कविता- अनेक थे नेक थे

हमारे मोहल्ले में रहते थे
भांति-भांति के लोग
जाट जमींदार कारीगर कुम्हार सुथार
ठाकुर तेली सुनार चमार
हमारे ठीक पङोस में थे एक दर्जी
कमरुद्दीन भाई
लेखराम धोबी भोला बनिया हंसराज नाई
वैसे तो हम अनेक थे
लेकिन दिल के सब नेक थे
भाईचारा और प्रेम आपस में बंटता था
समय आराम से कटता था
वहाँ गली के आखिरी छोर पर था
सरदार केहरसिंह का बङा सा पक्का मकान
पीपल के पास था एक छोटा देवस्थान
देवस्थान के अहाते में
रहते थे लंबी चोटी वाले पंडित घनश्याम
सुबह शाम
बजती थीं मंदिर में मधुर घंटियाँ
और आती थी दूर मस्जिद से सुरीली अजान
सेवइयां लड्डू तो कभी हलवा बंटता था
कुहासा भेद भ्रम का छंटता था
यद्यपि हमारे इष्ट अनेक थे
लेकिन पैगाम सबके एक थे नेक थे
ढाब वाले स्कूल में
बरगद के पेङों तले लगती थी क्लास
अमर अर्जुन शंकर बलबीर हरदीप अल्ताफ़
बैठते थे टाट पट्टी पर पास-पास
पंद्रह अगस्त छब्बीस जनवरी होते थे पर्व खास
जब चलता सफाई अभियान
खेल मैदान में करवाया जाता श्रमदान
नंद पीटीआई काम बांटते
गड्ढे पाटते बबूल छांटते घास काटते
हमारे दीन-धर्म जात-कर्म अनेक थे
गुरुजी की नजरों में सब एक थे
दिवाली ईद गुरु-परब
हर साल हर हाल मनाए जाते
सिलवाते कपङे नए घर द्वार सजाए जाते
कुछ महिलाएं निकालती थीं घूंघट
कुछ पहनती थीं हिजाब
कभी कभार आपस में हो जाती थी तकरार
इससे पहले कि उगती कोई दीवार
सही गलत तुरंत आँकते
सौहार्द सद्भाव शांति बुजुर्ग बांटते
बेशक
खान-पान रिती-रिवाज अनेक थे
इरादे सबके नेक थे
© दयाराम वर्मा, जयपुर (राज.) 11-11-2024


.jpeg)

![]() |
जहरीला कुकुरमुत्ता-प्रकाशन वर्ष 1938 लेखक अर्नेस्ट हाइमर |
जनवरी 1933 में जर्मनी में यहूदियों की जनसंख्या 5.23 लाख थी जो कुल जनसंख्या 670 लाख का 1 % से भी कम (0.78%) थी. नाजी पार्टी के आने के बाद
बङी संख्या में यहूदी आस पास के देशों में पलायन करने लगे. जून 1933 में जर्मनी में इनकी आबादी घटकर 5.05 लाख (0.75%) रह गई. उस समय पङोसी देश पोलैंड में
इनकी जनसंख्या 33.35 लाख, सोवियत यूनियन में 30.20 लाख, लिथुआनिया में 1.68 लाख, चेकोस्लोवाकिया में 3.57 लाख, ऑस्ट्रिया में 1.85 लाख, रोमानिया में 7.57 लाख, फ्रांस में 3.30 लाख और ब्रिटेन में 3.85 लाख थी. कुल मिलाकर यूरोप में इनकी आबादी 95 लाख थी जो विश्व में कुल यहूदी जनसंख्या का लगभग 60% थी. बहुत से यूरोपीयन देशों में इनकी जनसंख्या का प्रतिशत 4 प्रतिशत या उससे भी अधिक था फिर भी जर्मनी के अलावा किसी भी अन्य
देशवासियों को यहूदियों से कोई खतरा नहीं हुआ.
लेकिन नाजियों को लगता था कि यहूदी, हमारी संस्कृति, राष्ट्रवाद, धर्म और व्यवसाय आदि के लिए खतरा है. ऐतिहासिक दृष्टि से देखें तो सन 1933 में नाजियों के उदय से बहुत पहले से ही दोनों समुदायों के बीच अविश्वास और
घृणा की चौङी खाई थी. नाजियों ने उस चिंगारी को हवा दी और उसे शोलों में बदल दिया.
धार्मिक और नस्लीय कट्टरता सदैव पहले अपने लिए अनुकूल वातावरण तैयार करता है.
अख़बारों-पत्र-पत्रिकाओं के जरिए, चलचित्र और नाटकों के
माध्यम से, राजनैतिक सभाओं-सम्मेलनों
आदि में प्रत्येक संभव चैनल के द्वारा अफ़वाहें फैलाना, फ़र्जी
ख़बरें छापना, झूठे और मनगढ़ंत इल्ज़ाम लगाना और इनका
बार-बार दोहराव-एक ऐसी कारगर कूटनीति है जो धीरे-धीरे परवान चढ़ती है.
एक समय के बाद, जनमानस के मनोविज्ञान को जकङ कर ये नरेटिव उसके दिल-दिमाग और विचारों पर इस कदर हावी हो जाते हैं कि वह इस विषय के किसी भी सही-गलत या उचित-अनुचित पहलू पर तार्किक रूप से सुनना, सोचना, समझना और बोलना बंद कर देता है. एक धर्म या नस्ल विशेष के प्रति नफ़रती पूर्वाग्रह उसे एक उन्मादी भीङ में बदल देते हैं. जब कभी इस भीङ को सत्ता का समर्थन हासिल हो जाता है तब यह खुलकर नंगा नाच करने लगती है. नाजियों ने न केवल वयस्क जर्मन आबादी में यहूदी विरोध का जहर छिङका अपितु ऐसा प्रबंध करने की भी कोशिश की कि भावी पीढ़ी के डी.एन.ए. तक में यहूदी नफरत घुस जाए! इसी सोच का परिणाम थी सन 1938 में प्रकाशित एक कार्टून पुस्तक- ‘डेर गिफ्टपिल्ज’ अर्थात 'जहरीला कुकुरमुत्ता'. छोटे बच्चों के मन-मस्तिष्क में इस पुस्तक के जरिए नाजियों ने यहूदी-घृणा को पैवस्त करने का प्रयास किया.
64-पृष्ठों की इस पुस्तक
को वर्ष 1938 में अर्नेस्ट हाइमर ने लिखा. पुस्तक
में न केवल नेशनल सोशलिस्ट प्रचार की शैली में लिखे गए पाठ शामिल हैं, बल्कि यहूदी-विरोधी चित्र भी शामिल हैं. इस पुस्तक में व्याख्या सहित बहुत से यहूदी विरोधी कार्टून
हैं.
उदाहरण के तौर पर, पुस्तक के कवर-पेज पर तोते जैसी नाक
और घनी दाढी वाले एक व्यक्ति को कुकुरमुत्ता नुमा टोप पहले दर्शाया गया है. लिखा है, ‘जैसे अक्सर जहरीले कुकुरमुत्ते को
खाने योग्य कुकुरमुत्ते से पहचानना मुश्किल होता है, वैसे
ही एक यहूदी को धोखेबाज और अपराधी के रूप में पहचानना भी बहुत कठिन होता है.’
पुस्तक में एक डॉक्टर की कहानी है जो जर्मन युवतियों के
साथ बदसलूकी करता है. एक यहूदी वकील और व्यापारी की कहानी है जो जर्मन के साथ
धोखाधङी करते हैं. एक कार्टून बतला रहा है कि यहूदी को उसकी छह नंबर की तरह
दिखने वाली मुङी हुई नाक से पहचानें! साम्यवाद और यहूदी धर्म के बीच संबंध होने का
भी पुस्तक दावा करती है. अंतिम अध्याय में लिखा है कि कोई भी ‘सभ्य यहूदी’ नहीं हो सकता और यहूदी प्रश्न का
हल खोजे बिना मानवता का उद्धार नहीं हो सकता. एक जगह लिखा है-‘इन लोगों (यहूदियों) को देखो! जूओं से भरी दाढ़ी! गंदे, उभरे हुए कान….’
एक कार्टून में दर्शाया गया है कि एक
यहूदी ने कैसे एक जर्मन को उसके खेत से बेदखल कर दिया और प्रतिक्रिया स्वरूप लिखा
है –‘पापा, एक दिन जब मेरा खुद का खेत होगा, तो कोई यहूदी
मेरे घर में प्रवेश नहीं करेगा...’
एक लघुकथा में एक औरत खेत से लौटते हुए
ईसा मसीह की सलीब के पास रुकती है और अपने बच्चों को
समझाती है कि –‘देखो जो यह
सलीब पर लटका है वह यहूदियों का सबसे बङा दुश्मन था. उसने यहूदियों की धृष्टता और
नीचता की पहचान कर ली थी. एक बार उसने यहूदियों को चर्च से चाबुक मार कर भगा दिया
क्योंकि वहाँ वे अपने धन का लेनदेन कर रहे थे. यीशु ने यहूदियों से कहा कि वे सदा
से इंसानों के हत्यारे रहे हैं, वे शैतान के वंशज हैं
और शैतानों की तरह ही एक के बाद दूसरा अपराध करते हुए जीवित रह सकते हैं.’
‘क्योंकि यीशु ने
दुनिया को सच्चाई बताई, इसलिए यहूदियों ने उसे मार
डाला. उन्होंने उसके हाथों और पैरों में कीलें ठोंक दीं और धीरे-धीरे उसका खून
बहने दिया. इसी प्रकार से उन्होंने कई अन्य लोगों को भी मार डाला, जिन्होंने यहूदियों के बारे में सच कहने का साहस किया…... बच्चों, इन बातों को हमेशा याद रखना. जब भी तुम कोई सलीब देखो तो “गोलगोथा” पर यहूदियों द्वारा की गई भयानक हत्या
के बारे में सोचना. याद रखो कि यहूदी शैतान की संतान और मानव हत्यारे हैं.’
गोलगोथा, येरुशलम शहर के पास स्थित एक जगह
का नाम है, माना जाता है कि यीशु मसीह को उक्त स्थान पर
सूली पर लटकाया गया था. यीशु एक यहूदी थे और
तत्कालीन रोमन राजा ने उनको सूली की सजा सुनाई. उनके अनुयाई ईसाई कहलाए, जर्मन नाजी भी ईसाई धर्म को
मानते हैं. कालांतर में नाजियों ने हर यहूदी पर ईशा के हत्यारे का लेबल चिपका
दिया.
हिटलर ने प्रथम विश्व युद्ध में जर्मनी
की अपमानजनक हार के लिए यहूदी समर्थित तत्कालीन वामपंथी सरकार को जिम्मेवार
ठहराया. 1 प्रतिशत से भी कम लोगों की विरोधी राजनैतिक विचारधारा, हिटलर के लिए इस हद तक असहनीय हो गई थी कि धरती पर यहूदियों का समूल नाश
उसके जीवन का ध्येय बन गया!
समाज की जङों में धर्मांधता या
नस्लांधता का जहर डालकर कैसे नफ़रती फसलें तैयार की जाती हैं, यह पुस्तक उसका एक
बेहतरीन उदाहरण है. यहूदी विरोध की सोच जब जर्मन समाज के खून में समा गई तो हिटलर
को अपने मंसूबों को अंजाम देने के लिए अधिक मेहनत नहीं करनी पङी. यहूदियों के
खिलाफ कोई भी नफ़रती शगूफा, उन्मादी भीङ को हिंसक और
पाशविक बनाने के लिए पर्याप्त था. यही रणनीति, यही
कूटनीति विश्व भर में तानाशाही विचारधारा के लोग आज भी अपना रहे हैं.
अब देखिए यह भी कितनी
बङी विडंबना है कि जिस होलोकॉस्ट में साठ लाख लोग मारे गए और जिसके लाखों साक्ष्य मौजूद थे, उसके बारे में नाजी
विचारों के समर्थक और हिटलर से सहानुभूति रखने वाले लोगों ने कहना शुरू कर दिया कि
इतिहास में होलोकॉस्ट जैसी कोई घटना नहीं हुई! यहाँ तक कि उन्होंने गैस चैंबरों के
अस्तित्व से भी इनकार कर दिया और कहा कि जो कुछ भी मित्र देशों की सेनाओं ने 1945 में देखा, उसे बहुत अधिक बढ़ा-चढ़ाकर दुनिया के
सामने पेश किया गया है. 24 जुलाई, 1996 को, नेशनल सोशलिस्ट व्हाइट पीपल्स पार्टी के
नेता, हैरोल्ड कोविंगटन ने कहा,
"होलोकॉस्ट को हटा
दो और तुम्हारे पास क्या बचता है? कीमती होलोकॉस्ट के
बिना, यहूदी क्या हैं? बस
अंतरराष्ट्रीय डाकुओं और हत्यारों का एक गंदा सा समूह, जिन्होंने
मानव इतिहास में सबसे बड़ा, सबसे कपटी धोखा
दिया..."
होलोकॉस्ट में प्रताङित और मारे गए
लोगों के साथ हुए अत्याचारों की दुनिया की कोई भी अदालत कभी भरपाई नहीं कर सकती.
लेकिन अंतरराष्ट्रीय समुदाय से यह तो अपेक्षित था कि वे इन अत्याचारों को स्वीकार
करें. इसके लिए भी संयुक्त राष्ट्र संघ में लंबी लङाई लङनी पङी. 13 जनवरी 2022 को संयुक्त राष्ट्र संघ ने जर्मन नाजियों के द्वारा ‘होलोकॉस्ट से इनकार’ पर एक प्रस्ताव पारित करते
हुए पुष्ट किया कि,
‘होलोकॉस्ट के
परिणामस्वरूप लगभग 60 लाख यहूदियों की हत्या हुई, जिनमें
से 15 लाख बच्चे थे, जो
यहूदी लोगों का एक तिहाई हिस्सा थे. इसके अतिरिक्त अन्य देशवासियों, अल्पसंख्यकों और अन्य लक्षित समूहों और व्यक्तियों के लाखों सदस्यों की भी
हत्या हुई. होलोकॉस्ट हमेशा सभी लोगों को नफरत, कट्टरता, नस्लवाद और पूर्वाग्रह के खतरों के प्रति चेतावनी देता रहेगा.’
यू.एन.ओ. ने इस प्रस्ताव में नस्लवाद, नस्लीय भेदभाव, ज़ेनोफोबिया और संबंधित असहिष्णुता पर नाजीवाद और फासीवाद जैसी
विचारधाराओं को अपनाने से उत्पन्न घटनाओं और मानवीय उत्पीड़न, अल्पसंख्यकों से संबंधित लोगों के इतिहास, पड़ोसी
देशों के साथ संबंधों इत्यादि को अच्छी तरह से प्रशिक्षित शिक्षकों के माध्यम से
इतिहास की कक्षाओं में पदाने के महत्व पर जोर दिया. प्रस्ताव में सदस्य राज्यों से
आग्रह किया गया कि वे ऐसे शैक्षिक कार्यक्रम विकसित करें जो भावी पीढ़ियों को
होलोकॉस्ट के पाठों से अवगत कराएं ताकि भविष्य में नरसंहार की घटनाओं को रोकने में
मदद मिल सके.
लेकिन आज विश्व भर में बढ़ती जा रही
धार्मिक और नस्लीय कट्टरता से तो यही लगता है कि संयुक्त राष्ट्र के इस प्रस्ताव
का सदस्य देशों ने न तो कोई गंभीर संज्ञान लिया है और न ही होलोकॉस्ट जैसी घटना से
उन्होंने कोई सबक लिया है.
© दयाराम वर्मा, जयपुर 25 जुलाई 2024
प्रकाशक पैन मैकमिलन ऑस्ट्रेलिया प्रा. लि.
पहला प्रकाशन वर्ष 2020 मूल्य 599 रू. पृष्ठ संख्या 194

क्रिस्टल नाचट के समय उन्मादी जर्मन भीङ यहूदी गिरजाघर को आग के हवाले करते हुए

लात्विया के शहर लिपाजा के स्केड तट पर एक यातना शिविर में यहूदी महिलाओं को पहले
कपङे उतारने के लिए मजबूर किया जाता है और फिर उन्हेंं गोली मार दी जाती है

होलोकॉस्ट मेमोरियल मियामी बीच फ्लोरिडा, अमेरिका
© दयाराम वर्मा, जयपुर 17 जुलाई 2024
फोटोग्राफ्स- (सौजन्य): जेविश वर्चुअल लाइब्रेरी, पिक्साबे, द नेशनल वर्ल्ड वार-II म्यूजियम, होलोकॉस्ट इनसाइक्लोपीडिया इत्यादि
समीक्षा प्रकाशन विवरण-
आलेख: सुरक्षाकर्मी की अनुशासनहीनता अपराध
है
चंडीगढ़ हवाई अड्डे पर 6 जून, 2024 के दिन
मंडी, हिमाचल प्रदेश की नव-निर्वाचित सांसद कंगना रनौत पर एक
सी.आई.एस.एफ. महिला सुरक्षा कर्मी कुलविंदर कौर द्वारा कथित तौर पर थप्पङ मारे
जाने और अभद्र व्यवहार की घटना चर्चा का विषय बनी हुई है. सुरक्षा कर्मी के अनुसार
दिल्ली में किसान आंदोलन के समय कंगना रनौत ने धरने पर बैठे किसानों के लिए कहा था
कि वे 100-200 रूपये लेकर प्रदर्शन कर रहे हैं. उस धरने में
उसकी माँ भी थी. स्पष्ट है इस बात की टीस और गुस्सा कंगना रनौत के साथ हवाई अड्डे
पर हुई बदसलूकी का सबब बना.
लेकिन उन दोनों के बीच केवल बहस हुई या थप्पङ भी मारा गया? यह अभी स्पष्ट नहीं है. इसी बीच कुलविंदर के समर्थन में संयुक्त किसान मोर्चा (गैर-राजनीतिक) और किसान मजदूर मोर्चा समेत कई संगठनों ने 9 जून, 2024 को मोहाली में मार्च निकाला. मामले के तूल पकङने पर उनका पूरा गाँव भी उसके समर्थन में उतर आया है, गाँव वालों और उनके घर वालों का कहना है कि कुलविंदर कौर द्वारा कंगना रनौत को थप्पङ मारते हुए कोई वीडियो सामने नहीं आया है. यद्यपि वे मानते हैं कि उन दोनों के बीच बहस जरूर हुई थी. यही तर्क किसान नेता महेंद्र सिंह टिकैत का भी है-वे मामले की निष्पक्ष जाँच चाहते हैं.
'जाने-माने गायक और संगीत निर्देशक विशाल ददलानी ने कुलविंदर कौर की नौकरी चले जाने की स्थिति में नौकरी का आश्वासन दे दिया तो एक बुजुर्ग कृषि कार्यकर्ता मौहिंदर कौर ने भी कुलविंदर कौर का समर्थन किया है. खबर यह भी है कि खालिस्तानी आतंकवादी गुरपंत सिंह पन्नू ने कुलविंदर कौर को दस हजार डॉलर तो जीरकपुर के एक व्यापारी शिवराज सिंह बैंस ने एक लाख रूपये देने की घोषणा की है. हरियाणा के जींद जिले के उचाना में धरने पर बैठे किसानों के संयोजक आजाद मालवा ने भी कुलविंदर कौर को सम्मानित करने की घोषणा की है. इन सबके बर-अक्स अनेक फिल्मी हस्तियों, नेताओं और गणमान्य व्यक्तियों ने सुरक्षा कर्मी के इस कृत्य की भर्त्सना की है और कंगना रनौत का पक्ष लिया है. हवाई अड्डों पर सुरक्षा प्रदान करने का काम करने वाली सी.आई.एस.एफ. ने घटना की ‘कोर्ट ऑफ इंक्वायरी’ का आदेश दे दिया है.
एक सुरक्षाकर्मी द्वारा एक सांसद के साथ दिन दहाङे बदसलूकी की गई फिर भी उसे राजनैतिक रंग देकर उसके कृत्य की सराहना और समर्थन हमारे राजनैतिक और नागरिक बोध का दिवालियापन नहीं तो और क्या है?
नेताओं पर स्याही फेंकना, जूते-चप्पल-कुर्सी चलाना, अपमानजनक टिप्पणी करना, यहाँ तक की भरी सभा में शारीरिक हमले, पिटाई, लात-घूँसे, थप्पङ-मुक्के आदि हमारे देश में नए नहीं है. इसका ताजातरीन उदाहरण है 17 मई, 2024 को दिल्ली में कांग्रेस पार्टी के संसद प्रत्याशी कन्हैया कुमार पर किया गया हमला-जब एक चुनावी सभा में उनको माला पहनाने के बहाने दक्ष उर्फ दक्ष चौधरी और अन्नू चौधरी नाम के युवाओं ने थप्पङ जङ दिया और धार्मिक नारे लगाते हुए अपने कृत्य को न्यायोचित ठहराया. विपरीत विचारधारा से बंधे हुए लोग यदि इस घटना पर आनंदित होते हैं तो वे विवेकपूर्ण, सभ्य समाज का हिस्सा नहीं हो सकते और उनको कंगना रनौत के पक्ष में खङे होने का कोई नैतिक अधिकार नहीं.
तथापि ड्युटी के समय सुरक्षाकर्मियों द्वारा नस्ल, जाति, धर्म या राजनैतिक विचार धारा की रंजिश के चलते, किसी व्यक्ति पर शाब्दिक या शारीरिक हमला चिंतनीय ही नहीं बेहद खतरनाक भी है. एक सुरक्षा कर्मी के हाथों में बंदूक इसलिए थमाई जाती है कि वक्त आने पर वह अपने देश और देशवासियों रक्षा करेगा. हमारे देश के जांबाज, देशभक्त रक्षा कर्मियों या सैनिकों द्वारा न केवल युद्ध के समय बल्कि शांतिकाल में भी असंख्य मौकों पर इस विश्वास को बनाए रखने की मिसाल से इतिहास भरा पङा है और उन्होंने अपने प्राणों की आहूति देकर भी देश व देशवासियों की रक्षा की है. लेकिन दूसरी और यदा-कदा सुरक्षाकर्मियों के विद्रोह की घटनाएँ भी इतिहास की कठोर सच्चाई है. उदाहरण के तौर पर हम निम्न दो घटनाओं का संदर्भ लेते हैं.
31 अक्टूबर, 1984 को नई दिल्ली के सफदरगंज रोड स्थित आवास पर तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी की उनके ही अंगरक्षकों बेअंत सिंह और सतवंत सिंह ने गोली मार कर हत्या कर दी थी-वजह थी ‘ऑपरेशन ब्लू स्टार’, के तहत सिक्खों के अमृतसर स्थित धार्मिक स्थल ‘स्वर्ण मंदिर’ में शस्त्र बलों का प्रवेश और खालिस्तान आंदोलन के पैरोकार जरनैल सिंह भिंडरावाले की हत्या! रेलवे सुरक्षा बल (आर.पी.एफ.) के कांस्टेबल चेतन कुमार चौधरी ने 31जुलाई, 2023 को जयपुर-मुंबई सेंट्रल एक्सप्रेस के चार यात्रियों की गोली मारकर हत्या कर दी थी-वजह था उनका वह धर्म जिससे वह नफ़रत करता था! लेकिन इनके कृत्यों का किसी भी जिम्मेवार नागरिक, अधिकारी या नेता ने महिमामंडन या समर्थन नहीं किया और कानून ने अपना काम किया.
सवाल पैदा होता है कि क्या सुरक्षा कर्मियों के ऐसे विद्रोही कृत्यों का किसी भी रूप में महिमामंडन या समर्थन उचित है? एक पूर्व सैनिक के रूप में मेरा जवाब होगा-कतई नहीं. सुरक्षा बलों के जवान या अधिकारी महज सरकारी नौकर नहीं होते. वे वर्दीधारी सिपाही होते हैं जिन्हें पूर्ण विश्वास के साथ देश की आंतरिक या बाहरी सुरक्षा की जिम्मेवारी सौंपी जाती है-उनके हाथों में एक भरोसे के साथ बंदूक थमाई जाती है. सैनिक किसी भी देश की सबसे बड़ी संपत्ति में से एक होते हैं. वे राष्ट्र के संरक्षक हैं और हर कीमत पर अपने नागरिकों की रक्षा करते हैं. उनसे अपेक्षित है कि वे देश के हित को अपने व्यक्तिगत हित से ऊपर रखेंगे. अनुशासन में रहते हुए आदेश की पालना करना, धर्म, जाति, भाषा, क्षेत्र या किसी भी प्रकार की विभिन्नता के प्रति तटस्थ रहना एक सैनिक के खून में होता है. यदि कंगना रनौत, सुरक्षा परीक्षण में सहयोग नहीं कर रही थी तो कुलविंदर कौर उनको रोक सकती थी और अपने वरिष्ठ अधिकारियों को मामले को रैफर कर सकती थी. वैसे भी हवाई अड्डे पर सुरक्षा परीक्षण के समय अनेक सुरक्षा कर्मी और अधिकारी मौजूद रहते हैं.
बेशक भूतकाल में कंगना रनौत की किसानों पर की गई टिप्पणी हजारों वास्तविक आंदलोनकारियों को आहत करने वाली थीं लेकिन जज्बाती होकर या बदले की भावना से बतौर सुरक्षा कर्मी ड्युटी के दौरान उसके द्वारा एक यात्री पर किया गया कोई भी शाब्दिक या शारीरिक हमला किसी भी कोण से न्यायोचित या क्षम्य नहीं हो सकता. यदि इन कसौटियों पर देखा जाए तो कुलविंदर कौर का चंडीगढ़ हवाई अड्डे पर कंगना रनौत के साथ किया गया व्यवहार अनुशासनहीनता की श्रेणी में आता है.
@दयाराम वर्मा, जयपुर (राजस्थान) 10.06.2024
कविता: मेरे चले जाने के बाद मेरे चले जाने के बाद बिना जाँच-बिना कमेटी किया निलंबित आरोपी प्रोफ़ेसर-तत्काल करेंगे हर संभव सहयोग-कह रहे थे वि...