कविता: वे लोग
क्या तुम्हें है उस जहर की तलाश
‘उन लोगों’ का कर सके जो समूल नाश
हठधर्मी, अस्पृश्य, विधर्मी, एवं जाहिल जमात
नूतन शब्दावली-संस्कार, समाज को खतरा
हैं गद्दार, अवांछित कचरा!
आस्था विश्वास में घुला एक जहर
घर, मोहल्ले, शहर-शहर
खिंची तलवारें, चले पत्थर, पसरा कहर
हर रोज चंद घूँट पिलाते हो
उकसाऊ नारे, भङकाऊ संगीत बजाते हो!
डाल दिया धर्म, धंधे और पोशाक में
दाढी, टोपी, भाषा और तलाक में
‘जहर’ खान-पान, साक-सब्जी और पाक में
चिन्हित कर प्रतिबंध लगाते हो
सोसाइटी-बाजार, मेले-व्यापार से दूर भगाते हो!
प्यार में, व्यवहार में, लोकाचार में
राहों में, अफवाहों में बदनाम हुआ जिहाद
कुछ और न मिले तो आओ
कर लेते हैं तकरार लेकर हिजाब
जहरीला चश्मा ढूँढता हर शय में फसाद!
जहरीली हवा, जहरीले विचार
ईद-बकरीद, दीप-दिवाली, तीज-त्योहार
जुबान मैली, दिलों में कदाचार
चुन-चुन बरसाते हो गाली और गोली
रौंदती ‘उनके’ घर ठिकाने, बुलडोजर-टोली
खोज रहे हो अब तुम जमीन तले
जहर खतरनाक ऐसा मिले
पलट जाए इतिहास, पुश्तें ‘उनकी’ जा हिलें
‘वे लोग’ जब हों एकत्र एक जगह
कुचल डालें, मसल डालें, कर लें सबको फतह!
इंसानियत आज भयाक्रांत है
गली-कूचा देश का, देखो अशांत है
गोधरा से संभल तक, अतिरेक हो चुका
है अब भी अवसर, बुनियाद-ए- हिंद बचा लो
वरना, ‘धीरज’ विवेक खो चुका!
मूढ़ता त्यागो, दिवा-स्वप्नों से जागो
गौतम, महावीर, नानक, कृष्ण की यह धरती है
मेरी-तेरी नहीं, ‘हम सब’ की बात करो
नफरत, इंसाफ कभी नहीं करती है!
© दयाराम वर्मा, जयपुर (राज.) 8 दिसंबर, 2024
[1] अदावत- शत्रुता
[2] ज़लालत- अपमान, बेइज़्ज़ती
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