कविता: सवालों की मौत




बहुत नागवार है उसे
हर तनी हुई मुट्ठी, हर दुस्साहसी नज़र
हर स्वावलंबी कशेरुका-दंड
अभिव्यक्ति की हर एक आवाज़
सवालों को पोषती हर एक अभिव्यंजना!

वह चाहता है
अपने सम्मुख सदैव फैले हुए याचक
या जयघोष में उठे हाथ
दृष्टि विहीन नमित आंखें और
झुकी हुई फ़रमाँ-बरदार मेरुदण्ड!

वह जानता है
उलझा देना सवाल को सवाल से
कथनी करनी और मुद्दों पर तथ्यपरक
सवालों की घेराबंदी को
बेधना तोड़ना मरोड़ना और अंततः
ढाल लेना अपने अनुकूल!

वह अमन पसंद है
नहीं चाहता कुनमुनाते भुनभुनाते
टेढ़े-मेढ़े पङे या खङे सवाल
असहज भूखे-नंगे वृत्तिहीन रेंगते सवाल
और
सङक पर चीखते चिल्लाते!
तो कतई नहीं

और अब
उसका मूक उद्घोष है
इससे पहले की कोई अनचाहा सवाल
अवतरित हो किसी गर्भ से
गर्भपात हो!
या हो प्रसूता की अकाल मृत्यु!
उसे विश्वास हो चला है
दैवीय शक्ति से लैस परमेश्वर वही है


@ दयाराम वर्मा जयपुर 31.03.2024




कशेरुका-दंड: रीढ़ की हड्डी
अभिव्यंजना: अभिव्यक्ति
फ़रमाँ-बरदार: आज्ञाकारी, आज्ञा-पालक, ताबेदार
शिरोधरा: ग्रीवा, गर्दन

कविता: बच्चे मेरे प्यारे बच्चे सुन





कांपते पहाड़ ने देखा
दूर तलहटी में, फलता फूलता एक कब्रिस्तान
एक से बढ़कर एक गगनचुंबी कब्र में
दफ़न होते
अपने पूर्वज, बंधु-बांधव, सखा-सहचर!

और उनके साथ होते दफ़न
चीङ, देवदार, साल, सागवान, पलाश
लहराते बांसों की बस्तियां
झरनों का क्रंदन
तितली, भौंरे, बंदर, गिलहरी का प्रलाप
गौरेया की सिसकियां!

वह देखता है, करीब आते हुए
एक जेसीबी मशीन
घबरा जाता है, बचा-खुचा पहाड़
उसकी देह से लिपटे खिलखिलाते, झूमते पेङ
सहम उठते हैं!

उसके कंधों पर उछलते, कूदते, मनमौजी झरने
हो उठते हैं भयाक्रांत

अमलतास पर गौरेया के झूलते घोंसले
डूब जाते हैं गहरे अवसाद में
अनिष्ट की आहट से उपजे सन्नाटे का मातमी डिर्ज[1]
पसर जाता है चारों ओर!

उस रोज वह सुनता है
दो नन्हे कदमों की पदचाप, अपनी गोद में
खुशी से पहाङ पिघलने लगता है
झरने बिखेरने लगते हैं
सुरमई संगीत
झूमने लगते हैं पेङ-पौधे मदहोश हवाओं के संग
और सबके साथ तितली, गौरेया, गिलहरी, बंदर
लगते हैं फुदकने, नाचने, गाने!

नन्हे बालक ने जी भरकर लुत्फ उठाया
वह तितली के पीछे भागा
पेङों की डाल पर झूला बंदरों को रिझाया
झरनों तले नहाया!

और शाम ढले जब वह लौटने लगा
पहाङ ने पुकारा, एक याचक की तरह
बच्चे मेरे प्यारे बच्चे सुन!
मैं चाहता हूं तुम फिर आओ मेरी गोद में
लौट कर बार-बार!

लेकिन देखो
वह एक मशीन आ रही है रेंगती हुई इस पार
उसे रोको मेरे बच्चे
फेंक दो उसे किसी गहरे गड्ढे में अन्यथा
अगली बार…
पहाड़ का गला रुंधने लगा!

लेकिन बालक ने न मुड़कर देखा न कुछ कहा
पहाड़ ने फिर पुकारा
बच्चे मेरे प्यारे बच्चे सुन!

इस बार चीङ, देवदार, बांस, पलाश
सभी पेङ-पौधे, सभी पशु-पक्षी
वे सभी जो इस जिंदा बस्ती के थे वासी
पुकार रहे थे समवेत
बच्चे मेरे प्यारे बच्चे सुन!

लेकिन बालक बिना किसी प्रतिक्रिया के
तलहटी में
मुर्दा मूक कब्रिस्तान की ओर
कहीं ओझल हो चुका था!


[1] डिर्ज और इसका प्रारंभिक रूप डिरिज, जिसका अर्थ है "शोक का एक गीत या भजन", मृतकों के लिए चर्च सेवा में इस्तेमाल किए जाने वाले लैटिन मंत्र के पहले शब्द से आया है:


@ दयाराम वर्मा बेंगलुरु 20.02.2024

प्रकाशन विवरण-
1. राजस्थान साहित्य अकादमी की मुख पत्रिका मधुमती के दिसंबर-2024 के अंक में 6 अन्य कविताओं के साथ प्रकाशन


Upper Siang Arunachal Pradesh 2019


Electronic City Bangalore Feb. 2024






कविता: प्रकृति चले हमारे अनुकूल
 


उन्हें सालता है सप्तवर्णीय इंद्रधनुष
क्यों नहीं बिखेरता फ़लक पर
सुर्ख़ कैफ़ियत केवल एक!

क्यों होते पल्लवित उपवन में पुष्प अनेक
खिलता नहीं क्यों केवल एक
खुशबू एक रंग एक!

पसंद नहीं उन्हें झील का झील होना
परखते हैं अक्सर कंकर फेंककर
अनुप्रस्थ तरंगों की ताकत!

नहीं गवारा नदी का सादगी भरा प्रवाह
लिपट जाती हैं निचली बस्ती में
छिछले नालों से!

क्यों आता जाता है सूरज सरहदों के पार
बांटता है दुशमन देश को भी
धूप रोशनी अपार!

क्यों बहती हैं हवाएं दशों दिशाओं में
क्यों नहीं बरसते बादल यहीं
उन्हें शिकायत है!

उन्हें पूरा यकीन है विधाता ने की है भारी भूल
क्योंकि कायनात में हम हैं सर्वश्रेष्ठ
प्रकृति चले हमारे अनुकूल!

@ दयाराम वर्मा बेंगलुरु 17.02.2024











कविता: किसान और होमो सेपियंस



बारह हजार वर्ष पूर्व
सर्वप्रथम, एक शिकारी वानर ने खोजा था अनाज
धरती का पहला किसान
उसने सिखाया साथी शिकारी घुमंतुओं को
घर-परिवार बनाना, बस्ती बसाना
वे कहलाए होमो सेपियंस[1]
और किसान
उगाता रहा फसल, रोपता रहा धान!

फलने फूलने लगे
गांव, देहात, कस्बे, शहर और साम्राज्य
विकसित होते गए
मेसोपोटामिया, मिश्र, चीन, सिंधु, हङप्पा
जबकि किसान
उगाता रहा फसल, रोपता रहा धान!

धीरे-धीरे सीखा होमो सेपियंस ने
व्यापार और व्यवहार
अहिंसा, सदभाव, भलाई, प्रेम और सदाचार
समाज और सामाजिकता
धर्म और धार्मिकता
लेकिन किसान
उगाता रहा फसल, रोपता रहा धान!

होमो सेपियंस ने सीखा
पढ़ना, लिखना
ज्ञान-विज्ञान, संगीत, कला और संस्कृति
रचा डाले उसने
पिरामिड, बेबिलोन, ताजमहल, खजुराहो
तब भी किसान
उगाता रहा फसल, रोपता रहा धान!



होने लगे पैदा
होमो सेपियंस नेता, इंजीनियर, सिपाही, विचारक
मुंसिफ़, हकीम, सैनिक, समाज-सुधारक
और किसान
उगाता रहा फसल, रोपता रहा धान!

होमो सेपियंस ने जाना
संगठन और एकता की शक्ति को और लङना
दमन, शोषण, अत्याचार के खिलाफ
और मिटा डाली
राजशाही, तानाशाही, औपनिवेशिक हुकूमतें
वह परखता गया
जनतंत्र, संघवाद, साम्यवाद, समाजवाद
जबकि किसान
उगाता रहा फसल, रोपता रहा धान!

सहस्राब्दियां बीत गईं
एक दिन
सभ्यता के अंतिम पायदान पर खङा किसान
चिल्लाया, होमो सेपियंस!
मैं भी बनना चाहता हूँ तुम्हारी तरह!

गूँजने लगी उसकी पुकार
लेकिन शायद किसी को नहीं था उससे सरोकार
किया निश्चय तब उसने थक-हार
बतलाई जाए होमो सेपियंस को अपनी व्यथा
निकले हल कोई, सुधरे थोङी दशा!

लेकिन उसके पाँव वहीं रुक गए
जब देखा उसने
राजमार्ग पर सघन कंटीली तारबंदी
और भारी भरकम बहुस्तरीय बेरिकेड के बीच
दूर तक लपलपाती
डरावनी नोकदार कीलें!

और देखा
अट्टहास करता होमो सेपियंस
जो उगा रहा था कांटे, रोप रहा था व्यवधान!


[1] सेपियंस-मानवजाति का संक्षिप्त इतिहास लेखक युवाल नोआ हरारी
 
@ दयाराम वर्मा बेंगलुरु 13.02.24

Images- Courtesy -Al Jazeera 21.02.2021








कविता: आसान और मुश्किल





चलते चले जाना बने बनाए रास्तों पर
कर लेना हासिल मंजिलें
मान-सम्मान, दौलत, पद-प्रतिष्ठा
बहुत आसान है
मुश्किल है तो नए रास्ते गढ़ना!
और
और भी मुश्किल है, उन पर चलके दिखलाना!

हो जाना हिटलर, स्टालिन
पॉल पॉट, मुसोलिनी या ईदि अमीन
बहुत आसान है
मुश्किल है तो होना लेनिन, लूथर, मंडेला!
और
और भी मुश्किल है, होना भीमराव या गांधी!

बागी बाबा, चिमटा बाबा, कम्प्युटर बाबा
महंत, पाठी, पीर, फ़कीर
हो जाना बहुत आसान है
मुश्किल है तो कृष्ण, बुद्ध, महावीर होना!
और
और भी मुश्किल है कबीर, रैदास या नानक होना!

नष्ट कर देना, ढहा देना, ज़मींदोज़ कर देना
मंदिर, मस्जिद, चर्च, गुरुद्वारे
बहुत आसान है
मुश्किल है तो धर्म परायणता!
और
और भी मुश्किल है, कर्तव्य परायणता!

राजा के निर्णय, राजा के विचार-प्रतिकार
सर झुकाए निर्विरोध स्वीकारोक्ति
समर्पण, जी हुजूरी
बहुत आसान है
मुश्किल है तो असहमति!
और
और भी मुश्किल है, असहमति भरी हुंकार!

कर लेना हर वचन दंडवत शिरोधार्य
हो नतमस्तक, हो जाना प्रजा
बहुत आसान है
मुश्किल है तो नागरिक हो जाना!
और
और भी मुश्किल है, जीवित रखना नागरिकता!

@ दयाराम वर्मा बेंगलुरु 01.02.2024

कविता: नराधम हैं वे कौन




दो नवंबर, वर्ष दो हजार तेइस
बनारस हिंदू विश्वविद्यालय
कैम्पस की बाईस वर्षीय एक छात्रा!
अपहरण- गैंग रेप
दरिंदे थे पहुँचवाले रसूख़दार!
हफ़्तों-महीने
बेखौफ़ करते रहे चुनावी प्रचार!

कौन थे सरपरस्त गुनहगारों के
किसने चुना था मौन!
बतलाओ गुनाह से पहले, गुनाह के बाद
नराधम थे वो कौन!

चौदह सितंबर, वर्ष दो हजार बीस
गाँव बूलगढी हाथरस
उन्नीस वर्षीय एक अबला लाचार
लङी कई रोज़ जंग साँसों की
लेकिन आखिरकार
सम्मुख दरिंदगी के, गई जिंदगी हार!

आनन-फ़ानन
आधी रात पुलिस ने जलाई चिता!
तमाम दर्द छुपाए सीने में
हो गई चिर-ख़ामोश अंगारिता[1]!

कौन बचा रहा था गुनहगारों को
किसने चुना था मौन!
बतलाओ गुनाह से पहले, गुनाह के बाद
नराधम थे वो कौन!

दस जनवरी, दो हजार अठारह और
मासूम कठुआ की गुङिया
सिर्फ़ आठ वर्षीय!
सात आरोपी और दरिंदगी सप्ताह भर!
स्वयं पुजारी था शामिल
विक्षिप्त लाश ने किए दुष्कर्म उजागर!

लेकिन
जानते हो पक्ष में गुनाहगारों के
बहुत बेशरम खङे थे
लिए तिरंगा, धरने प्रदर्शन पर अङे थे!

किसने दी शह गुनहगारों को
किसने चुना था मौन!
बतलाओ गुनाह से पहले, गुनाह के बाद
नराधम थे वो कौन!

चार जून, वर्ष दो हजार सत्रह
उन्नाव उत्तरप्रदेश
सत्रह वर्ष की एक दलित लङकी
न जाने थे कितने वहशी
लगाई गुहार न्याय की तो गए पिसते
पिता चाचा भाई हितैषी!

निडर, निर्लज्ज, निर्दयी
विधायक आरोपी और संगी-साथी
छुट्टे घूम रहे थे
अपयश, हमले, धमकी, ताङना-प्रताङना
पीङित झेल रहे थे!

कौन खङा था गुनहगारों के साथ
किसने चुना था मौन!
बतलाओ गुनाह से पहले, गुनाह के बाद
नराधम थे वो कौन!

तीन मार्च, वर्ष दो हजार दो
गाँव छप्परवाङ, जिला दाहोद, गुजरात!
इक्कीस साल की बिलकिस
गर्भ में थी बच्ची और ग्यारह दरिंदे
दिन दहाङे हुई थी वारदात
अख़बार में या टी.वी. पर जरूर
पढ़ा या देखा होगा!

बाईस बरस का अदालती संघर्ष
लेकिन दुष्कर्मी हत्यारे
थे किसी की नजरों में बहुत मानीख़ेज़[2]!

इंसाफ़ के पावन मंदिर में
हुए प्रस्तुत रिहाई के कुटिल दस्तावेज़!
स्वतंत्रता दिवस पर
जब हो रहा था तिरंगे का वंदन!
कर रहा था दुष्कर्मियों का कोई तिलक-अभिनंदन!

कौन था पक्षधर गुनहगारों का
किसने चुना था मौन!
बतलाओ गुनाह से पहले, गुनाह के बाद
नराधम थे वो कौन!

मंचों पर चिल्लाते
काव्य रचते, कथाएं छपवाते हैं!
यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता
गर्व से जपते मंत्र यह
स्त्री मां है, बहन-बेटी है, बतलाते हैं!

एक से बढकर एक
संस्कारी, नारीवादी, झंडाबरदार
कहां है स्वयंभू वीर-भारती?
भीष्म, पार्थ, द्रोण, धर्मराज युधिष्ठिर
संजय या सारथी!

कौन खङा है गुनहगारों के साथ
धार लेता है मौन!
बतलाओ गुनाह से पहले, गुनाह के बाद
नराधम हैं वे कौन!


[1] अंगारिता: पलाश की ताजा कली
[2] मानीख़ेज़: महत्वपूर्ण

 
@ दयाराम वर्मा जयपुर 24.01.2024














कविता: मैदान-ए-जंग



व्हाट्स-ऐप, यू-ट्यूब, इंस्टाग्राम
ट्वीटर फ़ेसबुक
आभासी, अथाह-अंतहीन ब्रह्माण्ड में
चल रही है
हर रोज चौबीसों घंटे, एक जंग!

दशों दिशाओं से बरसते हैं अविरत[1]
तल्ख़ शाब्दिक बाण
और दनादन दागे जाते हैं
आरोप-प्रत्यारोप के आग्नेय प्रक्षेपास्त्र!

गरजते हैं मिथकीय जुम्ला-बम
उङ जाते हैं कर्णभेदी धमाकों के साथ परख़चे
बंधुता, विश्वास और सदाचार के
ढह जाते हैं क़दीमी[2] किले
ज्ञान, विज्ञान, सभ्यता और सुविचार के!

की-पैड पर
चलती हैं तङातङ
द्वेष-विद्वेष से प्रसाधित[3] गोलियां
बिछती हैं प्रतिपल, चरित्र-हंता[4] बारूदी सुरंगें
फैल जाती हैं चारों तरफ
अभिज्वाल्य[5], कुंठित गल्प[6] टोलियां!

प्रतिद्वंदियों पर
टूट पङती हैं ट्रोल आर्मी
विशाक्त मधुमक्खियों की भांति
और निर्रथक बहसों के, घने कुहासे में
खो जाती है ठिठुरती मनुष्यता!

इस जंग के कोई नियम नहीं है
कोई सीमा नहीं है
अशिष्ट, अमर्यादित, भाषा-आचरण-व्यवहार
छल-कपट, झूठ-फ़रेब, संत्रास[7]
इस जंग में सब कुछ युक्तिसंगत है
उन्मुक्त हैं, आजाद हैं!


[1] अविरत: लगातार
[2] कदीमी: पुरातन
[3] प्रसाधित: सुसज्जित
[4] चरित्र-हंता: किसी के चरित्र का अंत करने वाली
[5] अभिज्वाल्य: प्रज्वलित करने योग्य" या जलाया जा सकने वाला
[6] गल्प: मिथ्या प्रलाप
[7] संत्रास: भय, डर, त्रास

@ दयाराम वर्मा जयपुर 17.01.2024


कविता: तानाशाह का मेनिफेस्टो



 
यक़ीनन उठाते रहना तुम सवाल
लेकिन होगा क्या, विषय, वचन, प्रतिवचन
हम तय करेंगे!

करते रहना तुम नीतिगत विरोध
लेकिन विपल्व, विरोध या है प्रतिशोध
हम तय करेंगे!

यक़ीनन हम पर लगाना आरोप
लेकिन उद्दंडता, आरोप या प्रत्यारोप
हम तय करेंगे!

बेशक लङना अधिकारों के लिए
लेकिन हक़, हिमाक़त या है बगावत
हम तय करेंगे!

लिखना छंद, काव्य, आलेख, अख़बार
लेकिन कलम, स्याही, मज़मून
हम तय करेंगे!

यक़ीनन अभिव्यक्ति होगी आज़ाद
लेकिन भाषा, भाष्य, ज़ुबान
हम तय करेंगे!

खुले होंगे विद्यालय, महाविद्यालय
लेकिन बोध, शोध, इतिहास
हम तय करेंगे!

बेरोकटोक करना धरने-प्रदर्शन
लेकिन उचित, अनुचित या प्रतिपक्षी षड्यंत्र
हम तय करेंगे!

यकीनन हो सकेगी अपील-दलील
लेकिन अंतिम फ़ैसला 
हम तय करेंगे!

@ दयाराम वर्मा, जयपुर 30 दिसंबर, 2023


कहानी: जंगलराज


पहले-पहल जब ‘बखेङिए’ कौए से महाराज रणसिंह ने यह बात सुनी तो उन्हें विश्वास नहीं हुआ। ‘नारियलपुर! इंसानी बस्ती में ‘जंगलराज’! भला यह कैसे सम्भव है?’ हुआ यूँ कि पिछले माह, पितृ पक्ष में, बखेङिए की अगुआई में सैंकङों कौए नारियलपुर गए थे। उनमें से कइयों ने पितरों के श्राद्ध की दावत उङाते समय, औरतों के मुँह से यह बात सुनी। ‘बखेङिया’, ठहरा महाराज का विश्वासपात्र! उसकी बात किसी भी संदेह से परे थी। नारियलपुर, ‘झमाझम’ जंगल से अधिक दूरी पर नहीं था, अत: किसी और शेरखान द्वारा वहाँ सत्ता कायम कर लेना, भविष्य में ‘झमाझम’ रियासत के लिए खतरे की घंटी थी। विषय की गंभीरता को देखते हुए महाराज ने कोर कमेटी की आपात बैठक बुलाई। फ़ुर्तीला देव चीता, मौला हाथी, घुँघराली भालू, लटकन बंदर इत्यादि, कमेटी के सभी सदस्य इस मंत्रणा में उपस्थित थे। नारियलपुर से लौटे कौओं की सूचनाओं का बारीक विश्लेषण किया गया। प्रत्येक सदस्य ने अपने-अपने विवेक से इस ख़बर की बाल की खाल उधेङी।

“हो सकता है महाराज, आपके चचेरे भाई प्रताप सिंह ने वहाँ सत्ता कायम कर ली हो। काफ़ी समय से आपसे नाराज़ चल रहे थे।” मौला हाथी ने कयास लगाया।

“अरे नहीं।” महाराज रणसिंह के चेहरे पर वेदना उभर आई। “उसकी तो छ: महीने पहले एक शिकारी के हाथों हत्या हो गई।” उन्होंने मौला हाथी को घूर कर देखा, “मंत्री जी, तुम कौनसी दुनिया में रहते हो? शाही परिवार से जुङी ऐसी महत्वपूर्ण घटना की भी जानकारी नहीं रखते!”

“माफ़ करें महाराज! कई दिन से योग केंद्र जा रहा हूँ- वजन कम करने के लिए। ख़बरनवीसों से मिलना जुलना बंद था। आगे से ध्यान रखूँगा।”

“हूँ। बेहतर होगा। लेकिन मुझे तो तुम पर पहले से अधिक चर्बी दिखाई दे रही है।” महाराज के इस कटाक्ष पर सभी सलाहकारों की हँसी छूट गई।

“हो सकता है, किसी और रियासत के जानवरों ने नारियलपुर पर क़ब्ज़ा जमा लिया हो।” ‘पुंडरीक’ पट्टी के जागीरदार, फुर्तीला देव ने भी अंधेरे में तीर छोङा।

“असंभव! नारियलपुर में जंगल बचे ही कहाँ है? शायद आपने कौओं के बयान पर गौर नहीं किया, पेङ पौधे तो नाममात्र के हैं-ज़्यादातर गमलों में। हर तरफ़ इंसानों ने लोहे और सीमेंट की इमारतें खङी कर रखी हैं।” लटकन ने मुँह बिचकाया, “न खाने की व्यवस्था, न रहने का ठिकाना।” बात तार्किक थी। अपने अनुमान को पुष्ट करने के लिए फुर्तीला देव के पास विशेष कुछ न था, उसने चुप रहना ही श्रेयस्कर समझा।

सियार, ख़रगोश, लोमङी, मृग जैसे छोटे जानवरों से भी पूछताछ हुई लेकिन कोई ठोस सुराग नहीं मिला। लिहाजा, गृह मंत्री ‘मौला’ हाथी की सलाह पर एक फ़ैक्ट-फ़ाइंडिंग टीम के गठन का निर्णय लिया गया। तय हुआ कि कुछ एक मेधावी बंदरों को नारियलपुर भेजा जाए। अन्य जानवरों की अपेक्षा बंदरों के लिए इंसानी बस्ती में जोखम कम था। आदमजाद, बंदरों को अपने एक देवता का वंशज मानते हैं, अत: उनकी जान नहीं लेते। साथ ही किसी भी आपात स्थिति में पेङों या ऊँची इमारतों पर छलाँग लगाकर, वे अपना बचाव आसानी से कर सकते थे।




‘झमाझम’ जंगल की सुरक्षा से जुङे इस मसले की गंभीरता और महत्व को सभी समझ रहे थे। अनेक अति उत्साहित बंदर इस मिशन पर जाने को तत्पर थे लेकिन अंतत: चयन हुआ ‘लम्पू’ का! उसमें न केवल एक नौजवान जैसी फ़ुर्ती और दमख़म था बल्कि किसी प्रौढ़ जैसा सुलझा हुआ दिमाग़ भी था। साथ ही उसकी याददाश्त भी कमाल की थी। वह युवा बंदरों के बीच, लम्बी-लम्बी हाँकने और मजमा जमा लेने में सिद्धहस्त था। तथपि लटकन के अनुसार, एक साथ अधिक संख्या में जंगली बंदरों की उपस्थिति खेल को बिगाङ सकती है, अतएव किसी और बंदर को उसके साथ भेजने का प्रस्ताव रद्द कर दिया गया।

इस निर्णय से लम्पू बहुत ख़ुश था। देशभक्ति के साथ-साथ शहर में वह अपनी बिछुङी प्रेयसी ‘भूरी’ की भी तलाश कर सकता था। भूरी और लम्पू में बहुत याराना था। उनकी शादी भी पक्की हो गई थी, लेकिन एक रोज़, भूरी मदारियों के जाल में फँस गई। सब कुछ इतनी तेज़ी से हुआ कि बंदर कुछ कर नहीं पाए। लम्पू ने ख़ूब स्यापा मचाया, कई दिन भूखा रहा। लेकिन भूरी, फिर कभी लौट कर नहीं आई। उसकी यादें आज भी उसे गमगीन कर जाती हैं।

अगले दिन मुँह अँधेरे, बङे बुज़ुर्गों का आशीर्वाद ले, लम्पू नारियलपुर की ओर रवाना हो गया। यद्यपि पालतु कुत्तों को उसकी भनक नहीं लगी लेकिन पत्तल-प्रेमी बंदरों के समुह ने उसे घेर लिया। वैसे तो वह अकेला कई शहरी बंदरों पर भारी था, पर वह कोई बवाल खङा करना नहीं चाहता था। उसने अपनी वाक्पटुता और लम्बी फैंकने की कला का सहारा लिया और आनन-फ़ानन में एक कहानी गढ़ ली। ‘पुंडरीक’ पट्टी के पास पपीते, नारियल, जामुन, और केले के हज़ारों पेङ हैं। उन पर सदैव स्वादिष्ट फल लटकते रहते हैं, केले तो इतने कि बस पूछो मत! पिछले कुछ सालों से ‘झमाझम’ के बंदरों की आबादी भी घट गई है, इस बात से महाराज रणसिंह चिंतित हैं। यदि आप लोग वहाँ चलोगे तो ‘पुंडरीक’ का पूरा इलाका आपका होगा। मैं लम्पू, महाराज का दूत, आपके पास यह संदेश लेकर आया हूँ।

प्रस्ताव बुरा नहीं था। पीले-पीले पके हुए केलों की कल्पना मात्र से अनेक बंदरों के लार टपकने लगी। लेकिन एक अपरिचित परदेसी की बात पर तुरंत यकीन कर लेना भी समझदारी नहीं थी। तय हुआ कि इस प्रस्ताव पर शहर के अन्य बंदर समूहों से चर्चा होगी और तदुपरांत निर्णय लिया जाएगा। बहरहाल, लम्पू को बतौर मेहमान शहर में विचरण करने का अभयदान मिल गया। अपनी पहली कूटनीतिक सफलता पर लम्पू मन ही मन गर्वित हो उठा। उसने शहरी बंदरों से भूरी की चर्चा भी चलाई लेकिन उसे निराशा ही हाथ लगी।

अगले दिन से ही लम्पू अपने मिशन पर जुट गया। चाय व पान की दुकानों पर, सैरगाहों में, बस अड्डे या रेलवे स्टेशन-जहाँ भी उसे दो-चार इंसान दिखाई पङते, वह लपक कर उनके आस-पास पहुँच जाता। यद्यपि एक-आध हल्की-फुल्की बहस को छोङकर उसे जंगलराज पर कोई सार्थक संवाद सुनने को नहीं मिला तथापि इस बात की पुष्टि अवश्य हो गई कि नारियलपुर में जंगलराज की चर्चा कोरी अफ़वाह नहीं है। दाल में जरूर कुछ न कुछ काला था।

लेकिन कई दिन गुज़र जाने के बाद भी शहर में उसे किसी शेर की सत्ता का कोई सबूत नहीं मिला। वह यहाँ के चिङियाघर को भी खंगाल आया, जहाँ डरे-डरे, सहमे और कमजोर अनेक प्रजातियों के पक्षी और छोटे जानवर पिंजङों में कैद थे। उनमें से किसी ने भी आज तक शेरखान को नहीं देखा था।

उसने स्थानीय बंदरों के मोहल्लों से लेकर मदारियों की बस्तियों तक का चक्कर लगाया। लेकिन भूरी का भी कोई सुराग नहीं मिला। हाँ, इस दौङ-धूप में एक बार पालतु कुत्तों से पीछा छुङाने की कोशिश में एक रेलिंग में फँस कर उसकी प्यारी पूँछ, आधी कट गई थी। उसे बहुत दुख हुआ, लम्बी सुंदर पूँछ उसकी शान थी। भूरी तो उसकी भूरी-भूरी प्रशंसा करते थकती न थी। पर खैर, राष्ट्र के लिए ऐसी सौ पूँछें क़ुर्बान! इस काम में यदि उसकी जान भी चली जाए तो भी कोई अफ़सोस नहीं।

शहर में उसे जहाँ-तहाँ, दुम हिलाते मरियल कुत्ते, कचरे के ढेर में मुँह मारती गायें और सुअर, भारी भरकम सामान से लदी गाङियों को खींचते कमजोर गधे और ख़च्चर मिले। ओह! कितनी दुर्दशा है जानवरों की यहाँ, उसका मन व्यथित हो उठा। और जिस देश में जानवरों के ऐसे हालात, वहाँ जंगलराज कैसे हो सकता है? लम्पू ने उनसे बातचीत की, पता चला वे पूर्ण रूप से इंसानो के अधीन थे। उसे यह जानकर बङी हैरानी हुई कि इन जानवरों ने जंगलराज शब्द को सुना तक नहीं था, इसका अर्थ जानना तो दूर की बात थी। कैसे शहरी जानवर हैं! इनसे तो हम जंगली जानवरों का ज्ञान बेहतर है।

ऐसे ही भटकते-भटकते, कीचङ भरे एक गंदे नाले के पास एक उम्रदराज़ कुत्ते को सुस्ताते देख लम्पू ने सोचा, इससे कुछ बातचीत की जाए, शायद जंगलराज के रहस्य से पर्दा उठे!



“श्वान साहब, नमस्कार! कैसे हैं आप?” बूढ़े कुत्ते ने इंसानों की बस्ती में अपने लिए ‘श्वान और साहब’ जैसा संबोधन आज तक नहीं सुना था। उसे तो सदैव दुत्कार सुनने की आदत थी। चौंककर उसने आवाज़ की दिशा में पास की दीवार पर बैठे लम्पू को देखा। लम्पू के कसरती बदन और दमकते चेहरे को देख उसे अनुमान लगाते देर नहीं लगी कि यह कोई जंगली बंदर है। उसके कान खङे हो गए। एक झटके में वह उठ कर बैठ गया।

“कहिए, क्या बात है?” दाँत किटकिटाते हुए उसने धमकी भरी गुर्राहट निकाली, “यदि तुम इस जगह को ठिकाना बनाने की सोच रहे हो तो दिमाग़ से निकाल देना।”

“अरे नहीं! नहीं-नहीं! श्वान शिरोमणि। मैं ठहरा घुमक्कङ बंदर, आज यहाँ, कल वहाँ। वैसे तो मैं ‘झमाझम’ जंगल का वासी हूँ, आपके शहर तो बस हवा-पानी बदलने आ गया।”

“हवा-पानी बदलने शहर में? क्या बात कही! हम तो आज तक यही सुनते आए हैं कि हवा-पानी बदलने, शहर से लोग जाते हैं, जंगलों-पहाङों में।”

“आपने बिल्कुल ठीक सुना आदरणीय। आप अच्छे श्वानित्व के धनी और अनुभवी जान पङते हैं। दरअसल बात यह है कि एक अति आवश्यक जानकारी के लिए मैं कई दिन से नारियलपुर में भटक रहा हूँ। अभी तक मुझे कोई रहनुमा नहीं मिला। लेकिन आपको देख मेरी उम्मीद बंधी है।”

पहली बार किसी प्रवासी जानवर से अपनी प्रशंसा सुन, बूढ़ा श्वान गद-गद हो उठा। लम्पू की चाशनी भरी बातें उसे सम्मोहित करने लगी थीं। कमर सीधी कर उसने शालीन मुद्रा बनाई और खंखारकर अपना गला साफ़ किया।

“मेरा नाम गबदू है। मैं कोशिश करुंगा। बताओ तुम्हें क्या मदद चाहिए?”

बात बनती देख, लम्पू खिसककर गबदू के थोङा और करीब आ गया, “बहुत सुंदर नाम है। आप जैसे समझदार श्वान पर बिल्कुल फ़िट बैठता है। मुझे आप लम्पू कह सकते हैं। दरअसल ‘झमाझम’ में ख़बर उङ रही है कि नारियलपुर में जंगलराज आ गया है। हमारे जंगल के राजा, महाराज रणसिंह, समस्त मंत्रीगण और प्राणी इस बात से बेहद चिंतित हैं।”

“जंगलराज!” गबदू की कमज़ोर आँखें सोचने वाले अंदाज़ में सिकुङ गईं। उसने मन ही मन कई बार दोहराया, ‘जंगलराज’, ‘जंगलराज’। सहसा उसे लगा कि उसने ये शब्द कहीं सुना है, लेकिन कहाँ? फिर अचानक वह चहक उठा।

“हाँ याद आया। यहीं पास ही में एक पार्क है- सैंट्रल पार्क। वहाँ अक्सर ख़ूब मोटे-तगङे, हट्टे-कट्टे आदम नेता, भाषण देने आते हैं। मैंने कई बार उनके मुख से यह शब्द सुना है।”

“अच्छा! तो क्या यहाँ जंगलराज आ गया है? कौन शेरखान हैं यहाँ के महाराज? किस रियासत से ताल्लुक रखते हैं।” लम्पू की उत्सुकता चरम पर थी। वह तुरंत सब जान लेना चाहता था।

लेकिन गबदू को इस शब्द के बारे में और अधिक जानकारी नहीं थी। लम्पू के सवाल से वह उलझन में पङ गया, अत: उसने संशय दूर कर लेने की ग़रज़ से पूछा, “जंगलराज से आपका मतलब क्या है?”

“जंगलराज, यानी जंगल का राज! जंगल के राजा होते हैं शेरखान- इस प्रकार जंगलराज का मतलब हुआ शेरखान का राज।”

तुरंत गबदू के दिमाग़ की बत्ती जल उठी। उसे ‘जंगलराज’ का वास्तविक अर्थ समझ आ गया।

“तब तो लम्पू जी, तुम ग़लतफ़हमी में हो। इंसानों के मुख से मैंने ये शब्द सुना जरूर है लेकिन नारियलपुर में किसी शेरखान की सत्ता नहीं हैं। हम श्वानों से अधिक ख़ूँख़ार, काटने या भौंकने वाला या शिकार करने वाला जानवर पूरे शहर में नहीं है। शेर का तो सवाल ही पैदा नहीं होता। और हम जानवरों की यहाँ क्या हालत है, तुम देख ही रहे हो! सब इंसानो के आसरे जिंदा हैं।” कहते हुए गबदू ने एक गहरी निश्वास छोङी।

लम्पू को गबदू की साफ़गोई पसंद आई। यह जानकर भी उसे संतोष हुआ कि यहाँ किसी शेरखान की हुकूमत नहीं है। लेकिन फिर यहाँ बार-बार ‘जंगलराज’ की चर्चा क्यों हो रही है? प्रश्न अब भी अनुत्तरित था। अधूरी जानकारी से लम्पू संतुष्ट नहीं था। उसने गबदू को टटोलना जारी रखा।

“तो फिर नारियलपुर में जंगलराज की ख़बर, कोरी अफ़वाह है, गबदू जी!”

“बिल्कुल। सौ फ़ीसद-कोरी अफ़वाह!”

“लेकिन फिर ये आदमजाद इस शब्द का बार-बार इस्तेमाल क्यों करते हैं?”

“देखो, मुझे राजनीति में अधिक दिलचस्पी नहीं है। यदि और अधिक जानना है तो सेंट्रल पार्क में चले जाओ। शायद तुम्हें इन सवालों का जवाब मिल जाए।” गबदू श्वान ने खङे होकर भरपूर अंगङाई ली, “अच्छा तो लम्पू जी, मेरा संध्या भ्रमण का समय हो रहा है, मैं चलता हूँ। तुमसे मिलकर ख़ुशी हुई।”

“धन्यवाद गबदू जी। मुझे इतनी महत्वपूर्ण जानकारी और अपना कीमती समय देने के लिए आपका बहुत-बहुत धन्यवाद।”

अगले रोज़ से लम्पू सेंट्रल पार्क के आसपास मंडराने लगा। हालाँकि यहाँ उसके छुपने और आराम फ़रमाने के लिए बङे पेङ नहीं थे और ना ही खाने –पीने का कोई जुगाङ था, फिर भी एक समर्पित सैनिक की तरह वह डटा रहा। पार्क की एक पानी की टंकी को उसने अपना अस्थाई ठिकाना बना लिया। तीसरे दिन सेंट्रल पार्क में अचानक से लोगों की चहल-पहल बढ़ गई। जगह-जगह गड्ढे खोद कर पोल गाङे जाने लगे और देखते ही देखते विशाल शामियाना तन गया। दोपहर बाद लोगों की भीङ जुटने लगी। मंच पर नेता लोग जमा हो गए। लम्पू के भाग्य से एक लाउड-स्पीकर पानी की टंकी पर भी टंगा था।

एक के बाद एक वक्ताओं के गरमा-गरम भाषण होने लगे। यदा-कदा भाषण चीख भरी चेतावनी में बदल जाते और पंडाल तालियों की गङगङाहट से गूँज उठता। बीच-बीच में जोशीले नारे भी लग रहे थे। अंतत: जिसका लम्पू को बेसब्री से इंतज़ार था वह पल भी आ ही गया, जब एक घनी दाढ़ी एवम मोटी तोंद वाले रोबीले नेता ने माइक सँभाला। उसके भाषण की शुरुआत ही नारे से हुई- ‘नारियलपुर का जंगलराज’, भीङ चिल्लाई ‘मुर्दाबाद-मुर्दाबाद!’ लम्पू के न केवल कान, वरन् समस्त इंद्रियाँ जाग्रत हो उठीं। जैसे-जैसे उस नेता का भाषण परवान चढ़ता गया, जंगलराज से इंसानों का क्या तात्पर्य था, सब सीसे की तरह साफ़ हो गया। भाषण की समाप्ति पर, पूर्ण संतुष्ट हो वह टंकी से नीचे उतरा। उसका मिशन पूरा हो चुका था। मकानों की खिङकियों और छज्जों पर से कूदते-फ़ाँदते वह शहर से बाहर निकल भागा।

लम्पू के नारियलपुर से सकुशल लौट आने की ख़बर ‘झमाझम’ जंगल में आग की तरह फ़ैल गई। सूचना मंत्रालय ने ‘बखेङिए’ के माध्यम से झमाझम के सभी प्राणियों को अगले दिन सार्वजनिक मैदान पर एकत्र होने की डोंडी पिटवा दी।

दूसरे दिन निर्धारित समय और स्थान पर ‘झमाझम’ के पशु-पक्षी पहुँचने लगे। बरगद के पुराने पेङ के नीचे, अनेक दरबारियों से घिरे, धीर-गंभीर मुद्रा में महाराज रणसिंह विराजमान थे। ‘पुंडरीक’ पट्टी के जागीरदार फुर्तीला देव और उनके वफ़ादार सहयोगी, मुस्तैदी से सुरक्षित दूरी पर खङे थे। हाथी, लंगूर, बंदर, भालू, भैंसे, गीदङ, लोमङी, सियार, मयूर, गौरैया, गिरगिट, कौए इत्यादि तमाम तरह के पशु-पक्षी जमा हो चुके थे।

मंच से कार्यक्रम को आरंभ करने की अनुमति लेकर मौला हाथी ने अपनी सूँड को हवा में उठाते हुए एक जोरदार चिंघाङ निकाली। “झमाझम रियासत के समस्त वासियो, जैसा कि आपको पता है पिछले कई दिन से हम सब, नारियलपुर में जंगलराज की ख़बर से परेशान थे। वास्तविकता जानने के लिए हमने बंदर कबीले के एक सिपाही को शहर भेजा। उसने अपनी जान हथेली पर रखकर मिशन को पूरा किया। जानते हो वह कौन है? उस जाँबाज़ का नाम है लम्पू!”

लम्पू भैया , जिंदाबाद के नारों और नाना प्रकार की चिल्लपों से पूरा मैदान गूँज उठा।

प्रसन्नता के अतिरेक में लम्पू ने अपने अगले पंजों से बरगद की डाल को जोर-जोर से हिलाया। ऐसा करते हुए उसकी लाल पीठ उपर-नीचे होने लगी और अधकटी पूँछ तनकर खङी हो गई। बरगद की अन्य डालियों पर लम्पू का पूरा मोहल्ला मौजूद था। सभी प्राणियों की निगाहें उसी पर टिकी थीं।

“हाँ तो आपका अधिक समय न लेते हुए अब मैं सीधे लम्पू से निवेदन करता हूँ कि वह नारियलपुर के जंगलराज का सच झमाझम के बाशिंदों के सामने रखे।”

बंदर कबीले ने किट-किट और चिक-चिक ध्वनियाँ निकाल कर लम्पू की हौसला-अफ़ज़ाई की। उनकी आवाजें रुकने पर पूरे मैदान में सुई पटक सन्नाटा छा गया। अब लम्पू ने पतली मगर आत्मविश्वास भरी आवाज़ में अपना उद्बोधन आरंभ किया।

“सम्माननीय मंच और झमाझम के सभी बाशिंदो को मेरा सादर अभिवादन। मैंने पिछले दो सप्ताह नारियलपुर में बिताए। इस दौरान मुझे अनेक विपरीत परिस्थितियों का सामना करना पङा। सबसे पहले तो वहाँ के शहरी बंदरों ने मुझे घेर लिया। जब मैंने अपने आप को उनसे घिरा पाया तो लगा अब खेल बिगङने वाला है। लेकिन मैंने भी कच्ची गोलियाँ नहीं खेली थीं, उनको ऐसा सब्ज़बाग़ दिखाया कि सब मेरे मुरीद हो गए।”

युवा बंदरों और लंगूरों ने ख़ुश होकर सीटियाँ बजाईं। लम्पू ने कनखियों से देखा, उसके ठीक सामने वाले पेङ की डाल पर अपनी मम्मी की गोद में पसर कर जूँएं निकलवा रही चींचली बंदरिया भी सीटी बजाने वालों में थी। लम्पू का मन मयूर झूम उठा। आज से पहले चींचली ने लम्पू को कभी घास नहीं डाली थी।

“वाह! तुमने उनको कैसे भरमाया? बताओ-बताओ।” महाराज रणसिंह पूरी कहानी सुनने को बेताब थे। लम्पू ने अब सविस्तार, शहर के बंदरों को भरमाने की कहानी सुना डाली। ‘पुंडरीक’ पट्टी पर केले, जामुन, पपीते और नारियल के विशाल बागान होने की बात को लेकर फ़ुर्तीला देव की हँसी छूट गई। उसको हँसता देख शेष चीते भी हँसने लगे। देखा-देखी कुछ भालू और लंगूर भी हँसते, हँसते लोट पोट होने लगे।

“शांत! शांत! हाँ तो, लम्पू आगे क्या हुआ?”

“महाराज। मैं पूरे शहर में घूमा, वहाँ के पालतु श्वानों को छकाया।”

“श्वान नहीं, कुत्ते कहो।” मौला हाथी ने टोका।

“जी। आप सही फ़रमा रहे हैं, इंसानी टुकङों पर दुम हिलाकर पङे रहने वालों को कुत्ता कहना ही उचित है। हाँ तो, मैंने वहाँ देखा, भूखी गायें गंदगी के ढेर में मुँह मारकर पेट भर रही थीं। गधे और ख़च्चर, भारी भरकम सामान से लदी गाङियाँ खींच रहे थे, आदमजाद उन पर चाबुक चला रहे थे।”

“आदमजाद, हाय-हाय” चारों ओर से आवाजें उठने लगीं।

“और महाराज! दुख की बात तो यह कि उनको पता ही नहीं था कि जंगलराज कहते किसे हैं!”

सब प्राणी साँस रोके लम्पू को सुन रहे थे। तदुपरांत लम्पू ने मदारियों के डेरे से लेकर, रेलवे स्टेशन, बस अड्डे, पान और चाय की दुकानों पर उसके द्वारा की गई गुप्तचरी के किस्से सुनाए। फिर उसने गबदू कुत्ते से अपने संवाद और उसके आधार पर सेंट्रल पार्क तक पहुँचने की बात रोचकता से बतलाई। आज सबने मन ही मन लम्पू की बुद्धिमता का लौहा मान लिया था।

“और फिर महाराज, उस सभा के मंच से एक मोटे तगङे नेता ने नारा लगाया, ‘नारियलपुर का जंगलराज’ लोगों ने जवाब में नारा लगाया ‘मुर्दाबाद-मुर्दाबाद’।”

“जंगलराज के मुर्दाबाद का नारा लगाने की उसकी जुर्अत? आदमजाद का ऐसा दु:साहस!” अचानक महाराज का गुस्सा देखकर, आसपास खङे प्राणी सहम गए। लम्पू ने बात सँभाली “महाराज मेरा भी ख़ून खौल उठा, लेकिन वहाँ गुस्से की नहीं, धैर्य की ज़रूरत थी। मुझे तो नारियलपुर के जंगलराज का राज़ जानना था।” इतना कहकर लम्पू रुक गया। अब उसने गर्दन घुमा-घुमा कर मैदान की सभी दिशाओं में अपनी नज़र डाली। आज से पहले उसने इस मैदान में ऐसी भीङ कभी नहीं देखी थी।

“लम्पू, चुप क्यों हो गए? कहते रहो। हमारा धैर्य जवाब दे रहा है।”

“हाँ, तो महाराज। उस नेता ने भीङ को संबोधित करते हुए कहा- मेरे प्यारे भाइयो, बहनों, माताओ, बुज़ुर्गो और बच्चो! जबसे नारियलपुर में गुङ-ब्राण्ड सरकार आई है, अपराधियों के हौसले बुलंद हैं। दिन दहाङे लोगों को गोलियों से भून दिया जाता है, लुटेरे खुलेआम घूम रहे हैं- राहज़नी, छिनतई, छेङछाङ एवम बलात्कार की घटनाएं बेतहाशा बढ़ गई हैं, माँ, बहनों का घरों से बाहर निकलना दूभर हो गया है। कानून व्यवस्था गुङ-गोबर हो गई है। इसको आप क्या कहेंगे, कानून का राज या जंगलराज? भीङ ने चिल्लाकर जवाब दिया- जंगलराज! जंगलराज! वक्ता ने नारा लगाया, नारियलपुर का जंगलराज! भीङ ने जोश भरा उत्तर दिया- मुर्दाबाद, मुर्दाबाद।”

“बस, बस! तो ये है नारियलपुर का जंगलराज! मैं सब समझ गया।” महाराज ने हल्की दहाङ से अपना गला साफ़ किया और बोले। “धिक्कार है आदमजाद की सोच पर। झमाझम के बहादुर निवासियो! अब मैं तुमसे पूछता हूँ। बताओ! क्या हमारे राज में कोई गोली चलाता है?”

“नहीं, नहीं” चारों ओर से आवाज़ आई।

“क्या झमाझम में राहज़नी या छिनतई होती है?”

“नहीं, नहीं”

“क्या, झमाझम में छेङछाङ की जाती है?”

“नहीं, नहीं।”

“क्या, झमाझम में बलात्कार होता है?”

“नहीं, नहीं।”

“ये सब कहाँ हो रहा है?”

“नारियलपुर में।”

“तो फिर नारियलपुर में जंगलराज कैसे हो सकता है?”

“नहीं हो सकता, महाराज। अनादि काल से जंगलराज कुदरत के नियमों से संचालित होता आया है। हमें अपने जंगलराज पर गर्व है। अपनी अराजक शासन व्यवस्था को ‘जंगलराज’ नाम देकर इंसानो ने हमारा अपमान किया है।” कोर कमेटी की एकमात्र मादा प्रतिनिधी ‘घुँघराली’ भालू ने पहली बार अपना मुँह खोला।

“महाराज! इंसानों ने हमारी भावनाओं को आहत किया है। मैं आदमजाद के विरुद्ध निंदा प्रस्ताव पेश करना चाहता हूँ।” फुर्तीला देव की आवाज़ में रोष था।

“और महाराज, मैं नारियलपुर की भ्रष्ट सत्ता का नाम ‘आदमराज’ प्रस्तावित करता हूँ।” मौला हाथी ने अपने विशाल कान फ़ङफ़ङाए और सूँड को हवा में लहराया।




चारों ओर जोशीले नारे लगने लगे। ‘लम्पू भैया-ज़िंदाबाद’, ‘जंगलराज-ज़िंदाबाद’, ‘आदमराज-मुर्दाबाद’। तदुपरांत दोनों प्रस्ताव सर्वसम्मति से पारित हो गए। लम्पू को बहादुरी का सर्वोच्च ‘झमाझम-शौर्य सम्मान’ प्रदान किया गया।

इति

प्रकाशन विवरण: श्री सरस्वती पुस्तकालय एवं वाचनालय सागर (म.प्र.) की प्रतिष्ठित त्रैमासिक पत्रिका 'साहित्य सरस्वती' के 39-वें अंक, जुलाई-सितम्बर 2023 में पहली बार प्रकाशित

 




                कविता: ढाई आखर


निर्विकार-मधुर-सावचेत
दया-करूणा भाव युक्त
दिलों को जीतते
इंसानियत को सींचते शब्द
हृदयवृत्ति-मनोवृत्ति
बदलने में सक्षम हैं शब्द

गुदगुदाते व्यंग्य बाण
हो सकते हैं प्रेम में पगे भी
या व्योम छूते अध्यात्म का
भक्तिरस में आकंठ शब्द
ममत्व-मंगल्य-मुदित
स्नेहिल धागों का इंद्रधनुषी संसार
है शब्द

देशप्रेम से ओतप्रोत
दुशमन को ललकारते
ओजस्वी शब्द
स्वर लहरियों पर हुलसित
राग-रागिनी हैं शब्द
सप्त स्वरों का गुंजन भी
मधुर मिलन लय-स्वर शब्द

सार्थक या निरर्थक
अर्थपूर्ण या अर्थहीन
रूढ-यौगिक-योगरूढ शब्द
तत्सम-तद्भव-देशज
या विदेशज शब्द
बिग बैंग की व्युत्पत्ति
सृष्टि का अनहद नाद है शब्द

विचार विमर्श तर्क वितर्क
सीमा में हैं मर्यादित
अतिकृत हुए तो
हुए अनिष्ट संहर्ता शब्द

शब्द अपशब्द भी होते हैं
आत्मसम्मान बींधते
दिलों की-रिश्तों की-समाज की
समुदायों की-देश की
नीवों में रेंगते
सर्वस्व चटकाते-भटकाते 
भ्रामक आवारा शब्द

लिपि से लिखावट से
लहजे से वेश से भेष से
खान से पान से
नाम से काम से
यह हमारा वह तुम्हारा
बाँटते-परिभाषित करते
राजनीतिक व्याकरण से इतर

किसी की आँखों में झाँकना
और डूबकर बाँचना
ढाई आखर
प्रेम इश्क प्यार के शब्द


@ दयाराम वर्मा- जयपुर 27.09.2023

प्रकाशन: 
1. भोपाल से प्रकाशित होने वाली मासिक हिंदी साहित्यिक पत्रिका- अक्षरा के अप्रैल, 2025 के अंक में 'कलम की अभिलाषा' और तीन अन्य कविताओं के साथ प्रकाशित 
2. राजस्थान साहित्य अकादमी की मुख पत्रिका मधुमती के दिसंबर-2024 के अंक में 6 अन्य कविताओं के साथ प्रकाशन





 

लघुकथा शोध केंद्र समिति, भोपाल (म.प्र.) द्वारा महिमा शुभ निलय फेज-२ जयपुर में दिनांक 17.09.2023 को आयोजित साहित्य समागम एवम् अभिनंदन समारोह


लथुकथा शोध केंद्र भोपाल की निदेशक आदरणीय कांता रॉय दीप प्रज्ज्वलित कर कार्यक्रम का शुभारंभ करते हुए

लथुकथा शोध केंद्र भोपाल द्वारा अभिनंदन, साथ में आदरणीय प्रबोध गोविल और आदरणीय डॉ. सुरेश पटवा



भोपाल से साहित्यिक और पारिवारिक मित्र आदरणीय गोकुल जी को जब दिनांक 17.09.2023 को अपने नए आवास पर आयोजित सेवानिवृत्ति समारोह के लिए आमंत्रित किया तो उनकी ओर से सुझाव आया कि क्यों न इसी कार्यक्रम के साथ एक साहित्यिक कार्यक्रम भी रख लिया जाए. गोकुल जी वर्तमान में लघुकथा शोध केंद्र, भोपाल के उपाध्यक्ष होने के साथ-साथ मध्य प्रदेश लेखक संघ के कार्यकारिणी सदस्य, पत्रिका देवभारती के संपादकीय सदस्य एवम् मासिक पत्रिका ‘लघुकथा वृत्त’ के उप संपादक हैं. चर्चा आगे बढी और लघुकथा शोध केंद्र, भोपाल की निदेशक आदरणीय श्रीमती कांता रॉय और सचित आदरणीय घनश्याम मैथिल ‘अमृत’ ने भी सहर्ष इस समारोह के लिए अपनी हाँमी भर दी. संयोग देखिए कि ख्यातलब्ध वरिष्ठ साहित्यकार-पूर्व स.महाप्रबंधक एस.बी.आई. आदरणीय डॉ. सुरेश पटवा जी, 14 सितंबर को हिंदी भाषा शिरोमणि मानद उपाधि और रामरघुनाथ स्मृति सम्मान प्राप्त करने लिए नाथद्वारा में उपस्थित थे. 

जब गोकुल जी ने उनसे चर्चा की तो उन्होंने बिना किसी दूसरे विचार के तुरंत जयपुर की (तत्काल) ट्रेन टिकिट बुक करवा ली और नियत तिथि से एक रोज पूर्व पहुंच कर लघुकथा शोध केंद्र समिति भोपाल के पदाधिकारियों एवम् स्थानिय साहित्यकारों से समन्वय करते हुए इस समारोह की रूपरेखा, बैनर्स आदि को अंतिम रूप दिया. 

अब मेरी जिम्मेवारी थी जयपुर के साहित्यकारों को आमंत्रित करने की. अधिक परिचय नहीं होने के कारण यथा संभव अल्प समय में जिन साहित्यकारों से सम्पर्क हो सका और जो रविवार को उपलब्ध थे उन्हें सादर आमंत्रित किया गया. जयपुर से वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय प्रबोध जी 'गोविल', आदरणीय जग मोहन जी रावत, बोधि प्रकाशन के मालिक और वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय मायामृग जी, वैशाली नगर जयपुर से आदरणीय डॉ. रामावतार शर्मा, व. साहित्यकार आदरणीय शिवानी जी, 'नारी कभी ना हारी-लेखिका साहित्य संस्थान जयपुर' से व. साहित्यकार आदरणीय वीणा जी चौहान और आदरणीय नीलम जी सपना ने मेरा आमंत्रण स्वीकार किया. तथापि व. साहित्यकार आदरणीय नंद जी भारद्वाज, आदरणीय लोकेश कुमार साहिल एवम् आदरणीय प्रेमचंद जी गांधी अन्य अति आवश्यक कार्यों की वजह से शामिल न हो सके. 

बीकानेर से सुप्रसिद्ध कवयित्री डॉ. चंचला पाठक, पूर्वोत्तर के वृहद साहित्य सृजक फरीदाबाद से आदरणीय विरेंद्र परमार और रावतसर से हास्य व्यंग्य कलाकार, मारवाङी व हिंदी के गीत लेखक, कवि एवम् गायक आदरणीय मदन जी पेंटर ने भी मेरे आग्रह पर अपना अमुल्य समय निकाल कर इस कार्यक्रम की शोभा बढाई. कार्यक्रम की अध्यक्षता वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रबोध गोविल जी ने की. कार्यक्रम की मुख्य अतिथि श्रीमती कांता रॉय और विशिष्ठ अतिथि श्री सुरेश पटवा एवम् श्री गोकुल सोनी थे. मंच संचालन श्री घनश्याम मैथिल अमृत ने किया. लगभग सोलह साहित्यकारों ने कविताएं, गीत, ग़ज़ल, लघुकथाएं और व्यंग्य प्रस्तुत कर इस 'साहित्य समागम' को एक अविस्मरणीय कार्यक्रम बना दिया.

लघुकथा शोध केंद्र समिति भोपाल के सदप्रयासों और मध्यप्रदेश, हरियाणा एवम् राजस्थान से पधारे वरिष्ठ साहित्यकारों की सहभातिता से सेवानिवृत्ति के इस समारोह को एक साहित्यिक क्लेवर मिला. और समारोह पूर्वक अभिनंदना करते हुए जिस प्रकार भोपाल के साहित्यिक मित्रों ने मुझ अकिंचन को गौरवांवित किया, उसका आभार व्यक्त करने के मैं नि:शब्द हूँ. इस अवसर पर दो अभिनव प्रयोग हुए, प्रथम- मैंने सभी मेहमानों से आग्रह किया था कि किसी भी प्रकार के उपहार न लाएं, और यदि बहुत ही आवश्यक समझें तो पुस्तकें भेंट कर दें. मुझे खुशी है कि मेरे इस आग्रह पर अमल करते हुए अधिकांश मेहमानों ने विभिन्न विषयों पर चुनिंदा पुस्तकें भेंट की. यदि खुशी के समारोहों में इस प्रकार की परम्परा को जारी रखा जाए तो यह साहित्यकारों और साहित्य के प्रति अत्यंत सुखद एवम् प्रोत्साहन करने वाला कदम हो सकता है. द्वितीय- अभिनव प्रयोग आदरणीय गोकुल जी और कांता जी के सद्प्रयासों और प्रेरणा से हुआ- यानि कि व्यक्तिगत खुशी के एक समारोह को एक साहित्यिक कार्यक्रम व साहित्यकारों से जोङने का. कार्यक्रम के अध्यक्ष आदरणीय प्रबोध जी गोविल ने अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में इस बात को रेखांकित करते हुए इसे एक सकारात्मक पहल बताया. उम्मीद है महिमा शुभनिलय के प्रांगण में आयोजित इस प्रथम साहित्यिक समागम से भोपाल और जयपुर के साहित्यिक रिश्तों के एक नए युग का सुत्रपात होगा. सभी साहित्यकारों का तहेदिल धन्यवाद-आभार- शुक्रिया.

डॉ. सुरेश पटवा के साथ  

बाँए से, श्री गोकुल सोनी, श्रीमती कांता राय, श्री घनश्याम मैथिल, डॉ. विरेंद्र परमार,
डॉ. सुरेश पटवा और श्री दयाराम वर्मा

श्री मदन गोपाल 'पेंटर' गीत प्रस्तुत करते हुए

श्रीमती शिवानी जी रचना पाठ करते हुए

श्री मायामृग जी अपनी काव्य प्रस्तुति देते हुए

डॉ. चंचला पाठक गीत प्रस्तुत करते हुए

डॉ. विरेंद्र परमार व्यंग्य प्रस्तुत करते हुए

मंच संचालक श्री घनश्याम मैथिल 'अमृत'

डॉ. रामावतार शर्मा का स्वागत करते हुए श्री गोकुल सोनी

श्रीमती कांता राय अपना उदबोधन देते हुए


श्रीमती नीलम कुमारी सपना, श्रीमती वीणा चौहान और श्रीमती कांता रॉय

श्री प्रबोध गोविल, श्रीमती नीलम कुमारी सपना का स्वागत करते हुए

श्री प्रबोध कुमार गोविल, अध्यक्षीय उद्बोधन 

श्री जे. एम. रावत का स्वागत करते हुए श्री गोकुल सोनी








    कविता: जॉम्बी


जब तुम सुनते हो
केवल अपने मन की बात
दिन रात
छद्म[1] प्रचार-मचानों पर
कैटवॉक करते शातिर विचार-पुंज![2]

कथा-वृत्त[3], प्रति कथा-वृत्त
उतर जाते हैं
तुम्हारे दिलो-दिमाग में
फैल जाते हैं नस-नस में
घुल जाते हैं खून में
तुम नहीं सुन पाते!

चक्रवत पसरी रेंगती दरिद्रता
महसूस नहीं कर पाते
नस्लवाद, जातिवाद संतप्त[4]
रूहों की घुटन!

उद्वाचन[5] नहीं कर पाते
बेरोजगारी, मंहगाई, घोटाले
भ्रष्टाचार
धार्मिक उन्माद
शासकीय बहरापन, राजसी हठधर्मिता![6]

तुम नहीं देख पाते
दिन दहाङे लुटते-नुचते तन-बदन
धधकती इमारतें
पलभर में भस्मीभूत
जीवन-पर्यंत संचित सपने!

तुम महसूस नहीं कर पाते
जिंदा जलते
इंसानी जिस्मों की गंध
और नहीं सुन पाते
शरणार्थी शिविरों से उठती सिसकियाँ!

खङी है जस्टीसिया[7]
खुले नैत्र, बंद दृष्टि, मूक जबान
तलवार है परंतु धार नहीं
पलङे दोनों तराजू के, समभार नहीं
कर सके निर्णय ठोस, वह विवेकाधिकार नहीं!

और
क्योंकि तुम सुनते हो
केवल और केवल अपने मन की बात
तो! ऐसा कौनसा पहाङ टूट पङा
जॉम्बी[8] के ड्राईंगरूम में
सब न्यायोचित है!

(c) दयाराम वर्मा, जयपुर 

[1] छद्म: मिथ्या-झूठे
[2] विचार-पुंज: मन में उठने वाली बातों या भावनाओं का समूह
[3] कथावृत्त- नेरेटिव्ज, प्रति कथा-वृत्त: एंटी नेरेटिव्ज
[4] संतप्त: (से) उदास, दुखी
[5] उद्वाचन: सांकेतिक शब्दों का अर्थ समझना
[6] हठधर्मिता: कट्टरता
[7] जस्टीसिया: प्राचीन रोम में न्याय की देवी को जस्टीसिया कहा गया है, जिनके एक हाथ में तराजू, दूसरे में दुधारी तलवार है और आंखों पर पट्टी बंधी होती है.
[8]जॉम्बी: एक मृत व्यक्ति के पुनर्जीवन के माध्यम से निर्मित एक (काल्पनिक) भूत-प्रेत, जिसमें इंसान जैसी संवेदनाएं नहीं होती


प्रकाशन विवरण; 
(1) सत्य की मशाल (जून, 2024) 
(2) भोपाल से प्रकाशित होने वाली मासिक हिंदी साहित्यिक पत्रिका- अक्षरा के अप्रैल, 2025 के अंक में 'कलम की अभिलाषा' और तीन अन्य कविताओं के साथ प्रकाशित
(3)  राजस्थान साहित्य अकादमी की मुख पत्रिका मधुमती के दिसंबर-2024 के अंक में 6 अन्य कविताओं के साथ प्रकाशन 



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