कविता: एक नदी की देशना


नील वर्ण, देह धवल
वह थी अनन्य हिमसुता[1] वत्सल[2]
कूदती-फांदती, लहराती, इठलाती, गुनगुनाती
सहोदरी संग करती आँख-मिचौली
छू-छू जाती सुवासित पवन हमजोली
मल-मल खुशबू पादप, कंद-मूल, लताओं की
थी प्रियदर्शिनी अति मुग्ध, मदहोश
दौङ रही थी शैल-कंदराओं में
बेफ़िक्र बेलौस!

छाया था उस पर
अल्हड़, उन्मत्त यौवन का खुमार
भंवर बनाती, बल खाती, बेकाबू थी रफ़्तार
कल-कल करती, टकराती साहिल से
बज उठती पायल सी झंकार
निर्मल निर्झर जब गिरते, उसके आँचल-आगोश
खिल-खिल जाता किलकारी से मुखमंडल
भर जाता दुगुना जोश
चट्टानों से झगड़ती, गरजती, लरजती, फुफकारती
हटो, सागर प्रीतम से है मिलना मुझको
श्वास-श्वास पुकारती!

और तब अचानक एक जगह
कदम सभी पहाङियों के रुक गए
श्वेत-स्याम पयोधर, चेहरों पर उनके झुक गए
हिलाते रहे, वन-उपवन, पर्ण-लताएं
रुककर बस खाली हाथ
देखते रहे ठिठक कर बाल-प्रपात
क्या अब आगे उसे अकेले ही बढ़ना होगा?
नए रास्तों पर ढलना होगा?
हाँ, मंजिल उसकी केवल रत्नाकर
हो जाना है सर्वस्व विलीन उसी में समाकर!

दूर-दूर तक
अब यहाँ थी केवल समतल जमीन
न पर्वत, न जंगल, न थी वो घाटियां अंतहीन
नादान थी, अनजान थी, हैरान थी
मुश्किल था कर लेना यकीन
पसरती, बिखरती सचमुच वह डरने लगी
संभल-संभल डग भरने लगी!

आगे एक शहर से
हुआ तब उसका वास्ता
नहीं था बच निकलने का अन्य कोई रास्ता
आया तभी एक दूषित सैलाब विद्रूप[3]
भर गई काठ-कबाङ-कचरे से
हो उठी कलुषित, कुरूप
मल-मूत्र, जूठन-उतरन, धूल-माला, फूल-प्लास्टिक
गिरने लगे उसमें असंख्य बजबजाते नाले
कर रहे थे आदम-ज़ात
गंदगी तमाम अपनी, उसके हवाले!

शहर-दर-शहर
मुश्किल होती गई राह-डगर
बरसने लगा उस पर जुल्मों-सितम और कहर
कहीं सङते जानवर
कहीं हड्डियां, कहीं मृत इंसान
वह छटपटाई, रोई जार-जार, हो गई बेसुध बेजान
हे तात! कैसा है यह मेरा इम्तिहान
पङ गए कोमल-कंचन काया पर
बदसूरत छालों के निशान
हुआ नील वर्ण स्याह मटमैला
विषाक्त मैल पापियों का, नस-नस उसकी फैला!

जिंदा थी, शर्मिंदा थी
हो रहा था आज उसे, अपने फैसले पर अनुताप[4]
परवश झेल रही, जिल्लत और संताप
जाने थी वह कैसी मनहूस घङी
छोङा घर-आँगन अपना
और निकल पङी!

अब अशक्त
बेजान सी वह बहती रहती है
व्यथा अपनी सुनाती, करती है ये गुहार
मत बनाओ माँ मुझे, करो मत मेरा दैवीय मनुहार
देखो देश हमारे पहले जाकर
रखते हैं स्रष्टा को अपने, हम मस्तक पर बैठाकर
चाहते हो रहना जीवित
और चाहते फले-फूले तुम्हारी भावी पीढ़ी-संतान
साफ, स्वच्छ हमें रखना अरे ओ कृतघ्न इंसान
मात्र पूजना नहीं, सीखो सहेजना
है यही विनती, यही मेरी अंतिम देशना[5]!


© दयाराम वर्मा, जयपुर (राज.) 31 मार्च, 2025



[1] हिमसुता-हिम की बेटी
[2] वत्सल-शिशु स्नेही
[3] विद्रूप-विकृत
[4] अनुताप-पश्चाताप
[5] देशना-उपदेश, सीख












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