कविता: बच्चे मेरे प्यारे बच्चे सुन





कांपते पहाड़ ने देखा
दूर तलहटी में, फलता फूलता एक कब्रिस्तान
एक से बढ़कर एक गगनचुंबी कब्र में
दफ़न होते
अपने पूर्वज, बंधु-बांधव, सखा-सहचर!

और उनके साथ होते दफ़न
चीङ, देवदार, साल, सागवान, पलाश
लहराते बांसों की बस्तियां
झरनों का क्रंदन
तितली, भौंरे, बंदर, गिलहरी का प्रलाप
गौरेया की सिसकियां!

वह देखता है, करीब आते हुए
एक जेसीबी मशीन
घबरा जाता है, बचा-खुचा पहाड़
उसकी देह से लिपटे खिलखिलाते, झूमते पेङ
सहम उठते हैं!

उसके कंधों पर उछलते, कूदते, मनमौजी झरने
हो उठते हैं भयाक्रांत

अमलतास पर गौरेया के झूलते घोंसले
डूब जाते हैं गहरे अवसाद में
अनिष्ट की आहट से उपजे सन्नाटे का मातमी डिर्ज[1]
पसर जाता है चारों ओर!

उस रोज वह सुनता है
दो नन्हे कदमों की पदचाप, अपनी गोद में
खुशी से पहाङ पिघलने लगता है
झरने बिखेरने लगते हैं
सुरमई संगीत
झूमने लगते हैं पेङ-पौधे मदहोश हवाओं के संग
और सबके साथ तितली, गौरेया, गिलहरी, बंदर
लगते हैं फुदकने, नाचने, गाने!

नन्हे बालक ने जी भरकर लुत्फ उठाया
वह तितली के पीछे भागा
पेङों की डाल पर झूला बंदरों को रिझाया
झरनों तले नहाया!

और शाम ढले जब वह लौटने लगा
पहाङ ने पुकारा, एक याचक की तरह
बच्चे मेरे प्यारे बच्चे सुन!
मैं चाहता हूं तुम फिर आओ मेरी गोद में
लौट कर बार-बार!

लेकिन देखो
वह एक मशीन आ रही है रेंगती हुई इस पार
उसे रोको मेरे बच्चे
फेंक दो उसे किसी गहरे गड्ढे में अन्यथा
अगली बार…
पहाड़ का गला रुंधने लगा!

लेकिन बालक ने न मुड़कर देखा न कुछ कहा
पहाड़ ने फिर पुकारा
बच्चे मेरे प्यारे बच्चे सुन!

इस बार चीङ, देवदार, बांस, पलाश
सभी पेङ-पौधे, सभी पशु-पक्षी
वे सभी जो इस जिंदा बस्ती के थे वासी
पुकार रहे थे समवेत
बच्चे मेरे प्यारे बच्चे सुन!

लेकिन बालक बिना किसी प्रतिक्रिया के
तलहटी में
मुर्दा मूक कब्रिस्तान की ओर
कहीं ओझल हो चुका था!


[1] डिर्ज और इसका प्रारंभिक रूप डिरिज, जिसका अर्थ है "शोक का एक गीत या भजन", मृतकों के लिए चर्च सेवा में इस्तेमाल किए जाने वाले लैटिन मंत्र के पहले शब्द से आया है:


@ दयाराम वर्मा बेंगलुरु 20.02.2024

प्रकाशन विवरण-
1. राजस्थान साहित्य अकादमी की मुख पत्रिका मधुमती के दिसंबर-2024 के अंक में 6 अन्य कविताओं के साथ प्रकाशन


Upper Siang Arunachal Pradesh 2019


Electronic City Bangalore Feb. 2024






कविता: प्रकृति चले हमारे अनुकूल
 


उन्हें सालता है सप्तवर्णीय इंद्रधनुष
क्यों नहीं बिखेरता फ़लक पर
सुर्ख़ कैफ़ियत केवल एक!

क्यों होते पल्लवित उपवन में पुष्प अनेक
खिलता नहीं क्यों केवल एक
खुशबू एक रंग एक!

पसंद नहीं उन्हें झील का झील होना
परखते हैं अक्सर कंकर फेंककर
अनुप्रस्थ तरंगों की ताकत!

नहीं गवारा नदी का सादगी भरा प्रवाह
लिपट जाती हैं निचली बस्ती में
छिछले नालों से!

क्यों आता जाता है सूरज सरहदों के पार
बांटता है दुशमन देश को भी
धूप रोशनी अपार!

क्यों बहती हैं हवाएं दशों दिशाओं में
क्यों नहीं बरसते बादल यहीं
उन्हें शिकायत है!

उन्हें पूरा यकीन है विधाता ने की है भारी भूल
क्योंकि कायनात में हम हैं सर्वश्रेष्ठ
प्रकृति चले हमारे अनुकूल!

@ दयाराम वर्मा बेंगलुरु 17.02.2024











कविता: किसान और होमो सेपियंस



बारह हजार वर्ष पूर्व
सर्वप्रथम, एक शिकारी वानर ने खोजा था अनाज
धरती का पहला किसान
उसने सिखाया साथी शिकारी घुमंतुओं को
घर-परिवार बनाना, बस्ती बसाना
वे कहलाए होमो सेपियंस[1]
और किसान
उगाता रहा फसल, रोपता रहा धान!

फलने फूलने लगे
गांव, देहात, कस्बे, शहर और साम्राज्य
विकसित होते गए
मेसोपोटामिया, मिश्र, चीन, सिंधु, हङप्पा
जबकि किसान
उगाता रहा फसल, रोपता रहा धान!

धीरे-धीरे सीखा होमो सेपियंस ने
व्यापार और व्यवहार
अहिंसा, सदभाव, भलाई, प्रेम और सदाचार
समाज और सामाजिकता
धर्म और धार्मिकता
लेकिन किसान
उगाता रहा फसल, रोपता रहा धान!

होमो सेपियंस ने सीखा
पढ़ना, लिखना
ज्ञान-विज्ञान, संगीत, कला और संस्कृति
रचा डाले उसने
पिरामिड, बेबिलोन, ताजमहल, खजुराहो
तब भी किसान
उगाता रहा फसल, रोपता रहा धान!



होने लगे पैदा
होमो सेपियंस नेता, इंजीनियर, सिपाही, विचारक
मुंसिफ़, हकीम, सैनिक, समाज-सुधारक
और किसान
उगाता रहा फसल, रोपता रहा धान!

होमो सेपियंस ने जाना
संगठन और एकता की शक्ति को और लङना
दमन, शोषण, अत्याचार के खिलाफ
और मिटा डाली
राजशाही, तानाशाही, औपनिवेशिक हुकूमतें
वह परखता गया
जनतंत्र, संघवाद, साम्यवाद, समाजवाद
जबकि किसान
उगाता रहा फसल, रोपता रहा धान!

सहस्राब्दियां बीत गईं
एक दिन
सभ्यता के अंतिम पायदान पर खङा किसान
चिल्लाया, होमो सेपियंस!
मैं भी बनना चाहता हूँ तुम्हारी तरह!

गूँजने लगी उसकी पुकार
लेकिन शायद किसी को नहीं था उससे सरोकार
किया निश्चय तब उसने थक-हार
बतलाई जाए होमो सेपियंस को अपनी व्यथा
निकले हल कोई, सुधरे थोङी दशा!

लेकिन उसके पाँव वहीं रुक गए
जब देखा उसने
राजमार्ग पर सघन कंटीली तारबंदी
और भारी भरकम बहुस्तरीय बेरिकेड के बीच
दूर तक लपलपाती
डरावनी नोकदार कीलें!

और देखा
अट्टहास करता होमो सेपियंस
जो उगा रहा था कांटे, रोप रहा था व्यवधान!


[1] सेपियंस-मानवजाति का संक्षिप्त इतिहास लेखक युवाल नोआ हरारी
 
@ दयाराम वर्मा बेंगलुरु 13.02.24

Images- Courtesy -Al Jazeera 21.02.2021








कविता: आसान और मुश्किल





चलते चले जाना बने बनाए रास्तों पर
कर लेना हासिल मंजिलें
मान-सम्मान, दौलत, पद-प्रतिष्ठा
बहुत आसान है
मुश्किल है तो नए रास्ते गढ़ना!
और
और भी मुश्किल है, उन पर चलके दिखलाना!

हो जाना हिटलर, स्टालिन
पॉल पॉट, मुसोलिनी या ईदि अमीन
बहुत आसान है
मुश्किल है तो होना लेनिन, लूथर, मंडेला!
और
और भी मुश्किल है, होना भीमराव या गांधी!

बागी बाबा, चिमटा बाबा, कम्प्युटर बाबा
महंत, पाठी, पीर, फ़कीर
हो जाना बहुत आसान है
मुश्किल है तो कृष्ण, बुद्ध, महावीर होना!
और
और भी मुश्किल है कबीर, रैदास या नानक होना!

नष्ट कर देना, ढहा देना, ज़मींदोज़ कर देना
मंदिर, मस्जिद, चर्च, गुरुद्वारे
बहुत आसान है
मुश्किल है तो धर्म परायणता!
और
और भी मुश्किल है, कर्तव्य परायणता!

राजा के निर्णय, राजा के विचार-प्रतिकार
सर झुकाए निर्विरोध स्वीकारोक्ति
समर्पण, जी हुजूरी
बहुत आसान है
मुश्किल है तो असहमति!
और
और भी मुश्किल है, असहमति भरी हुंकार!

कर लेना हर वचन दंडवत शिरोधार्य
हो नतमस्तक, हो जाना प्रजा
बहुत आसान है
मुश्किल है तो नागरिक हो जाना!
और
और भी मुश्किल है, जीवित रखना नागरिकता!

@ दयाराम वर्मा बेंगलुरु 01.02.2024

कविता: मेरे चले जाने के बाद मेरे चले जाने के बाद बिना जाँच-बिना कमेटी किया निलंबित आरोपी प्रोफ़ेसर-तत्काल करेंगे हर संभव सहयोग-कह रहे थे वि...