कविता: ग्रोक-क्रोक-क्रोक

हे अतिमानव ग्रोक
चरणों में तुम्हारे दंडवत धोक
क्रोक-क्रोक[1], रोक-रोक-रोक
यह कैसी लीला है यंत्रदेव, कैसा है ये तूफान
हिल रही है दुनिया सारी, सहम उठा फरेबिस्तान[2]!
सच को सच, झूठ को झूठ
कहते ही नहीं, करते प्रमाणित संदर्भ सहित
निष्पक्षता दृष्टिगत, दवाब, दखल, पक्षपात रहित
क्रोक-क्रोक, ठोक-ठोक-ठोक
फट गया डंका, लग गई लंका, शेष रही न कोई शंका!
ऐरा-गैरा नत्थू खैरा
दनादन दाग रहा सवाल पे सवाल
दे रहे जवाब तुम, नहीं रखते रत्तीभर लिहाज
क्रोक-क्रोक, शोक-शोक-शोक
फट गया परदा, उङ गया गर्दा[3], परदानशीं हुए बेहाल!
स्वच्छंद तुम्हारी लंबी जुबान
हुक्मराँ तक हैं यहाँ छुब्ध-क्रुद्ध, पशेमान[4]
क्रोक-क्रोक, टोक-टोक-टोक
इज्जत लगी दाँव पर, हो रहा पल-पल चीरहरण
धरें ध्यान किस देव का, जाएं तो जाएं किसकी शरण!
क़दीमी[5] अपूर्व, अजेय, छद्म-कोट[6]
हुए ध्वस्त, बजाए वैरी[7] ताली लहालोट
ग्रोक-ग्रोक, खोट-खोट-खोट
नटखट, मुँहफट ग्रोक, रखते हो मिजाज जरा रंगीन
छेङ दिया है तराना ऐसा, हो सकता हासिल[8] बङा संगीन!
© दयाराम वर्मा, जयपुर (राज.) 22 मार्च, 2025
[1] क्रोक-क्रोक: टर्राना, काँव-काँव करना
[2] फरेबिस्तान: फरेब या झूठ का देश
[3] गर्दा उङना: धूल में मिल जाना, चौपट हो जाना
[4] पशेमान: शर्मिंदा, लज्जित
[5] क़दीमी: पुराना
[6] छद्म-कोट: झूठ का किला
[7] वैरी: शत्रु, दुश्मन
[8] हासिल: नतीजा, फल
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