कविता: खो देंगे लेकिन खोदेंगे
वे चाहते हैं
कर देना अपने पुरखों के नाम
स्वर्ग- नर्क के रहस्योद्घाटन, विकास के समग्रआयाम
तमाम आविष्कार और करामात
क्योंकि केवल और केवल
उनके पुरखे ही थे सर्वश्रेष्ठ मनुजात
निरुपम सभ्यताओं और संस्कृतियों के तात!
उनका है दृढ़ विश्वास
था भाला लंबा इतना उनके पुरखों के पास
आसमान छू लेता था
करता ऐसा छेद, बादल चू देता था
चीर धरा को प्रकट करता जल की धारा
बहती नदियां, मिटता अकाल
भाला था बङा कमाल!
और सिद्ध करने के लिए
वे खींचते हैं
नित नई, लंबी और गहरी लकीरें
खुरचते हैं, फाङते हैं, जलाते हैं तमाम वो तहरीरें
जो फुसफुसाती हैं, बुदबुदाती हैं
कभी-कभी चीखती हैं, चिल्लाती हैं
‘यहाँ तुमसे पहले भी कोई था’!
वे खोदते हैं
रोज गहरी खाई और खंदक
अभिमत है नीचे उनका ही खुदा होगा
निशान अवश्यमेव पुरखों का जहाँ गुदा होगा
उन्हें है यह भी यकीन
उनका खुदा सबसे जुदा होगा
बंधुभाव, सद्भाव, प्रेम-सौहार्द-बेशक सब खो देंगे
लेकिन जिद है कि खोदेंगे!
© दयाराम वर्मा, जयपुर (राज.) 6 दिसंबर, 2024
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