कविता: अनुकंपा और अभिशाप



शिखर से आया ऐलान
सुन बे छोटे इंसान
हमारे बाग-बगीचे,  खेत-खलिहान
बैंक-बैलेंस, नकदी, सोना, चांदी, खान
शहर-दर-शहर फैले दफ्तर, कारखाने, कारोबार
चमचमाती गाङियां, आभिजात्य[1] सरोकार

भूखंड, बंगले
ऊँची प्रतिष्ठा, ऊँची पहुँच, पद और जात
वंशानुगत पराक्रम, प्रज्ञा, अर्हता और चतुराई
है ईश्वरीय अनुकंपा की निष्पत्ति
जिसकी लाठी उसकी भैंस
शास्त्रीय उपपत्ति[2]!


तुम्हारी संतप्त झुग्गियां
भीङ भरी चाल, संकरी गन्धदूषित गलियां
सर पर तसले, गोबर सने हाथ
भूख, बीमारी, लाचारी, छोङे न साथ
पसीने से तर बदन, मैले कुचले परिधान
हाशिए की जिंदगी, सिसकता आत्माभिमान

हल, हंसिए, हथौड़े
जमीं फोङे, पत्थर तोङे, लोहा मरोङे, रहे निगोङे
छोटी सोच, छोटी समझ, काम और जात
वंशानुगत अज्ञता, अक्षम्यता[3], जड़बुद्धि और प्रमाद
है यह ईश्वरीय अभिशाप
जैसा बोए वैसा काटे
काहे करता प्रलाप!


© दयाराम वर्मा, जयपुर (राज.) 03 सितंबर, 2024


[1] उत्कृष्टता, शालीनता, और उच्च सामाजिक स्तर से संबंधित गुण या अवस्था
[2] किसी तथ्य, सिद्धांत, या विचार को प्रमाणित करने के लिए दी गई तार्किक या वैज्ञानिक व्याख्या
[3] असक्षम


प्रकाशन विवरण: 
(1) जनजातीय चेतना, कला, साहित्य, संस्कृति एवं समाचार के राष्ट्रीय मासिक 'ककसाङ' के 107 वें अंक, फरवरी, 2025 में प्रकाशित. 
(2) भोपाल से प्रकाशित होने वाली मासिक हिंदी साहित्यिक पत्रिका- अक्षरा के अप्रैल, 2025 के अंक में 'कलम की अभिलाषा' और तीन अन्य कविताओं के साथ प्रकाशित 
(3) राजस्थान साहित्य अकादमी की मुख पत्रिका मधुमती के दिसंबर-2024 के अंक में 6 अन्य कविताओं के साथ प्रकाशन



















कविता: झूठ अनंत अपार



सच के आगे स पीछे च
न व्यंजना, न मात्रा, न अलंकार
न फरेब, न चमत्कार
सत्यमेव जयते नानृतम्
यही दर्शन, विश्वास यही आधार!

बिना लाग, बिना लपेट
जो है वही सच, सचमुच कहता है
बदले में होता ट्रोल
लानत, मलामत, ताङना-प्रताड़ना
सब फिर सहता है!

शिल्प में, अभिनय में
है झूठ बेजोङ, बेहद दमदार है
इ के साथ खङी पाई
तिस पर बङे ऊ की मूँछ सजाई
ठ ठसके ज्यूँ सरदार है!

झूठ बहुत खास है
विमर्श में घोलता शहद सी मिठास है
ठग, बेईमान, चोर-उचक्के
मंत्री, संतरी, मांत्रिक या तांत्रिक रखते
इससे उत्कट अभिलाष है!

सच कहूँ तो झूठ
भाववाचक संज्ञा सरूप है
वृत्ति में, राज में, काज में, व्यवहार में
घाट, बाट, हाट, व्यापार में
अगणित बहुरूप हैं!

आश्वासन, भय, भ्रम
कहीं लालच, कहीं जरूरत, कहीं अनाचार
झूठे झांसे में बुलबुल भटकी
सैयाद को समझी रांझे का अवतार
झूठ रूपक अलंकार!

उङे झूठ जब
अफवाहों के पंख लगाए
चंपत चपलु, चतुर सुजान कहलाए
ज्ञानी पपलु, भए मूढ़ अज्ञानी
घर-घर पहुँचे ये कहानी

सच बंधा सीमाओं से
रहता सकुचाता, सिकुङा, मौन
बदले पाला, पहने माला, ओढे दुशाला
राजा, प्रजा करते जैजैकार
झूठ अनंत अपार!


© दयाराम वर्मा, जयपुर (राज.)- 24 अगस्त, 2024



कविता: मनमौजी



राज सिंहासन का
है बङा गजब इकबाल
छल कपट से वोट झपट के
आँख दिखा के लाल!

जो विराजते इस गद्दी पर
बल-बुद्धि माया से
हो जाते मालामाल!

हरखू परखू घुग्गी या हो दौला
मनमौजी भी बन बैठता
हरफनमौला[1]!

खिलाफत में जो बोले
हल्का सा कभी मुँह भी खोले
कलम उसकी कहलाती
दुश्मन प्रायोजित औजार!

विरोधी सुर-स्वर-अक्षर
गुनगुनाने-सुनने-लिखने वाले
समझाते मनमौजी
हैं जयचंद देश के गद्दार!

हो जाए गरचे अपराध
प्रतिकारी प्रतिपक्षी के हाथों
ध्यान-विधान विशेष दिया जाता
घर है अवैध
प्रथम दृष्टया जान लिया जाता!

बिना अपील बिना दलील
सबल-मनमौजी
चपल-बुलडोजर न्याय दिलाता!

सङकों पर जब होते
धरने अनशन विरोध प्रदर्शन
हो जाते दंगे फ़साद
कोई मांगे अभिव्यक्ति की आजादी
मीडिया बोले करते जेहाद!

आंदोलनजीवी या अर्बन नक्सल
जुट जाते लोग चुनिंदा
करे संशय मनमौजी
शामिल इनमें साज़िश-कुनिंदा[2]!



© दयाराम वर्मा, जयपुर (राज.)-10 अगस्त, 2024




[1] हरफनमौला- हर क्षेत्र का जानकार व्यक्ति; अनेक विद्याओं का ज्ञाता और आविष्कारक
[2] साज़िश-कुनिंदा- षड्यंत्री, कुचक्री, साजिश रचने वाला


कविता: जाति कबहूँ न जाती



एक जाति सुशोभित मुख से
एक सजी स्कंध पर
जंघा से भई एक प्रकट
अंतिम पर आया भारी संकट!

बाँध दी गई पाँवों में जैसे जंजीर
लिखा यही था उसकी तकदीर
जाति अब छूटेगी नहीं
कर लो चाहे कोई भी तदबीर!

मिलेगा किसको अधिकार
या करना होगा इंतिज़ार
आएगा किसके हिस्से में तिरस्कार
मुखमंडल-जंघा-स्कंध या पाँव
समझो पैमाने ये चार!

ऊँच नीच की पहचान भी
है बहुत सरल-सटीक
तय हो जाता जन्म से
बामण-खत्री-बनिया-खटीक!

लम्बी मूँछें हरिया की
देख दिमाग भैरू का सटके
घुड़चढ़ी लालू की बालू को खटके!

दलित-आदिवासी गरीब के
मुख पर मूते सरे बाजार
जातीय श्रेष्ठता का बेखौफ अहंकार!

नंगा करते कालिख लगाते
डाल गले में माला जूतों की गाँव घुमाते
बाईसवीं सदी के बोले अखबार
क्या होती मानवता शर्मसार!

मास्साब ने लिखी
बालक ननकू की जात
गाँव चौपाल का हुक्का पूछे
बोळ कुण तेरी पात
रिश्ते नातों को सदा सुहाती
दादी मांगे पोते से-बहू स्व-जाति!

तन-बदन ही नहीं
आत्मा से भी रहती लिपटी
जाति चली संग मुर्दे मरघट तक
बाद तेरहवीं
तस्वीर के बैठक में जा चिपटी!

जाति ने जोङा है या है तोङा
हक़ीक़त सब जानते हैं
नेता लोग यह मर्म पहचानते हैं!

तभी तो
भरी संसद में भी पूछी जाती
इसकी जाति उसकी जाति
जाति कबहूँ न जाती!

© दयाराम वर्मा, जयपुर 06 अगस्त, 2024

विवेचना: विषाक्त बीज 


जहरीला कुकुरमुत्ता-प्रकाशन वर्ष 1938 लेखक अर्नेस्ट हाइमर 

जनवरी 1933 में जर्मनी में यहूदियों की  जनसंख्या 5.23 लाख थी जो कुल जनसंख्या 670 लाख का 1 % से भी कम (0.78%) थी. नाजी पार्टी के आने के बाद बङी संख्या में यहूदी आस पास के देशों में पलायन करने लगेजून 1933 में जर्मनी में इनकी आबादी घटकर 5.05 लाख (0.75%) रह गई. उस समय पङोसी देश पोलैंड में इनकी जनसंख्या 33.35 लाखसोवियत यूनियन में 30.20 लाखलिथुआनिया में 1.68 लाखचेकोस्लोवाकिया में 3.57 लाखऑस्ट्रिया में 1.85 लाखरोमानिया में 7.57 लाखफ्रांस में 3.30 लाख और ब्रिटेन में 3.85 लाख थी. कुल मिलाकर यूरोप में इनकी आबादी 95 लाख थी जो विश्व में कुल यहूदी जनसंख्या का लगभग 60% थी. बहुत से यूरोपीयन देशों में इनकी जनसंख्या का प्रतिशत 4 प्रतिशत या उससे भी अधिक था फिर भी जर्मनी के अलावा किसी भी अन्य देशवासियों को यहूदियों से कोई खतरा नहीं हुआ.

लेकिन नाजियों को लगता था कि यहूदीहमारी संस्कृतिराष्ट्रवादधर्म और व्यवसाय आदि के लिए खतरा है. ऐतिहासिक दृष्टि से देखें तो सन 1933 में नाजियों के उदय से बहुत पहले से ही दोनों समुदायों के बीच अविश्वास और घृणा की चौङी खाई थी. नाजियों ने उस चिंगारी को हवा दी और उसे शोलों में बदल दिया. धार्मिक और नस्लीय कट्टरता सदैव पहले अपने लिए अनुकूल वातावरण तैयार करता है. अख़बारों-पत्र-पत्रिकाओं के जरिएचलचित्र और नाटकों के माध्यम सेराजनैतिक सभाओं-सम्मेलनों आदि में प्रत्येक संभव चैनल के द्वारा अफ़वाहें फैलानाफ़र्जी ख़बरें छापनाझूठे और मनगढ़ंत इल्ज़ाम लगाना और इनका बार-बार दोहराव-एक ऐसी कारगर कूटनीति है जो धीरे-धीरे परवान चढ़ती है. 

एक समय के बादजनमानस के मनोविज्ञान को जकङ कर ये नरेटिव उसके दिल-दिमाग और विचारों पर इस कदर हावी हो जाते हैं कि वह इस विषय के किसी भी सही-गलत या उचित-अनुचित पहलू पर तार्किक रूप से सुननासोचनासमझना और बोलना बंद कर देता है. एक धर्म या नस्ल विशेष के प्रति नफ़रती पूर्वाग्रह उसे एक उन्मादी भीङ में बदल देते हैं. जब कभी इस भीङ को सत्ता का समर्थन हासिल हो जाता है तब यह खुलकर नंगा नाच करने लगती है. नाजियों ने न केवल वयस्क जर्मन आबादी में यहूदी विरोध का जहर छिङका अपितु ऐसा प्रबंध करने की भी कोशिश की कि भावी पीढ़ी के डी.एन.ए. तक में यहूदी नफरत घुस जाए! इसी सोच का परिणाम थी सन 1938 में प्रकाशित एक कार्टून पुस्तक- ‘डेर गिफ्टपिल्ज’ अर्थात 'जहरीला कुकुरमुत्ता'. छोटे बच्चों के मन-मस्तिष्क में इस पुस्तक के जरिए नाजियों ने यहूदी-घृणा को पैवस्त करने का प्रयास किया.  

64-पृष्ठों की इस पुस्तक को वर्ष 1938 में अर्नेस्ट हाइमर ने लिखा. पुस्तक में न केवल नेशनल सोशलिस्ट प्रचार की शैली में लिखे गए पाठ शामिल हैंबल्कि यहूदी-विरोधी चित्र भी शामिल हैं. इस पुस्तक में व्याख्या सहित बहुत से यहूदी विरोधी कार्टून हैं. उदाहरण के तौर परपुस्तक के कवर-पेज पर तोते जैसी नाक और घनी दाढी वाले एक व्यक्ति को कुकुरमुत्ता नुमा टोप पहले दर्शाया गया है. लिखा हैजैसे अक्सर जहरीले कुकुरमुत्ते को खाने योग्य कुकुरमुत्ते से पहचानना मुश्किल होता हैवैसे ही एक यहूदी को धोखेबाज और अपराधी के रूप में पहचानना भी बहुत कठिन होता है.’  पुस्तक में एक डॉक्टर की कहानी है जो जर्मन युवतियों के साथ बदसलूकी करता है. एक यहूदी वकील और व्यापारी की कहानी है जो जर्मन के साथ धोखाधङी करते हैं.  एक कार्टून बतला रहा है कि यहूदी को उसकी छह नंबर की तरह दिखने वाली मुङी हुई नाक से पहचानें! साम्यवाद और यहूदी धर्म के बीच संबंध होने का भी पुस्तक दावा करती है. अंतिम अध्याय में लिखा है कि कोई भी ‘सभ्य यहूदी’ नहीं हो सकता और यहूदी प्रश्न का हल खोजे बिना मानवता का उद्धार नहीं हो सकता. एक जगह लिखा है-इन लोगों (यहूदियों) को देखो! जूओं से भरी दाढ़ी! गंदेउभरे हुए कान….

एक कार्टून में दर्शाया गया है कि एक यहूदी ने कैसे एक जर्मन को उसके खेत से बेदखल कर दिया और प्रतिक्रिया स्वरूप लिखा है –पापाएक दिन जब मेरा खुद का खेत होगातो कोई यहूदी मेरे घर में प्रवेश नहीं करेगा...

एक लघुकथा में एक औरत खेत से लौटते हुए ईसा मसीह की सलीब  के पास रुकती है और अपने बच्चों को समझाती है कि देखो जो यह सलीब पर लटका है वह यहूदियों का सबसे बङा दुश्मन था. उसने यहूदियों की धृष्टता और नीचता की पहचान कर ली थी. एक बार उसने यहूदियों को चर्च से चाबुक मार कर भगा दिया क्योंकि वहाँ वे अपने धन का लेनदेन कर रहे थे. यीशु ने यहूदियों से कहा कि वे सदा से इंसानों के हत्यारे रहे हैंवे शैतान के वंशज हैं और शैतानों की तरह ही एक के बाद दूसरा अपराध करते हुए जीवित रह सकते हैं.

क्योंकि यीशु ने दुनिया को सच्चाई बताईइसलिए यहूदियों ने उसे मार डाला. उन्होंने उसके हाथों और पैरों में कीलें ठोंक दीं और धीरे-धीरे उसका खून बहने दिया. इसी प्रकार से उन्होंने कई अन्य लोगों को भी मार डालाजिन्होंने यहूदियों के बारे में सच कहने का साहस किया…... बच्चोंइन बातों को हमेशा याद रखना. जब भी तुम कोई सलीब देखो तो “गोलगोथा” पर यहूदियों द्वारा की गई भयानक हत्या के बारे में सोचना. याद रखो कि यहूदी शैतान की संतान और मानव हत्यारे हैं.

गोलगोथायेरुशलम शहर के पास स्थित एक जगह का नाम हैमाना जाता है कि यीशु मसीह को उक्त स्थान पर सूली पर लटकाया गया था. यीशु एक यहूदी थे और तत्कालीन रोमन राजा ने उनको सूली की सजा सुनाई. उनके अनुयाई ईसाई कहलाएजर्मन नाजी भी ईसाई धर्म को मानते हैं. कालांतर में नाजियों ने हर यहूदी पर ईशा के हत्यारे का लेबल चिपका दिया.

हिटलर ने प्रथम विश्व युद्ध में जर्मनी की अपमानजनक हार के लिए यहूदी समर्थित तत्कालीन वामपंथी सरकार को जिम्मेवार ठहराया. 1 प्रतिशत से भी कम लोगों की विरोधी राजनैतिक विचारधाराहिटलर के लिए इस हद तक असहनीय हो गई थी कि धरती पर यहूदियों का समूल नाश उसके जीवन का ध्येय बन गया!

समाज की जङों में धर्मांधता या नस्लांधता का जहर डालकर कैसे नफ़रती फसलें तैयार की जाती हैंयह पुस्तक उसका एक बेहतरीन उदाहरण है. यहूदी विरोध की सोच जब जर्मन समाज के खून में समा गई तो हिटलर को अपने मंसूबों को अंजाम देने के लिए अधिक मेहनत नहीं करनी पङी. यहूदियों के खिलाफ कोई भी नफ़रती शगूफाउन्मादी भीङ को हिंसक और पाशविक बनाने के लिए पर्याप्त था. यही रणनीतियही कूटनीति विश्व भर में तानाशाही विचारधारा के लोग आज भी अपना रहे हैं. 

               अब देखिए यह भी कितनी बङी विडंबना है कि जिस होलोकॉस्ट में साठ लाख लोग मारे गए और जिसके लाखों साक्ष्य मौजूद थे, उसके बारे में नाजी विचारों के समर्थक और हिटलर से सहानुभूति रखने वाले लोगों ने कहना शुरू कर दिया कि इतिहास में होलोकॉस्ट जैसी कोई घटना नहीं हुई! यहाँ तक कि उन्होंने गैस चैंबरों के अस्तित्व से भी इनकार कर दिया और कहा कि जो कुछ भी मित्र देशों की सेनाओं ने 1945 में देखाउसे बहुत अधिक बढ़ा-चढ़ाकर दुनिया के सामने पेश किया गया है. 24 जुलाई, 1996 कोनेशनल सोशलिस्ट व्हाइट पीपल्स पार्टी के नेताहैरोल्ड कोविंगटन ने कहा,

"होलोकॉस्ट को हटा दो और तुम्हारे पास क्या बचता हैकीमती होलोकॉस्ट के बिनायहूदी क्या हैंबस अंतरराष्ट्रीय डाकुओं और हत्यारों का एक गंदा सा समूहजिन्होंने मानव इतिहास में सबसे बड़ासबसे कपटी धोखा दिया..."

होलोकॉस्ट में प्रताङित और मारे गए लोगों के साथ हुए अत्याचारों की दुनिया की कोई भी अदालत कभी भरपाई नहीं कर सकती. लेकिन अंतरराष्ट्रीय समुदाय से यह तो अपेक्षित था कि वे इन अत्याचारों को स्वीकार करें. इसके लिए भी संयुक्त राष्ट्र संघ में लंबी लङाई लङनी पङी.  13 जनवरी 2022 को संयुक्त राष्ट्र संघ ने जर्मन नाजियों के द्वारा ‘होलोकॉस्ट से इनकार’ पर एक प्रस्ताव पारित करते हुए पुष्ट किया कि,

होलोकॉस्ट के परिणामस्वरूप लगभग 60 लाख यहूदियों की हत्या हुईजिनमें से 15 लाख बच्चे थेजो यहूदी लोगों का एक तिहाई हिस्सा थे. इसके अतिरिक्त अन्य देशवासियोंअल्पसंख्यकों और अन्य लक्षित समूहों और व्यक्तियों के लाखों सदस्यों की भी हत्या हुई. होलोकॉस्ट हमेशा सभी लोगों को नफरतकट्टरतानस्लवाद और पूर्वाग्रह के खतरों के प्रति चेतावनी देता रहेगा.’

यू.एन.ओ. ने इस प्रस्ताव में नस्लवादनस्लीय भेदभावज़ेनोफोबिया और संबंधित असहिष्णुता पर नाजीवाद और फासीवाद जैसी विचारधाराओं को अपनाने से उत्पन्न घटनाओं और मानवीय उत्पीड़नअल्पसंख्यकों से संबंधित लोगों के इतिहासपड़ोसी देशों के साथ संबंधों इत्यादि को अच्छी तरह से प्रशिक्षित शिक्षकों के माध्यम से इतिहास की कक्षाओं में पदाने के महत्व पर जोर दिया. प्रस्ताव में सदस्य राज्यों से आग्रह किया गया कि वे ऐसे शैक्षिक कार्यक्रम विकसित करें जो भावी पीढ़ियों को होलोकॉस्ट के पाठों से अवगत कराएं ताकि भविष्य में नरसंहार की घटनाओं को रोकने में मदद मिल सके.

लेकिन आज विश्व भर में बढ़ती जा रही धार्मिक और नस्लीय कट्टरता से तो यही लगता है कि संयुक्त राष्ट्र के इस प्रस्ताव का सदस्य देशों ने न तो कोई गंभीर संज्ञान लिया है और न ही होलोकॉस्ट जैसी घटना से उन्होंने कोई सबक लिया है. 


© दयाराम वर्मा, जयपुर 25 जुलाई 2024 

 


समीक्षा: द हैप्पीएस्ट मेन ऑन अर्थ- लेखक एडी जाकू ओएएम
प्रकाशक पैन मैकमिलन ऑस्ट्रेलिया प्रा. लि.
पहला प्रकाशन वर्ष 2020 मूल्य 599 रू. पृष्ठ संख्या 194

 

आज से लगभग अस्सी वर्ष पूर्व सर्वाधिक ख़ौफ़नाक नाजी यातना शिविर ‘ऑस्त्विच’ से जिंदा बच निकले एडवर्ड (एडी) जाकू द्वारा अपनी मृत्यु से एक वर्ष पहले लिखी गई पुस्तक ‘द हैप्पीएस्ट मेन ऑन अर्थ’ मानव इतिहास के निकृष्टतम अमानवीय कृत्यों का एक प्रामाणिक दस्तावेज तो है ही, यह सकारात्मक दृष्टिकोण के उत्कृष्टतम उदाहरण भी प्रस्तुत करती है। वर्ष 2020 में पैन मैकमिलन ऑस्ट्रेलिया प्रा. लि. से प्रकाशित यह संस्मरण, अपने निहितार्थ में धार्मिक एवं नस्लीय नफ़रत की उन्मादी लहरों पर मनुष्यता की हिचकोले खाती कश्ती के लिए किसी प्रकाश स्तंभ से कम नहीं है।

पहले विश्व युद्ध में जर्मनी की हार, घोर आर्थिक संकट, बेरोजगारी, लचर राजनैतिक नेतृत्व और यहूदियों के प्रति सदियों से जर्मन लोगों में अंतर्हित नफ़रत ने एडोल्फ़ हिटलर जैसे अति महत्वाकांक्षी व्यक्ति के लिए वह जमीन उपलब्ध करा दी जिसने कालांतर में उसे इतिहास का क्रूरतम तानाशाह बना डाला। हिटलर न केवल साठ लाख यहूदियों के नरसंहार का प्रत्यक्ष रूप से जिम्मेवार था बल्कि द्वितीय विश्व युद्ध को आरंभ करने और उसमें लगभग चार से छ: करोङ लोगों की मौत का भी परोक्ष रूप से उत्तरदायी था।


राइख्समिनिस्टर जोसेफ गोएबल्स बर्लिन के लुस्टगार्टन में एक भीड़ को संबोधित करते हुए
यहूदी-स्वामित्व वाले व्यवसायों का बहिष्कार करने का आग्रह कर रहे हैं,
वे इस बहिष्कार का विदेशों में रहने वाले यहूदियों द्वारा फैलाए जा रहे जर्मन विरोधी "अत्याचार प्रचार"
के प्रति एक वैध प्रतिक्रिया के रूप में बचाव करते हैं

उसका विश्वास था कि जर्मन जाति सभी जातियों से श्रेष्ठ है और उन्हें विश्व का नेतृत्व करना चाहिए जबकि यहूदी सदा से संस्कृति में रोड़ा अटकाते आए हैं। आगे चलकर यहूदियों के प्रति अपनी नफरत को उसने एक हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया। उसने जर्मनी की हार का ठीकरा देश में छुपे गद्दारों के सर फोङा, जो उसके अनुसार यहूदी और कम्युनिस्ट थे! जबकि यह सौ फ़ीसद झूठ पर आधारित उसकी सोची-समझी कूटनीति का हिस्सा था। प्रथम विश्व युद्ध में कम से कम एक लाख जर्मन-यहूदी सैनिकों ने भाग लिया था और इनमें से ज़्यादातर अग्रिम मोर्चों पर लङे और बारह हजार शहीद भी हुए। लेकिन अति राष्ट्रवाद के सुनहरी आवरण तले, नाजी पार्टी सुनियोजित ढंग से अपने नफ़रती अभियान को आगे बढ़ाती रही और चंद वर्षों में ही जर्मनी में यहूदी नस्ल विरोध की देशव्यापी हिंसक लहर पैदा करने में कामयाब हो गई।



सन 1935 में जर्मनी के एक गाँव के बाहर टंगा एक बोर्ड और उसे निहारते हुए एक मोटर साइकिल चालक.
बोर्ड पर लिखा है ‘यहाँ यहूदियों का स्वागत नहीं है


यहूदी-नफ़रत अर्थात एंटी-सेमिटिज्म के रथ पर सवार नाजी पार्टी का सर्वेसर्वा हिटलर सन 1933 में जर्मनी का चांसलर नियुक्त हुआ। सत्ता प्राप्त होते ही हिटलर अपने मुख्य एजेंडे पर जुट गया-जो था यहूदियों का समूल नाश! यहूदियों के स्वतंत्र व्यवसाय और कामकाज को प्रतिबंधित, हतोत्साहित और बाधित किया जाने लगा। जर्मन बच्चों के साथ यहूदियों के पढ़ने पर पाबंदी लगने लगी। उनके उत्सव, पूजा-प्रार्थना आदि पर रोक लगा दी गई। अपने ही देश में वे दोयम दर्जे के नागरिक बना दिए गए।





इन सबसे बेखबर पूर्वी जर्मनी के शिक्षा, संगीत और ओपेरा के क्षेत्र में अग्रणी, प्रबुद्ध और परिष्कृत शहर ‘लीपजिग’ में यहूदी बालक ‘एडवर्ड जाकू ’ भविष्य में एक इंजीनियर बनने के सपने संजोए, प्रवेश के लिए शहर के महाविद्यालयों के चक्कर लगा रहा था। लेकिन उसे बाहर खदेङ दिया गया। किसी प्रकार जाली दस्तावेजों के आधार पर, उसके पिता ने उसका दाखिला एक अनाथ जर्मन बच्चे के रूप में एक दूसरे शहर में करवाया। इस प्रकार तेरह वर्षीय एडवर्ड जाकू ने घर की तमाम सुख सुविधाओं को छोङकर, नकली पहचान के साथ विषम परिस्थितियों में एक अनाथ आश्रम में रहकर पाँच वर्ष तक अध्ययन किया। इंजीनियरिंग की डिग्री हासिल करने और नौकरी लगने के बाद 9 नवंबर, 1938 के दिन वह अपने माता-पिता से उनकी बीसवीं शादी की सालगिरह पर मिलने ‘लीपजिग’ जाता है। और यही उसके जीवन की सबसे बङी भूल साबित होती है।




क्रिस्टल नाचट के समय उन्मादी जर्मन भीङ यहूदी गिरजाघर को आग के हवाले करते हुए


बीते पाँच वर्षों में अनाथ आश्रम और महाविद्यालय में रहते हुए एडी को किसी प्रकार के समाचार पत्र पढ़ने और रेडियो सुनने की छूट नहीं थी, लिहाजा इस दौरान जर्मनी में यहूदियों के प्रति नफ़रत, हिंसा और दमन के विकराल स्वरूप का उसे कोई अहसास नहीं था। उस रोज जब वह लीपजिग शहर में अपने घर पहुंचता है तो देखता है कि घर में उनके पालतू कुत्ते के अलावा कोई नहीं है। उसे कुछ समझ नहीं आता-जैसे-तैसे रात बीतती है, लेकिन अगली सुबह ही नाजी पुलिस उसे गिरफ्तार कर लेती है। उसे बुरी तरह पीटा जाता है, नुकीले चाकू से उसके बाजू पर स्वस्तिक का चिन्ह गोदा जाता है।


इतिहास में जर्मनी और ऑस्ट्रिया में यहूदी-विरोधी हिंसा के व्यापक अभियान के रूप में 9-10 नवंबर 1938 की रात ‘क्रिस्टल नाचट’, या ‘टूटे हुए कांच की रात,’ के नाम से दर्ज है। नाजी सरकार समर्थित उग्र भीङ और अर्द्ध सैनिक बलों ने यहूदियों के घरों, गिरजाघरों और दुकानों पर जमकर तोङ-फोङ एवं आगजनी की और तमाम कीमती सामान लूट लिया। असंख्य बच्चों को उनकी माँओं की गोद से छीनकर बर्फीली नदी में फेंक दिया गया। कितने ही लोगों को गोलियों से भून दिया गया। उग्र भीङ में शामिल तथाकथित सभ्य पढ़े लिखे जर्मन नाजी जिनमें यहूदियों के सदियों पुराने पङोसी, दोस्त, सहपाठी और परिचित भी थे, एकाएक इंसान से हैवान बन चुके थे। उस रोज न केवल एडवर्ड जाकू का दो सौ वर्ष पुराना घर ध्वस्त हुआ बल्कि उसकी खुद्दारी, स्वतंत्रता और इंसानियत में उसका विश्वास भी ध्वस्त हो गया। इस घटना पर लेखक ने अपनी पीङा को कुछ इस प्रकार से बयान किया है।

‘जब मैं उन जर्मनों के बारे में सोचता हूँ जो हमारे दर्द का आनंद ले रहे थे, तो मैं उनसे पूछना चाहता हूँ, 'क्या तुम्हारे पास आत्मा है? क्या तुम्हारे पास दिल है?' यह सच्चे अर्थों में पागलपन था ………। उन्होंने भयानक अत्याचार किए और इससे भी बुरा, उन्होंने इसका आनंद लिया। उन्हें लगा कि वे सही काम कर रहे थे। और यहाँ तक कि जो लोग खुद को यहूदी दुश्मन नहीं मानते थे, उन्होंने भी भीड़ को रोकने के लिए कुछ नहीं किया……। अगर क्रिस्टल नाचट के समय पर्याप्त लोग खड़े होकर कहते, 'बस! तुम लोग क्या कर रहे हो? तुम्हें क्या हो गया है?' तो इतिहास का रास्ता अलग होता। लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। वे डरे हुए थे। वे कमजोर थे। और उनकी कमजोरी ने उन्हें नफ़रत के पक्ष में धकेल दिया।’

… तो इतिहास का रास्ता अलग होता! हाँ, यह कटु सत्य है और यह केवल क्रिस्टल नाचट के अमानवीय बर्ताव पर ही लागू नहीं होता बल्कि हिंसक भीङ द्वारा की गई हर उस घटना पर लागू होता है जो धर्म, जाति, संप्रदाय, नस्ल आधारित नफ़रत के वशीभूत निर्दोष और निहत्थे लोगों को अपना निशाना बनाती है।

एडी को लगभग 150 अन्य कैदियों के साथ एक ट्रक में भरकर जर्मनी के यातना शिविर ‘बुचेनवाल्ड’ ले जाया गया। माइनस 8 डिग्री की हाङ जमा देने वाली ठंड, संकरी जगह। अपर्याप्त कपङे, सीमित खाना और पानी। एक लम्बी खाई पर बने खुले पाखाने पर एक साथ 25 लोगों को बैठना पङता। कैदियों को बूटों की ठोकर से मारना, गाली देना, अपमानित करना सामान्य था। प्रतिदिन सुबह नाजी एक और भयानक खेल खेलते -वे शिविर के दरवाजे खोल देते और 300-400 कैदियों को भागने के लिए कहते। जब लोग 30-40 मीटर बाहर तक जाते तो वे उन पर मशीन गन से फायर करना आरंभ कर देते!




लात्विया के शहर लिपाजा के स्केड तट पर एक यातना शिविर में यहूदी महिलाओं को पहले
कपङे उतारने के लिए मजबूर किया जाता है और फिर उन्हेंं गोली मार दी जाती है


अंतहीन नारकीय यातनाओं से छुटकारा पाने के लिए कुछ लोग शिविर के चारों ओर लगी विद्युतीकृत कंटीली तारों को दौङ कर पकङ लेते। एक बार एडी को इस शिविर से बाहर जाने का मौका मिला तो वह भागकर नीदरलैंड के रास्ते बेल्जियम पहुँच गया। वहाँ बेल्जियम सरकार ने उसे ‘एग्जार्डे’ के एक शरणार्थी शिविर में डाल दिया। एक वर्ष बाद, मई 1940 में जर्मनी द्वारा बेल्जियम पर विजय प्राप्त कर लेने के बाद शरणार्थियों के लिए यह जगह भी सुरक्षित नहीं रही। फ्रांस और बेल्जियम में मित्र देशों की सेनाओं और जर्मन नाजी सेनाओं के बीच घमासान जारी था। जर्मन सब को परास्त करते हुए आगे बढ़ रहे थे। ‘डनक्रीक’ तट पर मित्र देशों के सैनिकों की लाशें बिछीं थीं। हवाओं में चारों तरफ बारूदी गंध फैली थी। अनेक नाटकीय घटनाक्रमों के बाद, बार-बार नाजी पुलिस को चकमा देते हुए एडी और हजारों अन्य शरणार्थी छोटे गाँवों और दुर्गम कठिन रास्तों से गुजरते हुए लगातार फ्रांस की ओर भाग रहे थे।


यातना शिविर की विद्युतिकृत कंटीले तारों की बाङ

इस दौरान लेखक ने फ्रांस के ग्रामीण गरीब लोगों के मानवीय दृष्टिकोण की भूरी-भूरी सराहना करते हुए लिखा है ‘अक्सर जब मैं अलसुबह चलना शुरू करता तो गाँव वाले फ्रेंच में पुकारते, 'क्या तुमने कुछ खाया है? क्या तुम भूखे हो?' और वे मुझे अपने नाश्ते में शामिल करते। पहले से ही युद्ध की कठिनाइयों से जूझ रहे ये वे गरीब किसान थे जिनके पास देने लिए बहुत कम था, लेकिन वे एक अजनबी यहूदी के साथ अपना सब कुछ साझा करने के लिए तैयार रहते।’

लेकिन दुर्भाग्यवश यहूदियों के लिए फ्रांस और पोलैंड भी अल्पकाल के लिए ही सुरक्षित रहे और जैसे ही इन दोनों देशों पर हिटलर का आधिपत्य हुआ, ये लोग फिर से नाजियों की गिरफ्त में आ गए। एडी सहित 823 लोगों को एक ट्रेन में ठूंसकर पोलैंड के ‘ऑस्त्विच’ नामक यातना शिविर के लिए रवाना कर दिया गया। जब ट्रेन जर्मनी की सीमा से मात्र 10 किलोमीटर की दूरी पर थी, एडी और उसके कुछ अन्य साथी किसी तरह चलती ट्रेन से कूदने में कामयाब हो गए। हर स्टेशन पर चेकिंग हो रही थी। ऐसी परिस्थितियों में, छुपते-छुपाते एक के बाद दूसरी ट्रेन बदलते हुए, एडी एक सप्ताह बाद ब्रुसेल्स में अपने परिवार के पास पहुँचता है। यहाँ उसका परिवार एक गुप्त स्थान पर लगभग ग्यारह माह तक छुपने में कामयाब रहा, लेकिन उसकी माँ नाजियों की गिरफ्त में आ गईं और मार दी गई।

सन 1943 की फरवरी माह की एक सर्द शाम एडी, उसकी बहिन और पिता को भी गेस्टापो पुलिस ने पकङ लिया। उन्हें 1500 अन्य लोगों के साथ एक ट्रेन में भरकर ‘ऑस्त्विच’ यातना शिविर के लिए रवाना कर दिया गया। लगातार 9 दिन की अमानवीय यात्रा के बाद जब ये लोग ‘ऑस्त्विच-II-बिर्केनाउ’ रेलवे स्टेशन पहुँचे तो 40% लोग, भूख और प्यास से मर चुके थे। एडी ने शिविर के लोहे के प्रवेश द्वार पर पहली बार कुख्यात सूक्ति ‘काम आपको मुक्त करता है’ देखी। अपने संस्मरण में इस घटना को लेखक ने इस प्रकार से अभिव्यक्त किया है।


ऑस्त्विच शिविर के लोहे के प्रवेश द्वार पर कुख्यात सूक्ति ‘काम आपको मुक्त करता है

‘हमें प्लेटफॉर्म से नीचे धकेला गया जहाँ एक आदमी साफ सफेद लैब कोट में कीचड़ के ऊपर खड़ा था, उसके चारों ओर एस.एस. गार्ड थे। यह डॉ. जोसफ मेंगले थे, जिन्हें "मौत का देवदूत" कहा जाता था, और मानव इतिहास के सबसे दुष्ट व्यक्तियों में से एक थे। जैसे ही नए आए कैदी गुजरते, वह इशारा करते कि उन्हें बाएं जाना है या दाएं। हमें पता नहीं था, लेकिन वह अपनी कुख्यात 'चयन' प्रक्रिया कर रहे थे।’

दरअसल, जोसफ मेंगले कैदियों में से अपेक्षाकृत मजबूत लोगों को मजदूरी के लिए ऑस्त्विच के लिए चयन कर रहे थे और शेष लोगों को (जो उनके किसी काम के नहीं थे) सीधे गैस चैंबरों में भेज रहे थे। ऑस्त्विच में दास श्रमिक का मतलब था धरती पर नारकीय जीवन जीते हुए लगातार मौत की ओर बढ़ना और गैस चैंबर में जाने का मतलब था, अंधेरे में एक भयानक मौत! यद्यपि एडी ने गैस चैंबर में मरने वालों की आपबीती का वर्णन इस पुस्तक में नहीं किया है लेकिन इसके बारे में अनेक और लोगों ने विस्तार से बताया और लिखा है। पोलैंड के एक मृत्यु शिविर के गैस चैंबर्स की दीवारों पर आज भी जहरीली गैस से तङपते हुए लोगों के नाखूनों से खुरचने के निशान, उनके अंतिम क्षणों के असहनीय दर्द, छटपटाहट और किसी तरह बाहर निकलने की जद्दोजहद के सबूत हैं। हताशा और दर्द की इंतहा में उन्होंने दीवारों को अपने नाखूनों से इतना अधिक खुरचा कि उनके नाखून तक निकल गए! ऐसे गैस चैंबर्स में दस लाख यहूदियों को तङपा-तङपा कर मारा गया, जिनमें अधिकांश छोटे-छोटे बच्चे, अशक्त और वृद्ध लोग थे! ऑस्त्विच यातना शिविर में एडी के पिता को भी गैस चैंबर में डाल कर मार दिया गया।


एस.एस. प्रचार-एल्बम 1940-41 से ली गई एक तस्वीर जिसमें ‘रावेंसब्रुक’ यातना शिविर में
बंधुआ मजदूर के रूप में महिला कैदी खाई खोदते हुए दिखाई दे रही हैं

आगे एक स्थान पर एडी लिखते हैं -"सबसे बुरा, मेरी गरिमा मुझसे छीन ली गई थी। जब हिटलर ने अपनी नफ़रत भरी किताब, ‘मीन कैम्फ’, लिखी थी, जिसमें उसने दुनिया की सभी समस्याओं का दोष यहूदियों पर मढ़ा था, उसने एक ऐसी दुनिया की कल्पना की थी जिसमें हमें (यहूदियों को) अपमानित किया जाएगा - सूअरों की तरह खाना खाते हुए, चिथड़ों में लिपटे हुए, दुनिया के सबसे दयनीय लोग। अब यह सच हो गया था। मेरा नंबर 172338 था। यही अब मेरी एकमात्र पहचान थी…… मुझे अब भी समझ में नहीं आता कि जिन लोगों के साथ मैं काम पर जाता था, जिनके साथ मैंने पढ़ाई की और खेल खेले, वे कैसे जानवर बन सकते हैं। हिटलर कैसे दोस्तों को दुश्मन बना सकता था, सभ्य लोगों को अमानवीय ज़ॉम्बी बना सकता था? ऐसी नफ़रत कैसे पैदा की जा सकती है?’


ऑस्त्विच-II-बिर्केनाउ


ऑस्त्विच शिविर में कैदियों को कभी पता नहीं होता था कि सुबह उठने के बाद वे अपने बिस्तर पर वापस आ पाएंगे या नहीं। एक पंक्ति में दस लोग, बिना गद्दे, बिना कंबल के आठ फुट से कम चौड़े कठोर लकड़ी के तख्तों वाले बंक्स पर नग्न सोने के लिए मजबूर किए जाते। ऑस्त्विच एक साक्षात नरक था जहाँ कैदियों का औसत जीवन मात्र सात माह था। कैदियों के छोटे मोटे घावों के इलाज की कोई व्यवस्था नहीं थी। खाना बहुत ही कम दिया जा रहा था। भुखमरी लगातार उनके शरीर को हड्डियों के ढांचे में बदल रही थी।

लेखक के मन में भी अपने जीवन को समाप्त करने के विचार कई बार आए, लेकिन इसी शिविर में उसे अपने पुराने दोस्त कुर्त का साथ मिल जाता है। पुस्तक के छटे अध्याय में एडी ने लिखा है- ‘एक अच्छा मित्र मेरा पूरा संसार है।’ यह कुर्त की सच्ची दोस्ती की ताकत ही थी जो उसे हर अगली सुबह जिंदा रहने का नया हौसला देती रही।

समय-समय पर कैदियों का मेडिकल परीक्षण होता और देखा जाता कि कौन है जो बहुत अधिक कमजोर या बीमार हो गया है और मजदूरी करने लायक नहीं बचा है और उसे गैस चैंबर में भेज दिया जाता। एडी को भी तीन मर्तबा गैस चैंबर भेजा गया लेकिन हर बार उसकी योग्यता (मैकेनिकल इंजीनियर) को देखते हुए वापिस शिविर में भेज दिया जाता। लेखक ने कई बार इस बात को रेखांकित करते हुए अपने पिता की शिक्षित बनने की सीख और दूरदर्शिता को स्मरण किया है। वह लिखते हैं यह मेरी शैक्षणिक योग्यता ही थी जिसने मुझे बार-बार मौत के मुँह से बाहर निकाला।

कुछ समय बाद एडी को ‘आई.जी. फारबेन’ नामक फैक्टरी में भेज दिया गया। यहाँ तीस हजार से भी अधिक बंधुआ मजदूर थे। इस फैक्टरी में ‘जाइक्लोन-बी’ गैस निर्मित होती थी। इस गैस ने ही गैस चैंबर्स में दस लाख यहूदियों को मौत के घाट उतारा। इसी फैक्टरी में उसे मुंडे हुए सर और जीर्ण-शीर्ण ढाँचे के रूप में अपनी बहिन हेन्नी भी मिलती है। पोलैंड, हंगरी, चेकोस्लोवाकिया, फ्रांस, रूस आदि सभी देशों के यहूदी यातना शिविरों में थे। कैदियों में कुछ ऐसे गद्दार दुष्ट भी थे जो चंद ब्रेड के टुकङों, गर्म कपङों या श्नेप्स (शराब) के लिए नाजियों का सहयोग करते और अपने ही साथियों पर निगरानी रखते।ऑस्ट्रिया के ऐसे ही एक यहूदी ‘कापो’ ने अपने अनेक साथियों को गैस चैंबर भिजवाया।


डेविड का सितारा जिसे यहूदियों को नूर्नबर्ग कानूनों के अनुसार अपने कपड़ों पर सिलना अनिवार्य था

लेकिन इस नरक में किसी-किसी की आत्मा जिंदा भी थी। एडी लिखते हैं, फैक्टरी में कभी कभार एक चौकीदार उसके लिए शौचालय में दलिया और दूध छिपाकर रख आता। ‘क्राउस्स’ नाम के ऐसे ही एक और दयालु व्यक्ति ने एडी के लिए भागने का एक प्लान बनाया-कुछ हद तक वह सफ़ल भी रहा लेकिन भयंकर चोटों के साथ आधे रास्ते उसे लौटना पङा। कैदियों में एक डॉक्टर ‘किंडरमैन’ था। रात के अंधेरे में वह अपने साथियों के घावों और चोट का बिना उपकरण, बिना दवा इलाज करता। किसी कैदी के शरीर पर जूँ मिलने की भी सजा मौत थी! एक रोज एडी को मालूम पङा कि उनकी सुबह की कॉफी में ‘ब्रोमाइड’ मिलाया जाता है। ब्रोमाइड एक रसायन है जो व्यक्ति की मर्दानगी को घटा देता है और इसका अधिक सेवन उसे नपुंसक भी बना सकता है।


बुचेनवाल्ड यातना शिविर के बैरक में कैदी

1945 के आखिरी महीनों में विश्वयुद्ध के हालात तेजी से बदलने लगते हैं। 18 जनवरी, 1945 की सुबह ऑस्त्विच शिविर में नाजी सैनिक अत्यधिक परेशान और भयभीत दिखाई दे रहे थे। रूस की फौज महज़ 20 किलोमीटर की दूरी पर थी। ऊपर से आदेश मिला कि शिविर को खाली कर दिया जाए और कैदियों को जर्मनी के अंदर किसी और शिविर में भेजा जाए। माइनस बीस डिग्री तापमान में हजारों कैदियों को बिना भोजन, बिना पानी पैदल रवाना कर दिया गया। इतिहास में इस घटना को ‘ऑस्त्विच से मौत का मार्च’ के रूप में जाना जाता है। तीन दिन की इस यात्रा में ठंड, भूख और प्यास से पंद्रह हजार से अधिक लोग मारे गए, जो बचे उनको ‘बुचेनवाल्ड’ जाने वाली एक ट्रेन के खुले माल-डिब्बों में बैठा दिया गया।
डेथ मार्च:- लगभग 56,000 पुरुष और महिला कैदियों को 17-21 जनवरी, 1945 के बीच
ऑस्त्विच शिविर और इसके उप-शिविरों से बाहर, भारी हथियारों से लैस
एस.एस. पहरेदारों की निगरानी में मार्च कराया गया

जब यह ट्रेन बुचेनवाल्ड स्टेशन पर पहुँची तो माल-डिब्बों में बैठे लोगों पर आधा मीटर तक मोटी बर्फ़ की चद्दर जम चुकी थी। एक बार फिर एडी ‘बुचेनवाल्ड’ शिविर में था। करीब चार माह बाद नाजी सेना के लिए हालात और बदतर हो गए, रूसी सेना लगातार उनको खदेङती हुई आगे बढ़ रही थी। यहूदी कैदियों को डर था कि नाजी अपने कुकर्मों के सबूत मिटाने के लिए उनको मार न डालें। ‘बुचेनवाल्ड’ शिविर खाली कर दिया गया-और कैदियों को पैदल ही हाँकते हुए नाजी सेना बिना किसी तय गंतव्य के चलती रही। इसी मार्च के दौरान मौका पाकर एडी एक नदी में कूद जाता है, कई दर्जन गोलियाँ उसका पीछा करती है लेकिन वह बच निकलता है और अगले दिन उसे अमेरिकी सैनिक मिल जाते हैं।

अमेरिकी सैनिक(30.04.1945)
डाखाऊ जर्मनी, के एक उप-शिविर, काउफरिंग, के पीड़ितों के शवों को देखते हुए

एक सप्ताह बाद जर्मनी के एक अस्पताल में उसकी आँख खुलती है- उस समय उसका वजन मात्र 28 किलोग्राम था और डॉक्टरों के अनुसार उसके बचने के केवल 35% अवसर थे। लेकिन लंबे इलाज के बाद उसने मौत को हरा दिया। वह पुन: एक स्वतंत्र नागरिक के रूप में बेल्जियम में अपने पुराने घर आता है। आगे चलकर उसे अपनी बहिन और प्यारा दोस्त कुर्त भी मिल जाते हैं और वे साथ रहने लगते हैं। एडी की बहिन की शादी के बाद वह ऑस्ट्रेलिया बस जाती है। एडी की भी फ्लोर नाम की एक लङकी से बेल्जियम में शादी हो जाती है लेकिन शायद उद्देश्य विहीन जीवन के वास्तविक लगाव से वह अब भी दूर था।


सन 1945 में स्वतंत्र कराए गए डाखाऊ यातना शिविर की बैरकों के बाहर बचे हुए लोग

उस समय के अपने अवसाद के विचारों को लेखक ने इस प्रकार से व्यक्त किया है- ‘मैं एक खुशहाल आदमी नहीं था। सच कहूं तो, मुझे यकीन नहीं था कि मैं अब भी जीवित क्यों था या वास्तव में मैं क्यों जीना चाहता था? ……। मैं चुपचाप, सबसे कटा-कटा और दुखी रहने वाला इंसान!’

लेकिन अपने पहले पुत्र माइकल के जन्म के बाद एडी का जैसे अचानक हृदय परिवर्तन हो गया और वह अपने परिवार व बच्चों के प्रति एक समर्पित व जिम्मेवार व्यक्ति की भांति पेश आने लगा। मार्च 1950 में एडी परिवार सहित ऑस्ट्रेलिया आ जाता है। यहाँ कालांतर में वह अपने आप को एक सफल उद्यमी के रूप में स्थापित कर लेता है। वर्षों गुजर जाते हैं और तब एक रोज उसे ख्याल आता है-‘मैं ही जीवित क्यों हूँ, वे सभी अन्य क्यों नहीं जो इतनी भयानक तरीके से मार डाले गए? अपने इस सवाल का जवाब भी उसे अपनी अंतर-आत्मा से मिलता है-‘शायद मैं इसलिए जीवित हूँ क्योंकि मुझे नफ़रत के खतरों के बारे में दुनिया को शिक्षित करने का कर्तव्य निभाना है।’

इस इकलौते विचार ने उसकी जिंदगी में क्रांतिकारी परिवर्तन ला दिया और उसने अपनी दास्तां साझा करनी शुरू की। बच्चे, जवान, बूढ़े, विद्यार्थी, सैनिक, होलोकॉस्ट से बचे हुए और सभी तबकों के लोग उसके साथ जुङते गए। जल्द ही वह ऑस्ट्रेलिया का एक लोकप्रिय प्रेरक शिक्षक बन गया जिसके लाखों प्रशंसक थे। अंतिम अध्यायों में एडी लिखते हैं- ‘कभी-कभी मुझे लगता है कि हम में से जिन्होंने अपनी कहानियाँ लंबे समय तक नहीं बताईं, उन्होंने गलती की। ऐसा लगता है कि हमने एक पीढ़ी को खो दिया जो इस दुनिया को एक बेहतर जगह बनाने में मदद कर सकती थी, जो अब दुनिया भर में बढ़ रही नफ़रत को रोक सकती थी। शायद हमने इसके बारे में पर्याप्त बात नहीं की।’

मई 2013 में एडवर्ड जाकू को ऑस्ट्रेलिया के सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘ऑर्डर ऑफ ऑस्ट्रेलिया मेडल’ से नवाजा गया। होलोकॉस्ट की भयानक यंत्रणाओं को याद करते हुए अक्सर उसके दिमाग में एक प्रश्न कौंधता-‘नाजियों ने ऐसा क्यों किया?’ और उसे एक ही उत्तर मिलता- नफ़रत! पुस्तक का समापन लेखक की भावी पीढ़ी से खुश रहने और दूसरों को खुश रखने की मार्मिक अपील से होता है! वे कहते हैं ‘ मैं चाहता हूँ कि दुनिया एक बेहतर जगह बने…कभी भी आशा मत छोड़ें…। दयालु, विनम्र, और प्रेमपूर्ण इंसान बनने में कभी भी देर नहीं होती।’


यद्यपि इस पुस्तक में होलोकॉस्ट के जिन अत्याचारों से पाठक रूबरू होता है वे नाजियों द्वारा किए गए संपूर्ण अत्याचारों का एक छोटा सा अंश मात्र है फिर भी एडी ने अपने जीवन के आखिरी समय में इस पुस्तक के रूप में पूरी दुनिया को एक ऐसी साहित्यिक सौगात दी है जो व्यक्ति के भीतर छुपे शैतान और उस शैतान को पोषित करने वाले विचारों और अवधारणाओं के भयावह नतीजों से हमारा साक्षात्कार कराती है। जहाँ एक ओर यह पुस्तक सचेत करती है कि धर्म के आधार पर एक इंसान की दूसरे इंसान से नफ़रत और नस्लीय श्रेष्ठता का मिथ्याभिमान मानवता को किस प्रकार तबाह कर सकता है, वहीं दूसरी ओर जीवन के प्रति सकारात्मक रहने, भूतकाल के अन्याय और अत्याचार को भुला कर वर्तमान पर अपने को केंद्रित करने और खुशियों को बाँटने का महान और उदार संदेश देती है। 12 अक्टूबर 2021 को एडवर्ड जाकू ओएएम ने 101 वर्ष की उम्र में अपनी सांसारिक यात्रा पूरी की। एडी के अनुभवों और विचारों को अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचाना ही उनके प्रति हमारी सच्ची श्रद्धांजलि होगी।


होलोकॉस्ट मेमोरियल मियामी बीच फ्लोरिडा, अमेरिका


© दयाराम वर्मा, जयपुर 17 जुलाई 2024

फोटोग्राफ्स- (सौजन्य): जेविश वर्चुअल लाइब्रेरी, पिक्साबे, द नेशनल वर्ल्ड वार-II म्यूजियम, होलोकॉस्ट इनसाइक्लोपीडिया इत्यादि

समीक्षा प्रकाशन विवरण- 

1.सागर मध्यप्रदेश की त्रैमासिक साहित्यिक पत्रिका 'साहित्य सरस्वती' के 44 वें अंक (अक्टूबर-दिसंबर, 2024) में प्रकाशित

2. राजस्थान साहित्य अकादमी की मुख पत्रिका मधुमती के जून-2024 के अंक में प्रकाशन



साहित्य सरस्वती अक्टू-दिसं. 2024





  

आलेख: सुरक्षाकर्मी की अनुशासनहीनता अपराध है

 

चंडीगढ़ हवाई अड्डे पर 6 जून, 2024 के दिन मंडी, हिमाचल प्रदेश की नव-निर्वाचित सांसद कंगना रनौत पर एक सी.आई.एस.एफ. महिला सुरक्षा कर्मी कुलविंदर कौर द्वारा कथित तौर पर थप्पङ मारे जाने और अभद्र व्यवहार की घटना चर्चा का विषय बनी हुई है. सुरक्षा कर्मी के अनुसार दिल्ली में किसान आंदोलन के समय कंगना रनौत ने धरने पर बैठे किसानों के लिए कहा था कि वे 100-200 रूपये लेकर प्रदर्शन कर रहे हैं. उस धरने में उसकी माँ भी थी. स्पष्ट है इस बात की टीस और गुस्सा कंगना रनौत के साथ हवाई अड्डे पर हुई बदसलूकी का सबब बना.

 लेकिन उन दोनों के बीच केवल बहस हुई या थप्पङ भी मारा गया? यह अभी स्पष्ट नहीं है. इसी बीच कुलविंदर के समर्थन में संयुक्त किसान मोर्चा (गैर-राजनीतिक) और किसान मजदूर मोर्चा समेत कई संगठनों ने 9 जून, 2024 को  मोहाली में मार्च निकाला. मामले के तूल पकङने पर उनका पूरा गाँव भी उसके समर्थन में उतर आया है, गाँव वालों और उनके घर वालों का कहना है कि कुलविंदर कौर द्वारा कंगना रनौत को थप्पङ मारते हुए कोई वीडियो सामने नहीं आया है. यद्यपि वे मानते हैं कि उन दोनों के बीच बहस जरूर हुई थी. यही तर्क किसान नेता महेंद्र सिंह टिकैत का भी है-वे मामले की निष्पक्ष जाँच चाहते हैं.

 'जाने-माने गायक और संगीत निर्देशक विशाल ददलानी ने कुलविंदर कौर की नौकरी चले जाने की स्थिति में नौकरी का आश्वासन दे दिया तो एक बुजुर्ग कृषि कार्यकर्ता मौहिंदर कौर ने भी कुलविंदर कौर का समर्थन किया है. खबर यह भी है कि खालिस्तानी आतंकवादी गुरपंत सिंह पन्नू ने कुलविंदर कौर को दस हजार डॉलर तो जीरकपुर के एक व्यापारी शिवराज सिंह बैंस ने एक लाख रूपये देने की घोषणा की है. हरियाणा के जींद जिले के उचाना में धरने पर बैठे किसानों के संयोजक आजाद मालवा ने भी कुलविंदर कौर को सम्मानित करने की घोषणा की है. इन सबके बर-अक्स अनेक फिल्मी हस्तियों, नेताओं और गणमान्य व्यक्तियों ने सुरक्षा कर्मी के इस कृत्य की भर्त्सना की है और कंगना रनौत का पक्ष लिया है. हवाई अड्डों पर सुरक्षा प्रदान करने का काम करने वाली सी.आई.एस.एफ. ने घटना की ‘कोर्ट ऑफ इंक्वायरी’ का आदेश दे दिया है.

एक सुरक्षाकर्मी द्वारा एक सांसद के साथ दिन दहाङे बदसलूकी की गई फिर भी उसे राजनैतिक रंग देकर उसके कृत्य की सराहना और समर्थन हमारे राजनैतिक और नागरिक बोध का दिवालियापन नहीं तो और क्या है

 नेताओं पर स्याही फेंकना, जूते-चप्पल-कुर्सी चलाना, अपमानजनक टिप्पणी करना, यहाँ तक की भरी सभा में शारीरिक हमले, पिटाई, लात-घूँसे, थप्पङ-मुक्के आदि हमारे देश में नए नहीं है. इसका ताजातरीन उदाहरण है 17 मई, 2024 को दिल्ली में कांग्रेस पार्टी के संसद प्रत्याशी कन्हैया कुमार पर किया गया हमला-जब एक चुनावी सभा में उनको माला पहनाने के बहाने दक्ष उर्फ दक्ष चौधरी और अन्नू चौधरी नाम के युवाओं ने थप्पङ जङ दिया और धार्मिक नारे लगाते हुए अपने कृत्य को न्यायोचित ठहराया. विपरीत विचारधारा से बंधे हुए लोग यदि इस घटना पर आनंदित होते हैं तो वे विवेकपूर्ण, सभ्य समाज का हिस्सा नहीं हो सकते और उनको कंगना रनौत के पक्ष में खङे होने का कोई नैतिक अधिकार नहीं.

तथापि ड्युटी के समय सुरक्षाकर्मियों द्वारा नस्ल, जाति, धर्म या राजनैतिक विचार धारा की रंजिश के चलते, किसी व्यक्ति पर शाब्दिक या शारीरिक हमला चिंतनीय ही नहीं बेहद खतरनाक भी है. एक सुरक्षा कर्मी के हाथों में बंदूक इसलिए थमाई जाती है कि वक्त आने पर वह अपने देश और देशवासियों रक्षा करेगा. हमारे देश के जांबाज, देशभक्त रक्षा कर्मियों या सैनिकों द्वारा न केवल युद्ध के समय बल्कि शांतिकाल में भी असंख्य मौकों पर इस विश्वास को बनाए रखने की मिसाल से इतिहास भरा पङा है और उन्होंने अपने प्राणों की आहूति देकर भी देश व देशवासियों की रक्षा की है. लेकिन दूसरी और यदा-कदा सुरक्षाकर्मियों के विद्रोह की घटनाएँ भी इतिहास की कठोर सच्चाई है. उदाहरण के तौर पर हम निम्न दो घटनाओं का संदर्भ लेते हैं.

31 अक्टूबर, 1984 को नई दिल्ली के सफदरगंज रोड स्थित आवास पर तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी की उनके ही अंगरक्षकों बेअंत सिंह और सतवंत सिंह ने गोली मार कर हत्या कर दी थी-वजह थी ऑपरेशन ब्लू स्टार’, के तहत सिक्खों के अमृतसर स्थित धार्मिक स्थल स्वर्ण मंदिरमें शस्त्र बलों का प्रवेश और खालिस्तान आंदोलन के पैरोकार जरनैल सिंह भिंडरावाले की हत्या! रेलवे सुरक्षा बल (आर.पी.एफ.) के कांस्टेबल चेतन कुमार चौधरी ने 31जुलाई, 2023 को जयपुर-मुंबई सेंट्रल एक्सप्रेस के चार यात्रियों की गोली मारकर हत्या कर दी थी-वजह था उनका वह धर्म जिससे वह नफ़रत करता था! लेकिन इनके कृत्यों का किसी भी जिम्मेवार नागरिक, अधिकारी या नेता ने महिमामंडन या समर्थन नहीं किया और कानून ने अपना काम किया.

सवाल पैदा होता है कि क्या सुरक्षा कर्मियों के ऐसे विद्रोही कृत्यों का किसी भी रूप में महिमामंडन या समर्थन उचित है? एक पूर्व सैनिक के रूप में मेरा जवाब होगा-कतई नहीं. सुरक्षा बलों के जवान या अधिकारी महज सरकारी नौकर नहीं होते. वे वर्दीधारी सिपाही होते हैं जिन्हें पूर्ण विश्वास के साथ देश की आंतरिक या बाहरी सुरक्षा की जिम्मेवारी सौंपी जाती है-उनके हाथों में एक भरोसे के साथ बंदूक थमाई जाती है. सैनिक किसी भी देश की सबसे बड़ी संपत्ति में से एक होते हैं. वे राष्ट्र के संरक्षक हैं और हर कीमत पर अपने नागरिकों की रक्षा करते हैं. उनसे अपेक्षित है कि वे देश के हित को अपने व्यक्तिगत हित से ऊपर रखेंगे. अनुशासन में रहते हुए आदेश की पालना करना, धर्म, जाति, भाषा, क्षेत्र या किसी भी प्रकार की विभिन्नता के प्रति तटस्थ रहना एक सैनिक के खून में होता है. यदि कंगना रनौत, सुरक्षा परीक्षण में सहयोग नहीं कर रही थी तो कुलविंदर कौर उनको रोक सकती थी और अपने वरिष्ठ अधिकारियों को मामले को रैफर कर सकती थी. वैसे भी हवाई अड्डे पर सुरक्षा परीक्षण के समय अनेक सुरक्षा कर्मी और अधिकारी मौजूद रहते हैं.

बेशक भूतकाल में कंगना रनौत की किसानों पर की गई टिप्पणी हजारों वास्तविक आंदलोनकारियों को आहत करने वाली थीं लेकिन जज्बाती होकर या बदले की भावना से बतौर सुरक्षा कर्मी ड्युटी के दौरान उसके द्वारा एक यात्री पर किया गया कोई भी शाब्दिक या शारीरिक हमला किसी भी कोण से न्यायोचित या क्षम्य नहीं हो सकता. यदि इन कसौटियों पर देखा जाए तो कुलविंदर कौर का चंडीगढ़ हवाई अड्डे पर कंगना रनौत के साथ किया गया व्यवहार अनुशासनहीनता की श्रेणी में आता है.

 @दयाराम वर्मा, जयपुर (राजस्थान) 10.06.2024

 



यात्रा वृत्तांत: स्वर्ण पगोडा की भूमि-नामसई



दिनांक 3 नवंबर 2022 से 5 नवंबर 2022 के बीच अरुणाचल के नामसई जिला मुख्यालय पर राष्ट्रीय स्तर के अरुणाचल प्रदेश साहित्य महोत्सव का आयोजन राज्य के ‘सूचना एवं जनसंपर्क विभाग’ और अरुणाचल प्रदेश साहित्यिक समाज (ए.पी.एल.एस.) के तत्वाधान में रखा गया था. इसमें देश विदेश के लगभग 100 से अधिक साहित्यकारों को आमंत्रित किया गया, सौभाग्य से उनमें से एक मैं भी था. सभी औपचारिकताओं के बाद दो नवंबर, 2022 को आयोजकों की ओर से मुझे जयपुर से वाया गुवाहाटी डिब्रूगढ़ की हवाई टिकट उपलब्ध करवा दी गई.

नामसई, लोहित जिले के पश्चिमी हिस्से को विभक्त कर सन 2014 में बनाया गया अरुणाचल प्रदेश का 14 वाँ जिला है. 'नोआ दिहिंग ' नदी के समीप बसे इस शहर की सीमाएं उत्तर-पूर्व में ‘लोहित’, दक्षिण में ‘चांगलांग’ और पश्चिम में असम राज्य के ‘डिब्रूगढ़’ जिले से लगती हैं. राष्ट्रीय राजमार्ग 15 से होते हुए, निकटतम हवाई अड्डे डिब्रूगढ़ से नामसई की दूरी करीब 125 किलोमीटर है. इस हवाई अड्डे को मोहनबाङी भी कहा जाता है.

दो नवंबर, 2022 को विमान ने जब डिब्रूगढ़ हवाई अड्डे के रनवे को छूआ तो शाम के साढ़े तीन बज चुके थे. डिब्रूगढ़ आने का यह मेरा तीसरा अवसर था. पहली बार इस हवाई अड्डे पर वायु सेना की सेवा के दौरान वर्ष 1988 में जोरहाट से तुतिंग जाते समय और दूसरी बार नवम्बर 2019 में अरुणाचल के भ्रमण से लौटते समय मेरा आना हुआ था.

यद्यपि यह एकल पट्टी वाला एक छोटा सा हवाई अड्डा है, लेकिन सुदूर दक्षिण-पूर्व अरुणाचल, पूर्वी असम एवं नागालैंड को शेष भारत से जोङने वाला एकमात्र हवाई अड्डा होने के कारण इसका महत्व बढ़ जाता है. बाहर आने के बाद मैंने हमारे समन्वयक श्री सावांग वांगछा से बात की. उन्होंने एक ड्राइवर के मोबाइल नंबर दिए. शीघ्र ही सामने की पार्किंग में ड्राइवर से संपर्क हो गया. लगभग 25 डिग्री तापमान, साफ आसमान और शांत हवाओं के चलते मौसम सुहावना था. थोङी ही देर में अहमदाबाद, गुजरात से पधारे डॉ. राजेश रठवा और सुंदरनगर, हिमाचल से पधारे वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. गंगाराम राजी भी हमसे आ मिले. ये दोनों भी अरुणाचल लिट-फेस्ट में भाग लेने जा रहे थे. डॉ. राजी के साथ उनकी धर्मपत्नी भी थीं. यहाँ से नामसई का सफ़र लगभग तीन घंटे का था. कुछ और मेहमान भी थे जो दूसरी गाङियों में जा रहे थे. शाम के चार बज चुके थे, अत: बिना समय गँवाए, हम आरामदेह इनोवा गाङी में रवाना हो लिए.

हवाई अड्डे से निकलने के पंद्रह-बीस मिनिट पश्चात ही ड्राइवर ने एक रेस्टौरेंट पर भोजन के लिए गाङी रोकी. हमने भी यहीं पर भोजन कर लेना उचित समझा. रेस्टौरेंट साफ़-सुथरा था और खाना भी संतोषजनक था. अब सूर्य अपनी अंतिम रश्मियों को समेटते हुए पश्चिम में डूबने की तैयारी कर रहा था. जयपुर (राजस्थान) और यहाँ के सूर्यास्त में लगभग डेढ़ घंटे का अंतर था. यह पूरा क्षेत्र मैदानी भाग था- डिब्रूगढ़ से ही चाय के विशाल बागान आरंभ हो जाते हैं जो आगे तक चलते हैं. लेकिन प्रतिपल गहराते अंधकार के कारण दाएँ-बाएँ कुछ भी देख पाना संभव नहीं था. गाङी की तेज गति के बावजूद झटके नहीं लग रहे थे, अर्थात राजमार्ग बढ़िया था.

परिचयोपरांत गपियाने-बतियाने का सिलसिला आरंभ हुआ. डॉ. राजेश रठवा, गुजरात विद्यापीठ अहमदाबाद में रिसर्च एसोसिएट थे. वरिष्ठ साहित्यकार और कथाकार डॉ. गंगाराम शर्मा ‘राजी’ ने बताया कि अब तक उनके 27 कहानी संग्रह और 12 उपन्यास प्रकाशित हो चुके हैं. बीच-बीच में हमारी, श्रीमान सावांग से मोबाइल फोन पर बातचीत हो रही थी जो नामसई में हमारे निर्धारित ठिकानों के बारे में मार्गदर्शन करते जा रहे थे. असम के चबुआ और तिनसुकिया शहर से गुजरते हुए लगभग दो घंटे के पश्चात गाङी ने ‘काकोपथार’ नामक चेक-पोस्ट पर अरुणाचल की सीमा में प्रवेश किया. यहाँ हमारे ‘इनर लाइन परमिट’ की जाँच की गई. नामसई पहुँचते-पहुँचते स्थानीय समय के अनुसार काफी रात हो चुकी थी. प्राय: सभी दुकानें और बाजार बंद हो चुके थे. सङक के दोनों ओर दूर-दूर तक समतली जमीन पर अंधकार में डूबे खेत-खलिहान या जंगल थे. डॉ. गंगाराम शर्मा ‘राजी’ और उनकी धर्मपत्नी को नामसई में उनके लिए आरक्षित होटल में छोङने के बाद हम आगे बढ़ गए. समन्वयक श्री सावांग वांगछा के अनुसार हमें ‘चौंखम ’ गाँव के ‘ह्वेन ताई होम स्टे’ में रुकना था. गूगल नक्शे का अनुसरण करते हुए हम नामसई से करीब अट्ठाईस किलोमीटर और आगे आ गए. लेकिन चौंखम में हमें अपने गंतव्य को ढूंढने में थोङी परेशानी का सामना करना पङा-कारण कि गूगल सही लोकेशन को मैप नहीं कर पा रहा था. इस समय वीरान सङकों पर कोई मार्गदर्शन करने वाला भी नहीं था. खैर कभी थोङा आगे कभी थोङा पीछे चक्कर लगाने के बाद अंत में हम एस.बी.आई. की शाखा के पास पहुँच ही गए, होम स्टे इसके पास ही था. इस समय रात्रि के साढ़े नौ बज चुके थे.

बाएं से-दयाराम वर्मा, शमेनाज शेख, मुक्ता नामचूम, रूमी लश्कर बोरा -ह्वेन ताई होम स्टे चौंखम (नामसई) 


जब हम ‘ह्वेन ताई होम स्टे’ पहुँचे तो हमने यहाँ की स्वामिनी, लगभग पैंतालीस वर्षीय, गौर वर्ण श्रीमती मुक्ता नामचूम को हमारा इंतजार करते पाया. कई एकङ में फैले इस फार्म हाउस के पिछले हिस्से में दो मंजिला इमारत थी और शेष में खेती-बाङी हो रही थी. छोटे-छोटे चाय बागानों से घिरा यह होम स्टे एक शांत और खूबसूरत फार्म हाउस था. हमें एक बेहद साफ सुथरा और सुविधाजनक कमरा दिया गया. खाने में ताजा सब्जी-दाल-चावल-रोटी के साथ-साथ कुछ एक खम्पति व्यंजन और मछली आदि परोसे गए. भोजन की गुणवत्ता और स्वाद बिल्कुल घर पर बने भोजन जैसा ही था. बाद में हमें ज्ञात हुआ कि इस क्षेत्र में जगह-जगह लोगों ने अपने घरों या फार्म हाउस में होम स्टे खोल रखे हैं. बाहर से आने वाले पर्यटक होटलों में रुकने की अपेक्षा पेङ-पौधों से घिरे, खुले प्राकृतिक परिवेश वाले इन होम स्टे में ठहरना अधिक पसंद करते हैं.

गोल्डन पगोडा- चौंखम, नामसई (अरुणाचल प्रदेश)


अगली सुबह नाश्ते के उपरांत आसपास टहलने के उद्देश्य से हम निकल पङे. थोङा आगे, कुछ फर्लांग की दूरी पर एक पुराना बौद्ध विहार देख हम चौंक उठे. इस विहार में कई छोटे बङे मंदिर थे, जहाँ विभिन्न मुद्राओं में तथागत की गोल्डन मूर्तियाँ स्थापित थीं. यहाँ के बौद्ध मंदिरों का स्थापत्य, म्यांमार के गोल्डन बौद्ध मंदिरों सदृश होने के कारण इसे ‘सुनहरी पगोडा की धरती’ कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं. विहार में इस समय कुछ एक मजदूरों के अलावा कोई नहीं था. एक ओर नए भवन का निर्माण कार्य चल रहा था तो वहीं एक नई मूर्ति का भी निर्माण हो रहा था. पीपल के एक विशाल पुराने पेङ के नीचे टूट कर गिरी हुई पत्तियों का विशाल ढेर इस बात का द्योतक था कि पगोडा परिसर काफी समय से बंद है. कुल मिलाकर यहाँ सादगी भरी शांति का सम्मोहक वातावरण था.

गाँव की चंद और गलियों में घूमते हुए हमने देखा कि यहाँ के घर एक दूसरे से पर्याप्त दूरी पर-अपेक्षाकृत खुले परिवेश में बने हैं. घरों के एक हिस्से में या आसपास चाय के छोटे बागान भी थे. अधिकांश घर सीमेंट-कंकरीट से निर्मित पक्के बंगले-नुमा घर हैं. घरों की बालकनी, बरामदे और छत आदि पर लकङी की आकर्षक रेलिंग एवं कलात्मक आकृतियाँ, केन के सुंदर फर्निचर, रंग बिरंगे सजावटी पेङ पौधे, यहाँ रहने वालों के बेहतरीन सौंदर्य बोध को अभिव्यक्त कर रहे थे. घरों के बगीचों के बीच पारंपरिक लकङी और घास-फूस की झोंपङियाँ, मछली पालन के छोटे तालाब, मुर्गियों के झुंड, सुस्ताते कुत्ते आदि भी प्राय: सभी जगह देखने को मिल रहे थे. लगभग 9 बजे हमने स्टे होम में नाश्ता किया और साहित्य महोत्सव में भाग लेने के लिए नामसई की ओर रवाना हो लिए.

चौथे अरुणाचल लिट-फेस्ट का शुभारंभ अरुणाचल प्रदेश के उप मुख्य मुख्यमंत्री श्री चाउना मेन के मुख्य आतिथ्य में, अरुणाचल प्रदेश साहित्य समाज के अध्यक्ष और वरिष्ठ साहित्यकार पद्मश्री येशे दोरजी थोंग्ची, ख्यातलब्ध लेखिका पद्मश्री ममंग दई आदि की गरिमामयी उपस्थिति में नामसई के बहुउद्देशीय सांस्कृतिक हॉल में हुआ.

चौथे अरुणाचल लिट-फेस्ट का शुभारंभ करते हुए मुख्य अतिथि अरुणाचल प्रदेश के
उप मुख्य मुख्यमंत्री श्री चाउना मेन और अन्य अतिथि गण 


न केवल हिंदी और अंग्रेजी बल्कि भारत की विभिन्न स्थानीय भाषाओं जैसे मणिपुरी, असमी, भोजपुरी, गुजराती, बंगाली और दक्षिण भारतीय भाषाओं की रचनाओं की प्रस्तुति के कारण यह महोत्सव हमारे देश की ‘विविधता में एकता’ को मजबूती प्रदान कर रहा था. सम्मेलन में जिन प्रमुख साहित्यकारों, रंगकर्मियों, कलाकारों, कवियों, प्रकाशकों और लेखकों ने भाग लिया वे थे, वरिष्ठ साहित्यकार पद्मश्री येशे दोरजी थोंग्ची, ख्यातलब्ध लेखिका पद्मश्री ममंग दई, पद्मश्री गीता धर्मराज, ध्रुव हजारिका, दिविक रमेश, देवेन्द्र मेवाड़ी, सत्य नारायण उर्फ़ अंकल मूसा, डॉ. जमुना बीनी तादर, डॉ. रति सक्सेना, डेविड डविडर, विकास राय देव बर्मन, डॉ. वांग्लिट मोंगचां, रीकेन गोमले, जयन्त माधव बरा, तेनजिन सुंड्यु, डॉ. गंगाराम राजी, मीठेश निर्मोही, धनंजय चौहान, संतोष कुमार भदौरिया, रवि सिंह और संतोष पटेल.

लघुकथा सत्र में अपनी प्रस्तुति देते हुए लेखक 

लघु कथा सत्र के प्रतिभागी साहित्यकार और मोडरेटर श्री डैविड डाविडर (दाएँ से तीसरे) 


नामसई और चौंखम के बीच तेंगापानी नामक स्थान पर, तेंग नदी के किनारे नामसई का प्रसिद्ध स्वर्ण पगोडा अवस्थित है. आज थोङा समय निकालकर मैं और डॉ. रठवा यहाँ पहुँचे. 49 एकङ में फैले इस स्वर्ण पगोडा को वर्ष 2010 में आम जनता के लिए खोला गया. स्थानीय ताई-खम्पति भाषा में इस ‘कोंगमु खाम’ कहा जाता है. ‘विश्व त्रिपिका फाउंडेशन’ इस स्वर्ण पगोडा को भारत में पहले अंतर्राष्ट्रीय त्रिपिटक केंद्र के रूप में विकसित कर रहा है.

स्वर्ण पगोडा नामसई. बांई ओर खङे हैं डॉ, राजेश रठवा 


इसमें बौद्ध विहार के अलावा बुद्ध के अनेक मंदिर बनाए गए हैं. सभी एक से बढ़कर एक खूबसूरत, विशाल और भव्य हैं. प्रार्थना सभागार में पूरी तरह केन से बनी एक मूर्ति तो विश्व में महात्मा बुद्ध की सबसे विशाल केन की मूर्ति बताई जाती है. इस पगोडा के लिए बुद्ध की एक विशाल विशुद्ध कांस्य मूर्ति थाईलैंड के भिक्षु क्लाट अरांजिकावास ने दान में दी. यहाँ का सारा निर्माण म्यांमार या थाईलैंड के कारीगरों द्वारा किया गया है. इस परिसर में एक पुस्तकालय, एक क्लिनिक और लगभग 100 भिक्षुओं के लिए छात्रावास आदि की भी उत्तम व्यवस्था है..

एक विशेष बात जो हमें यहाँ आकर ज्ञात हुई वह यह कि ताई-खम्पति की अपनी एक लिपि भी है, जिसे 'लिक ताई' के नाम से जाना जाता है. यह लिपि म्यांमार की शान (ताई) लिपि से उत्पन्न हुई है. यह एक ताई भाषा है, जिसका थाई और लाओ से गहरा संबंध है. भाषा, लिपि, रीति-रिवाज और संस्कृतियों का एक स्थान से दूसरे स्थान पर सदैव आदान-प्रदान होता रहा है. तथापि, लचीलेपन, व्यवहारिकता, व्यापार एवं सरलता आदि के पैमानों पर जो भाषा, लिपि, रीति-रिवाज या संस्कृति अधिक प्रचलन में आती है वह फलती फूलती रहती है. हरे भरे विशाल पेङों और सुंदर बगीचों के बीच बने इस पगोडा में असीम आध्यात्मिक शांति का अनुभव किया जा सकता है.

अगले दो दिन, सुबह के नाश्ते और शाम के भोजन के समय श्रीमती मुक्ता नामचूम रसोईघर में अपनी एक सहयोगिनी के साथ उपस्थित रहतीं और हमारी जरूरत की हर छोटी-बङी चीज का ख्याल रखतीं. उनकी सादगी भरी मेहमान-नवाज़ी क़ाबिल-ए-तारीफ़ थी.

उधर, लिट-फेस्ट में विभिन्न सत्रों में कथा वाचन, काव्य पाठ, लेखकों से भेंट, पुस्तक प्रदर्शनी, पुस्तक परिचर्चा, उपन्यास और कविता लेखन पर कार्यशाला, साहित्य की एक कला के रूप में रंगमंच आदि विविध विषयों पर बुद्धिजीवियों के बीच सार्थक परिचर्चाएं हो रही थीं. ‘ट्रांसजेंडर’ को समर्पित एक सत्र ‘रेनबो कोन्क्लेव’ इस समारोह का एक अनूठा आयोजन था, जिसमें ‘ट्रांसजेंडर’ समुदाय के कवियों ने अपनी रचनाओं के माध्यम से अपनी अस्वीकृति, अपमान, उपेक्षा आदि के दर्द को बखूबी बयान किया. प्राय: सभी सत्रों में बङी संख्या में स्थानीय शिक्षण संस्थाओं के विद्यार्थी भी अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहे थे. प्रतिदिन रात्रि भोज के साथ-साथ, रंगारंग सांस्कृतिक कार्यक्रमों में सभी उम्र के साहित्यकारों को बिंदास नाचते गाते झुमते देखना और उनका हिस्सा बनना अविस्मरणीय था.

चार नवंबर की रात को ‘ह्वेन ताई होम स्टे’ में गुवाहाटी की श्रीमती रूमी लश्कर बोरा और इलाहाबाद की डॉ. शमेनाज बानो भी आ पहुँची, लेकिन डॉ. शमेनाज शेख और डॉ. राजेश रठवा अगली सुबह ही चेक आउट कर चले गए. उस रोज मुक्ता नामचूम के भोजन कक्ष में सुबह के नाश्ते के उपरांत बातचीत के दौरान रूमी बोरा ने बताया कि यहाँ से थोङी ही दूरी पर 7-केएम नामक एक रिसोर्ट में साहित्य अकादमी कलकत्ता के क्षेत्रीय सचिव श्री देवेंद्र कुमार देवेश, पंडित रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय, रायपुर की सहायक प्राध्यापक डॉ. आरती पाठक और जशपुर, छत्तीसगढ़ से सहायक प्राध्यापक श्रीमती कुसुममाधुरी टोप्पो ठहरे हुए हैं और आज उनका परशुराम कुंड देखने का कार्यक्रम है. ड्राइवर सहित दो गाङियों की व्यवस्था थी, अत: मैं भी उनके काफिले में शामिल हो गया. मुझे और श्रीमती बोरा को लेकर ड्राइवर 7-केएम रिसोर्ट पहुँचा. यहाँ शेष लोग हमारा इंतजार कर रहे थे.

7-केएम रिसोर्ट श्रीमती रूमी बोरा और लेखक 

7-केएम रिसोर्ट श्रीमती रूमी बोरा

7-केएम रिसोर्ट डॉ. आरती पाठक और लेखक 


7-केएम रिसोर्ट चौंखम गाँव से कुछ एक किलोमीटर की दूरी पर ही था. स्वच्छ-पारदर्शी नील-वर्ण पानी की एक छोटी नदी के पास कई एकङ में फ़ैले इस रिसोर्ट की सुंदरता देखते लायक थी. एक तरफ, लकङी, घासफूस और बाँस के अनेक कॉटेज नजर आ रहे थे. नदी पर बने सुंदर लकङी के पुल के उस पार रिसोर्ट था. नदी किनारे लगभग आठ से दस बाँस से कलात्मक झोंपङे थे. प्रत्येक झोंपङे के आगे ढलान में, नदी के पानी को छूती हुई बांस की चटाइयाँ बिछी थीं. पानी इतना पारदर्शी था कि तलहटी में तैरती छोटी-छोटी सैंकङों मछलियाँ और लुढ़कते हुए कंकर-पत्थर तक एकदम साफ नजर आ रहे थे.

इस समय आसमान में काफी ऊँचाई पर छितराए बादल तैर रहे थे. रिसोर्ट के पीछे लंबे-चौङे मैदानों के अंत में दूर कहीं नीली चुनरिया ओढे मिश्मी पहाङियों की लम्बी शृंखला थी. आसपास के खेतों में चाय और अन्य फसलें लहलहा रही थीं. पंद्रह से बीस सैलानी भी इधर-उधर मौज मस्ती में व्यस्त थे. रिसोर्ट के भोजन कक्ष, स्वागत कक्ष और अन्य सभी प्रकार के ढांचों का निर्माण सौ फ़ीसद बाँस, केन, घासफूस आदि द्वारा अत्यंत आकर्षक डिज़ाइन में किया गया था. यहाँ कई तरह के मनोरंजक इनडोर खेल-कूद की भी व्यवस्था थी. कुछ लोग नदी में स्नान का आनंद ले रहे थे.

नदी के समीप एक प्लेटफॉर्म पर सजी पंक्तिबद्ध आराम कुर्सियों पर पसर कर हमने भी अल्प काल के लिए प्रकृति के सानिध्य में कल-कल बहते पानी के संगीत का आनंद लिया. मंथर गति से बह रहे पानी की गहराई अधिकतम कमर तक ही थी; अतएव यहाँ स्नान करने में किसी प्रकार का खतरा नहीं था. भारत में इतनी स्वच्छ एवं पारदर्शी नदियाँ दुर्लभ ही हैं. वर्ष 1988-89 में जब मैं ऊपरी सियांग जिले के तुतिंग कस्बे में था तब सियांग का पानी इसी प्रकार साफ, पारदर्शी और नील-वर्ण हुआ करता था. लेकिन, जब तीस वर्ष बाद, वर्ष 2019 में मेरा पुन: उस क्षेत्र में जाना हुआ तो गेल्लिंग से लेकर पासीघाट तक सर्वत्र सियांग के जल को काला और मटमैला पाया.

हमने थोङी देर रुककर इस रिसोर्ट के प्राकृतिक सौंदर्य का लुत्फ उठाया और फिर आगे के लिए निकल पङे. एक गाङी में मैं, देवेंद्र देवेश और रूमी बोरा थीं और दूसरी गाङी में डॉ. आरती पाठक, डॉ. कुसुममाधुरी टोप्पो उनकी बेटी और पति देव थे.

राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या 15 पर अवस्थित परशुराम कुंड की रिसोर्ट से लगभग 77 किलोमीटर की दूरी थी. इस राजमार्ग का रखरखाव अच्छा नहीं था. जगह-जगह से टूटी-फूटी होने के कारण खूब झटके लग रहे थे. सङक के दोनों ओर मैदानी भू-भाग पर दूर-दूर तक चाय और धान के खेत लहलहा रहे थे. जहाँ-तहाँ पीठ पर टोकरी लटकाए, सर पर बङे गोल केन वाले टोप ओढे, औरतें और आदमी खेतों में काम करते नजर आ रहे थे. आगे चलकर जब हमने मेडो चाय बागान और मेडो गाँव को पार किया तो पहाङी क्षेत्र आरंभ हो गया. कुंड की ओर जाने वाला मार्ग, मुख्य सङक से 90 डिग्री का कोण बनाते हुए एक पहाङी चढ़ाई वाला रास्ता था. अब हम कामलांग आरक्षित वन क्षेत्र से गुजर रहे थे. यहाँ ऊँचाई वाले पेङों, जंगली पौधों और सघन लताओं का साम्राज्य था. रास्ते में हमने अनेक सूखे नालों को भी पार किया. इस क्षेत्र में सूखे नालों की उपस्थिति असमान्य बात थी, क्योंकि जहाँ तक मेरी जानकारी थी हिमालयन नदी-नालों में वर्ष पर्यंत पानी बहता रहता है.

अरुणाचल व असम में 200 किलोमीटर की यात्रा करने के बाद लोहित नदी ब्रह्मपुत्र में समाहित होती है. इसका उद्गम तिब्बत (वर्तमान चीन) की तिरप-फासी पर्वत शृंखला है. यह दोनों देशों की सीमा पर ‘किबिथो’ नामक छोटे से गाँव के पास से गुजरते हुए भारत की सीमा में प्रवेश करती है. वहाँ से यह मिश्मी पहाङी के दर्रों को पार करती हुई लोहित जिले के मैदानी भाग में पहुंचती है. लोहित के ऊपरी इलाकों में मिश्मी जनजाति का बाहुल्य है तो इसके निचले या मैदानी भागों में खम्पति और सिंगफोस का.

लोहित जिले में जहाँ मिश्मी पहाङियाँ आरंभ होती है, वहीं विशुद्ध जल से लबरेज़ लोहित नदी भी पहाङियों से उतरकर अपना मैदानी सफ़र शुरु करती है. इसी जगह है परशुराम कुंड. पौराणिक कथाओं के अनुसार परशुराम को विष्णु भगवान के दश अवतारों में से एक माना गया है. कालिका पुराण और श्रीमद्भगवद्गीता के अनुसार त्रेता युग में ऋषि जमदग्नि की पत्नी रेणुका, एक बार नदी से पानी लेने गई. नदी में एक अत्यंत सुंदर राजकुमार को सुंदर स्त्रियों के साथ स्नान करते देख ऐसी मुग्ध हुई कि समय का ख्याल ही न रहा. रेणुका के आश्रम पहुँचने पर ऋषि जमदग्नि अत्यंत क्रोधित हो उठे और अपने पुत्रों से कहा कि वे रेणुका की हत्या कर दें. ऋषि के बङे पुत्र यह नहीं कर पाए लेकिन छोटे पुत्र परशुराम ने अपने पिता की आज्ञा का पालन करते हुए अपनी ही माँ की एक कुल्हाड़ी से हत्या कर दी. साथ ही साथ उसने अपने अन्य भाइयों की भी पिता की आज्ञा न मानने के कारण हत्या कर दी.

जब उसके पिता उससे प्रसन्न हो गए तो परशुराम ने उनसे, अपनी माँ और भाइयों को पुनर्जीवित करने का वर मांग लिया. ऋषि जमदग्नि ने पुत्र परशुराम को वर दे दिया साथ ही यह भी वर दिया कि पुनर्जीवित होने पर उसकी माँ या भाइयों को उनकी हत्या की घटना याद नहीं रहेगी. लेकिन मातृ हत्या के पाप के कारण कुल्हाङी का हत्था उसके हाथ से चिपक गया. परशुराम ने उससे छुटकारे का उपाय अपने पिता श्री से पूछा. ऋषि जमदग्नि ने कहा कि वह पवित्र नदियों में जाकर स्नान करे, जब वह पाप मुक्त हो जाएगा तो कुल्हाङी का हत्था भी छूट जाएगा.

इसी कारण परशुराम ने विभिन्न पवित्र नदियों में जाकर स्नान करना आरंभ किया और जब लोहित नदी के इस स्थान पर स्नान किया तो उसके हाथ से चिपका हुआ हत्था छूटकर गिर गया. इस प्रकार हिंदु धर्मावलंबियों के बीच, पापों से प्रायश्चित या मुक्ति की कामना के रूप में इस स्थान पर आकर स्नान करना प्रचलन में आया. प्रति वर्ष पौष माह (जनवरी) की मकर संक्रांति के दिन हजारों हिंदु श्रद्धालु यहाँ आकर पवित्र डुबकी लगाते हैं.

कुंड तक पहुँचने के लिए एक पगडंडी-नुमा रास्ता पहाङों के बीच से बना हुआ है. सबसे पहले सीमेंट के ऊंचे स्तंभों वाला एक द्वार नजर आया. इस पर लिखा था ‘ श्री परशुराम धाम कुण्ड 24.08.2010. गाङियों से उतरकर हम पैदल ऊपर की ओर चल पङे. आगे रास्ते में पुराने मंदिर परिसर के पास ही भगवान परशुराम का एक नया मंदिर बना हुआ था. इस मंदिर की 51 फुट की भगवान परशुराम की कांस्य मूर्ति का अनावरण दिनांक 21 मई 2022 को केंद्रीय गृह मंत्री श्री अमित शाह ने को किया था.

श्री परशुराम कुंड धाम के पास लोहित नदी 


यहाँ दैनिक कामों में व्यस्त पुजारी, और कामगार लोग दिखाई पङ रहे थे. बंदर, लंगूर और गाय-बछड़े आदि भी देखे जा सकते थे. चंद प्रसाद और पूजा सामग्री से सजी-धजी दुकानें थीं. इनको पार करने पर एक घुमावदार रास्ता नजर आया-जहाँ पत्थर काट कर सीढ़ियां बनाई गईं थी. हम इन सीढ़ियों पर नीचे उतरते गए. सैंकङों सीढ़ियाँ और कई घुमाव पार करने के बाद आखिर में हमें लोहित नदी नजर आई. जहाँ सीढ़ियां समाप्त हो रही थीं वहाँ की चट्टानों से लोहित की प्रचंड लहरें टकरा कर भीषण गर्जना उत्पन्न कर रही थीं. एक ओर पहाङ के एक हिस्से में परशुराम कुण्ड का पवित्र धाम था. यहाँ एक पुजारी, श्रद्धालुओं को आशीर्वाद और प्रसाद वितरण कर रहे थे.

यद्यपि लोहित सियांग की तरह विशाल नदी नहीं कही जा सकती लेकिन इस बिंदु पर इसका बहाव काफी तेज था और पाट भी बहुत चौङा था. इस पाट के लगभग आधे हिस्से ही में नदी का प्रवाह था. थोङी ही दूरी पर नदी के आरपार एक लंबा पुल भी नजर आ रहा था. चारों ओर पहाङ, हरियाली और स्वच्छ वातावरण तन-मन को अंदर तक प्रफुल्लित कर रहे थे. यहाँ असल परीक्षा वापिस लौटते समय होती है जब खङी चढ़ाई वाली सैंकङों सीढ़ियां चढ़नी पङती हैं. गाङी की पार्किंग तक आते-आते हम सब की टांगे थक कर चूर हो चुकी थीं. यहाँ यह उल्लेख करना प्रासंगिक होगा कि जिन व्यक्तियों को घुटने में दर्द रहता है या अधिक उम्र के कारण चढ़ने-उतरने में परेशानी होती है, वे इन पहाङी सीढ़ियों पर किसी प्रकार का जोखिम न लें. लौटते समय हमने नदी पर बने पुल से बहुत सी तस्वीरें लीं और एक रेस्टौरेंट पर रुककर भोजन किया.

रास्ते में चौंखम कस्बे के नजदीक एक पालि विद्यालय का बोर्ड देखकर मैं चौंक उठा. पालि! पालि भाषा का विद्यालय और यहाँ? बाद में इस विषय पर और जानकारी जुटाने पर ज्ञात हुआ कि बौद्ध के धर्मोपदेश (धम्म) मूल रूप से पालि भाषा में ही लिपिबद्ध हुए. म्यांमार और थाईलैंड में भी बौद्ध धर्म का प्रसार-प्रचार, पूर्वोत्तर भारत से ही हुआ. बाद में ताई-खम्पति जो म्यांमार से इधर आए, अपने साथ अपनी भाषा और लिपि को भी लेकर आए. यद्यपि विश्व की सभी प्रमुख भाषाओं में बौद्ध साहित्य का अनुवाद आसानी से उपलब्ध होगा फिर भी इस लुप्तप्राय भाषा के नाम से इस छोटे से गाँव में एक विद्यालय के संचालन को इस भाषा के जरिए यहाँ के लोगों की अपनी आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक विरासत को संरक्षित रखने के एक प्रयास के रूप में देखा जा सकता है.

इस दौरे के बाद, राजीव गांधी विश्वविद्यालय दोईमुख के हिंदी विभाग के सह आचार्य श्री राजीव रंजन प्रसाद के सौजन्य से मुझे पूर्वोदय प्रकाशन, नई दिल्ली से वर्ष 2001 में प्रकाशित एक दुर्लभ ग्रंथ ‘अरुणाचल प्रदेश का खम्पति समाज और साहित्य’ प्राप्त हुआ. इसके रचयिता थे डॉ. भिक्षु कोण्डिन्य. इस पुस्तक में खम्पति समाज के इतिहास, रहन-सहन, भाषा-शैली, साहित्य, धार्मिक अनुष्ठान, बौद्ध परम्परा, रीति-रिवाज, खान-पान व कृषि आदि की अनुभवजन्य बारीक से बारीक जानकारियाँ प्रदान की गई है वह अचंभित करती है. नामसई में खम्पति प्रमुख जनजाति और थेरवादी बुद्धिज्म प्रमुख धर्म है.

आज महोत्सव का अंतिम दिन था. अरुणाचल प्रदेश लिटरेरी सोसाइटी के महासचिव मुकुल पाठक ने समारोह का विधिवत समापन किया और सभी साहित्यकारों और मेहमानों को माननीय उप मुख्यमंत्री चाउना मेन की ओर से चौंखम के नजदीक के एक गाँव ‘मेमे’ के ‘तुंग ताओ’ रिसोर्ट में आज रात्रि-भोज का न्योता भी दे दिया.

तुंग ताओ रिसोर्ट भी 7-केएम रिसोर्ट की भांति एक छोटी नदी के किनारे स्थित था. रात्रि भोज के साथ स्थानीय गीत-संगीत एवं नृत्य की शानदार व्यवस्था थी. ठंड से निपटने के लिए जगह-जगह अलाव जलाए गए थे. नदी के ऊपर बने लकङी के कलात्मक प्लेटफॉर्मों पर सांस्कृतिक आयोजन हो रहे थे. मुख्य अतिथि, साहित्यकारों और अन्य गणमान्य नागरिकों की गरिमामयी उपस्थिति में चुनिंदा लेखकों और कलाकारों को पारंपरिक ‘थाई सन पैरासोल एशियन छतरी’ के साथ सम्मानित भी किया गया. देर रात हम वापिस अपने स्टे होम में लौटे.

अगला दिन घर वापसी का दिन था. नामसई की ढेरों अविस्मरणीय यादें संजो कर हमने हमारी मेजबान श्रीमती मुक्ता वांगचूम से विदा ली और डिब्रूगढ़ हवाई अड्डे के लिए रवाना हो गए. इस समारोह में एक शख्सियत सूत्रधार की भांति हर समय हर जगह मौजूद थीं. हर व्यक्ति से उनका आत्मिक मेल-मिलाप औपचारिकताओं की सीमा से परे दिलों की सरहदों तक था. इस वृत्तांत के अंत में उस शख्सियत, हर दिल अजीज डॉ. जमुना बीनी तादर का हार्दिक आभार और धन्यवाद.



@ दयाराम वर्मा, पूर्व मुख्य प्रबंधक पंजाब नेशनल बैंक, जयपुर 09.05.2024



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