यह कौतूहल जगाना–पाठक के मन में कि आखिर ये कौन है? क्या है? ये मिनी कौन है? देबांग कौन है? .........................देबांग और बिक्रम की गुत्थी, जिसे लेखक ने बड़ी कुशलता से गूँथा है. एक उपन्यास की खूबी यही होती है कि लेखक उसमें कितने फंदे सीधे डालता है और कितने उल्टे. इस प्रकार का चित्रांकन जिस उपन्यास में होता है उससे कौतूहलता बनी रहती है.
अब आप कहेंगे कि भाषा अच्छी रही, कौतुहलता बनी रही, उत्सुकता बनी रही, वर्णन अच्छा रहा तो उपन्यास ने संदेश क्या दिया? इसकी सामाजिकता क्या रही? जब तक उपन्यास या कोई भी लेखन, समाज के प्रति कोई संदेश न देता हो तब तक उस लेखन का कोई बहुत ज्यादा अर्थ नहीं है. इस उपन्यास के बहुत गहरे अर्थ हैं. आपको उपन्यासकार उन बातों की ओर ले जाता है.
पहली बात जो आम शिकायत है पूर्वोत्तर की कि भारत के लोग पूर्वोत्तर के बारे में या तो जानते नहीं और जानते हैं तो बड़ी अस्पष्ट सी धारणा बना के बैठे हैं. जैसे कि वहाँ लड़कियां उन्मुक्त हैं. सेक्स रीलेशनशीप आम बात है. उन्मुक्तता का मतलब है खुलापन, उछृंखलता नहीं. पहाड़ी लोग जीवन को उन्मुक्तता से जीते हैं क्योंकि कठिनाईयां इतनी है उनके जीवन में कि अगर वो इस तरह से न जीये तो जीवन यात्रा भारी पड़ जाए. संदेश क्या है? उस आत्मीयता को स्थापित कर रही है हमारी सेना.
अभी भी भारत में विकास की दौड़ कहाँ तक जानी है? बड़े कठिन रास्ते हैं –उन सीमाओं तक अगर ड्रोपिंग न हो तो सैनिक भूखे मर जाएँ. और हम लोग सैनिकों की वजह से सुरक्षित हैं. गणतन्त्र का भी उपदेश यह है कि पूरे देश के प्रति सचेत रहो और उन सैनिकों के प्रति भी श्रद्धानवत रहिए, जो जान हथेली पर लेकर आपकी-हमारी रक्षा करते हैं. यह बहुत बड़ा संदेश है इसमें.
हिन्दी प्रेम की भाषा है, आप हिन्दी का प्रयोग करके राष्ट्र का चित्र अपने सामने बनाते हैं......... और अंत में जैसा कि सबने निवेदन किया कि संवेदनशीलता का जो स्रोत आपके भीतर है उसको सूखने मत देना. .....और आप एक बार फिर कोई नई कृति के साथ हम सब के बीच में आयें और तब इसका आयोजन बैंक परिसर में नहीं हिन्दी भवन में करेंगे. धन्यवाद.
(ब) श्री बटुक चतुर्वेदी जी (कार्यक्रम के अध्यक्ष)- वरिष्ठ कवि, साहित्यकार एवम (तत्कालीन) संरक्षक मध्यप्रदेश लेखक संघ
..........उपन्यास लिखना एक बड़ी तपस्या है. अपने दिमाग को बड़ा संतुलित करके रखना होता है. कहीं संदर्भ उल्टे-सीधे न हो जाएँ. उपन्यास इतना पठनीय होना चाहिए कि जैसा पंतजी ने कहा कि ‘यह उपन्यास इतना पठनीय है कि इसने रातभर मुझे सोने नहीं दिया. लेखक धर्म कोई आसान काम नहीं हैं. मैं दयाराम जी से निवेदन करता हूँ कि ………. एक उपन्यास बैंक पर भी हो जाए. आशीर्वाद स्वरूप कहना चाहूँगा कि आपका पहला उपन्यास नहीं है बल्कि शुरुआत है. कृपया करके इसे अनन्त स्वरूप दीजिए. धन्यवाद.
(स) श्री डी.के. पौद्दार (विशिष्ट अतिथि)-तत्कालीन अध्यक्ष- अखिल भारतीय ओरियंटल बैंक अधिकारी संघ
.......................हमारे लिए सौभाग्य की बात है कि वर्मा जी ने इस उपन्यास की रचना भोपाल में की है और इस नाते हम समझते हैं कि यह हमारी अपनी रचना है. आज इतने महान साहित्यकारों ने उपन्यास के बारे में जो कहा, उसे मैं बड़े ध्यान से सुन रहा था और सारांश यह रहा कि हमारी यह कृति सफल हुई. वर्मा जी ने जितना अच्छा उपन्यास लिखा उतने ही सहज, सरल हैं. .....................हमारे ओरियंटल बैंक के लिए बड़े गौरव की बात है कि बैंक और परिवार की जिम्मेवारियों को बखूबी निभाते हुए उन्होने इस उपन्यास की रचना की. वास्तव में एक अद्भुत, गौरव व गर्व की बात है हम सब के लिए. ............पुस्तक को मैंने पढ़ा है और यह इतनी अच्छी है कि यदि कोई निर्माता-निर्देशक पढ़े तो इस पर फिल्म का निर्माण कर सकता है. सब कुछ है इसमें एक फिल्म के लिए......... आप सब का आभार.
(द) श्री प्रेमराज गुप्ता (विशिष्ट अतिथि), तत्कालीन प्राचार्य मानव संसाधन विकास संस्थान, (ओ.बी.सी.)-भोपाल
आज 26 जनवरी का दिवस है और आप सब को गणतन्त्र दिवस की मैं हार्दिक शुभकामनायें देता हूँ. ओरियंटल बैंक ऑफ कॉमर्स में यह पहला मौका है कि ‘उपन्यास विमोचन’ कार्यक्रम का आयोजन किया जा रहा है...
.................साहित्य सृजन के लिए बहुत समय की आवश्यकता होती है. एक बैंकर की बहुत अधिक व्यस्तता होती है. इतनी अधिक व्यस्तता और कठिनाईओं के बीच एक उपन्यास की रचना की है तो वर्मा जी ने बहुत बड़ा सराहनीय कार्य किया है. .......राजभाषा की प्रगति के लिए ये बढ़-चढ़कर भाग लेते हैं. जून 2017 की बैंक की पत्रिका ‘आधार’ में इनके लिखे आलेख को प्रथम पुरस्कार मिला है. बैंक में हिन्दी को आगे बढ़ाने में इनका बहुत योगदान है. हिन्दी के प्रचार और प्रोत्साहन लिए हमने इस कार्यक्रम को यहीं एच.आर.डी.आई. के सभाकक्ष में आयोजित करने का निर्णय लिया .........आप सब का इस कार्यक्रम में पधारने के लिए मैं तहे-दिल से शुक्रिया अदा करता हूँ. धन्यवाद.
(य) श्रीमति अनीता अखौरी, तत्कालीन शाखा प्रबंधक ओ.बी.सी. -कालापानी (भोपाल)
एक पाठक के रूप में उपन्यास को पढ़कर मुझे जो अनुभव हुआ वह मैं आपके साथ शेयर करना चाहती हूँ. सबसे पहले तो उपन्यास का टाईटल ‘सियांग के उस पार’ सुनने में ही इतना अच्छा और रोमांटिक लगता है और इसे पढ़ने की उत्सुकता जाग उठती है. पहले तो मैं श्री वर्मा जी को बहुत बधाई देना चाहुँगी, क्योंकि बैंक में जिस माहौल में हम काम करते हैं उसमें थोड़े दिन बाद ज़िंदगी डेबिट और क्रेडिट के बीच सिमट कर रह जाती है. और रचनात्मकता का ये हाल है कि जब हमें अपनी सी.आर. लिखनी होती है तो साल भर में क्या किया ये चार वाक्य लिखना भी मुश्किल हो जाता है. .......इन सारी चीजों के बीच, कस्टमर, कस्टमर कंपलेंट, टार्गेट, अचीवमेंट, परफॉर्मेंस और बहुत सारे डाटा ....उसके बीच में अपने अंतश को बचाए रखना ये अपने आप में बहुत सराहनीय कार्य है और अपने अनुभव और कल्पना को मिलाकर एक उपन्यास का रूप देना, जमीन पर उसको लेकर आना और हमारे सामने एक सुंदर उपन्यास को प्रस्तुत करना उससे भी अधिक सराहनीय कार्य है. ......जब आप इस उपन्यास को पढ़ते हैं तो ऐसा लगता है कि सियांग नदी के तट पर बिक्की और निम्मी के साथ हम भी बैठे हैं. और जब वह हैंगिंग ब्रिज पार कर रहे होते हैं तो पैर फिसलने का रोमांच हम खुद महसूस कर पाते हैं और जो जोंक उनके शरीर से चिपकते हैं तो इतनी विभत्सा सामने आती है और डर लगता है जबकि वे लोग सहजता से जी रहे होते हैं. भाषा का प्रवाह बहुत अच्छा है. ..........
जो टेक्निकल चीजें इन्होंने समझाई हैं वो बहुत सरलता से हमें समझ आ जाती है. इस उपन्यास का सबसे बड़ा टेकअवे मेरे लिए था वो ये कि अरुणाचल की पृष्ठभूमि पर या पूर्वोत्तर की पृष्ठभूमि पर मैंने आज तक कोई उपन्यास पढ़ा नहीं था तो ये एक आई-ओपनर था कि वहाँ के लोग कैसे जीवन जीते हैं! ......सभी पात्र बड़े जीवंत हैं ..... मैं वर्मा जी से अनुरोध करती हूँ कि वे अपनी रचनात्मकता बनाए रखें और आगे भी अपनी रचनाओं से हमें आनंदित करते रहें. धन्यवाद.
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सियांग के उस पार का लोकार्पण करते हुए समारोह के अध्यक्ष, मुख्य अतिथि, विशिष्ट अतिथि, वरिष्ठ साहित्यकार और बैंक अधिकारी |

अनुज्ञा बुक्स, शाहदरा, दिल्ली से वर्ष 2019 में समकालीन आलोचनाओं की एक पुस्तक प्रकाशित हुई, नाम था- तात्पर्य. यह प्रेमचंद, निर्मला जैन, राजी सेठ, विजयबहादुर सिंह, चित्रा मुद्गल, रमेश दवे,, लीलाधर मंडलोई, जाबिर हुसैन, अंजना वर्मा, शरद सिंह सरीखे मूर्धन्य साहित्यकारों सहित कुल 33 रचनाओं पर डॉ. हरीसिंंह गौर विश्वविद्यालय सागर, मध्यप्रदेश की हिंदी की प्राध्यापिका डॉ. लक्ष्मी पाण्डेय, डी.लिट्, (पूर्व सदस्य, हिंदी सलाहकार समिती, अ.का.मं. भारत सरकार) की समीक्षाओं का संकलन है. जब नवंंबर, 2020 में मुझे यह पुस्तक मिली तो मैं अत्यंत हतप्रभ, हैरान और अभीभूत हो उठा, क्योंकि 'सियांग के उस पार' को भी इस महत्वपूर्ण ग्रंध में स्थान दिया गया था !
डॉ. लक्ष्मी पाण्डेय ने लिखा, 'यात्रा संस्मरण पढ़ते हुए, (लिखते हुए भी) जिस प्रवाहमयता एवं अग्रगामिता की अनुभूति निरंतर बनी रहनी चाहिए, वह इस उपन्यास में भरपूर है'. उपन्यास के सम्पूर्ण कथानक का एक सारगर्भित और अतिशयोक्ति रहित सारांश प्रस्तुत करने के साथ-साथ, उन्होंने इसके कुछ अंशों को बतौर लेखक की वाक्य रचना और भावाभिव्यक्ति के उदाहरण स्वरूप उद्धरित किया. यथा,
'बिक्रम ने एक बार फिर जी भरकर इन नजारों को देखा और फिर मुँह फेर कर आँखेंं बंद कर लीं. उसके दिल में जोर से हूक उठी, एक गोल गुबार-सा बनता हुआ गले की ओर बढा और फिर यह गर्म आँसू बनकर उसकी आँखों के कोनों से बहने लगा.'
'लाखों वर्षों से सियांग इसी तरह जाने कितनी कहानी और किस्से अपने गर्भ में समेटे बहती रही है और आगे भी वर्षों तक ऐसे ही बहती रहेगी. हमारी छोटी-सी कहानी भी इसकी गुमनाम गहराइयों में खो जाएगी.'
'नहीं पांडे, ये बारीश सबसे अलग है, आज आसमान से बूँदेंं नहीं फूल बरस रहे हैं. और छत पर देखो कत्थक नृत्य हो रहा है'
नौ पृष्ठों की विस्तृत समीक्षा के अंत में वे लिखती हैं, - 'यह एक सफल, सार्थक, प्रेरक, पठनीय कृति है. दयाराम वर्मा जी इसके लिए बधाई के पात्र हैं. उपन्यास में उनका रोचक और रोमांचक यात्रा-वर्णन, करुणा रस से ओत-प्रोत प्रेमकथा पाठक को न केवल बाँधे रखती है बल्कि अपने साथ 'सियांग के उस पार' मेक्लिंग, नियामदिंग, मालिडिले आदि सुंदर और भयावह पर्वतीय स्थलों तक बहा ले जाती है, जहाँ से लौटने का मन नहीं होता'.

'दयाराम वर्मा के उपन्यास सियांग के उस पार में अरुणाचली समाज और संस्कृति:
एक विश्लेषणात्मक अध्ययन'
लगभग दो वर्ष के शोध के उपरांत, सुश्री यालम तातिन को डॉ. विश्वजीत कुमार मिश्र (सहायक प्राध्यापक, हिंदी विभाग- राजीव गाँधी विश्वविद्यालय, रोनो हिल्स- दोइमुख, अरुणाचल प्रदेश ) के शोध निर्देशन में उपर्युक्त विषय पर लघु शोध-प्रबंंध प्रस्तुत करने पर एम. फिल. (हिंदी) की उपाधी प्रदान की गई. वर्ष 2019 में अपने अरुणाचल के भ्रमण के समय ईटानगर से तुतिंग और गेल्लिंग तक वह हमारे साथ रही. इस यात्रा के अनुभवों को मैंने 'ब्रह्मपुत्र से सांगपो: एक सफ़रनामा' नामक यात्रा वृत्तांत में कलमबद्ध किया. यह यात्रा वृत्तांत जून 2022 में बोधि प्रकाशन- जयपुर से प्रकाशित हुआ है.
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29.09.2020: सुश्री यालम तातिन अपनी एम. फिल. की उपाधि ग्रहण करते हुए |
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सुश्री यालम तातिन अपने शोध ग्रंध और अन्य साथी शोधार्थियों के साथ |
दो शब्द
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भूतपूर्व एयर कमोडोर आर. के. पाल, भोपाल (म.प्र.) |
हममें से बहुत से लोगों को, भारत के उत्तर-पूर्व के बारे में प्राय: एक अस्पष्ट सी जानकारी है। और उत्तर-पूर्व के भी उत्तर- पूर्व की उदात्त व रहस्यमय ‘सियांग’ घाटी के बारे में तो तस्वीर और भी धुँधली है। यद्यपि उस क्षेत्र में आधुनिक बदलाव लाने के प्रयास किए जा रहे हैं, तथापि वहाँ की दुर्गम भौगोलिक परिस्थितियों के चलते ये अपेक्षाकृत धीमे हैं और आज भी वहाँ जीवन प्रकृति के अत्यंत निकट है। आदिवासी लोग स्वभाव से सरल, आमोद-प्रमोद व खेल-कूद को पसंद करने वाले और ईश्वर से डरने वाले होते हैं। ऐसे आदिवासियों की पृष्ठभूमि में एक कबीले की दो बहिनों की निर्मल, आदर्श प्रेम गाथा का हृदयस्पर्शी व रोमांचक चित्रण, पाठकों का सतत मनोरंजन करते हुए उनको अंत तक बांधे रखता है।
वायु सेना की नौकरी के दौरान कुछ समय के लिए मुझे ‘कार-निकोबार’ (अंडमान व निकोबार द्वीप समूह) में सेवा का अवसर मिला। इस रचना को पढ़ने के बाद, मेरी कार-निकोबार की पैंतीस वर्ष पुराने दिनों की यादें ताजा हो उठी। ‘एयर-ऑफिसर-कमांडिंग’ के पद पर नवंबर-1992 से जून-1995 तक वायुसेना स्टेशन, जोरहाट (असम) में सेवा के समय, मुझे बतौर ट्रांस्पोर्ट पायलेट, अरुणाचल प्रदेश में स्थित वायु सेना की विभिन्न अग्रिम हवाई पट्टियों पर उड़ान भरने का अवसर मिला।
अपने व्यक्तिगत अनुभव के आधार पर मैं कह सकता हूँ कि लेखक ने वहाँ की अग्रिम हवाई पट्टियों, ट्रांस्पोर्ट विमान ए.एन.-32, मौसम व रेडियो संचार पद्धति, बारिश में आने वाली परेशानियों, उड़ान संबंधी अन्य पहलुओं और वायुसैनिकों के रहन-सहन को, तथ्यात्मक प्रांजलता के साथ प्रस्तुत किया है।
उपन्यास में, कहीं-कहीं आवश्यकतानुसार, वायु सेना में प्रचलित अङ्ग्रेज़ी भाषा के तकनीकी शब्दों का भी प्रयोग हुआ है लेकिन इस रूप में कि आम पाठक भी सहजता से समझ सकें।
नि:संदेह, ‘सियांग के उस पार’, भारतीय वायु सेना के अतिरिक्त, अरुणाचल प्रदेश के प्राकृतिक सौंदर्य व रोमांच प्रेमियों के लिए एक यादगार पठनीय कृति बनकर सदा दिलों में रहेगी, ऐसा मेरा मानना है। मैं अंत:मन से, इस पुस्तक को सभी को पढ़ने की अनुशंसा करता हूँ।
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श्री गोकुल सोनी, (कवि, समीक्षक एवं साहित्यकार), भोपाल. (म.प्र) |
उगते सूरज की भूमि’, अरुणांचल को प्रकृति ने असीम सौन्दर्य का वरदान दिया है। दक्षिण में असम, पूर्व में म्यामार, दक्षिण-पूर्व में नागालैंड, पश्चिम में भूटान और उत्तर में तिब्बत से सटी इसकी सीमाओं ने मानो इन सभी प्रदेशों की खूबसूरती को एक साथ अपने अन्दर आत्मसात कर लिया हो! इसी अरुणांचल-प्रदेश की पृष्ठभूमि में, श्री दयाराम वर्मा का उपन्यास ‘सियांग के उस पार’ यथार्थ और कल्पना का सरल, सहज, प्रवाहमान और बोधगम्य भाषा में लिखित अदभुत सम्मिश्रण है।
एक अभिनव, अद्वितीय, एवं रोमांचक पर्वतीय यात्रा के दौरान ‘सियांग’ नदी का निर्मल व शीतल जल, बारिश में लिपटी मिट्टी की भीगी सुगंध, अल्हड़ पहाड़ी झरनों का पारदर्शी, कंचन नीर और पहाड़ों पर डेरा डाले यायावर बादलों के काफिले, पाठक के तन-मन को भिगोते हुए उसे अपने संग अनंत ऊंचाईयों में उड़ा ले जाते हैं।
इस नैसर्गिक सौन्दर्य की पृष्ठभूमि में आर्किड्स के फूलों सी खिली, पुष्पित-पल्लवित, एक ‘वायुसैनिक’ नायक और ‘मेम्बा’ कबीले की नायिका की प्रेम कहानी, पाठक को बार-बार भावनाओं के ज्वार-भाटे में खींच लाती है।
जज़्बातों के भंवर में डूबते उतरते कभी पाठक के अधरों पर मुस्कान उभरती है तो कभी करुणामयी जल से उसकी आँखों की कोरें भीग उठती है। इस कहानी में जहां सात्विक प्रेम की प्रबल अनुभूति है, वहीं त्याग, समर्पण, संस्कार, और परम्परागत मान्यताओं के प्रति आग्रह व दूसरों के लिए जीवन जीने की प्रेरणा-शक्ति का चुम्बकत्व भी है।
अरुणाचल प्रदेश के दुर्गम पहाड़ी इलाकों में वायुसेना की कार्यप्रणाली, बांस के खोल में भरकर पकाए गये चावलों का स्वाद, ‘मैक्लिंग’ का हैंगिंग ब्रिज, बौद्ध मंदिर ‘गोम्पा’ की मधुर घंटियाँ, नियामदिंग और सियांग क्षेत्र की कला-संस्कृति, वहाँ का जन-जातीय जीवन और भिन्न-भिन्न आदिवासी कबीलों की सभ्यता, अनूठी परम्पराएं, पहनावा, नृत्य शैलियाँ, शिकार करने के तरीके, वहाँ के जीव-जंतु, वनस्पति आदि सभी कुछ तो है इसमें।
प्रस्तुत उपन्यास मात्र एक कपोल-कल्पित कृति नहीं है, वरन यह लेखक की वायुसेना की अरुणाचल प्रदेश में सेवा के दौरान, अनुभव-जन्य यथार्थ अनुभूति का कलम से उकेरा गया एक जीवंत चित्रण है। इस अनुपम कृति के सृजन हेतु मैं श्री वर्मा जी को बधाई देता हूँ और उनके उज्जवल भविष्य की कामना करता हूँ।

प्रतिक्रियाएं- राजीव गाँधी केंद्रीय विश्वविद्यालय, रोनो हिल्स, दोईमुख, अरुणाचल प्रदेश से
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डॉ. हरीश कुमार शर्मा, प्रोफेसर एवं 'भाषा संकायाध्यक्ष' (डीन), हिंदी विभाग |
‘सियांग के उस पार’ श्री दयाराम वर्मा द्वारा रचित एक मर्मस्पर्शी आख्यान है। हिंदी के रचनाकारों के लिए अरुणाचल प्रायः एक अछूता सा प्रदेश ही रहा है, जिसकी ओर खासकर कथा-लेखकों ने कोई रुचि नहीं दिखाई है। वर्मा जी ने साहस कर यह कार्य किया है और अच्छा ही कार्य किया है। एक तरफ पूर्वोत्तर की जनजातियों के बारे में तरह-तरह की भ्रांतियां लोगों में प्रचलित हैं, तो दूसरी तरफ भारतीय सेना के बारे में भी तरह-तरह के प्रवाद फैलाये जाते हैं। यह रचना इन दोनों ही स्थितियों का एक सुखद प्रतिपक्ष रचती है।
इसमें एक और जहां अरुणाचल के लोगों के कठिन और परिश्रमपूर्ण जीवन के बीच से झांकती जीवंतता, विपरीत परिस्थितियों में भी सहज बनाए रखने वाली स्वभावगत विशेषता, पारस्परिक सहभाव के साथ बाहरी लोगों के प्रति सद्भाव, राष्ट्र के प्रति अनुराग-भाव, मोहक लोकरंग और राग, सम्मोहक प्रकृति आदि के रूप में उज्जवल पक्ष उभरकर सामने आते हैं तो दूसरी ओर भारतीय सेना का कठिन परिस्थितियों में स्थानीय लोगों के साथ हेल-मेल करके रहने वाला मानवीय चेहरा प्रकाशित होता है। स्थानीय प्रकृति, संस्कृति के मनोरम चित्रण के साथ-साथ अरुणाचल में पिछले तीस-पैंतीस वर्षों में हुए विकास की भी एक झलक इस रचना में मिलती है।
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डॉ. विश्वजीत कुमार मिश्र, सहायक प्राध्यापक, हिंदी विभाग |
‘सियांग के उस पार' केवल संस्मरणात्मक शैली में लिखा गया उपन्यास ही नहीं है बल्कि यह पूर्वोत्तर की महान वन-संस्कृति की एक विशद व्याख्या भी है, जहाँ प्रेम की अविरल धारा के प्रस्फुटन का प्रवाह महाभारत काल के प्रमाणिकता से स्वतः सिद्ध है। कथा की बुनावट में 'मिनी' का असीम-प्रेमोत्सर्ग है, 'मान्सी' का अगाध-स्नेह है, 'म्योंग दीदी' का असाधारण अभिभावकत्व है तो 'डे' का सहयोगात्मक व्यवहार भी, अरुणाचल की प्राकृतिक-छठा के भावविह्वल करने वाले दृश्य-चित्र हैं तो वहीं कठिन जीवन की झलक भी।
अगर पर्वतीय मौसम की अस्थिरता है तो वहीं पर्वतीय जीवन का स्थिर प्रेम भी, कथा की बुनावट में मिनी और देबांग की प्रेम कथा ही नहीं अरुणाचल के हृदय का तथ्य-कथ्य बुना है, लेखक ने। देबांग-मिनी, मिसमी-बिक्रम की रहस्यमयता अंत तक कथा के शिल्प को अद्भुत प्राण-प्रदान करती है। अंतिम पन्नों में, जब मिनी के विरह रूपी अँधियारे में प्रकाश आने ही वाला होता है तो सच्चे प्रेम की जीवंतता, जो कथा की मूल में है, खुलकर सामने आती है।
किंतु असहज परिस्थितियों में सहज और भावुक-हृदय बिक्रम अपने कर्तव्य-पथ से विचलित नहीं होता। भाव-बोध, त्याग, समर्पण, कर्तव्य-बोध, निर्वाह, प्रेम की स्निग्धता का शैलाब, क्या नहीं है 'सियांग के उस पार' में? अगर नहीं है तो छल, छद्म, झूठ, फरेब!

उपन्यास 'सियांग के उस' पार को प्रदत्त विभिन्न सम्मान-अलंकरण