कहानी: जंगलराज
पहले-पहल जब ‘बखेङिए’ कौए से महाराज रणसिंह ने यह बात सुनी तो उन्हें विश्वास नहीं हुआ। ‘नारियलपुर! इंसानी बस्ती में ‘जंगलराज’! भला यह कैसे सम्भव है?’ हुआ यूँ कि पिछले माह, पितृ पक्ष में, बखेङिए की अगुआई में सैंकङों कौए नारियलपुर गए थे। उनमें से कइयों ने पितरों के श्राद्ध की दावत उङाते समय, औरतों के मुँह से यह बात सुनी। ‘बखेङिया’, ठहरा महाराज का विश्वासपात्र! उसकी बात किसी भी संदेह से परे थी। नारियलपुर, ‘झमाझम’ जंगल से अधिक दूरी पर नहीं था, अत: किसी और शेरखान द्वारा वहाँ सत्ता कायम कर लेना, भविष्य में ‘झमाझम’ रियासत के लिए खतरे की घंटी थी। विषय की गंभीरता को देखते हुए महाराज ने कोर कमेटी की आपात बैठक बुलाई। फ़ुर्तीला देव चीता, मौला हाथी, घुँघराली भालू, लटकन बंदर इत्यादि, कमेटी के सभी सदस्य इस मंत्रणा में उपस्थित थे। नारियलपुर से लौटे कौओं की सूचनाओं का बारीक विश्लेषण किया गया। प्रत्येक सदस्य ने अपने-अपने विवेक से इस ख़बर की बाल की खाल उधेङी।
“हो सकता है महाराज, आपके चचेरे भाई प्रताप सिंह ने वहाँ सत्ता कायम कर ली हो। काफ़ी समय से आपसे नाराज़ चल रहे थे।” मौला हाथी ने कयास लगाया।
“अरे नहीं।” महाराज रणसिंह के चेहरे पर वेदना उभर आई। “उसकी तो छ: महीने पहले एक शिकारी के हाथों हत्या हो गई।” उन्होंने मौला हाथी को घूर कर देखा, “मंत्री जी, तुम कौनसी दुनिया में रहते हो? शाही परिवार से जुङी ऐसी महत्वपूर्ण घटना की भी जानकारी नहीं रखते!”
“माफ़ करें महाराज! कई दिन से योग केंद्र जा रहा हूँ- वजन कम करने के लिए। ख़बरनवीसों से मिलना जुलना बंद था। आगे से ध्यान रखूँगा।”
“हूँ। बेहतर होगा। लेकिन मुझे तो तुम पर पहले से अधिक चर्बी दिखाई दे रही है।” महाराज के इस कटाक्ष पर सभी सलाहकारों की हँसी छूट गई।
“हो सकता है, किसी और रियासत के जानवरों ने नारियलपुर पर क़ब्ज़ा जमा लिया हो।” ‘पुंडरीक’ पट्टी के जागीरदार, फुर्तीला देव ने भी अंधेरे में तीर छोङा।
“असंभव! नारियलपुर में जंगल बचे ही कहाँ है? शायद आपने कौओं के बयान पर गौर नहीं किया, पेङ पौधे तो नाममात्र के हैं-ज़्यादातर गमलों में। हर तरफ़ इंसानों ने लोहे और सीमेंट की इमारतें खङी कर रखी हैं।” लटकन ने मुँह बिचकाया, “न खाने की व्यवस्था, न रहने का ठिकाना।” बात तार्किक थी। अपने अनुमान को पुष्ट करने के लिए फुर्तीला देव के पास विशेष कुछ न था, उसने चुप रहना ही श्रेयस्कर समझा।
सियार, ख़रगोश, लोमङी, मृग जैसे छोटे जानवरों से भी पूछताछ हुई लेकिन कोई ठोस सुराग नहीं मिला। लिहाजा, गृह मंत्री ‘मौला’ हाथी की सलाह पर एक फ़ैक्ट-फ़ाइंडिंग टीम के गठन का निर्णय लिया गया। तय हुआ कि कुछ एक मेधावी बंदरों को नारियलपुर भेजा जाए। अन्य जानवरों की अपेक्षा बंदरों के लिए इंसानी बस्ती में जोखम कम था। आदमजाद, बंदरों को अपने एक देवता का वंशज मानते हैं, अत: उनकी जान नहीं लेते। साथ ही किसी भी आपात स्थिति में पेङों या ऊँची इमारतों पर छलाँग लगाकर, वे अपना बचाव आसानी से कर सकते थे।

‘झमाझम’ जंगल की सुरक्षा से जुङे इस मसले की गंभीरता और महत्व को सभी समझ रहे थे। अनेक अति उत्साहित बंदर इस मिशन पर जाने को तत्पर थे लेकिन अंतत: चयन हुआ ‘लम्पू’ का! उसमें न केवल एक नौजवान जैसी फ़ुर्ती और दमख़म था बल्कि किसी प्रौढ़ जैसा सुलझा हुआ दिमाग़ भी था। साथ ही उसकी याददाश्त भी कमाल की थी। वह युवा बंदरों के बीच, लम्बी-लम्बी हाँकने और मजमा जमा लेने में सिद्धहस्त था। तथपि लटकन के अनुसार, एक साथ अधिक संख्या में जंगली बंदरों की उपस्थिति खेल को बिगाङ सकती है, अतएव किसी और बंदर को उसके साथ भेजने का प्रस्ताव रद्द कर दिया गया।
इस निर्णय से लम्पू बहुत ख़ुश था। देशभक्ति के साथ-साथ शहर में वह अपनी बिछुङी प्रेयसी ‘भूरी’ की भी तलाश कर सकता था। भूरी और लम्पू में बहुत याराना था। उनकी शादी भी पक्की हो गई थी, लेकिन एक रोज़, भूरी मदारियों के जाल में फँस गई। सब कुछ इतनी तेज़ी से हुआ कि बंदर कुछ कर नहीं पाए। लम्पू ने ख़ूब स्यापा मचाया, कई दिन भूखा रहा। लेकिन भूरी, फिर कभी लौट कर नहीं आई। उसकी यादें आज भी उसे गमगीन कर जाती हैं।
अगले दिन मुँह अँधेरे, बङे बुज़ुर्गों का आशीर्वाद ले, लम्पू नारियलपुर की ओर रवाना हो गया। यद्यपि पालतु कुत्तों को उसकी भनक नहीं लगी लेकिन पत्तल-प्रेमी बंदरों के समुह ने उसे घेर लिया। वैसे तो वह अकेला कई शहरी बंदरों पर भारी था, पर वह कोई बवाल खङा करना नहीं चाहता था। उसने अपनी वाक्पटुता और लम्बी फैंकने की कला का सहारा लिया और आनन-फ़ानन में एक कहानी गढ़ ली। ‘पुंडरीक’ पट्टी के पास पपीते, नारियल, जामुन, और केले के हज़ारों पेङ हैं। उन पर सदैव स्वादिष्ट फल लटकते रहते हैं, केले तो इतने कि बस पूछो मत! पिछले कुछ सालों से ‘झमाझम’ के बंदरों की आबादी भी घट गई है, इस बात से महाराज रणसिंह चिंतित हैं। यदि आप लोग वहाँ चलोगे तो ‘पुंडरीक’ का पूरा इलाका आपका होगा। मैं लम्पू, महाराज का दूत, आपके पास यह संदेश लेकर आया हूँ।
प्रस्ताव बुरा नहीं था। पीले-पीले पके हुए केलों की कल्पना मात्र से अनेक बंदरों के लार टपकने लगी। लेकिन एक अपरिचित परदेसी की बात पर तुरंत यकीन कर लेना भी समझदारी नहीं थी। तय हुआ कि इस प्रस्ताव पर शहर के अन्य बंदर समूहों से चर्चा होगी और तदुपरांत निर्णय लिया जाएगा। बहरहाल, लम्पू को बतौर मेहमान शहर में विचरण करने का अभयदान मिल गया। अपनी पहली कूटनीतिक सफलता पर लम्पू मन ही मन गर्वित हो उठा। उसने शहरी बंदरों से भूरी की चर्चा भी चलाई लेकिन उसे निराशा ही हाथ लगी।
अगले दिन से ही लम्पू अपने मिशन पर जुट गया। चाय व पान की दुकानों पर, सैरगाहों में, बस अड्डे या रेलवे स्टेशन-जहाँ भी उसे दो-चार इंसान दिखाई पङते, वह लपक कर उनके आस-पास पहुँच जाता। यद्यपि एक-आध हल्की-फुल्की बहस को छोङकर उसे जंगलराज पर कोई सार्थक संवाद सुनने को नहीं मिला तथापि इस बात की पुष्टि अवश्य हो गई कि नारियलपुर में जंगलराज की चर्चा कोरी अफ़वाह नहीं है। दाल में जरूर कुछ न कुछ काला था।
लेकिन कई दिन गुज़र जाने के बाद भी शहर में उसे किसी शेर की सत्ता का कोई सबूत नहीं मिला। वह यहाँ के चिङियाघर को भी खंगाल आया, जहाँ डरे-डरे, सहमे और कमजोर अनेक प्रजातियों के पक्षी और छोटे जानवर पिंजङों में कैद थे। उनमें से किसी ने भी आज तक शेरखान को नहीं देखा था।
उसने स्थानीय बंदरों के मोहल्लों से लेकर मदारियों की बस्तियों तक का चक्कर लगाया। लेकिन भूरी का भी कोई सुराग नहीं मिला। हाँ, इस दौङ-धूप में एक बार पालतु कुत्तों से पीछा छुङाने की कोशिश में एक रेलिंग में फँस कर उसकी प्यारी पूँछ, आधी कट गई थी। उसे बहुत दुख हुआ, लम्बी सुंदर पूँछ उसकी शान थी। भूरी तो उसकी भूरी-भूरी प्रशंसा करते थकती न थी। पर खैर, राष्ट्र के लिए ऐसी सौ पूँछें क़ुर्बान! इस काम में यदि उसकी जान भी चली जाए तो भी कोई अफ़सोस नहीं।
शहर में उसे जहाँ-तहाँ, दुम हिलाते मरियल कुत्ते, कचरे के ढेर में मुँह मारती गायें और सुअर, भारी भरकम सामान से लदी गाङियों को खींचते कमजोर गधे और ख़च्चर मिले। ओह! कितनी दुर्दशा है जानवरों की यहाँ, उसका मन व्यथित हो उठा। और जिस देश में जानवरों के ऐसे हालात, वहाँ जंगलराज कैसे हो सकता है? लम्पू ने उनसे बातचीत की, पता चला वे पूर्ण रूप से इंसानो के अधीन थे। उसे यह जानकर बङी हैरानी हुई कि इन जानवरों ने जंगलराज शब्द को सुना तक नहीं था, इसका अर्थ जानना तो दूर की बात थी। कैसे शहरी जानवर हैं! इनसे तो हम जंगली जानवरों का ज्ञान बेहतर है।
ऐसे ही भटकते-भटकते, कीचङ भरे एक गंदे नाले के पास एक उम्रदराज़ कुत्ते को सुस्ताते देख लम्पू ने सोचा, इससे कुछ बातचीत की जाए, शायद जंगलराज के रहस्य से पर्दा उठे!
“श्वान साहब, नमस्कार! कैसे हैं आप?” बूढ़े कुत्ते ने इंसानों की बस्ती में अपने लिए ‘श्वान और साहब’ जैसा संबोधन आज तक नहीं सुना था। उसे तो सदैव दुत्कार सुनने की आदत थी। चौंककर उसने आवाज़ की दिशा में पास की दीवार पर बैठे लम्पू को देखा। लम्पू के कसरती बदन और दमकते चेहरे को देख उसे अनुमान लगाते देर नहीं लगी कि यह कोई जंगली बंदर है। उसके कान खङे हो गए। एक झटके में वह उठ कर बैठ गया।
“कहिए, क्या बात है?” दाँत किटकिटाते हुए उसने धमकी भरी गुर्राहट निकाली, “यदि तुम इस जगह को ठिकाना बनाने की सोच रहे हो तो दिमाग़ से निकाल देना।”
“अरे नहीं! नहीं-नहीं! श्वान शिरोमणि। मैं ठहरा घुमक्कङ बंदर, आज यहाँ, कल वहाँ। वैसे तो मैं ‘झमाझम’ जंगल का वासी हूँ, आपके शहर तो बस हवा-पानी बदलने आ गया।”
“हवा-पानी बदलने शहर में? क्या बात कही! हम तो आज तक यही सुनते आए हैं कि हवा-पानी बदलने, शहर से लोग जाते हैं, जंगलों-पहाङों में।”
“आपने बिल्कुल ठीक सुना आदरणीय। आप अच्छे श्वानित्व के धनी और अनुभवी जान पङते हैं। दरअसल बात यह है कि एक अति आवश्यक जानकारी के लिए मैं कई दिन से नारियलपुर में भटक रहा हूँ। अभी तक मुझे कोई रहनुमा नहीं मिला। लेकिन आपको देख मेरी उम्मीद बंधी है।”
पहली बार किसी प्रवासी जानवर से अपनी प्रशंसा सुन, बूढ़ा श्वान गद-गद हो उठा। लम्पू की चाशनी भरी बातें उसे सम्मोहित करने लगी थीं। कमर सीधी कर उसने शालीन मुद्रा बनाई और खंखारकर अपना गला साफ़ किया।
“मेरा नाम गबदू है। मैं कोशिश करुंगा। बताओ तुम्हें क्या मदद चाहिए?”
बात बनती देख, लम्पू खिसककर गबदू के थोङा और करीब आ गया, “बहुत सुंदर नाम है। आप जैसे समझदार श्वान पर बिल्कुल फ़िट बैठता है। मुझे आप लम्पू कह सकते हैं। दरअसल ‘झमाझम’ में ख़बर उङ रही है कि नारियलपुर में जंगलराज आ गया है। हमारे जंगल के राजा, महाराज रणसिंह, समस्त मंत्रीगण और प्राणी इस बात से बेहद चिंतित हैं।”
“जंगलराज!” गबदू की कमज़ोर आँखें सोचने वाले अंदाज़ में सिकुङ गईं। उसने मन ही मन कई बार दोहराया, ‘जंगलराज’, ‘जंगलराज’। सहसा उसे लगा कि उसने ये शब्द कहीं सुना है, लेकिन कहाँ? फिर अचानक वह चहक उठा।
“हाँ याद आया। यहीं पास ही में एक पार्क है- सैंट्रल पार्क। वहाँ अक्सर ख़ूब मोटे-तगङे, हट्टे-कट्टे आदम नेता, भाषण देने आते हैं। मैंने कई बार उनके मुख से यह शब्द सुना है।”
“अच्छा! तो क्या यहाँ जंगलराज आ गया है? कौन शेरखान हैं यहाँ के महाराज? किस रियासत से ताल्लुक रखते हैं।” लम्पू की उत्सुकता चरम पर थी। वह तुरंत सब जान लेना चाहता था।
लेकिन गबदू को इस शब्द के बारे में और अधिक जानकारी नहीं थी। लम्पू के सवाल से वह उलझन में पङ गया, अत: उसने संशय दूर कर लेने की ग़रज़ से पूछा, “जंगलराज से आपका मतलब क्या है?”
“जंगलराज, यानी जंगल का राज! जंगल के राजा होते हैं शेरखान- इस प्रकार जंगलराज का मतलब हुआ शेरखान का राज।”
तुरंत गबदू के दिमाग़ की बत्ती जल उठी। उसे ‘जंगलराज’ का वास्तविक अर्थ समझ आ गया।
“तब तो लम्पू जी, तुम ग़लतफ़हमी में हो। इंसानों के मुख से मैंने ये शब्द सुना जरूर है लेकिन नारियलपुर में किसी शेरखान की सत्ता नहीं हैं। हम श्वानों से अधिक ख़ूँख़ार, काटने या भौंकने वाला या शिकार करने वाला जानवर पूरे शहर में नहीं है। शेर का तो सवाल ही पैदा नहीं होता। और हम जानवरों की यहाँ क्या हालत है, तुम देख ही रहे हो! सब इंसानो के आसरे जिंदा हैं।” कहते हुए गबदू ने एक गहरी निश्वास छोङी।
लम्पू को गबदू की साफ़गोई पसंद आई। यह जानकर भी उसे संतोष हुआ कि यहाँ किसी शेरखान की हुकूमत नहीं है। लेकिन फिर यहाँ बार-बार ‘जंगलराज’ की चर्चा क्यों हो रही है? प्रश्न अब भी अनुत्तरित था। अधूरी जानकारी से लम्पू संतुष्ट नहीं था। उसने गबदू को टटोलना जारी रखा।
“तो फिर नारियलपुर में जंगलराज की ख़बर, कोरी अफ़वाह है, गबदू जी!”
“बिल्कुल। सौ फ़ीसद-कोरी अफ़वाह!”
“लेकिन फिर ये आदमजाद इस शब्द का बार-बार इस्तेमाल क्यों करते हैं?”
“देखो, मुझे राजनीति में अधिक दिलचस्पी नहीं है। यदि और अधिक जानना है तो सेंट्रल पार्क में चले जाओ। शायद तुम्हें इन सवालों का जवाब मिल जाए।” गबदू श्वान ने खङे होकर भरपूर अंगङाई ली, “अच्छा तो लम्पू जी, मेरा संध्या भ्रमण का समय हो रहा है, मैं चलता हूँ। तुमसे मिलकर ख़ुशी हुई।”
“धन्यवाद गबदू जी। मुझे इतनी महत्वपूर्ण जानकारी और अपना कीमती समय देने के लिए आपका बहुत-बहुत धन्यवाद।”
अगले रोज़ से लम्पू सेंट्रल पार्क के आसपास मंडराने लगा। हालाँकि यहाँ उसके छुपने और आराम फ़रमाने के लिए बङे पेङ नहीं थे और ना ही खाने –पीने का कोई जुगाङ था, फिर भी एक समर्पित सैनिक की तरह वह डटा रहा। पार्क की एक पानी की टंकी को उसने अपना अस्थाई ठिकाना बना लिया। तीसरे दिन सेंट्रल पार्क में अचानक से लोगों की चहल-पहल बढ़ गई। जगह-जगह गड्ढे खोद कर पोल गाङे जाने लगे और देखते ही देखते विशाल शामियाना तन गया। दोपहर बाद लोगों की भीङ जुटने लगी। मंच पर नेता लोग जमा हो गए। लम्पू के भाग्य से एक लाउड-स्पीकर पानी की टंकी पर भी टंगा था।
एक के बाद एक वक्ताओं के गरमा-गरम भाषण होने लगे। यदा-कदा भाषण चीख भरी चेतावनी में बदल जाते और पंडाल तालियों की गङगङाहट से गूँज उठता। बीच-बीच में जोशीले नारे भी लग रहे थे। अंतत: जिसका लम्पू को बेसब्री से इंतज़ार था वह पल भी आ ही गया, जब एक घनी दाढ़ी एवम मोटी तोंद वाले रोबीले नेता ने माइक सँभाला। उसके भाषण की शुरुआत ही नारे से हुई- ‘नारियलपुर का जंगलराज’, भीङ चिल्लाई ‘मुर्दाबाद-मुर्दाबाद!’ लम्पू के न केवल कान, वरन् समस्त इंद्रियाँ जाग्रत हो उठीं। जैसे-जैसे उस नेता का भाषण परवान चढ़ता गया, जंगलराज से इंसानों का क्या तात्पर्य था, सब सीसे की तरह साफ़ हो गया। भाषण की समाप्ति पर, पूर्ण संतुष्ट हो वह टंकी से नीचे उतरा। उसका मिशन पूरा हो चुका था। मकानों की खिङकियों और छज्जों पर से कूदते-फ़ाँदते वह शहर से बाहर निकल भागा।
लम्पू के नारियलपुर से सकुशल लौट आने की ख़बर ‘झमाझम’ जंगल में आग की तरह फ़ैल गई। सूचना मंत्रालय ने ‘बखेङिए’ के माध्यम से झमाझम के सभी प्राणियों को अगले दिन सार्वजनिक मैदान पर एकत्र होने की डोंडी पिटवा दी।
दूसरे दिन निर्धारित समय और स्थान पर ‘झमाझम’ के पशु-पक्षी पहुँचने लगे। बरगद के पुराने पेङ के नीचे, अनेक दरबारियों से घिरे, धीर-गंभीर मुद्रा में महाराज रणसिंह विराजमान थे। ‘पुंडरीक’ पट्टी के जागीरदार फुर्तीला देव और उनके वफ़ादार सहयोगी, मुस्तैदी से सुरक्षित दूरी पर खङे थे। हाथी, लंगूर, बंदर, भालू, भैंसे, गीदङ, लोमङी, सियार, मयूर, गौरैया, गिरगिट, कौए इत्यादि तमाम तरह के पशु-पक्षी जमा हो चुके थे।
मंच से कार्यक्रम को आरंभ करने की अनुमति लेकर मौला हाथी ने अपनी सूँड को हवा में उठाते हुए एक जोरदार चिंघाङ निकाली। “झमाझम रियासत के समस्त वासियो, जैसा कि आपको पता है पिछले कई दिन से हम सब, नारियलपुर में जंगलराज की ख़बर से परेशान थे। वास्तविकता जानने के लिए हमने बंदर कबीले के एक सिपाही को शहर भेजा। उसने अपनी जान हथेली पर रखकर मिशन को पूरा किया। जानते हो वह कौन है? उस जाँबाज़ का नाम है लम्पू!”
लम्पू भैया , जिंदाबाद के नारों और नाना प्रकार की चिल्लपों से पूरा मैदान गूँज उठा।
प्रसन्नता के अतिरेक में लम्पू ने अपने अगले पंजों से बरगद की डाल को जोर-जोर से हिलाया। ऐसा करते हुए उसकी लाल पीठ उपर-नीचे होने लगी और अधकटी पूँछ तनकर खङी हो गई। बरगद की अन्य डालियों पर लम्पू का पूरा मोहल्ला मौजूद था। सभी प्राणियों की निगाहें उसी पर टिकी थीं।
“हाँ तो आपका अधिक समय न लेते हुए अब मैं सीधे लम्पू से निवेदन करता हूँ कि वह नारियलपुर के जंगलराज का सच झमाझम के बाशिंदों के सामने रखे।”
बंदर कबीले ने किट-किट और चिक-चिक ध्वनियाँ निकाल कर लम्पू की हौसला-अफ़ज़ाई की। उनकी आवाजें रुकने पर पूरे मैदान में सुई पटक सन्नाटा छा गया। अब लम्पू ने पतली मगर आत्मविश्वास भरी आवाज़ में अपना उद्बोधन आरंभ किया।
“सम्माननीय मंच और झमाझम के सभी बाशिंदो को मेरा सादर अभिवादन। मैंने पिछले दो सप्ताह नारियलपुर में बिताए। इस दौरान मुझे अनेक विपरीत परिस्थितियों का सामना करना पङा। सबसे पहले तो वहाँ के शहरी बंदरों ने मुझे घेर लिया। जब मैंने अपने आप को उनसे घिरा पाया तो लगा अब खेल बिगङने वाला है। लेकिन मैंने भी कच्ची गोलियाँ नहीं खेली थीं, उनको ऐसा सब्ज़बाग़ दिखाया कि सब मेरे मुरीद हो गए।”
युवा बंदरों और लंगूरों ने ख़ुश होकर सीटियाँ बजाईं। लम्पू ने कनखियों से देखा, उसके ठीक सामने वाले पेङ की डाल पर अपनी मम्मी की गोद में पसर कर जूँएं निकलवा रही चींचली बंदरिया भी सीटी बजाने वालों में थी। लम्पू का मन मयूर झूम उठा। आज से पहले चींचली ने लम्पू को कभी घास नहीं डाली थी।
“वाह! तुमने उनको कैसे भरमाया? बताओ-बताओ।” महाराज रणसिंह पूरी कहानी सुनने को बेताब थे। लम्पू ने अब सविस्तार, शहर के बंदरों को भरमाने की कहानी सुना डाली। ‘पुंडरीक’ पट्टी पर केले, जामुन, पपीते और नारियल के विशाल बागान होने की बात को लेकर फ़ुर्तीला देव की हँसी छूट गई। उसको हँसता देख शेष चीते भी हँसने लगे। देखा-देखी कुछ भालू और लंगूर भी हँसते, हँसते लोट पोट होने लगे।
“शांत! शांत! हाँ तो, लम्पू आगे क्या हुआ?”
“महाराज। मैं पूरे शहर में घूमा, वहाँ के पालतु श्वानों को छकाया।”
“श्वान नहीं, कुत्ते कहो।” मौला हाथी ने टोका।
“जी। आप सही फ़रमा रहे हैं, इंसानी टुकङों पर दुम हिलाकर पङे रहने वालों को कुत्ता कहना ही उचित है। हाँ तो, मैंने वहाँ देखा, भूखी गायें गंदगी के ढेर में मुँह मारकर पेट भर रही थीं। गधे और ख़च्चर, भारी भरकम सामान से लदी गाङियाँ खींच रहे थे, आदमजाद उन पर चाबुक चला रहे थे।”
“आदमजाद, हाय-हाय” चारों ओर से आवाजें उठने लगीं।
“और महाराज! दुख की बात तो यह कि उनको पता ही नहीं था कि जंगलराज कहते किसे हैं!”
सब प्राणी साँस रोके लम्पू को सुन रहे थे। तदुपरांत लम्पू ने मदारियों के डेरे से लेकर, रेलवे स्टेशन, बस अड्डे, पान और चाय की दुकानों पर उसके द्वारा की गई गुप्तचरी के किस्से सुनाए। फिर उसने गबदू कुत्ते से अपने संवाद और उसके आधार पर सेंट्रल पार्क तक पहुँचने की बात रोचकता से बतलाई। आज सबने मन ही मन लम्पू की बुद्धिमता का लौहा मान लिया था।
“और फिर महाराज, उस सभा के मंच से एक मोटे तगङे नेता ने नारा लगाया, ‘नारियलपुर का जंगलराज’ लोगों ने जवाब में नारा लगाया ‘मुर्दाबाद-मुर्दाबाद’।”
“जंगलराज के मुर्दाबाद का नारा लगाने की उसकी जुर्अत? आदमजाद का ऐसा दु:साहस!” अचानक महाराज का गुस्सा देखकर, आसपास खङे प्राणी सहम गए। लम्पू ने बात सँभाली “महाराज मेरा भी ख़ून खौल उठा, लेकिन वहाँ गुस्से की नहीं, धैर्य की ज़रूरत थी। मुझे तो नारियलपुर के जंगलराज का राज़ जानना था।” इतना कहकर लम्पू रुक गया। अब उसने गर्दन घुमा-घुमा कर मैदान की सभी दिशाओं में अपनी नज़र डाली। आज से पहले उसने इस मैदान में ऐसी भीङ कभी नहीं देखी थी।
“लम्पू, चुप क्यों हो गए? कहते रहो। हमारा धैर्य जवाब दे रहा है।”
“हाँ, तो महाराज। उस नेता ने भीङ को संबोधित करते हुए कहा- मेरे प्यारे भाइयो, बहनों, माताओ, बुज़ुर्गो और बच्चो! जबसे नारियलपुर में गुङ-ब्राण्ड सरकार आई है, अपराधियों के हौसले बुलंद हैं। दिन दहाङे लोगों को गोलियों से भून दिया जाता है, लुटेरे खुलेआम घूम रहे हैं- राहज़नी, छिनतई, छेङछाङ एवम बलात्कार की घटनाएं बेतहाशा बढ़ गई हैं, माँ, बहनों का घरों से बाहर निकलना दूभर हो गया है। कानून व्यवस्था गुङ-गोबर हो गई है। इसको आप क्या कहेंगे, कानून का राज या जंगलराज? भीङ ने चिल्लाकर जवाब दिया- जंगलराज! जंगलराज! वक्ता ने नारा लगाया, नारियलपुर का जंगलराज! भीङ ने जोश भरा उत्तर दिया- मुर्दाबाद, मुर्दाबाद।”
“बस, बस! तो ये है नारियलपुर का जंगलराज! मैं सब समझ गया।” महाराज ने हल्की दहाङ से अपना गला साफ़ किया और बोले। “धिक्कार है आदमजाद की सोच पर। झमाझम के बहादुर निवासियो! अब मैं तुमसे पूछता हूँ। बताओ! क्या हमारे राज में कोई गोली चलाता है?”
“नहीं, नहीं” चारों ओर से आवाज़ आई।
“क्या झमाझम में राहज़नी या छिनतई होती है?”
“नहीं, नहीं”
“क्या, झमाझम में छेङछाङ की जाती है?”
“नहीं, नहीं।”
“क्या, झमाझम में बलात्कार होता है?”
“नहीं, नहीं।”
“ये सब कहाँ हो रहा है?”
“नारियलपुर में।”
“तो फिर नारियलपुर में जंगलराज कैसे हो सकता है?”
“नहीं हो सकता, महाराज। अनादि काल से जंगलराज कुदरत के नियमों से संचालित होता आया है। हमें अपने जंगलराज पर गर्व है। अपनी अराजक शासन व्यवस्था को ‘जंगलराज’ नाम देकर इंसानो ने हमारा अपमान किया है।” कोर कमेटी की एकमात्र मादा प्रतिनिधी ‘घुँघराली’ भालू ने पहली बार अपना मुँह खोला।
“महाराज! इंसानों ने हमारी भावनाओं को आहत किया है। मैं आदमजाद के विरुद्ध निंदा प्रस्ताव पेश करना चाहता हूँ।” फुर्तीला देव की आवाज़ में रोष था।
“और महाराज, मैं नारियलपुर की भ्रष्ट सत्ता का नाम ‘आदमराज’ प्रस्तावित करता हूँ।” मौला हाथी ने अपने विशाल कान फ़ङफ़ङाए और सूँड को हवा में लहराया।
चारों ओर जोशीले नारे लगने लगे। ‘लम्पू भैया-ज़िंदाबाद’, ‘जंगलराज-ज़िंदाबाद’, ‘आदमराज-मुर्दाबाद’। तदुपरांत दोनों प्रस्ताव सर्वसम्मति से पारित हो गए। लम्पू को बहादुरी का सर्वोच्च ‘झमाझम-शौर्य सम्मान’ प्रदान किया गया।
इति
प्रकाशन विवरण: श्री सरस्वती पुस्तकालय एवं वाचनालय सागर (म.प्र.) की प्रतिष्ठित त्रैमासिक पत्रिका 'साहित्य सरस्वती' के 39-वें अंक, जुलाई-सितम्बर 2023 में पहली बार प्रकाशित