कविता: ढाई आखर


निर्विकार-मधुर-सावचेत
दया-करूणा भाव युक्त
दिलों को जीतते
इंसानियत को सींचते शब्द
हृदयवृत्ति-मनोवृत्ति
बदलने में सक्षम हैं शब्द

गुदगुदाते व्यंग्य बाण
हो सकते हैं प्रेम में पगे भी
या व्योम छूते अध्यात्म का
भक्तिरस में आकंठ शब्द
ममत्व-मंगल्य-मुदित
स्नेहिल धागों का इंद्रधनुषी संसार
है शब्द

देशप्रेम से ओतप्रोत
दुशमन को ललकारते
ओजस्वी शब्द
स्वर लहरियों पर हुलसित
राग-रागिनी हैं शब्द
सप्त स्वरों का गुंजन भी
मधुर मिलन लय-स्वर शब्द

सार्थक या निरर्थक
अर्थपूर्ण या अर्थहीन
रूढ-यौगिक-योगरूढ शब्द
तत्सम-तद्भव-देशज
या विदेशज शब्द
बिग बैंग की व्युत्पत्ति
सृष्टि का अनहद नाद है शब्द

विचार विमर्श तर्क वितर्क
सीमा में हैं मर्यादित
अतिकृत हुए तो
हुए अनिष्ट संहर्ता शब्द

शब्द अपशब्द भी होते हैं
आत्मसम्मान बींधते
दिलों की-रिश्तों की-समाज की
समुदायों की-देश की
नीवों में रेंगते
सर्वस्व चटकाते-भटकाते 
भ्रामक आवारा शब्द

लिपि से लिखावट से
लहजे से वेश से भेष से
खान से पान से
नाम से काम से
यह हमारा वह तुम्हारा
बाँटते-परिभाषित करते
राजनीतिक व्याकरण से इतर

किसी की आँखों में झाँकना
और डूबकर बाँचना
ढाई आखर
प्रेम इश्क प्यार के शब्द


@ दयाराम वर्मा- जयपुर 27.09.2023

प्रकाशन: 
1. भोपाल से प्रकाशित होने वाली मासिक हिंदी साहित्यिक पत्रिका- अक्षरा के अप्रैल, 2025 के अंक में 'कलम की अभिलाषा' और तीन अन्य कविताओं के साथ प्रकाशित 
2. राजस्थान साहित्य अकादमी की मुख पत्रिका मधुमती के दिसंबर-2024 के अंक में 6 अन्य कविताओं के साथ प्रकाशन





 

लघुकथा शोध केंद्र समिति, भोपाल (म.प्र.) द्वारा महिमा शुभ निलय फेज-२ जयपुर में दिनांक 17.09.2023 को आयोजित साहित्य समागम एवम् अभिनंदन समारोह


लथुकथा शोध केंद्र भोपाल की निदेशक आदरणीय कांता रॉय दीप प्रज्ज्वलित कर कार्यक्रम का शुभारंभ करते हुए

लथुकथा शोध केंद्र भोपाल द्वारा अभिनंदन, साथ में आदरणीय प्रबोध गोविल और आदरणीय डॉ. सुरेश पटवा



भोपाल से साहित्यिक और पारिवारिक मित्र आदरणीय गोकुल जी को जब दिनांक 17.09.2023 को अपने नए आवास पर आयोजित सेवानिवृत्ति समारोह के लिए आमंत्रित किया तो उनकी ओर से सुझाव आया कि क्यों न इसी कार्यक्रम के साथ एक साहित्यिक कार्यक्रम भी रख लिया जाए. गोकुल जी वर्तमान में लघुकथा शोध केंद्र, भोपाल के उपाध्यक्ष होने के साथ-साथ मध्य प्रदेश लेखक संघ के कार्यकारिणी सदस्य, पत्रिका देवभारती के संपादकीय सदस्य एवम् मासिक पत्रिका ‘लघुकथा वृत्त’ के उप संपादक हैं. चर्चा आगे बढी और लघुकथा शोध केंद्र, भोपाल की निदेशक आदरणीय श्रीमती कांता रॉय और सचित आदरणीय घनश्याम मैथिल ‘अमृत’ ने भी सहर्ष इस समारोह के लिए अपनी हाँमी भर दी. संयोग देखिए कि ख्यातलब्ध वरिष्ठ साहित्यकार-पूर्व स.महाप्रबंधक एस.बी.आई. आदरणीय डॉ. सुरेश पटवा जी, 14 सितंबर को हिंदी भाषा शिरोमणि मानद उपाधि और रामरघुनाथ स्मृति सम्मान प्राप्त करने लिए नाथद्वारा में उपस्थित थे. 

जब गोकुल जी ने उनसे चर्चा की तो उन्होंने बिना किसी दूसरे विचार के तुरंत जयपुर की (तत्काल) ट्रेन टिकिट बुक करवा ली और नियत तिथि से एक रोज पूर्व पहुंच कर लघुकथा शोध केंद्र समिति भोपाल के पदाधिकारियों एवम् स्थानिय साहित्यकारों से समन्वय करते हुए इस समारोह की रूपरेखा, बैनर्स आदि को अंतिम रूप दिया. 

अब मेरी जिम्मेवारी थी जयपुर के साहित्यकारों को आमंत्रित करने की. अधिक परिचय नहीं होने के कारण यथा संभव अल्प समय में जिन साहित्यकारों से सम्पर्क हो सका और जो रविवार को उपलब्ध थे उन्हें सादर आमंत्रित किया गया. जयपुर से वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय प्रबोध जी 'गोविल', आदरणीय जग मोहन जी रावत, बोधि प्रकाशन के मालिक और वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय मायामृग जी, वैशाली नगर जयपुर से आदरणीय डॉ. रामावतार शर्मा, व. साहित्यकार आदरणीय शिवानी जी, 'नारी कभी ना हारी-लेखिका साहित्य संस्थान जयपुर' से व. साहित्यकार आदरणीय वीणा जी चौहान और आदरणीय नीलम जी सपना ने मेरा आमंत्रण स्वीकार किया. तथापि व. साहित्यकार आदरणीय नंद जी भारद्वाज, आदरणीय लोकेश कुमार साहिल एवम् आदरणीय प्रेमचंद जी गांधी अन्य अति आवश्यक कार्यों की वजह से शामिल न हो सके. 

बीकानेर से सुप्रसिद्ध कवयित्री डॉ. चंचला पाठक, पूर्वोत्तर के वृहद साहित्य सृजक फरीदाबाद से आदरणीय विरेंद्र परमार और रावतसर से हास्य व्यंग्य कलाकार, मारवाङी व हिंदी के गीत लेखक, कवि एवम् गायक आदरणीय मदन जी पेंटर ने भी मेरे आग्रह पर अपना अमुल्य समय निकाल कर इस कार्यक्रम की शोभा बढाई. कार्यक्रम की अध्यक्षता वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रबोध गोविल जी ने की. कार्यक्रम की मुख्य अतिथि श्रीमती कांता रॉय और विशिष्ठ अतिथि श्री सुरेश पटवा एवम् श्री गोकुल सोनी थे. मंच संचालन श्री घनश्याम मैथिल अमृत ने किया. लगभग सोलह साहित्यकारों ने कविताएं, गीत, ग़ज़ल, लघुकथाएं और व्यंग्य प्रस्तुत कर इस 'साहित्य समागम' को एक अविस्मरणीय कार्यक्रम बना दिया.

लघुकथा शोध केंद्र समिति भोपाल के सदप्रयासों और मध्यप्रदेश, हरियाणा एवम् राजस्थान से पधारे वरिष्ठ साहित्यकारों की सहभातिता से सेवानिवृत्ति के इस समारोह को एक साहित्यिक क्लेवर मिला. और समारोह पूर्वक अभिनंदना करते हुए जिस प्रकार भोपाल के साहित्यिक मित्रों ने मुझ अकिंचन को गौरवांवित किया, उसका आभार व्यक्त करने के मैं नि:शब्द हूँ. इस अवसर पर दो अभिनव प्रयोग हुए, प्रथम- मैंने सभी मेहमानों से आग्रह किया था कि किसी भी प्रकार के उपहार न लाएं, और यदि बहुत ही आवश्यक समझें तो पुस्तकें भेंट कर दें. मुझे खुशी है कि मेरे इस आग्रह पर अमल करते हुए अधिकांश मेहमानों ने विभिन्न विषयों पर चुनिंदा पुस्तकें भेंट की. यदि खुशी के समारोहों में इस प्रकार की परम्परा को जारी रखा जाए तो यह साहित्यकारों और साहित्य के प्रति अत्यंत सुखद एवम् प्रोत्साहन करने वाला कदम हो सकता है. द्वितीय- अभिनव प्रयोग आदरणीय गोकुल जी और कांता जी के सद्प्रयासों और प्रेरणा से हुआ- यानि कि व्यक्तिगत खुशी के एक समारोह को एक साहित्यिक कार्यक्रम व साहित्यकारों से जोङने का. कार्यक्रम के अध्यक्ष आदरणीय प्रबोध जी गोविल ने अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में इस बात को रेखांकित करते हुए इसे एक सकारात्मक पहल बताया. उम्मीद है महिमा शुभनिलय के प्रांगण में आयोजित इस प्रथम साहित्यिक समागम से भोपाल और जयपुर के साहित्यिक रिश्तों के एक नए युग का सुत्रपात होगा. सभी साहित्यकारों का तहेदिल धन्यवाद-आभार- शुक्रिया.

डॉ. सुरेश पटवा के साथ  

बाँए से, श्री गोकुल सोनी, श्रीमती कांता राय, श्री घनश्याम मैथिल, डॉ. विरेंद्र परमार,
डॉ. सुरेश पटवा और श्री दयाराम वर्मा

श्री मदन गोपाल 'पेंटर' गीत प्रस्तुत करते हुए

श्रीमती शिवानी जी रचना पाठ करते हुए

श्री मायामृग जी अपनी काव्य प्रस्तुति देते हुए

डॉ. चंचला पाठक गीत प्रस्तुत करते हुए

डॉ. विरेंद्र परमार व्यंग्य प्रस्तुत करते हुए

मंच संचालक श्री घनश्याम मैथिल 'अमृत'

डॉ. रामावतार शर्मा का स्वागत करते हुए श्री गोकुल सोनी

श्रीमती कांता राय अपना उदबोधन देते हुए


श्रीमती नीलम कुमारी सपना, श्रीमती वीणा चौहान और श्रीमती कांता रॉय

श्री प्रबोध गोविल, श्रीमती नीलम कुमारी सपना का स्वागत करते हुए

श्री प्रबोध कुमार गोविल, अध्यक्षीय उद्बोधन 

श्री जे. एम. रावत का स्वागत करते हुए श्री गोकुल सोनी








    कविता: जॉम्बी


जब तुम सुनते हो
केवल अपने मन की बात
दिन रात
छद्म[1] प्रचार-मचानों पर
कैटवॉक करते शातिर विचार-पुंज![2]

कथा-वृत्त[3], प्रति कथा-वृत्त
उतर जाते हैं
तुम्हारे दिलो-दिमाग में
फैल जाते हैं नस-नस में
घुल जाते हैं खून में
तुम नहीं सुन पाते!

चक्रवत पसरी रेंगती दरिद्रता
महसूस नहीं कर पाते
नस्लवाद, जातिवाद संतप्त[4]
रूहों की घुटन!

उद्वाचन[5] नहीं कर पाते
बेरोजगारी, मंहगाई, घोटाले
भ्रष्टाचार
धार्मिक उन्माद
शासकीय बहरापन, राजसी हठधर्मिता![6]

तुम नहीं देख पाते
दिन दहाङे लुटते-नुचते तन-बदन
धधकती इमारतें
पलभर में भस्मीभूत
जीवन-पर्यंत संचित सपने!

तुम महसूस नहीं कर पाते
जिंदा जलते
इंसानी जिस्मों की गंध
और नहीं सुन पाते
शरणार्थी शिविरों से उठती सिसकियाँ!

खङी है जस्टीसिया[7]
खुले नैत्र, बंद दृष्टि, मूक जबान
तलवार है परंतु धार नहीं
पलङे दोनों तराजू के, समभार नहीं
कर सके निर्णय ठोस, वह विवेकाधिकार नहीं!

और
क्योंकि तुम सुनते हो
केवल और केवल अपने मन की बात
तो! ऐसा कौनसा पहाङ टूट पङा
जॉम्बी[8] के ड्राईंगरूम में
सब न्यायोचित है!

(c) दयाराम वर्मा, जयपुर 

[1] छद्म: मिथ्या-झूठे
[2] विचार-पुंज: मन में उठने वाली बातों या भावनाओं का समूह
[3] कथावृत्त- नेरेटिव्ज, प्रति कथा-वृत्त: एंटी नेरेटिव्ज
[4] संतप्त: (से) उदास, दुखी
[5] उद्वाचन: सांकेतिक शब्दों का अर्थ समझना
[6] हठधर्मिता: कट्टरता
[7] जस्टीसिया: प्राचीन रोम में न्याय की देवी को जस्टीसिया कहा गया है, जिनके एक हाथ में तराजू, दूसरे में दुधारी तलवार है और आंखों पर पट्टी बंधी होती है.
[8]जॉम्बी: एक मृत व्यक्ति के पुनर्जीवन के माध्यम से निर्मित एक (काल्पनिक) भूत-प्रेत, जिसमें इंसान जैसी संवेदनाएं नहीं होती


प्रकाशन विवरण; 
(1) सत्य की मशाल (जून, 2024) 
(2) भोपाल से प्रकाशित होने वाली मासिक हिंदी साहित्यिक पत्रिका- अक्षरा के अप्रैल, 2025 के अंक में 'कलम की अभिलाषा' और तीन अन्य कविताओं के साथ प्रकाशित
(3)  राजस्थान साहित्य अकादमी की मुख पत्रिका मधुमती के दिसंबर-2024 के अंक में 6 अन्य कविताओं के साथ प्रकाशन 



चिंग-तम अमातनि


कविता: चिंग-तम अमातनि



अचानक उसे घेर लिया
एक उन्मादी भीड़ ने
जिसकी आँखो में था खून और
हाथों में थे धारदार हथियार
‘कौन हो तुम?’

वह भीतर तक काँप उठी
रोम-रोम सिहर उठा
थर-थर कांपती हथेलियों ने
पीठ पर लदे शिशु को जकङ लिया
‘माँ.... माँ हूँ मैं’!

‘नहीं! ठीक से बताओ- कौन हो तुम’?
अधिसंख्य भीड़ युवा थी
कम्पित होठों ने साहस जुटाया
‘बहन हूँ...... मैं’ !
भयाकुल आवाज लङखङाने लगी

‘सच-सच बताओ नहीं तो...’
डबडबाई आँखों के सम्मुख मौत नाच उठी
भीङ में था एक वृद्ध भी
उसने देखा– एक आखिरी उम्मीद
‘बेटी हूँ मैं.....’! वह चिल्लाई
अवगुंठित रुदन अश्रु बन बह निकला


‘साली कब से बकवास कर रही है
‘कुकी’ है ये.. थौबल के इस पार
भीङ से शोर उठा

‘मेतई’ है ये…थौबल के उस पर
एक और उन्मादी भीङ
घेरे खङी थी, एक और शिकार


‘नहीं नहीं मैं......’
ह्रदय विदारक चीखें
थौबल के इस पार, थौबल के उस पार
राक्षसी अट्टहास में हो गई तिरोभूत !

भीड टूट पड़ी
एक व्यंजन पर
एक निरीह विजातीय शिकार पर
एक देह -एक स्त्री देह पर!

हरी-भरी घाटियां सिसक उठी
‘थौबल’ का सीना फट पड़ा
अंतिम उच्छवास से पहले
बंद होती आँखों ने, देखा-दूर बहुत दूर
‘थौबल’ के शिखरों पर
चिथङे- चिथङे ‘चिंग-तम अमातनि’!


@ दयाराम वर्मा जयपुर राजस्थान


‘थौबल’: मणिपुर के थौबल जिले की एक पहाङी
‘चिंग-तम अमातनि’: एक नारा जिसका शाब्दिक अर्थ है ‘मणिपुर -घाटी और पहाड़ियों से मिलकर बना है और राज्य के ये दोनों हिस्से कभी अलग नहीं हुए’

Publication: सत्य की मशाल (अगस्त 2024), पी.एन.बी. प्रतिभा (April-Jun 2023)

संस्मरण: बे-टिकट- दिल्ली से मद्रास

 


संस्मरण: बे-टिकट- दिल्ली से मद्रास


मई 1985 में अंबाला वायु सेना स्टेशन से भारतीय वायु सेना में मेरे चयन की अंतिम प्रक्रिया सम्पन हुई। मेरे साथ हरियाणा के यमुनानगर शहर का हरीश महेंद्रु नामक एक और हमउम्र युवक भी था। हमें वायु सेना के भर्ती कार्यालय से सैनिकों को दिए जाने वाले यात्रा वारंट की प्रति और चयन व प्रशिक्षण से संबंधित आवश्यक दस्तावेज़ सौंप दिए गए। रेडियो तकनीशियन की जिस ट्रेड में हमारा चयन हुआ, उस पूरे बैच का कुछ दिन पूर्व ही बंगलौर में प्रशिक्षण आरम्भ हो चुका था, अत: हमें अविलंब रवाना होने के आदेश थे। हमने उसी रोज अंबाला से दिल्ली के लिए ट्रेन पकङ ली। संयोग से हरीश के अग्रज पूर्ण प्रकाश, दिल्ली राजा गार्डन में किसी निजी कम्पनी में नौकरी कर रहे थे, अत: दिल्ली रेलवे स्टेशन से हम सीधे उनके पास ही चले गए।

अगले रोज एक टैक्सी से वे हमें स्टेशन छोङने आए। जब हम निर्धारित प्लेटफ़ार्म पर पहुँचे तो वहाँ मद्रास जाने वाली ‘जी.टी. एक्सप्रेस’ तैयार खङी थी। सभी लम्बी दूरी की गाङियों की भांति, इसमें भी सामान्य दर्जे के दो ही कोच थे। हमने एक कोच में शूरु से आख़िर तक घूम कर देखा लेकिन कहीं जगह नहीं मिली। सामान रखने वाली ऊपर की सीटों पर भी लोग जमे हुए थे। दूसरे कोच का भी यही हाल था। गर्मी बढ़ती जा रही थी और बदन पसीने से तरबतर हो चुके थे।

एक कम्पार्टमेंट में सफ़ेद लुंगी पहने, एक अधेङ मद्रासी व्यक्ति बैठा था। सामान से ठुंसे दो बङे थैले उसके बगल में इस प्रकार रखे हुए थे कि कोई और वहाँ बैठ ना सके। खिङकी के पास आलथी-पालथी मारे, सूती साङी में लिपटी एक महिला, हाथ का पंखा झलने में व्यस्त थीं, सम्भवत उसकी पत्नी थीं! पूर्ण प्रकाश ने निवेदन किया।

“जरा, खिसक कर बैठिए भाई साहब। सामान नीचे रख लो।”

“इध्धर सीट खाली नहीं है। आगे जाओ।”

“आगे-पीछे, सब जगह देख लिया। कहीं जगह नहीं है। जरा बैठने दो।”

“हमारा बच्चा लोग बैटेगा, बोला ना।”

“यह रिजर्व डिब्बा नहीं है। आपने फ़ैल कर कैसे सारी जगह घेर रखी है!”

“ऐ! कैसा बात करता है? मैनर्स नहीं है क्या?”

उसके तल्ख़ जवाब से भाई साहब को भी ताव आ गया। उन्होंने तुरंत थैलों को उठाकर सीट के नीचे धकेल दिया। थोङी सी जगह बनते ही हमने सीट पर क़ब्ज़ा जमा लिया।

“चार आदमी बैठते हैं एक सीट पर। आप दो लोग बैठे हैं। मुझे मैनर्स समझा रहो हो?” भाई साहब का स्वर तेज हो उठा। दोनों के बीच बहस होने लगी। तभी सामने वाली सीट पर बैठे सज्जन बीच बचाव पर उतर आए।

“अय्यो छोङो जी, सबको जाना है। झगङा नहीं करना जी। एक दो स्टेशन के बाद भीङ कम हो जाएगा। बैटो-जी बैटो।” उसने सामने वाले को अपनी भाषा में समझाने वाले अंदाज में गुङ-मुङ, गुङ-मुङ शैली में कुछ कहा। हमारी सीट वाला व्यक्ति कुछ देर तक तमतमाता रहा पर अंतत: शांत हो गया। अब गाङी के छुटने का समय हो चला था।

तभी उसकी पत्नी सुराही में पानी ले आने के लिए आग्रह करने लगी। लेकिन समय कम होने के कारण वह मद्रासी भाई साहब हिम्मत नहीं जुटा पा रहे थे। उन दिनों पानी की बोतलें नहीं मिलती थीं। इसलिए प्रकाश भाई साहब ने आते समय हमारे लिए एक मिट्टी की सुराही खरीद ली थी।

“मैं पानी भर लाता हूँ-सुराही दो।” हरीश से सुराही लेकर वे अभी बाहर जाने को उद्यत हुए ही थे कि जाने क्या सोच कर थोङा रुके और मद्रासी सज्जन से बोल उठे, “लाइए, आपकी सुराही भी दीजिए”। इस अप्रत्याशित सद्भावना से हतप्रभ मद्रासी व्यक्ति तुरंत कुछ कह नहीं पाया। उसी समय गार्ड की सीटी बजने लगी। अब प्रकाश भाई साहब ने लगभग छीनते हुए उनसे सुराही ली और कोच के बाहर दौङ पङे।

हम एक दूसरे को देख रहे थे-मद्रासी सज्जन मुँह बाए कभी हमें कभी अपनी पत्नी को देख रहा था। बाहर खङे लोग तेजी से कोच में चढ़ने लगे। गाङी रवाना होने ही वाली थी। हरीश तेजी से गेट की ओर लपका। उसके पीछे-पीछे मद्रासी भी भागा। गाङी धीरे-धीरे खिसकने लगी थी। मैंने खिङकी से झांक कर देखा- भाई साहब दोनों सुराहियाँ अपने हाथों में लटकाए दौङते हुए कोच की तरफ़ आ रहे थे। जैसे-तैसे वे गेट तक आने में सफ़ल हो गए और हरीश व मद्रासी सज्जन ने सही सलामत उनके हाथों से सुराहियाँ थाम लीं। ट्रेन अब गति पकङ चुकी थी। प्लेटफ़ार्म पर खङे पूर्ण प्रकाश भाई साहब हाथ हिलाते हुए शीघ्र ही हमारी नजरों से ओझल हो गए।

हमारे सामने की सीट पर तीन बच्चों व बीवी सहित वही बीच-बचाव करवाने वाले सज्जन विराजित थे। ऊपर की सीटों पर भी दो-दो युवकों ने अपने बैठने का जुगाङ बना रखा था। बाईं ओर की एकल सीटों में से एक पर पैंट-शर्ट पहने एक बाबू सरीखा युवक, छोटे गोल ग्लास वाली चश्मा से लगातार खिङकी से बाहर नजरें गङाए बैठा था। दूसरी एकल सीट पर मटमैली धोती-कुर्ता पहने, खिचङी बालों वाला एक कृशकाय वृद्ध था।

गाङी हजरत निजामुद्दीन से होते हुए दिल्ली की घनी आबादी को पीछे छोङ जब खुले में आई तो बाहर की साफ़ आबोहवा से काफ़ी राहत मिली। मेरे और हरीश के लिए यह जीवन का पहला सबसे लम्बा सफ़र था। पहली बार हम भारत के विभिन्न बङे शहरों से गुजरने वाले थे।

सामने वाले सज्जन ने हमसे बातचीत शुरु की। हम कौन हैं, कहाँ जा रहे हैं? जब उन्हें पता चला कि हम दोनों बंगलौर वायु सेना में प्रशिक्षण के लिए जा रहे हैं तो वह बोल उठा, “बेंगलुरू! वेरी नाइस सीटी। आप लोग इंजाय करेगा।” वह स्वयं मद्रास के नज़दीक किसी छोटे कस्बे से ताल्लुक रखता था। उसके लम्बे चौङे नाम का अंतिम शब्द ‘राव’ ही मेरे पल्ले पङा। हमारे बगल वाले भाई साहब के मिज़ाज भी अब नरम थे। वह भी वार्तालाप में शामिल हो गए। इनका नाम था सुंदरम। आपसी बातचीत से जल्द ही हम सब के बीच सौहार्द स्थापित हो गया। उनकी अंग्रेजी मिश्रित टूटी-फ़ूटी हिन्दी सुनने का अलग ही अनुभव और आन्नद था।

आगरा के पश्चात, चम्बल के बीहङ प्रारम्भ हो गए। दूर-दूर तक मिट्टी के उबङ-खाबङ पहाङ! उनमें भूलभुलैया सी टेढ़ी-मेढ़ी रेतीली पगडंडियाँ। छोटी-छोटी अर्द्ध-झुलसित झाङियाँ। कहीं-कहीं छोटे आकार के रुखे-सूखे पेङ। मीलों तक फ़ैले इस वीरान बीहङ की गहरी खाई और पानी के कटाव से निर्मित मिट्टी की कुदरती कलाकृतियों को देखकर मैं अवाक् था।

आगरा के बाद अगला स्टेशन था झांसी, जहाँ गाङी कुछ देर के लिए रुकी। मैं खाने-पीने का सामान लेने नीचे उतरा। नज़दीक के एक टी-स्टाल पर ख़ासा भीङ थी। उसी भीङ में घुसकर मैंने कुछ सामान खरीदा। कोच में लौटा तो देखा, हमारे सामने वाली ऊपर की सीट पर हरीश बिस्तर बंद फ़ैला रहा था। यहाँ पर बैठे दोनों लङके झांसी उतर गए थे। यह अच्छा ही हुआ, हमारे लेटने की व्यवस्था हो गई। झांसी से रवाना हुए अभी पंद्रह-बीस मिनट ही बीते होंगे कि अनायास मेरा हाथ पैंट की पिछली जेब पर चला गया। यह क्या? जेब तो खाली थी। मैं घबरा उठा, इसमें तो ट्रेन की टिकट थीं। तुरंत मैंने अपनी दूसरी जेब टटोली, टिकट वहाँ भी नहीं थी।

“हरीश, क्या ट्रेन की टिकट तुम्हारे पास है?” उद्वेलित स्वर में मैंने हरीश से पूछा। हरीश ने करवट लेते हुए नीचे देखा और सहजता से कहा।

“नहीं। टिकट तो तुम्हारे पास ही हैं।”

“हाँ, मगर, मिल नहीं रही। जरा अपनी जेबें चैक करो तो।”

“मुझे अच्छी तरह याद है, अंबाला, एम.सी.ओ. से वारंट के बदले टिकट लेकर तुमने रख ली थीं।” वह ठीक ही तो कह रहा था। हो न हो जब मैं झांसी के प्लेटफ़ार्म पर उतरा था तो भीङ में किसी ने जेब से पैसे या पर्स समझ कर हाथ साफ़ कर दिया होगा। मेरा दिल बैठने लगा।

फ़िर हम दोनों ने बार-बार अपनी पैंट और शर्ट्स की जेबें टटोलीं, शायद किसी कोने में छुपी टिकट मिल जाए! बैग और बिस्तर बंद खंगाले। कम्पार्टमेंट की सीटों के नीचे, टॉयलेट में, हर जगह छान मारी, लेकिन परिणाम -शून्य। हम घबरा उठे। बिना टिकट यदि पकङे गए तो क्या होगा? दोनों के पास कुल मिलाकर चार-पाँच सौ रूपये रहे होंगे, इतने में तो जुर्माना भी नहीं भर पाएंगे! राव ने हमें परेशान देखकर कहा “डोंट वरी, टी.टी. को अपना डिफेंस का लैटर दिखा देना। बोलना टिकट पिक पॉकेट हो गया।”

लेकिन हम जानते थे कि इससे कोई बात नहीं बनने वाली थी।

“तम्पि! लिसेन, अबी नेक्स्ट स्टेशन भोपाल है, उससे पहले कोई टी. टी. नहीं आ सकता। बहुत टाइम है, अब तुम लोग रेस्ट करो।” सुंदरम ने भी हमें दिलासा दी। यह अच्छी बात थी कि हमारा कोच अन्य कोचों से इंटर-कनेक्टेड नहीं था। इस कारण ट्रेन के किसी स्टेशन पर ठहरने से पहले टी.टी.ई. के आने की सम्भावना नहीं थी।

हमारे पास कोई और चारा भी नहीं था। गाङी अपने गंतव्य की ओर सरपट दौङी जा रही थी। धीरे-धीरे रात गहराने लगी। नींद से परेशान राव के बच्चे एक दूसरे के ऊपर उल्टे-सीधे गिर रहे थे। यह देख मैंने राव से कहा। “राव साहब, बच्चों को ऊपर सुला दो, हम नीचे बैठ जाएंगे।”

“नहीं, आप को तकलीफ़ होगा।” लेकिन थोङी ना-नुकुर के बाद उसने हमारी बात मान ली। मध्य रात्री के बाद, गाङी भोपाल स्टेशन पर रुकी। हम दोनों सावधानी से प्लेटफ़ार्म पर उतर गए। यद्यपि कोई टी.टी.ई. नहीं आया फिर भी हम गाङी के रवाना होने पर ही कोच में चढ़े।

खुली खिङकियों से प्रवेश कर रही शुद्ध शीतल हवा ने कम्पार्टमेंट में ताजगी भरी ठंडक पैदा कर दी थी। भोपाल के बाद तापमान में सांगोपांग गिरावट थी। उत्तर भारत की असहनीय गर्मी के बरअक्स यहाँ का मौसम अत्यंत खुशगवार था। गाङी अपनी पूरी रफ़्तार से भागी जा रही थी। पटरियों पर पहियों की खटर-पटर का अनवरत लय बद्ध संगीत जारी था। यदा-कदा रात के सन्नाटे को भेदती, इंजन की कर्कश सीटी बज उठती। गाङी के समानांतर, अंधकार में पेङों के काले साये विपरीत दिशा में भागे जा रहे थे। कभी किसी नदी का पुल तो कभी कोई छोटा स्टेशन पलक झपकते ही पार हो जाता। रात गुजरती जा रही थी। फिर कब गहरी नींद ने हमें आ घेरा, पता ही नहीं चला।

अचानक मेरी नींद खुली। सुंदरम मुझे झिंझोङ रहा था। गाङी किसी स्टेशन पर खङी थी। पर्याप्त उजाला फ़ैल चुका था। चाय- नाश्ते की आवाज लगाते हॉकर्स इधर-उधर दौङ रहे थे। “उटो, उटो! जल्दी!” सुंदरम व्यग्रता से हम दोनों के कंधे हिला रहा था।

“क्या हुआ?” मैंने आँखें मलते हुए पूछा।

“टी.टी. इथर लेफ़्ट साइड से घुसा है, तुम लोग दूसरा गेट से बाहर जाओ, फ़ास्ट!” हमारी आलस भरी नींद फ़ौरन काफ़ूर हो गई, और लगभग भागते हुए से हम दाहिनी ओर के गेट से कूद कर प्लेटफ़ार्म पर आ गए। अब देखा, वाकई काला कोट पहने एक टी.टी.ई. कोच में टिकट चैक कर रहा था। हम बाल-बाल बचे! यह नागपुर स्टेशन था। यानी हम महाराष्ट्र में पहुँच चुके थे। सुबह के आठ बज रहे थे, इस लिहाज़ से गाङी लेट चल रही थी। हमने इत्मिनान से चाय नाश्ता किया। जब गार्ड ने हरी झंडी हिलाते हुए सीटी बजानी शुरु की तो टी.टी.ई. कोच से नीचे उतर गया और आगे बढ़ गया। हमने मुस्करा कर एक दूसरे को विजयी भाव से देखा और कोच में लौट आए। कल टिकट खोने के बाद से हमारे चेहरों पर यह पहली मुस्कान थी।

“थैंक्स, सुंदरम साहब!” हरीश ने कृतज्ञता जताई।

“इट्स ओके, इट्स ओके, हमको ठीक टाइम पर पता चल गया, नहीं तो प्रोब्लेम हो सकता था।”

नागपुर के बाद अगला बङा स्टेशन आंध्रप्रदेश का वारांगल था। यदि गाङी कहीं और न रूकी तो हमारे पास चैन से बैठने के लिए कई घंटे थे। अब राव, सुंदरम और उसकी फ़ैमिली से हम घुल मिल चुके थे। दोनों ओर, जहाँ तक नजर जा रही थी, शाक-सब्जियों और फ़सलों से लहलहाते खेत ही खेत थे। यहाँ का मौसम और भी अधिक सुहावना था। खुली खिङकियों से ताजी हवा अंदर भागी आ रही थी। बच्चे जी भरकर सोने के बाद नीचे आ बैठे थे, अब हमने ऊपर की सीट पर विश्राम कर लेना उचित समझा। दोपहर के दो बजे के आसपास मेरी आँख खुली।

“कहाँ पहुँचे अन्ना!” मैंने नीचे बैठे सुंदरम से सवाल किया।

“वारांगल चला गया।”

“क्या?” मैं चौंक उठा।

“तुम लोग सो रहा था। आई वाज टेकिंग केयर। टी.टी. इधर आता तो मैं तुम लोग को उठा देता।”

“ओह! थैंक्स-थैंक्स अन्ना।” तमिल में बङे भाई को अन्ना कहते हैं। यह शब्द हमने राव के बच्चों से सीखा, जो हमें बार बार अन्ना कह रहे थे।

“नेक्सट विजयवाङा। एक्कम् इल्लई।”

राव और सुंदरम के सहयोग और लगातार हौसला-अफ़ज़ाई से, बिना अधिक चिंता-फ़िक्र के हमारा शेष सफ़र भी कट गया। अगले दिन, अर्थात 19 मई की सुबह लगभग नौ बजे गाङी मद्रास पहुँची। राव ने हमें प्लेटफ़ार्म टिकट लाकर दीं। और तब हम पूर्ण आत्मविश्वास के साथ प्रस्थान द्वार से बाहर निकले। दो दिन और दो रात तक साथ रहने के बाद दोनों मद्रासी परिवार अपने-अपने रास्ते पर निकल पङे। हमने टिकट खिङकी से टिकट खरीदी और रात्री की गाङी से बंगलौर रवाना हुए। लेकिन इस बार टिकट को हिफ़ाजत से रखने का ज़िम्मा हरीश का था!


@ दयाराम वर्मा, जयपुर (राजस्थान)

Publication: सत्य की मशालमासिक साहित्यिक पत्रिका, भोपाल मई, 2023 अंक

पाठकीय प्रतिक्रिया: सियासत (उपन्यास)


समीक्षा: उपन्यास सियासत

लेखक श्री सुरेश कांत 
प्रकाशक ‘प्रलेक प्रकाशन मुंंबई ’ प्रथम संस्करण - फरवरी 2022, 
मूल्य (पेपर बैक) रू. 299/-



राजस्थान की सामंती पृष्ठभूमि पर अनेक सशक्त उपन्यास लिखने वाले स्व. यादवेंद्र शर्मा ‘चंद्र’ की एक रचना है ‘राजमहल की रंगरलियाँ’. इसका प्रथम संस्करण सन 1983 में प्रकाशित हुआ था. काल्पनिक सियासत ‘सामेर’ के महाराजा, दीवान और बडारन की मुख्य भूमिका के इर्द-गिर्द, राजमहल में पल्लवित अनैतिक संबंध, भोग-विलास, नारी-शोषण, उच्छृंखल यौनाचार, छुद्र राजनीति, षङयंत्रो व अंतरकलहों का यह एक बेबाक आख्यान है.

बाहरी तौर पर पटरानी के अतिरिक्त अनेक रानियों और डावङियों की लम्बी फ़ौज महाराज की आन-बान और शान का प्रतीक होती होंगी लेकिन भीतर का सच तो कुछ और था. अतृप्त और असंयमित वासनाओं का ज्वर, न केवल सामेर सियासत को अपने ताप में झुलसाता है बल्कि राज परिवार के वंशजों को भी एक के बाद एक भस्म कर डालता है.

इस उपन्यास में लेखक ने एक बहुत ही ह्रदयविदारक घटना का जिक्र किया है. एक बार राजवी ठाकुर चेतसिंह के सम्मान में ढोलनियों के नृत्य का आयोजन रखा गया. लेकिन उनके कुनबे में किसी जवान स्त्री की मृत्यु के शोक में ढोलनियों ने मना कर दिया. ठाकुर ने इसे अपना अपमान समझा और सैनिकों द्वारा उन गरीब-अबला औरतों को न केवल महल में जबरन लाया गया बल्कि वस्त्रहीन कर नाचने-गाने पर भी विवश किया गया. नशे में धुत, कामांध चेतसिंह ने उनमें से एक किशोरी की इज्जत से खिलवाङ करना चाहा, तब किशोरी के विरोध करने पर उस नर-पिचाश ने उसकी टांगों को चीर कर उसे मार डाला. कितना पाश्विक, कितना विभत्स कुकृत्य और कितनी दर्दभरी मौत! 

जिस सियासत के महाराजा में कोई नैतिकता और संयम न हो तो उसके सामंत, सिपहसलार, कामदार, अधिकारी या प्रजा से इन मूल्यों की क्या अपेक्षा की जा सकती है. लेकिन ऐसे राज्य में शोषण और प्रताणना की सबसे अधिक शिकार तो नारी ही बनती है चाहे शोषण शारीरिक हो, मानसिक हो या आत्मिक!

हाल ही में सामंती पृष्ठभूमि पर एक और उपन्यास पढ़ने को मिला, ‘सियासत’ जिसे लिखा है, भारतीय स्टेट बैंक के भूतपूर्व उप-महाप्रबंधक और वरिष्ठ साहित्यकार, श्री सुरेश कांत जी ने. आजादी से पूर्व सन 1909 से लेकर आजादी के बाद के पहले आम चुनाव के बीच, उत्तर भारत की एक छोटी सी सियासत ‘गढ़ी मलूक’ को केंद्र में रखते हुए यह उपन्यास, वहाँ के अनसुने, अनैतिक भोग-विलास व नारी-शोषण के किस्सों, छुद्र राजनीति, सत्ता के अंतरकलहों एवम् षङयंत्रो को परत-दर-परत अनावृत करता है. कृति की मुख्य शैली वर्णनात्मक है. लेखन ने लगभग एक सदी के इतिहास को इसमें समेटा है, संभवत: इसी कारणवश, कई स्थानों पर कहानी तेज छलांग लगाते हुए कई वर्ष आगे जा पहुँचती है. लेकिन उपन्यास के सभी घटनाक्रम, पात्रों की मनोदशा और संवाद; समय, काल और परिस्थितियों का सधे हुए शब्दों में, सटीक व सजीव चित्रण करते हैं. रोचकता और नवीनता से भरपूर हर अनुच्छेद, विस्तृत अंतर्वस्तु समेटे, लगातार पाठकीय कौतुहल बनाए रखने में सक्षम हैं.

गढ़ी मलूक के नवाब के शौक, अय्यासियां, निष्ठुरता, अदूर्दर्शिता, मक्कारियां, गर्ज यह कि हर तरह की बुराई जो सोची जा सकती है-और जो सोची नहीं जा सकती, सब पूर्ण विविधता, विशिष्टता और रोचकता के साथ ‘सियासत’ में मौजूद हैं. किरदारों के बोलने, सोचने, पहनावे, खाने और अन्य विशेषताओं को लेखक ने इतनी बारीकी से उकेरा है कि शुरु के कुछ पृष्ठ पढने के बाद ही पाठक, चंदर, बङे सरदार, हरख़ू चाचा, बिल्कीस बानो, आयशा बी, रईस मियां आदि किरदारों से घुल मिल जाता है.

यद्यपि उपन्यास में गढ़ी मलूक के बहाने राजप्रासादों में पर्दे के पीछे चलने वाले अनेक उल्टे-सीधे कारनामों का संजीदगी और ईमानदारी से बख़ान है लेकिन जो बात सबसे अधिक विचलित करती है वह है- नवाबों का अय्यासी के लिए सैंकङों औरतों को अपने शाही हरम में रखना. जहाँ सब सुख-सुविधाओं के बावजूद, सोने के पिंजरे में कैद पंक्षी की तरह वे अपने अरमानों, ख्वाहिशों, जरुरतों और जज्बातों को तिल-तिल कर खत्म होते देखती हैं. ऐसे माहौल में रियासत के ख़ास मुलाजिमों के साथ बेगमों के संबंध बनते हैं- बिगङते हैं. बदनामी और जान के भय से अवैध, अवांछित संतानों को बेरहमी से मार दिया जाता है.

देश में अकाल पङता है, लेकिन नवाबों के खर्चों में, भोग-विलासिता व दावतों में कहीं कोई कमी नहीं होती; आम जनता अपना पेट काटकर बदस्तूर लगान देने पर विवश है. ललकारने और लोहा लेने की बजाय, नैतिक साहस-विहीन नवाब, रियाया को नोंचने-खसोटने और अंगरेजी हुकूमत की खुशामदी में लगे रहते हैं. फिर देश के बंटवारे के बाद वह दौर भी आता है, जब छोटी-बङी रियासतों का विलीनिकरण हो जाता है. राजाओं-नवाबों को प्रीवी पर्स मिलता है. गढ़ी मलूक का भी यही अंजाम होता है, लेकिन वहाँ के नए वारिस अब भी अपने आप को नवाब ही समझते हैं- उनके शौक, दावतें, शराब और शबाब, व रंगरलियाँ बदस्तुर जारी रहती हैं. हुकूमत और दौलत का नशा आसानी से नहीं उतरता, इस बात को लेखक ने नए नवाब रईस मीयां और हफ़ीज मीयां की कारगुजारियों के जरिए बखूबी स्थापित किया है.

ऐसे माहौल में चंदर भी भला कब तक पाक-साफ़ रहता. एक घटना उसे भी आयशा बी के साथ दिली तौर पर ही नहीं जिस्मानी तौर भी जोङ देती है, लेकिन गढ़ी मलूक के साथ वफ़ादारी की खुद की खींची लकीरों को वह कभी लांघ नहीं पाता और जब लांघने की सोचता है तब तक बहुत देर हो चुकी होती है. नईमा जैसी एक और शख़्सियत उसकी और गढ़ी मलूक की जिंदगी में दाख़िल होती है लेकिन यहाँ स्वयं नईमा के सिद्धांत दोनों के बीच कभी न पट सकने वाली खाई बन जाते हैं.

कुल मिलाकर, यह कृति नवाबी युग की उन कङवी सच्चाइयों और ओछी मानसिकता को बेपर्दा करती हैं, जो दर्शाती हैं कि आम जनता के माली हालात, शिक्षा, स्वास्थ्य, आधारभूत विकास आदि शासकों के शब्दकोष में होते ही नहीं थे. राजशाही में कामी राजाओं के लिए औरतों का वजूद, किसी खिलौने से अधिक न था. यह कहना भी अतिशयोक्ति न होगा कि ऐसे राजा और नवाब देश को अंगरेजी दासता के गर्त में ढकेलने के लिए बहुत हद तक उत्तरदायी थे.गढ़ी मलूक के संवेदनशील पात्रों के जरिए, समकालीन हिन्दी साहित्यकार, व्यंग्यकार, उपन्यासकार, नाटककार, कथाकार, लेखक, अनुवादक तथा प्रबन्धन गुरु श्री सुरेश कांत की सधी हुई कलम से निकली, नि:संदेह यह एक पठनीय और संग्रहणीय, कालजयी कृति है.

@ समीक्षक: दयाराम वर्मा, जयपुर (राजस्थान) 

प्रकाशन विवरण - प्रतिभा तिमाही पत्रिका पंजाब नेशनल बैंक अंक जनवरी-मार्च, 2024


श्री सुरेश कांत 
सेवा निवृत्त उप महाप्रबंधक (राजभाषा) भारतीय स्टेट बैंक

श्री सुरेश कांत हिंदी भाषा के समकालीन उपन्यासकार, सम्पादक एवं कुशल लेखक हैं। सुरेश कांत विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में अब तक 500 से अधिक रचनाओं के प्रकाशन के अलावा हिंदी के अग्रणी पुस्तक-प्रकाशकों द्वारा 50 से अधिक पुस्तकों की रचना कर चुके हैं। आप चर्चित वक्ता हैं और विभिन्न बैंकों, कार्यालयों, प्रशिक्षण-संस्थानों, विश्वविद्यालयों आदि द्वारा आयोजित सम्मेलनों, संगोष्ठियों, कार्यशालाओं आदि में हिंदी भाषा और साहित्य, राजभाषा, बैंकिंग, वित्त और प्रबंधन पर सैकड़ों व्याख्यान दे चुके हैं।

इनका जन्म 16 जून, 1956 को गाँव करौदा-हाथी, मुज़फ़्फ़रनगर ज़िला, उत्तर प्रदेश में हुआ था। श्री सुरेश कांत ने दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली से प्रथम श्रेणी में बी.ए. ऑनर्स (हिंदी) और एम.ए. (हिंदी) किया। इसके बाद राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर से पत्रकारिता में स्नातकोत्तर डिप्लोमा किया और "हिंदी गद्य-लेखन में व्यंग्य और विचार" विषय पर पीएच.डी. की, तत्पश्चात आपने ‘प्राचीन भारत में बैंकिंग-शब्दावली का स्वरूप’ विषय पर डी.लिट. की डिग्री ली।








समीक्षा: सारे बगुले संत हो गए (व्यंग्य संंग्रह)

समीक्षा: सारे बगुले संत हो गए (व्यंग्य संंग्रह) 

लेखक: श्री गोकुल सोनी, प्रकाशक: पहले पहल प्रकाशन भोपाल 
प्रथम संस्करण वर्ष- 2017 मूल्य (पेपर बैक- रू. 193/-, साजिल्द रू. 250/-)


भोजन में जो स्थान अचार और सलाद का है वही साहित्य में व्यंग्य का है। भोजन चाहे जैसा हो, लेकिन खुशबूदार, खट्टा मीठा, तीखा अचार और ताजा-ताजा कच्चा सलाद न हो तो भोजन फीका-फीका लगता है। ‘सारे बगुले संत हो गए’ काव्य संग्रह गोकुल जी के पैनी धार वाले व्यंग्य बाणों का, समाज की विसंगतियों पर प्रखर और अचूक निशाना है। इस काव्य संग्रह की बहुत सी रचनाएँ इन्होने वर्षों पहले लिखी और वे विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में साया भी होती रही तथापि वे कवितायें आज भी उतनी ही युक्तियुक्त और तर्क संगत हैं।

संग्रह के प्रारम्भ में कवि ने छोटे-छोटे शब्दों का विन्यास कर उनको बड़ी खूबी से व्यंग्य में ढाला है जो किसी शरारती बच्चे द्वारा, पीठ पीछे किए गए पटाखे के अचानक विस्फोट की तरह चौंका देता है। जैसे, 

सुर मिलता है तो स-सुर और बिगड़ता है तो अ-सुर। 
 शादी से पहले अबला और शादी के बाद बला। 
नौकरी लगने से पहले कामना और नौकरी मिलते ही काम- ना।

प्रिय से प्रियतम के परिवर्तन और फिर प्रिय के कहीं खो जाने और सिर्फ तम के शेष रह जाने को देखिये कैसे जोड़ा है,

समय के साथ, बदलती परिभाषा को
वैवाहिक संबंध, अच्छी तरह बताता है
व्यक्ति, शादी के पहले ‘प्रिय’
शादी के बाद ‘प्रियतम’
और बाद में सिर्फ ‘तम’ नजर आता है।

इसी प्रकार एक जगह वे लिखते हैं,

चुनाव जीतने के बाद,
वे इतने खास और ‘भारी’ हो गए
कि क्षेत्र के सारे चोर, उचक्के, गुंडे, बदमाशों
तक के ‘आ-भारी’ हो गये।

वैसे व्यंग केवल उनकी कविता में ही नहीं बल्कि उनके स्वभाव और दिनचर्या में भी रचा बसा है जो कि उनकी बातचीत मेँ स्पष्ट परिलक्षित होता है। जब भी आप उनके साथ होते हैं तो वार्तालाप चाहे किसी भी विषय पर हो, हर दूसरी, तीसरी कड़ी मेँ वे व्यंग का तड़का लगा ही देते हैं। और यही एक व्यंग लेखक की विशिष्टता है जो उसे अन्य विधाओं के लेखकों से अलग करती है।

एक और विशेषता उनकी रचनाओं की यह है कि वे व्यंग्य शैली के बने बनाए रास्तों पर नहीं चलते, वरन जब-तब मुख्य रास्ता छोडकर अनजान, उबड़ खाबड़ पगडंडियों पर चल पड़ते हैं और नए रास्ते गढ़ डालते हैं। विषय चाहे जितना गंभीर हो, उसके अंदर छुपे छल और विरोधाभाष को सहजता और पक्षपात रहित, सरल शब्दों मेँ उजागर कर देना उनकी लेखनी की खूबी है।

एक कविता मेँ बस यात्रा का वर्णन किया है। यात्रियों की मजबूरी को भुनाते बस चालक और गड्ढों भरी सड़क पर हिचकोले खाती, सवारियों से ठूस-ठूस कर भरी बस। ऐसी बस में गंतव्य तक पहुंचना किसी साहसिक कारनामे से कम नहीं। इस कविता का एक पैरा है:

इतने में मेरे दोनों पैर किसी ने जोर से खींचे,
देखा तो एक बच्चा ऊपर था और एक नीचे।
एक सेठ जी खींसे निपोर रहे थे,
विनम्र होकर हाथ जोड़ रहे थे।

बोले साईं पाँच बच्चे तो मैंने बिठा लिए हैं,
बस दो बच्चों को आप बैठा लीजिए
चलती गाड़ी में पुण्य कमा लीजिये।
और सेठ जी के दोनों पुण्य, मेरे ऊपर सवार हो गए
सेठ जी खुशी से गुलजार हो गए

लेकिन इन की बहुत सी कविताओं में सतही हास्य-व्यंग से इतर, दार्शनिक अंदाज भी झलकता है जो कि इनके लेखन को साधारण से विशिष्ट श्रेणी में लाकर खड़ा कर देता है। जैसे कि ‘बच्चा, पोस्टर और मैं’, ’ईसा’, ‘वह लड़की’, ‘सुनो सूरजमुखी’, ‘संघर्षरत वह’, इंसानियत आदि। ऐसी ही एक कविता है- ‘इतिहास’ इस कविता के कुछ अंश निम्न प्रकार है-

इतिहास हर विद्वान की दृष्टि में
एक, गलत बुना गया स्वेटर
करता है पुन: समीक्षा
तलाशता है, नये सिरे से
नये संदर्भ, नये अर्थ
गलत, सही, सही गलत

पर भूल जाता है वह
कि, कितना ही सुंदर
क्यों न बुने
वह नया स्वेटर
अगली पीढ़ी, उसको भी उधेड़ेगी
और गढ़ेगी, एक नया इतिहास
यानि, फिर एक नया स्वेटर

अपने कटाक्ष में इन्होंने होली, दीपावली, दशहरे जैसे पर्वों को भी शामिल किया है। होली तो होली है इन्होंने होली कविता में बड़ी खूबी के साथ दर्शाया है कि होली के विभिन्न लोगों के लिए क्या मायने हैं। जीजा-साली, मजनू और राधा श्याम की होली, सबकी होली के रंग अलग अलग। इसी तरह दिवाली एक पुलिस वाले के लिए क्या मायने रखती है? एक पत्तेबाज, दीपावली को किस नज़रों से देखता है? एक गरीब बच्चा दिवाली पर क्या सपने संजोता है? एक शराबी की दीपावली क्या होती है या फिर वी.आई.पी. लोगों के लिए दीपावली के क्या अर्थ हैं? ‘दिवाली अपनी-अपनी’ नामक कविता में कवि ने बड़ी सफाई से एक ही पर्व पर व्यक्ति विशेष की सोच और नजरिये के विभिन्न आयाम दिखाये हैं।

‘आत्माओं का प्रोजेक्टर’ इनकी लकीर से हटकर एक प्रयोग वादी रचना है, जिसमें एक प्रॉजेक्टर पर अलग अलग लोगों की भटकती हुई आत्माओं का आव्हान किया जाता है। इस कविता का एक पैरा है:-

पर्दे पर अगली आत्मा आई
आते ही कर दिया भाषण शुरू
मैंने कहा आपके तो कंठ में ही लाउडस्पीकर फिट है, वाह गुरु
धाराप्रवाह में बोलती रही वह आत्मा
मुझे याद आ गए परमात्मा
बड़े-बड़े तरक्की के वादे किए

देश की एकता अखंडता को भारी खतरे में बताया
अंत में वही पुराना घिसा पिटा राग सुनाया
बोली हम प्रजातंत्र के रखवाले हैं
भ्रष्टाचार मिटाने वाले हैं
कीमत कुछ भी ले लीजिये
पर अपना अमूल्य वोट
मुझको ही दीजिये

कवि ने इस संग्रह में कुछ बुंदेलखंडी रचनाओं को भी शामिल किया है जिनमें, ‘मंत्री जी दौरे पर आए’ नामक सत्य घटना से उपजा एक बड़ा ही गुदगुदाने वाला व्यंग है।

56 कविताओं के इस संग्रह में कवि ने सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, धार्मिक, नैतिक, शैक्षणिक आदि समाज के सभी क्षेत्रों में व्याप्त दोगलेपन और विरोधाभास को पुरजोर तरीके से उजागर किया है। समाज में चारों और फैली अव्यवस्था, भ्रष्टाचार, लूट आदि पर प्रहार करती ‘सारे बगुले संत हो गए’ जैसी कवितायें, निसंदेह समसामयिक साहित्य की जरूरत भी है और आईना भी। 

समीक्षक @ दयाराम वर्मा, ई-5 कम्फर्ट गार्डन, चूना भट्टी, कोलार रोड, भोपाल 462016 दिनांक 05.11.2017


श्री गोकुल सोनी


Publication-देव भारती भोपाल (जन-मार्च 2019)




यात्रा वृत्तांत: पहाङों की रानी दार्जिलिंग




यद्यपि गर्मी विदाई ले चुकी थी फिर भी कलकत्ता में अत्यधिक आर्द्रता के कारण अब भी मौसम ख़ुशगवार नहीं था. इन्हीं दिनों, अक्टूबर 2011 में सपरिवार हमने दार्जिलिंग भ्रमण का कार्यक्रम बनाया. कलकत्ता से न्यू जलपाईगुङी तक हमने रेलगाङी से यात्रा की. आगे के लिए हमने वहीं से एक टैक्सी किराए पर ली. जलपान और सुबह के जरूरी कार्यों से निवृत्त होने के पश्चात लगभग सात बजे हम न्यू जलपाईगुङी से रवाना हुए.

न्यू जलपाईगुङी से दार्जिलिंग जाने के कई रास्तों में से एक वाया ‘मिरिक’ है. यह रास्ता थोङा लंबा है लेकिन प्राकृतिक दृश्यों से भरपूर होने के कारण हमने इसी को चुना. इस रास्ते से दार्जिलिंग की दूरी लगभग 115 किलोमीटर थी, जो पाँच घंटे में तय होनी थी.

प्रारम्भिक सफ़र समतली भू-भाग पर ही था. बंगाली भाषी स्थानीय टैक्सी ड्राइवर अपने चिर-परिचित मार्ग पर छोटे-बङे गाँव और कस्बों को तेज गति से पार करता जा रहा था. ‘मिरिक’ कस्बे के बाहर एक रेस्तराँ के सामने हमने गाङी रुकवाई. इस कस्बे का नाम लेपचा शब्द ‘मिर-योक’ से पङा है जिसका शाब्दिक अर्थ है, ‘जली हुई आग का स्थान’. यह समुद्र तल से लगभग 4900 फ़ीट की ऊँचाई पर अवस्थित एक छोटा सा सुंदर पहाङी गाँव है. हल्की ठंड के कारण हमने स्वेटर, शाल आदि गर्म कपङे निकाल लिए थे.

हमारे कैमरे की बैटरी ख़राब हो गई थी, और बिना कैमरे के रास्ते के सुंदर दृश्यों की फ़ोटोग्राफ़ी सम्भव नहीं थी. इसलिए हमने कस्बे से बैटरी ख़रीद लेने का मानस बनाया. मिरिक कस्बा और बाज़ार करीब एक किलोमीटर आगे था. कस्बे की ओर जाने वाले मार्ग पर दूर तक फ़ैली सुमेंदु (मिरिक) झील को देख हम पैदल ही चल पङे. मार्ग पर लोगों की हल्की आवा-जाही होने लगी थी.

हमने कस्बे में प्रवेश किया तो बंद दुकानों को देखकर माथा ठनका. पता चला बाज़ार दस बजे के बाद ही खुलता है. अभी नौ ही बजे थे. अन्य कोई विकल्प नहीं था, अत: हम आगे बढ़ते गए. बहुत आगे जाने के बाद एक जनरल-स्टोर खुला मिल गया. दुकानदार साफ़-सफ़ाई कर रहा था, संभवत: यह अभी-अभी खुला था. सौभाग्य से हमें यहाँ वांछित बैटरी मिल गई और हमने राहत की साँस ली. लौटते समय हमने ‘सुमेंदु झील’ के 80 फ़ुट लंबे ‘मेहराब’ पुल के दूसरी ओर देवदार के पेङो और बाँस के झुंडों को नज़दीक से जाकर देखा.

मिरिक से आगे के सफ़र में ऊपर की चढ़ाई शुरू हो गई. सङक के दोनों ओर पहाङी ढलानों पर चाय के ख़ूबसूरत बागान थे. यहाँ ‘तिंगलिंग’ व्यू-पॉइंट से ‘तिंगलिंग’ और आसपास के अन्य चाय बागानों के विहंगम दृश्य हमने कैमरे में कैद किए. पहाङी ढलानों पर कतारबद्ध, चाय के बागान अपनी नैसर्गिक सुंदरता से पहली दृष्टी में ही दर्शक का मन मोह लेते हैं. जैसे-जैसे हम ऊपर जा रहे थे तापमान भी गिरता जा रहा था. कलकत्ते की चिपचिपी गर्मी के बर-'अक्स मौसम की यह तब्दीली बेहद पुर-सुकून थी.

हरी पत्तियों से आच्छादित चाय की झाङियाँ और उनके बीच में पतली-पतली सर्पिल पगडंडियाँ ऐसे प्रतीत हो रही थीं मानो किसी चित्रकार ने एक विशाल कैनवास पर हरे रंगों से बागान चित्रित कर उसे जमीन पर बिछा दिया हो. जैसे-जैसे गाङी चढ़ाई चढती जा रही थी, दूर नीचे घाटी में बस्ती के मकान किसी खिलौने सदृश छोटे होते जा रहे थे.

अब मौसम और सर्द हो चला था. ऊँचाई के साथ-साथ प्राकृतिक ख़ूबसूरती भी बढ़ती जा रही थी. आगे चलकर, हम भारत और नेपाल के बॉर्डर पर स्थित नेपाली चैक-पोस्ट पर आ पहुँचे. सुंदर प्रवेश द्वार पर बङे-बङे अक्षरों में देवनागरी लिपी और नेपाली भाषा में लिखा था ‘नेपाल तपाईको हार्दिक स्वागत गर्दछ’. हम लोग, लगे हाथ विदेशी जमीन छू लेने का लोभ संवरण न कर सके. चैक-पोस्ट पर वर्दीधारी सिपाहियों ने बिना किसी औपचारिकता के हमें अंदर आने दिया. नेपाली लोग छोटे कद लेकिन गठीले बदन के होते हैं. अंदर सङक के दोनों ओर कम ऊँचाई के लाल-पीले रंगो से पुते, तिब्बती शैली जैसे मकान अत्यंत आकर्षक थे. यह सङक नेपाल के पशुपति मार्केट की ओर जा रही थी, जो कि यहाँ से दो किलोमीटर की दूरी पर था. इस समय यहाँ इक्का-दुक्का शैलानियों के अतिरिक्त केवल स्थानीय लोग ही थे. कुछ एक फ़रलांग अंदर जाकर हम लौट आए.

यहाँ से थोङी दूरी पर, एक मोङ के बाद सङक के किनारे, अस्थाई दुकानें सजाए कुछ स्थानीय महिलाएँ नज़र आईं. वे चाय-नाश्ते के अलावा छोटे-छोटे खिलौने और हस्तशिल्प के सामान बेच रही थीं-और जोर जोर से ‘सार, चाय’, ‘सार-चाय’ की आवाज लगा रही थीं. ड्राइवर ने गाङी रोक दी. इतनी ऊँचाई पर और इस ठंडे मौसम में चाय पीने का मज़ा ही कुछ और था. मालूम हुआ कि यह ‘सिमना’ व्यू-पॉइंट है और यहाँ से नेपाल दिखाई पङता है. लेकिन उस ओर की पहाङियों को धुंध के घने बादलों ने ढाँप रखा था, अत: चंद सौ मीटर के बाद सिवाय कोहरे और धुंध के कुछ भी देख पाना सम्भव नहीं था.

सिमना के बाद, घने जंगलों और धुंध के बादलों को चीरते हुए, घुमावदार हिल कार्ट रोड पर गाङी दौङने लगी. सङक के दोनों ओर सैंकङों फ़ुट लंबे, पुराने देवदार (चीङ) और बलूत (शाहबलूत) के पेङ, एक दूसरे से आसमान छूने की जैसे होङ लगा रहे थे. अंतहीन पहाङी शृंखलांओं पर बुरांस (बुरुंश) के सदाबहार पेङों की भी कोई कमी नहीं थी. दार्जिलिंग से 15-20 किलोमीटर पहले एक और शानदार कस्बा आता है- ‘लेपचा जगत’. समुद्र तल से करीब 7000 फ़ुट की ऊँचाई पर स्थित यह एक छोटा सा गाँव है. मुख्य सङक पर ‘लेपचा जगत’ नाम के व्यू-पॉइंट से सदा बर्फ़ से ढँकी, नेपाल-सिक्किम सीमा पर अवस्थित कंचनजंगा चोटी को देखा जा सकता है. हमने कुछ देर रुककर इस दुर्लभ दृश्य को अपनी स्मृतियों में संजोना चाहा, लेकिन पहाङियों पर सर्वत्र बादल डेरा डाले बैठे थे. तथापि यहाँ से पहाङी ढलानों पर धुंध में लिपटे, दूर-दूर तक बसे दार्जिलिंग शहर का नजारा अवश्य देखने को मिल गया.

मुख्य मार्ग से 1.5 किलोमीटर उत्तर की ओर 7900 फ़ुट की ऊँचाई पर ‘घूम रॉक’ व्यू-पॉइंट है, वहाँ से कंचनजंगा एवम उसके सूर्योदय को और भी अच्छी तरह से देखा जा सकता है. दिन के तीन बजने वाले थे, मिरिक में अधिक रुकने के कारण हम अपने तय समय से काफ़ी देरी से चल रहे थे अत: हमने ‘घूम रॉक’ की ओर जाने का विचार त्याग दिया.

अब हम अपने अंतिम लक्ष्य की ओर चल पङे. दार्जिलिंग की औसत ऊँचाई समुद्र तल से 6982 फ़ुट है. इस शब्द की उत्त्पत्ति दो तिब्बती शब्दों, दोर्जे (बज्र) और लिंग (स्थान) से हुई है। इस का अर्थ है ‘बज्र का स्थान’. बज्र धनुष को भी कहते हैं. एक हिल-स्टेशन की सभी खूबियों के अलावा यह अपनी दार्जिलिंग चाय के लिए विश्व विख्यात है.

टैक्सी ड्राइवर ने हमें पहले से आरक्षित होटल में छोङ दिया. यद्यपि इस इलाके में बहुत संकरी गलियाँ थी और बहुत अधिक भीङ-भाङ थी लेकिन होटल के कमरे खुले-खुले, पर्याप्त सफ़ाई और सुविधायुक्त थे. हमने होटल में ही खाना ऑर्डर किया. यहाँ बंगाली भाषी लोगों का बाहुल्य था, लेकिन हिंदी या अंग्रेजी में बातचीत करने में कहीं कोई परेशानी नहीं थी. आज सभी का मूड आराम करने का था और समय भी कम था अत: अगले दिन से हमने स्थानीय भ्रमण के लिए एक टैक्सी किराए पर ले ली.

दूसरे दिन बहुत सवेरे-सवेरे ही ड्राइवर हमें कंचनजंगा चोटी के सूर्योदय को दिखाने के लिए ‘टाइगर हिल्स’ ले गया. रास्ते में पर्यटकों की गाङियों का लंबा काफ़ीला था. काफ़ी इंतजार के बाद हमें कंचनजंघा की चोटियों पर सूर्योदय की हल्की लालीमा दिखाई पङी. इसके बाद हमने जापानी पीस पैगोडा का रुख किया. जापान के एक बौद्ध भिक्षु ने इसे बनवाया था. यह बहुत विशाल और सौम्य है. शहर से लगभग 10 किलोमीटर तलहटी में एक रॉक-गार्डन है. इसकी सजावट और रख-रखाव बहुत अच्छा था. यहाँ पत्थरों को काट कर अलग-अलग स्तर पर बैठने की बैंच बनाई गई हैं. दोपहर भोजन के बाद हम ‘घूम मोनास्ट्री’ देखने निकल पङे. तिब्बती स्थापत्य शैली में निर्मित यह मठ एक आकर्षक दर्शनीय स्थल है. इसके अंदर बुद्ध के जीवन के विभिन्न पहलुओं को दर्शाती चित्रकारी के साथ-साथ विभिन्न लामाओं की भी तस्वीरें देखने को मिलती हैं.

अगले रोज हम ‘पद्माजा नायडु हिमालयन ज़ूलोजिकल पार्क’ देखने पहुँचे. यह देश के प्रमुख ज़ूलोजिकल पार्क में से एक है. क्षैत्रफल की दृष्टि से भी यह बहुत बङा है और सैंकङों जानवरों और पक्षियों की प्रजातियाँ यहाँ देखने को मिलती हैं. हिमालयन काला भालू, हिम तेंदुआ, गोराल जैसे दुर्लभ जानवरों के अलावा, लाल पांडा यहाँ का मुख्य आकर्षण है।

दोपहर बाद हमने ‘नेहरू’ रोड पर स्थित व्यस्त बाज़ार में कुछ ख़रीददारी की. भांति-भांति के रंग-बिरंगे परिधानों, हस्तशिल्प, चमङे के सामान, गर्म कपङे, शाल-स्वेटर, चाय, सजावटी सामान और खिलौनों आदि से दुकाने अटी पङी थीं. भीङ भी ग़ज़ब की थी. ‘बतासिया-लूप’ के नाम से मशहूर एक और बाज़ार है, यहाँ रेलवे ट्रैक पर तिरपाल, चटाई बिछाकर बङे मज़े में लोग सब्ज़ी, खिलौने, गर्म कपङे और खाने-पीने आदि सामान बेच रहे थे. नेरो-गेज की ‘खिलौना ट्रेन’ अत्यंत धीमी गति से खिसकते हुए जब ट्रैक पर आती तो लोग वहाँ से हट जाते और गाङी के निकल जाने पर फिर से अपना धंधा जमा लेते

अगले एक दिन और हमने दार्जिलिंग के आसपास के दर्शनीय स्थलों का भ्रमण किया और फिर वापसी की राह पकङी. सचमुच इस दौरे में एक साथ बहुत कुछ अविस्मरणीय देखने को मिला, जो शायद किसी अन्य हिल स्टेशन पर संभव नहीं था. इसीलिए ही तो दार्जिलिंग को ‘पहाङों की रानी’ कहते हैं.


@ दयाराम वर्मा, जयपुर (राजस्थान) 













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