कविता: पात्रता का पैमाना




इस दौर के नेता का
राजनीतिक कद, चाल-चरित्र-चेहरा
पतित पैमानों पर, विपर्यय परखा जाता है
नाचता नंगा, कराता दंगा
शर्म-हया-लाज जो बेच खाता है
भङकाता भीङ, उकसाता धीर, देख नरसंहार, उत्सव जो मनाता है!


अपशब्दों की करता हर-दम बौछार
आगे पीछे चलते बलवाई, भरता दंभी-हुंकार
बांधे हाथ-खङे हताश, निर्लज्ज-बिकाऊ पुलिस-प्रशासन लाचार
घूमता बेखौफ छुट्टा
लगाए गाली-गोली बाज का तमग़ा
रचता दीवार पर समूल ‘विधर्मी-नाशक’ नित नया नग़मा!
 
मुख से उगलता आग
भरी दुपहरी ज्येष्ठ, कपिल[1] सर पर ज्यूँ बरसता है
बन आकाओं की आंख का तारा
लांघता लक्ष्मण रेखा, फुदकता, चमकता, गरजता है
जाहिलिय्यत बनी क़ाबिलिय्यत
सत्ता में प्रवेश-समावेश-पदोन्नति, सफलता, शख्स वही पाता है!

भ्रष्ट-बेईमान भाई-भाई, मिल बाँट खाएं राज-मलाई
फूटी आँख, ईमानदार नहीं उसे सुहाता है
दुर्जन-दुराचारी के डाले गलबहियाँ, सज्जन को घुङकाता, गरियाता है
ठेंगा, कानून-न्याय-व्यवस्था को दिखलाता
विधायक, मंत्री, मुख्यमंत्री, सभापति, सांसद तक की 
 पात्रता पुख़्ता कर जाता है!


© दयाराम वर्मा, जयपुर (राज.) 23 फरवरी, 2025


विपर्यय-उलटा ज्ञान 
[1] कपिल-सूर्य


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