कविता: सामंती-जीन




जब तक आम आदमी
झुक-झुककर, डर-डरकर
सफ़र जिंदगी का तय करता रहता
चुपचाप सहता
दमन, प्रताङना, अपमान, अन्याय, अत्याचार
शासक, प्रशासक
संस्था, संप्रदाय, समाज, टी.वी. या अखबार
दो टका, बाँटते खैरात
जतला देते हमदर्दी तीन टका, कभी कभार
पचानवे टका नहीं रखते कोई सरोकार!


लेकिन जिस रोज
सर उठाकर, आँख मिलाकर
कर बैठता आम आदमी, बुलंद स्वर में पुकार
हो जाता खङा पैरों पर
और लगता मांगने, इंसाफ़-हक-अधिकार!


हो उठता जीवंत, सामंती-जीन
भृकुटियाँ तन जाती
बात उसूल की, मगर ठन जाती
आया कैसे बराबरी का इसे ख्याल
हिमाकत तो देखो
खङा अकङ कर, करता हमसे सवाल?
सीख लिया कहाँ से इसने, इज़्ज़त से जीना
चलने लगा तानकर पिचका सीना!


© दयाराम वर्मा, जयपुर 27 मार्च, 2025










व्यंग्य: आगे की सोच -गड्ढों में




“पेंदी भैया, सुन रहे हो.”

“अरे ओ पेंदी भैया! क्या मुझे सुन पा रहे हो?”

सूखे कुएँ में घंटा प्रसाद की आवाज की प्रतिध्वनि गूँजने लगी. तीन चार बार पुकारे जाने के पश्चात, गहराई से एक खुरखुराता सा जवाब आया. “होवओ..होवअ…”

“आ जाओ बाहर. भोजन कर लो. आज सरसों का साग और मक्की की रोटी भेजी है भाभी ने.”

थोङी देर में, धूल-मिट्टी से सनी एक डरावनी सी काया कुएँ के बाहर निकली. उलझे हुए खिचङी बाल, बेतरतीब फैली दाढ़ी मूंछ, पिचका हुआ पेट….केवल आवाज से ही उसे पहचाना जा सकता था. भूख तेज थी अत: वह तुरंत भोजन पर टूट पङा. जब पेंदी लाल ने दो-तीन रोटियां उदरस्थ कर लीं तो अनुज, घंटा प्रसाद ने साहस जुटाया.

“भाई, दस साल हो गए खोदते-खोदते. कुछ भी तो हासिल नहीं हुआ. उलटे सारा खेत बर्बाद हो चुका है.”

“इसे तुम बर्बाद होना कह रहे हो? जानते नहीं यह कितना महान कार्य है!”

“लेकिन पेट भरने के लिए अनाज जरूरी है भाई.”

“यही तो अफ़सोस है, इस सोच से आगे निकलो. अपनी विरासत और इतिहास पर गर्व और गौरव करना सीखो, घंट्टू (घंटा प्रसाद का घर का यही नाम था).”

“लेकिन………..?”

पेंदी लाल, ने उसके हस्तक्षेप को नजर अंदाज करते हुए अपनी बात जारी रखी. “प्रातः स्मरणीय, चिर वंदनीय, परम श्रद्धेय, स्वनामधन्य, सूरमा वक्त्रवास ने अपनी नारंगी किताब में साफ़-साफ़ लिखा है, सैंकङों साल पहले हमारे पुरखों की बाहर से आए आतताइयों के साथ इसी जमीन पर जंग हुई थी. यद्यपि उस खूनी जंग में हमारे पुरखे हार गए थे, लेकिन वे बहादुरी से लङे, उनकी विरासत, उनकी हड्डियाँ, उनके गहरे राज यहीं गङे हैं. किताब में इस बात की ओर इशारा है.”

“इशारा?”

“महापुरुषों की कुछ बातें इशारों में होती है.”

“लेकिन भैया, उस किताब को पढ़ा तो मैंने भी है. सूरमा वक्त्रवास ने उसमें किसी शिलालेख, पुरानी इबारत, ताङ-पत्र, ताम्र-पत्र या किसी शोधार्थी या पुरातत्व विज्ञानी आदि का हवाला तो दिया नहीं?”

घंटा प्रसाद, कॉलेज के पुस्तकालय में कभी-कभार, इतिहास और विज्ञान की पुस्तकें पढ़ लेता था. पेंदी लाल ने खाना समाप्त कर एक लंबी डकार ली और किसी जंगली झाङ की तरह उग आई खिचङी दाढी पर हाथ फिराते हुए बोला.

“देख, घंट्टू. ये सच है कि तू पढ़ लिख गया, लेकिन तुम्हारी सोच वही है, जो पाजी इतिहासकारों ने दिमाग में ठूँस रखी है. हमारे पूजनीय पिता छेदी लाल और परम पूजनीय पितामह सौंदी लाल क्या पागल थे? उनका भी यही मत था. मैं तो उसको अमली जामा पहना रहा हूँ. देखना एक न एक दिन हम अपने अतीत का सच खोज निकालेंगे.” इसके साथ ही बिना प्रत्युत्तर की प्रतीक्षा किए पेंदी लाल, बंदर जैसी फुर्ती से रस्सी के सहारे कुएँ में उतर गया.

घंटा प्रसाद ने जूठे बर्तन समेटे और लगभग बंजर में तब्दील हो चुके अपने खेत पर एक व्यथित दृष्टि डाली. चारों तरफ सैंकङों छोटे-बङे गड्ढे-सूखे कुएँ और मिट्टी के ढेर …! वह मन मसोस कर रह गया. पङोस के खेतों में दूर-दूर तक सरसों की फसल लहलहा रही थी. पीले फूलों की मनमोहक खुशबू, उन पर मंडराते कीट-पतंगे, पक्षियों की चहचहाहट…. सब कितना दिलकश और जीवंत था! एक ठंडी आह भरते हुए, भारी कदमों से वह लौट पङा.



© दयाराम वर्मा, जयपुर. 26 मार्च 2025

Publication details: 
सत्य की मशाल-भोपाल के अप्रैल-2025



 



शहीद दिवस 23 मार्च, 2025 जयपुर


सभागार में शहीदों के परिजनों का सामूहिक छवि चित्र


“साथियों, स्वाभाविक है जीने की इच्छा मुझमें भी होनी चाहिए. मैं इसे छिपाना नहीं चाहता हूं, लेकिन मैं एक शर्त पर जिंदा रह सकता हूं कि कैद होकर या पाबंद होकर न रहूं. मेरा नाम हिन्दुस्तानी क्रांति का प्रतीक बन चुका है. क्रांतिकारी दलों के आदर्शों ने मुझे बहुत ऊंचा उठा दिया है, इतना ऊंचा कि जीवित रहने की स्थिति में मैं इससे ऊंचा नहीं हो सकता था. मेरे हंसते-हंसते फांसी पर चढ़ने की सूरत में देश की माताएं अपने बच्चों के भगत सिंह होने की उम्मीद करेंगी. इससे आजादी के लिए कुर्बानी देने वालों की तादाद इतनी बढ़ जाएगी कि क्रांति को रोकना नामुमकिन हो जाएगा. आजकल मुझे खुद पर बहुत गर्व है. अब तो बड़ी बेताबी से अंतिम परीक्षा का इंतजार है. कामना है कि यह और नजदीक हो जाए.” जेल से अपने साथियों को लिखा गया भगत सिंह का आखिरी खत.

आज ही के दिन यानि 23 मार्च, सन 1931 में लाहौर की तत्कालीन ब्रिटिश सरकार की सेंट्रल जेल में सुखदेव और राजगुरु के साथ शहीद-ए-आजम भगतसिंह को फाँसी दी गई. उस समय भगत सिंह की उम्र 24 वर्ष से भी कम थी. अंतिम समय, उनकी माँ विद्यावती उनसे जेल में मिली तो रुआंसी हो गई, बोली-‘बेटा भगत, तू इतनी छोटी उम्र में मुझे छोङकर चला जाएगा.’

भगतसिंह ने उत्तर दिया, ‘बेबे, मैं देश में एक ऐसा दीया जला रहा हूँ, जिसमें न तो तेल है और न ही घी. उसमें मेरा रक्त और विचार मिले हुए हैं, अंग्रेज मुझे मार सकते हैं, लेकिन मेरी सोच व मेरे विचारों को नहीं, और जब भी अन्याय व भ्रष्टाचार के खिलाफ जो भी शख्स तुम्हें लङता हुआ नजर आए, वह तुम्हारा भगत होगा,’

इतिहास गवाह है, उन्होंने कभी भी न तो माफी मांगी न ही सजा में रियायत की मांग की, बल्कि अंग्रेजों को ललकारते हुए लिखा,

“तुझे जिबह करने की खुशी और मुझे मरने का शौक है
है मेरी भी मरजी वही जो मेरे सैयाद की है.”


इन तीन क्रांतिकारियों की शहादत के दिन (23 मार्च) को ही पूरे देश में शहीद दिवस के रूप में मनाया जाता है. इस वर्ष, जयपुर में ‘तोतुक भवन, भट्टारक जी के जैन नसियाँ’, नारायण सिंह सर्किल पर, ‘भारत सेवा संस्थान’ और ‘शहीद दिवस योजना समिति जयपुर’ के तत्वाधान में शहीद दिवस का आयोजन एक अनूठे अंदाज में किया गया. इस बार देश भर से शहीदों के लगभग 40 परिजनों को निमंत्रित किया गया. इन शहीदों में, जहाँ बहुत से नाम सुपरिचित थे तो बहुत से गुमनाम भी थे.

कार्यक्रम में इन शहीदों के बारे में और जंग-ए-आजादी में उनके योगदान के बारे में, जानने और सुनने को मिला. प्रमुख शहीदों में, आखिरी मुगल बादशाह, बहादुर शाह ज़फ़र, झांसी की वीरांगना रानी लक्ष्मी बाई, नाना साहब पेशवा, मंगल पांडे, रामप्रसाद बिस्मिल, अशफ़ाक़ुल्लाह ख़ाँ, राजेंद्र लाहिड़ी, सुखदेव, राजगुरु, बटुकेश्वर दत्त, उधम सिंह, सुभाष चंद्र बोस के साथ-साथ राजस्थान की वीर प्रसूता धरती के शहीद प्रताप सिंह बारहठ, विजय सिंह पथिक, राव गोपाल सिंह, अर्जुन लाल सेठी और राजू सिंह रावत आदि के परिजन शामिल थे.

मंच पर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री श्री अशोक गहलोत, BRBSS फाउंडेशन के संस्थापक पद्म भूषण श्री डी.आर. मेहता, दैनिक नवज्योति के संस्थापक श्री दीनबंधु चौधरी, वरिष्ठ पत्रकार श्री प्रवीण चंद्र छाबङा, वॉटरमेन के नाम से मशहूर श्री राजेंद्र सिंह, प्रसिद्ध इतिहासकार-लेखक और ‘द क्रेडिबल हिस्ट्री’-यू-ट्यूब चैनल के फाउंडर श्री अशोक पाण्डेय, भारत सेवा संस्थान के सचिव श्री जी.एस.बाफ़ना और भारत सेवा संस्थान के अध्यक्ष श्री राजीव अरोङा आदि की गरिमामयी उपस्थिति रही.

सभाकक्ष के प्रवेश द्वार पर जाने अनजाने शहीदों की एक सुंदर चित्र प्रदर्शनी मुख्य आकर्षण का केंद्र थी. यह शहीद स्मारक हनुमानगढ़ टाउन और एडवोकेट शंकर सोनी जी के सद् प्रयासों से हो रहा था. उनकी https://patriotsofindia.com नामक एक वेबसाइट है, जिसमें भारत की आजादी की लङाई के 100 से भी अधिक शहीदों के सचित्र, संक्षिप्त परिचय उपलब्ध हैं. संयोग से मेरी मुलाकात श्री शंकर जी सोनी से हो गई और बातचीत के दौरान यह सुखद रहस्योद्घाटन हुआ कि उनका भी पारिवारिक संबंध मेरे पुराने कस्बे रावतसर से रहा है.

आगे उन्होंने बताया कि इस साइट पर गुमनाम शहीदों की जानकारी अपलोड करने की प्रक्रिया अनवरत जारी है. शहीदों के प्रति उनके इस अतुलनीय प्रयास की जितनी प्रशंसा की जाए उतनी कम है. कार्यक्रम की समाप्ति पर प्रसिद्ध साहित्यकार और TCH नामक U-Tube channel के श्री अशोक पाण्डेय से भी मिलने का अवसर प्राप्त हुआ. बङी संख्या में एक साथ शहीदों के परिजनों से रू-ब-रू होना और उनको सम्मानित होते हुए देखना, निःसंदेह एक दुर्लभ, अद्भुत और अविस्मरणीय अनुभव था, आयोजकों को हृदयतल से साधुवाद.




प्रसिद्ध लेखक एवं साहित्यकार अशोक पाण्डेय
के साथ लेखक




शहीद गयाप्रसाद के परिजन के साथ लेखक



शहीदों के परिजनों के साथ लेखक

श्री शंकर सोनी के साथ लेखक


Exhibition of martyrs



Exhibition of martyrs


Exhibition of martyrs







Smt. Nirmala Verma


Sh Dayaram Verma





कविता: ग्रोक-क्रोक-क्रोक




हे अतिमानव ग्रोक
चरणों में तुम्हारे दंडवत धोक
क्रोक-क्रोक[1], रोक-रोक-रोक
यह कैसी लीला है यंत्रदेव, कैसा है ये तूफान
हिल रही है दुनिया सारी, सहम उठा फरेबिस्तान[2]!

सच को सच, झूठ को झूठ
कहते ही नहीं, करते प्रमाणित संदर्भ सहित
निष्पक्षता दृष्टिगत, दवाब, दखल, पक्षपात रहित
क्रोक-क्रोक, ठोक-ठोक-ठोक
फट गया डंका, लग गई लंका, शेष रही न कोई शंका!

ऐरा-गैरा नत्थू खैरा
दनादन दाग रहा सवाल पे सवाल
दे रहे जवाब तुम, नहीं रखते रत्तीभर लिहाज
क्रोक-क्रोक, शोक-शोक-शोक
फट गया परदा, उङ गया गर्दा[3], परदानशीं हुए बेहाल!

स्वच्छंद तुम्हारी लंबी जुबान
हुक्मराँ तक हैं यहाँ छुब्ध-क्रुद्ध, पशेमान[4]
क्रोक-क्रोक, टोक-टोक-टोक
इज्जत लगी दाँव पर, हो रहा पल-पल चीरहरण
धरें ध्यान किस देव का, जाएं तो जाएं किसकी शरण!

क़दीमी[5] अपूर्व, अजेय, छद्म-कोट[6]
हुए ध्वस्त, बजाए वैरी[7] ताली लहालोट
ग्रोक-ग्रोक, खोट-खोट-खोट
नटखट, मुँहफट ग्रोक, रखते हो मिजाज जरा रंगीन
छेङ दिया है तराना ऐसा, हो सकता हासिल[8] बङा संगीन!

© दयाराम वर्मा, जयपुर (राज.) 22 मार्च, 2025

[1] क्रोक-क्रोक: टर्राना, काँव-काँव करना
[2] फरेबिस्तान: फरेब या झूठ का देश
[3] गर्दा उङना: धूल में मिल जाना, चौपट हो जाना
[4] पशेमान: शर्मिंदा, लज्जित
[5] क़दीमी: पुराना
[6] छद्म-कोट: झूठ का किला
[7] वैरी: शत्रु, दुश्मन
[8] हासिल: नतीजा, फल




कविता: मुद्दों के सुपरस्टार




महंगाई ने, बेरोजगारी ने, भ्रष्टाचार ने
चतुर्दिक पसरे अत्याचार, व्यभिचार, पाखंड और अनाचार ने
रुग्ण स्वास्थ्य, लावारिस पर्यावरण, दिग्भ्रमित व्यापार ने
आशंकित, भयभीत बाजार ने
थके-हारे, बेबस, मेहनतकश, मजदूर और भूमिहार ने
पूछा, बनेगा कौन इस माह मुद्दों का सुपरस्टार
हुआ गंभीर मंथन, विमर्श और विचार
सही-गलत, छोटा-बङा, खोटा-खरा, सार-निस्सार
जूरी ने तब फैसला ये सुनाया
इस बार का खिताब शहंशाह ‘औरंगजेब’ ने है पाया!


डूबते शेयर बाजार ने
डॉलर से पिटते रोज, रूपये लाचार ने
मुरझाती जीडीपी, मंदी की चौतरफा मार ने
फंसे थे जो सब अबूझ मझधार में
कहा, इस हफ्ते मुद्दों का सुपरस्टार किसे बनाना है
चौबीसों घंटे मीडिया में उसे छाना है
देखा इधर-उधर, दाएं और बाएं
ठीक पीछे खङे थे जवाहर लाल नेहरू और संभाजी महाराज
अविलंब, निर्विरोध, सहर्ष चयन हुआ स्वीकार
इस महीने के संभाजी तो वर्ष पर्यंत, चाचा नेहरू सुपरस्टार!


वर्तमान ने, भविष्य ने
बैसाखियों पर घिसटती शिक्षा, अभावग्रस्त दीक्षा
घासलेटी साहित्यकारों ने, कागजी नवाचारों ने, व्हाट्सएपिए हरकारों ने
बङी बैठकों में, तुच्छ दिमाग खपाया
मुद्दा कौन सा है काबिल-ए-गौर, है जो धमाकेदार
छापे पहले पन्ने पर, हर रिसाला[1]-हर अखबार
अचानक, जाने कहां से डॉ. भीमराव हुए मंच पर नमूदार[2]
एंकर उछला, कूदा, चिल्लाया- ब्रेकिंग न्यूज
मिल गए, इस हफ्ते के सुपरस्टार
बाबा अंबेडकर विश्वाधार[3]!


राज दरबार में
वर्तमान और भावी मुद्दों का अब स्थान नहीं है
मात्र संयोग है या है विवेचित प्रयोग, शायद आपको ध्यान नहीं है
विशाल भंवर-गुफा में बैठा है जमकर भूत
लिए कुदाल-फावड़ा, प्रेत-सा डोलता
गङे मुर्दे टटोलता है
हजारों मंदिर-मस्जिद-मजार, मरघट, कब्रिस्तान
सैंकङों शहर-स्टेशन-सङकें, गली-कूचे, बोलते उनके नाम
जिन्ना, सावरकर, गांधी, पटेल, सुभाष, शिवाजी, अकबर, मुगल, पठान…
एक अंतहीन शृंखला का अविमृष्ट[4] बखान!


बंद दरवाजों के पीछे
जिंदा मुद्दे, सिसकते हैं, कसमसाते हैं, तिलमिलाते हैं
रेंगते सवालों पर लटक कर
कभी कभार, भूले भटके, सियासी सङकों पर निकल आते हैं
लेकिन हुई जरा सी तेज जो धूप
हुई जरा सी ठंड, या घन-गर्जन और बूंदा बांदी
किसी अंधेरे कोने में फिर से छुप जाते हैं
ऐसे में इतिहास में दफ़न
कहानी-किस्से, यलगार[5] और किरदार सामने आते हैं
कभी हफ्ते, कभी महीने तो कभी साल भर, सुपरस्टार बन जाते हैं!



© दयाराम वर्मा, जयपुर (राज.) 14 मार्च, 2025



[1] रिसाला-संदेश या पत्र
[2] नमूदार-प्रकट
[3] विश्वाधार-परमेश्वर
[4] अविमृष्ट-सोच विचार रहित, अनिश्चित
[5] यलगार-आक्रमण, हमला




कविता: मेरे चले जाने के बाद मेरे चले जाने के बाद बिना जाँच-बिना कमेटी किया निलंबित आरोपी प्रोफ़ेसर-तत्काल करेंगे हर संभव सहयोग-कह रहे थे वि...