कविता: सुनो-सच
सुनो-सच!
पहले तो वे करेंगे-तुम्हारी उपेक्षा
तत्पश्चात लाया जाएगा, निंदा प्रस्ताव
बुना जाएगा तुम्हारे इर्द-गिर्द, दमघोंटू मख़ौल-माहौल!
यदि नहीं हुए हतोत्साहित
आलोचना और बदनामी, कूद पङेंगी मैदान में
धमकी, घुङकी, कुङकी, लालच, मार-पीट
तोङ-फोङ, अपहरण, शीलहरण ..और न जाने क्या-क्या
घेर लेंगे तुम्हें चारों ओर!
यदि नहीं टूटे अब भी
घोषित कर दिया जाएगा तुम्हें-देशद्रोही
खूंखार आदतन अपराधी, और संभवतया गद्दार भी
और कस दिया जाएगा-कानूनी शिकंजा!
इन सबसे गुजरने के बाद भी
यदि तुमने नहीं टेके घुटने
एनकाउंटर के बहुत से तरीकों में से
किसी एक का किया जा सकता है-तुम पर प्रयोग
तो सच
कहो अब क्या कहते हो!
अंधेरी कोठरी का दरवाजा चरमराया
सन्नाटे को चीरती हुई
एक बेखौफ- बुलंद आवाज गूँज उठी
सच-सच-सच!
© दयाराम वर्मा, जयपुर (राज.) 16 अप्रैल, 2025
कविता: गाँधी-वध
मिस्टर गांधी, तुम पर लगे हैं
तीन संगीन जुर्म
पहला-रोज़-रोज़ की तुम्हारी भङकाऊ प्रार्थना
“ईश्वर, अल्लाह तेरो नाम…”
दूसरा-लोगों को दिग्भ्रमित करने वाली ये अपील
“सबको सम्मति दे भगवान … ”
और तीसरा-“सत्य और अहिंसा”
जैसे ख़तरनाक शस्त्रों का बार-बार प्रयोग!
जानते हो इस देश पर
हज़ारों साल, विदेशियों ने राज किया
जमकर लूटा-खसोटा और ढाए बे-इंतहा ज़ुल्म
लेकिन किसी ने
रिआया के धर्म और नैतिकता के जङ-विचारों के साथ
ऐसी छेङ-छाङ, ऐसी धृष्टता कभी नहीं की
बल्कि इन्हें प्रश्रय और प्रोत्साहन ही दिया
और रहे जन-क्रांतियों से महफ़ूज़!
और एक तुम हो कि
न केवल अंग्रेजों को खदेङा
बल्कि जनता के दिल-ओ-दिमाग़ में
अपने ऊल-जलूल सिद्धांत भी ढूंस-ढूंस कर भर दिए
ज़रूरी है अब इनका समूल ख़ात्मा!
और जरूरी है राजा के लिए
अपने समय के राजधर्म की पालना
तदनुसार, दरबार की जूरी ने पाया है कि
तुम्हारी हत्या
हत्या नहीं, एक न्यायोचित वध था
इस संबंध में
सभी प्राथमिक साक्ष्य जुटा लिए गए हैं
तुम्हारे विरुद्ध तमाम गवाहों के बयान हो चुके हैं दर्ज
और फ़ैसला भी लिखा जा चुका है
बस इंतिज़ार है
एक उपयुक्त तारीख़ का!
© दयाराम वर्मा, जयपुर (राज.) 11अप्रैल, 2025
कविता: देहाती हाट
गरीब, असभ्य और अविकसित लोगों के
छोटे-छोटे देहाती हाट
लगते हैं खुले आसमान तले
लकङी के तख्तों और जूट की बोरियों पर
सजते हैं सङक किनारे
कपङे, जूते, हस्तशिल्प, सस्ती साड़ियां
रंग बिरंगे गुब्बारे
बच्चों के ट्रैक्टर और लारियाँ!
हाट की हवा में तैरती है
पसीने की बू और कच्चे मांस की गंध
वहाँ बिकते हैं
ताजा झींगे, केकड़े और मछलियाँ
मुर्गे-मुर्गियां, भेङ, बकरियाँ
बाँस, केन और जूट के थैले, टोपियाँ, टोकरियाँ
धान, गेहूँ, आलू, गोभी, बैंगन, मिर्च
ककड़ी, केले, संतरे ..!
फैले रहते हैं बेतरतीबी से
खुरपी, दरांती, हल, हंसिया वगैरह-वगैरह
घर और खेत, ढोर-डंगर, बदन और पेट
सभी की जरूरत का सामान
छोटी-छोटी खुशियाँ
मिल जाती हैं
गरीब, असभ्य और अविकसित लोगों के
छोटे-छोटे देहाती हाट में!
लेकिन
वहाँ नहीं मिलते
इंसानो के किफायती मशीनी विकल्प
फसल बोने से लेकर
काटने तक के स्वचालित उपकरण
एक साथ, हजारों लोगों के श्रम और रोजगार को
निगल जाने वाले इलेक्ट्रॉनिक गेजेट्स
और कृत्रिम-मेधा संपन्न रोबोट्स!
वहाँ नहीं मिलती
विलासिता, चकाचौंध, चमक-दमक, बनावट
नहीं बिकती
लूट-खसोट की योजनाएं
बर्बादी और तबाही की मिसाइलें
भय, आतंक, लालसा, वर्चस्व और विस्तार के
रक्त पिपासु बारूदी हथियार!
ये मिलते हैं तथाकथित
अमीर, सभ्य और विकसित मुल्कों के
विशाल आधुनिक बाजारों में!
© दयाराम वर्मा, जयपुर (राज.) 03 अप्रैल, 2025
कविता: तीन पाठशालाएँ
सभ्यता के सोपान पर
जैसे-जैसे इंसान आगे बढ़ा
तीन तरह की पाठशालाएँ विकसित हुईं!
पहली पाठशाला में पढ़ाया गया
"आ" यानि आस्था, यहाँ समझाया गया
अवतार पुरुषों, पैगंबरों और ईश्वर के दूतों ने
पवित्र ग्रंथों के माध्यम से जो कहा, वही अंतिम सत्य है
और-इनके शिष्यों ने
अपनी दोनों आँखें बंद कर लीं!
दूसरी में वितरित किया गया भय
कहा गया-"आ" से होता है केवल और केवल आतंक
उनका दृढ़ मत था, यदि स्वयं को बचाना है
तो औरों को भयभीत करना होगा
और-इनके शिष्यों ने
दोनों आँखों के साथ-साथ कान भी बंद कर लिए!
तीसरी में थे तर्क और तथ्य
उन्होंने सिद्ध किया “आ" से होता है आविष्कार
उनका सिद्धांत था-क्या, क्यों और कैसे…
जब तक देख न लो-समझ न लो, नहीं मानना
और-इनके शिष्यों ने
न केवल दोनों आँखें बल्कि कान भी खोलकर रखे!
© दयाराम वर्मा, जयपुर (राज.) 09 अप्रैल, 2025
व्यंग्य: जन-गण की बात
जाने कितने वैद्य, हकीम और डॉक्टरों को दिखाया, भांति-भांति की दवाइयाँ लीं, कड़वा काढ़ा गटका, परहेज़ रखा-लेकिन उसकी सेहत दिन-ब-दिन बिगड़ती ही गई। थक हारकर, उसके चंद विश्वस्त मित्रों ने नामवर चिमटा बाबा के यहाँ उसे ले जाने पर विचार किया।
चिमटा बाबा, बाबा गिरी से पहले एक मंचीय हास्य कवि था, लेकिन तीखा सच बोलने के कारण साहित्य के मैदान में ज्यादा टिक नहीं पाया। जबकि मंत्र साधना ने कम समय में ही उसके वारे न्यारे कर दिए; देखते ही देखते उसकी प्रसिद्धि देश भर में फ़ैल गई। दूर-दराज़ से दुखी और निराश लोग उनके पास अपनी समस्या लेकर आते और झोली में खुशियाँ भरकर लौट जाते। शुभचिंतकों के बारंबार अनुनय विनय के आगे झुकते हुए, अंततः मरीज़ ने सहमती प्रदान कर दी। अन्यथा पीर, पैग़ंबर, बाबा आदि के चमत्कार उसकी वैज्ञानिक सोच से कतई मेल नहीं खाते थे।
एक छोटे से पहाङी गाँव के समीप कल-कल बहती स्वच्छ नदी के किनारे, बाबा की कुटिया के सामने भक्तों की लंबी लाइन लगी थी। दोपहर तक उन्हें अपनी बारी का इंतिज़ार करना पङा। शुभचिंतकों ने कमज़ोर मरीज़ को सहारा देकर बाबा के सामने ज़मीन पर बैठाया।
मख़मली आसन पर चौकड़ी मारकर बैठे बाबा के माथे पर चंदन का बड़ा तिलक, पीठ पर बे-तरतीबी से फ़ैली-उलझी भूरी जटाएं, चेहरे पर लंबी घनी खिचड़ी दाढ़ी, गेरुएं वस्त्र, गले में रुद्राक्ष की कई मालाएँ और बाएं हाथ में एक चिमटा था। उनके दाहिनी ओर जल से भरे तांबे के कई छोटे-बड़े पात्र और बाईं ओर लाल कपड़े में लिपटा, रूई से भरा- एक डरावनी शक्ल वाला गुड्डा रखा था, नाम था-लटूरा लाल।
लोबान का धुआँ आसपास की हवा में घुलकर वातावरण में रूमानी खुशबू बिखेर रहा था। यत्र-तत्र देवी-देवताओं की तस्वीरें, त्रिशूल,और झंडे आदि टंगे थे। कुल मिलाकर रहस्य और रोमांच से भरपूर माहौल था। जैसे ही मरीज़ ने झुककर बाबा को प्रणाम किया, पूरी वादी बाबा के जोरदार अट्टहास से गूंज उठी-
“हा...हा...हा... आ गया तू! मुझे मालूम था... हा...हा...हा...”
ठहाका लगाते समय बाबा का थुलथुला शरीर आगे-पीछे लयबद्ध हिल रहा था। मरीज़ और उसके साथ आए शुभचिंतकों के चेहरों पर सन्नाटा सा खिंच गया। बाबा ने अपनी लाल-लाल आँखों से मरीज़ को घूरा।
“पहले अपना नाम बताओ, ना घबराओ-ना शरमाओ, लटूरा लाल पर ध्यान लगाओ!”
“प्रजा... प्रजातंत्र, बाबा,” मरीज़ ने काँपते स्वर में जवाब दिया।
बाबा ने मंत्रोच्चार आरंभ किया और चिमटे से लटूरा लाल को पीटना आरंभ कर दिया। जैसे ही लटूरा लाल से चिमटा टकराता, उस पर लगे घुंघरू बज उठते छन्न….छन्न….छन्न……
“बङे भारी ख़तरे में है तू प्रजातंत्र,
फूँकना पड़ेगा बाबा को महामंत्र!
घोर संकट छाया है, बुरी आत्माओं का साया है…”
“ॐ नमो भगवते वासुदेवाय धन्वंतराय, अमृत कलश हस्ताय, सर्व माया विनाशाय, त्रैलोक नाथाय, श्री महाविष्णवे नमः” सभी श्रद्धालु, साँस रोककर बाबा के कर्मकांड को देख रहे थे।
“हुआ लटूरे को ये इल्हाम[1], करता नहीं तू कोई काम।
बड़बड़ाता रहता सुबह-शाम,
नींद नहीं आती है, कमजोरी नहीं जाती है!”
चेले-चपाटों ने लगभग समाप्त हो चुकी लोबान के स्थान पर नई लोबान सुलगा दी। लटूरा लाल पर नजरें गङाए, प्रजातंत्र मन ही मन सोचने पर विवश था कि बाबा बिल्कुल सही दिशा में जा रहे हैं। धन्वंतरि मंत्र का दूसरा दौर आरंभ हुआ। चिमटा एक बार फिर लटूरा लाल पर बरस पड़ा।
छन्न… छन्न… छन्न…
“मधुमेह, उच्च रक्तचाप, चिंताओं ने घेरा,
विषाद, प्रमाद ने डाला तेरे दर पर डेरा।
रहता है तू डरा-डरा सा, है ज़िंदा लेकिन मरा-मरा सा,
... ओम् फट्ट!”
प्रजातंत्र और उसके साथी घोर आश्चर्य में डूब गए। किसी एक्सरे फिल्म की तरह, बाबा उसकी हर बीमारी को अनावृत कर रहे थे। श्रद्धानवत, प्रजातंत्र बाबा के चरणों में गिर पङा।
“आपने सब सच कहा है बाबा। बहुत निराश हो चला हूँ। अकेलापन महसूस करता हूँ। ऐसा लगता है मानो जीवन का कोई उद्देश्य ही नहीं बचा। कभी-कभी लगता है-इससे तो मर जाना ही अच्छा.” चिमटा बाबा ने आँखें खोलीं और मुस्कराते हुए ना की मुद्रा में गर्दन हिलाई। तत्पश्चात दाएँ हाथ में लटूरा लाल को लेकर मंत्रोच्चार करने लगे-
“कोठी-बंगले, नौकर-गाड़ी छोड़ना होगा,
नाता ऐश-आराम से तोड़ना होगा।
जुड़ कर जड़ों से वसुंधरा को चूमना होगा, गली-मोहल्ले घूमना होगा।
निकलना होगा सड़कों पर-सर्दी-गर्मी, दिन और रात;
करनी होगी जन-गण की बात!
दुख-दर्द-रोग, भय-भूत-प्रेत, अवसाद निकट नहीं तब आएगा;
कहे लटूरा लाल-काया अजर-अमर निरोगी तू पाएगा!”
इधर मंत्र की समाप्ति हुई और उधर प्रजातंत्र की पीठ पर चिमटे का एक ज़ोरदार प्रहार हुआ-छन्न…। उसके बदन में एड़ी से चोटी तक एक बिजली सी कौंधी. सकारात्मक उर्जा से परिपूर्ण, दिव्य प्रकाश पुंजों से उसका दिल और दिमाग रोशन हो उठा। उसकी दुर्बल, लड़खड़ाती टाँगों में जान लौटने लगी। कुछ ही पलों में वह बिना किसी का सहारा लिए, अपने पैरों पर खड़ा हो गया और दौड़ पड़ा।
अब उसके दिमाग में गूँज रही थी तो केवल- छन्न…छन्न…छन्न…की आवाज और बाबा का अंतिम मंत्र-“करनी होगी जन-गण की बात!”
© दयाराम वर्मा, जयपुर (राज.) 06 अप्रैल, 2025
[1] इल्हाम- देववाणी, आकाशवाणी
Publication- सीकर दर्पण- पीएएनबी सीकर सर्कल ऑफिस की छमाही ई पत्रिका (अक्टूबर 24 से मार्च 25)

कविता: एक नदी की देशना
नील वर्ण, देह धवल
वह थी अनन्य हिमसुता[1] वत्सल[2]
कूदती-फांदती, लहराती, इठलाती, गुनगुनाती
सहोदरी संग करती आँख-मिचौली
छू-छू जाती सुवासित पवन हमजोली
मल-मल खुशबू पादप, कंद-मूल, लताओं की
थी प्रियदर्शिनी अति मुग्ध, मदहोश
दौङ रही थी शैल-कंदराओं में
बेफ़िक्र बेलौस!
छाया था उस पर
अल्हड़, उन्मत्त यौवन का खुमार
भंवर बनाती, बल खाती, बेकाबू थी रफ़्तार
कल-कल करती, टकराती साहिल से
बज उठती पायल सी झंकार
निर्मल निर्झर जब गिरते, उसके आँचल-आगोश
खिल-खिल जाता किलकारी से मुखमंडल
भर जाता दुगुना जोश
चट्टानों से झगड़ती, गरजती, लरजती, फुफकारती
हटो, सागर प्रीतम से है मिलना मुझको
श्वास-श्वास पुकारती!
और तब अचानक एक जगह
कदम सभी पहाङियों के रुक गए
श्वेत-स्याम पयोधर, चेहरों पर उनके झुक गए
हिलाते रहे, वन-उपवन, पर्ण-लताएं
रुककर बस खाली हाथ
देखते रहे ठिठक कर बाल-प्रपात
क्या अब आगे उसे अकेले ही बढ़ना होगा?
नए रास्तों पर ढलना होगा?
हाँ, मंजिल उसकी केवल रत्नाकर
हो जाना है सर्वस्व विलीन उसी में समाकर!
दूर-दूर तक
अब यहाँ थी केवल समतल जमीन
न पर्वत, न जंगल, न थी वो घाटियां अंतहीन
नादान थी, अनजान थी, हैरान थी
मुश्किल था कर लेना यकीन
पसरती, बिखरती सचमुच वह डरने लगी
संभल-संभल डग भरने लगी!
आगे एक शहर से
हुआ तब उसका वास्ता
नहीं था बच निकलने का अन्य कोई रास्ता
आया तभी एक दूषित सैलाब विद्रूप[3]
भर गई काठ-कबाङ-कचरे से
हो उठी कलुषित, कुरूप
मल-मूत्र, जूठन-उतरन, धूल-माला, फूल-प्लास्टिक
गिरने लगे उसमें असंख्य बजबजाते नाले
कर रहे थे आदम-ज़ात
गंदगी तमाम अपनी, उसके हवाले!
शहर-दर-शहर
मुश्किल होती गई राह-डगर
बरसने लगा उस पर जुल्मों-सितम और कहर
कहीं सङते जानवर
कहीं हड्डियां, कहीं मृत इंसान
वह छटपटाई, रोई जार-जार, हो गई बेसुध बेजान
हे तात! कैसा है यह मेरा इम्तिहान
पङ गए कोमल-कंचन काया पर
बदसूरत छालों के निशान
हुआ नील वर्ण स्याह मटमैला
विषाक्त मैल पापियों का, नस-नस उसकी फैला!
जिंदा थी, शर्मिंदा थी
हो रहा था आज उसे, अपने फैसले पर अनुताप[4]
परवश झेल रही, जिल्लत और संताप
जाने थी वह कैसी मनहूस घङी
छोङा घर-आँगन अपना
और निकल पङी!
अब अशक्त
बेजान सी वह बहती रहती है
व्यथा अपनी सुनाती, करती है ये गुहार
मत बनाओ माँ मुझे, करो मत मेरा दैवीय मनुहार
देखो देश हमारे पहले जाकर
रखते हैं स्रष्टा को अपने, हम मस्तक पर बैठाकर
चाहते हो रहना जीवित
और चाहते फले-फूले तुम्हारी भावी पीढ़ी-संतान
साफ, स्वच्छ हमें रखना अरे ओ कृतघ्न इंसान
मात्र पूजना नहीं, सीखो सहेजना
है यही विनती, यही मेरी अंतिम देशना[5]!
© दयाराम वर्मा, जयपुर (राज.) 31 मार्च, 2025
[1] हिमसुता-हिम की बेटी
[2] वत्सल-शिशु स्नेही
[3] विद्रूप-विकृत
[4] अनुताप-पश्चाताप
[5] देशना-उपदेश, सीख
[4] अनुताप-पश्चाताप
[5] देशना-उपदेश, सीख

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