यात्रा वृत्तांत: स्वर्ण पगोडा की भूमि-नामसई
दिनांक 3 नवंबर 2022 से 5 नवंबर 2022 के बीच अरुणाचल के नामसई जिला मुख्यालय पर राष्ट्रीय स्तर के अरुणाचल प्रदेश साहित्य महोत्सव का आयोजन राज्य के ‘सूचना एवं जनसंपर्क विभाग’ और अरुणाचल प्रदेश साहित्यिक समाज (ए.पी.एल.एस.) के तत्वाधान में रखा गया था. इसमें देश विदेश के लगभग 100 से अधिक साहित्यकारों को आमंत्रित किया गया, सौभाग्य से उनमें से एक मैं भी था. सभी औपचारिकताओं के बाद दो नवंबर, 2022 को आयोजकों की ओर से मुझे जयपुर से वाया गुवाहाटी डिब्रूगढ़ की हवाई टिकट उपलब्ध करवा दी गई.
नामसई, लोहित जिले के पश्चिमी हिस्से को विभक्त कर सन 2014 में बनाया गया अरुणाचल प्रदेश का 14 वाँ जिला है. 'नोआ दिहिंग ' नदी के समीप बसे इस शहर की सीमाएं उत्तर-पूर्व में ‘लोहित’, दक्षिण में ‘चांगलांग’ और पश्चिम में असम राज्य के ‘डिब्रूगढ़’ जिले से लगती हैं. राष्ट्रीय राजमार्ग 15 से होते हुए, निकटतम हवाई अड्डे डिब्रूगढ़ से नामसई की दूरी करीब 125 किलोमीटर है. इस हवाई अड्डे को मोहनबाङी भी कहा जाता है.
दो नवंबर, 2022 को विमान ने जब डिब्रूगढ़ हवाई अड्डे के रनवे को छूआ तो शाम के साढ़े तीन बज चुके थे. डिब्रूगढ़ आने का यह मेरा तीसरा अवसर था. पहली बार इस हवाई अड्डे पर वायु सेना की सेवा के दौरान वर्ष 1988 में जोरहाट से तुतिंग जाते समय और दूसरी बार नवम्बर 2019 में अरुणाचल के भ्रमण से लौटते समय मेरा आना हुआ था.
यद्यपि यह एकल पट्टी वाला एक छोटा सा हवाई अड्डा है, लेकिन सुदूर दक्षिण-पूर्व अरुणाचल, पूर्वी असम एवं नागालैंड को शेष भारत से जोङने वाला एकमात्र हवाई अड्डा होने के कारण इसका महत्व बढ़ जाता है. बाहर आने के बाद मैंने हमारे समन्वयक श्री सावांग वांगछा से बात की. उन्होंने एक ड्राइवर के मोबाइल नंबर दिए. शीघ्र ही सामने की पार्किंग में ड्राइवर से संपर्क हो गया. लगभग 25 डिग्री तापमान, साफ आसमान और शांत हवाओं के चलते मौसम सुहावना था. थोङी ही देर में अहमदाबाद, गुजरात से पधारे डॉ. राजेश रठवा और सुंदरनगर, हिमाचल से पधारे वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. गंगाराम राजी भी हमसे आ मिले. ये दोनों भी अरुणाचल लिट-फेस्ट में भाग लेने जा रहे थे. डॉ. राजी के साथ उनकी धर्मपत्नी भी थीं. यहाँ से नामसई का सफ़र लगभग तीन घंटे का था. कुछ और मेहमान भी थे जो दूसरी गाङियों में जा रहे थे. शाम के चार बज चुके थे, अत: बिना समय गँवाए, हम आरामदेह इनोवा गाङी में रवाना हो लिए.
हवाई अड्डे से निकलने के पंद्रह-बीस मिनिट पश्चात ही ड्राइवर ने एक रेस्टौरेंट पर भोजन के लिए गाङी रोकी. हमने भी यहीं पर भोजन कर लेना उचित समझा. रेस्टौरेंट साफ़-सुथरा था और खाना भी संतोषजनक था. अब सूर्य अपनी अंतिम रश्मियों को समेटते हुए पश्चिम में डूबने की तैयारी कर रहा था. जयपुर (राजस्थान) और यहाँ के सूर्यास्त में लगभग डेढ़ घंटे का अंतर था. यह पूरा क्षेत्र मैदानी भाग था- डिब्रूगढ़ से ही चाय के विशाल बागान आरंभ हो जाते हैं जो आगे तक चलते हैं. लेकिन प्रतिपल गहराते अंधकार के कारण दाएँ-बाएँ कुछ भी देख पाना संभव नहीं था. गाङी की तेज गति के बावजूद झटके नहीं लग रहे थे, अर्थात राजमार्ग बढ़िया था.
परिचयोपरांत गपियाने-बतियाने का सिलसिला आरंभ हुआ. डॉ. राजेश रठवा, गुजरात विद्यापीठ अहमदाबाद में रिसर्च एसोसिएट थे. वरिष्ठ साहित्यकार और कथाकार डॉ. गंगाराम शर्मा ‘राजी’ ने बताया कि अब तक उनके 27 कहानी संग्रह और 12 उपन्यास प्रकाशित हो चुके हैं. बीच-बीच में हमारी, श्रीमान सावांग से मोबाइल फोन पर बातचीत हो रही थी जो नामसई में हमारे निर्धारित ठिकानों के बारे में मार्गदर्शन करते जा रहे थे. असम के चबुआ और तिनसुकिया शहर से गुजरते हुए लगभग दो घंटे के पश्चात गाङी ने ‘काकोपथार’ नामक चेक-पोस्ट पर अरुणाचल की सीमा में प्रवेश किया. यहाँ हमारे ‘इनर लाइन परमिट’ की जाँच की गई. नामसई पहुँचते-पहुँचते स्थानीय समय के अनुसार काफी रात हो चुकी थी. प्राय: सभी दुकानें और बाजार बंद हो चुके थे. सङक के दोनों ओर दूर-दूर तक समतली जमीन पर अंधकार में डूबे खेत-खलिहान या जंगल थे. डॉ. गंगाराम शर्मा ‘राजी’ और उनकी धर्मपत्नी को नामसई में उनके लिए आरक्षित होटल में छोङने के बाद हम आगे बढ़ गए. समन्वयक श्री सावांग वांगछा के अनुसार हमें ‘चौंखम ’ गाँव के ‘ह्वेन ताई होम स्टे’ में रुकना था. गूगल नक्शे का अनुसरण करते हुए हम नामसई से करीब अट्ठाईस किलोमीटर और आगे आ गए. लेकिन चौंखम में हमें अपने गंतव्य को ढूंढने में थोङी परेशानी का सामना करना पङा-कारण कि गूगल सही लोकेशन को मैप नहीं कर पा रहा था. इस समय वीरान सङकों पर कोई मार्गदर्शन करने वाला भी नहीं था. खैर कभी थोङा आगे कभी थोङा पीछे चक्कर लगाने के बाद अंत में हम एस.बी.आई. की शाखा के पास पहुँच ही गए, होम स्टे इसके पास ही था. इस समय रात्रि के साढ़े नौ बज चुके थे.
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बाएं से-दयाराम वर्मा, शमेनाज शेख, मुक्ता नामचूम, रूमी लश्कर बोरा -ह्वेन ताई होम स्टे चौंखम (नामसई) |
जब हम ‘ह्वेन ताई होम स्टे’ पहुँचे तो हमने यहाँ की स्वामिनी, लगभग पैंतालीस वर्षीय, गौर वर्ण श्रीमती मुक्ता नामचूम को हमारा इंतजार करते पाया. कई एकङ में फैले इस फार्म हाउस के पिछले हिस्से में दो मंजिला इमारत थी और शेष में खेती-बाङी हो रही थी. छोटे-छोटे चाय बागानों से घिरा यह होम स्टे एक शांत और खूबसूरत फार्म हाउस था. हमें एक बेहद साफ सुथरा और सुविधाजनक कमरा दिया गया. खाने में ताजा सब्जी-दाल-चावल-रोटी के साथ-साथ कुछ एक खम्पति व्यंजन और मछली आदि परोसे गए. भोजन की गुणवत्ता और स्वाद बिल्कुल घर पर बने भोजन जैसा ही था. बाद में हमें ज्ञात हुआ कि इस क्षेत्र में जगह-जगह लोगों ने अपने घरों या फार्म हाउस में होम स्टे खोल रखे हैं. बाहर से आने वाले पर्यटक होटलों में रुकने की अपेक्षा पेङ-पौधों से घिरे, खुले प्राकृतिक परिवेश वाले इन होम स्टे में ठहरना अधिक पसंद करते हैं.
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गोल्डन पगोडा- चौंखम, नामसई (अरुणाचल प्रदेश) |
अगली सुबह नाश्ते के उपरांत आसपास टहलने के उद्देश्य से हम निकल पङे. थोङा आगे, कुछ फर्लांग की दूरी पर एक पुराना बौद्ध विहार देख हम चौंक उठे. इस विहार में कई छोटे बङे मंदिर थे, जहाँ विभिन्न मुद्राओं में तथागत की गोल्डन मूर्तियाँ स्थापित थीं. यहाँ के बौद्ध मंदिरों का स्थापत्य, म्यांमार के गोल्डन बौद्ध मंदिरों सदृश होने के कारण इसे ‘सुनहरी पगोडा की धरती’ कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं. विहार में इस समय कुछ एक मजदूरों के अलावा कोई नहीं था. एक ओर नए भवन का निर्माण कार्य चल रहा था तो वहीं एक नई मूर्ति का भी निर्माण हो रहा था. पीपल के एक विशाल पुराने पेङ के नीचे टूट कर गिरी हुई पत्तियों का विशाल ढेर इस बात का द्योतक था कि पगोडा परिसर काफी समय से बंद है. कुल मिलाकर यहाँ सादगी भरी शांति का सम्मोहक वातावरण था.
गाँव की चंद और गलियों में घूमते हुए हमने देखा कि यहाँ के घर एक दूसरे से पर्याप्त दूरी पर-अपेक्षाकृत खुले परिवेश में बने हैं. घरों के एक हिस्से में या आसपास चाय के छोटे बागान भी थे. अधिकांश घर सीमेंट-कंकरीट से निर्मित पक्के बंगले-नुमा घर हैं. घरों की बालकनी, बरामदे और छत आदि पर लकङी की आकर्षक रेलिंग एवं कलात्मक आकृतियाँ, केन के सुंदर फर्निचर, रंग बिरंगे सजावटी पेङ पौधे, यहाँ रहने वालों के बेहतरीन सौंदर्य बोध को अभिव्यक्त कर रहे थे. घरों के बगीचों के बीच पारंपरिक लकङी और घास-फूस की झोंपङियाँ, मछली पालन के छोटे तालाब, मुर्गियों के झुंड, सुस्ताते कुत्ते आदि भी प्राय: सभी जगह देखने को मिल रहे थे. लगभग 9 बजे हमने स्टे होम में नाश्ता किया और साहित्य महोत्सव में भाग लेने के लिए नामसई की ओर रवाना हो लिए.
चौथे अरुणाचल लिट-फेस्ट का शुभारंभ अरुणाचल प्रदेश के उप मुख्य मुख्यमंत्री श्री चाउना मेन के मुख्य आतिथ्य में, अरुणाचल प्रदेश साहित्य समाज के अध्यक्ष और वरिष्ठ साहित्यकार पद्मश्री येशे दोरजी थोंग्ची, ख्यातलब्ध लेखिका पद्मश्री ममंग दई आदि की गरिमामयी उपस्थिति में नामसई के बहुउद्देशीय सांस्कृतिक हॉल में हुआ.
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चौथे अरुणाचल लिट-फेस्ट का शुभारंभ करते हुए मुख्य अतिथि अरुणाचल प्रदेश के उप मुख्य मुख्यमंत्री श्री चाउना मेन और अन्य अतिथि गण |
न केवल हिंदी और अंग्रेजी बल्कि भारत की विभिन्न स्थानीय भाषाओं जैसे मणिपुरी, असमी, भोजपुरी, गुजराती, बंगाली और दक्षिण भारतीय भाषाओं की रचनाओं की प्रस्तुति के कारण यह महोत्सव हमारे देश की ‘विविधता में एकता’ को मजबूती प्रदान कर रहा था. सम्मेलन में जिन प्रमुख साहित्यकारों, रंगकर्मियों, कलाकारों, कवियों, प्रकाशकों और लेखकों ने भाग लिया वे थे, वरिष्ठ साहित्यकार पद्मश्री येशे दोरजी थोंग्ची, ख्यातलब्ध लेखिका पद्मश्री ममंग दई, पद्मश्री गीता धर्मराज, ध्रुव हजारिका, दिविक रमेश, देवेन्द्र मेवाड़ी, सत्य नारायण उर्फ़ अंकल मूसा, डॉ. जमुना बीनी तादर, डॉ. रति सक्सेना, डेविड डविडर, विकास राय देव बर्मन, डॉ. वांग्लिट मोंगचां, रीकेन गोमले, जयन्त माधव बरा, तेनजिन सुंड्यु, डॉ. गंगाराम राजी, मीठेश निर्मोही, धनंजय चौहान, संतोष कुमार भदौरिया, रवि सिंह और संतोष पटेल.
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लघुकथा सत्र में अपनी प्रस्तुति देते हुए लेखक |
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लघु कथा सत्र के प्रतिभागी साहित्यकार और मोडरेटर श्री डैविड डाविडर (दाएँ से तीसरे) |
नामसई और चौंखम के बीच तेंगापानी नामक स्थान पर, तेंग नदी के किनारे नामसई का प्रसिद्ध स्वर्ण पगोडा अवस्थित है. आज थोङा समय निकालकर मैं और डॉ. रठवा यहाँ पहुँचे. 49 एकङ में फैले इस स्वर्ण पगोडा को वर्ष 2010 में आम जनता के लिए खोला गया. स्थानीय ताई-खम्पति भाषा में इस ‘कोंगमु खाम’ कहा जाता है. ‘विश्व त्रिपिका फाउंडेशन’ इस स्वर्ण पगोडा को भारत में पहले अंतर्राष्ट्रीय त्रिपिटक केंद्र के रूप में विकसित कर रहा है.
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स्वर्ण पगोडा नामसई. बांई ओर खङे हैं डॉ, राजेश रठवा |
इसमें बौद्ध विहार के अलावा बुद्ध के अनेक मंदिर बनाए गए हैं. सभी एक से बढ़कर एक खूबसूरत, विशाल और भव्य हैं. प्रार्थना सभागार में पूरी तरह केन से बनी एक मूर्ति तो विश्व में महात्मा बुद्ध की सबसे विशाल केन की मूर्ति बताई जाती है. इस पगोडा के लिए बुद्ध की एक विशाल विशुद्ध कांस्य मूर्ति थाईलैंड के भिक्षु क्लाट अरांजिकावास ने दान में दी. यहाँ का सारा निर्माण म्यांमार या थाईलैंड के कारीगरों द्वारा किया गया है. इस परिसर में एक पुस्तकालय, एक क्लिनिक और लगभग 100 भिक्षुओं के लिए छात्रावास आदि की भी उत्तम व्यवस्था है..
एक विशेष बात जो हमें यहाँ आकर ज्ञात हुई वह यह कि ताई-खम्पति की अपनी एक लिपि भी है, जिसे 'लिक ताई' के नाम से जाना जाता है. यह लिपि म्यांमार की शान (ताई) लिपि से उत्पन्न हुई है. यह एक ताई भाषा है, जिसका थाई और लाओ से गहरा संबंध है. भाषा, लिपि, रीति-रिवाज और संस्कृतियों का एक स्थान से दूसरे स्थान पर सदैव आदान-प्रदान होता रहा है. तथापि, लचीलेपन, व्यवहारिकता, व्यापार एवं सरलता आदि के पैमानों पर जो भाषा, लिपि, रीति-रिवाज या संस्कृति अधिक प्रचलन में आती है वह फलती फूलती रहती है. हरे भरे विशाल पेङों और सुंदर बगीचों के बीच बने इस पगोडा में असीम आध्यात्मिक शांति का अनुभव किया जा सकता है.
अगले दो दिन, सुबह के नाश्ते और शाम के भोजन के समय श्रीमती मुक्ता नामचूम रसोईघर में अपनी एक सहयोगिनी के साथ उपस्थित रहतीं और हमारी जरूरत की हर छोटी-बङी चीज का ख्याल रखतीं. उनकी सादगी भरी मेहमान-नवाज़ी क़ाबिल-ए-तारीफ़ थी.
उधर, लिट-फेस्ट में विभिन्न सत्रों में कथा वाचन, काव्य पाठ, लेखकों से भेंट, पुस्तक प्रदर्शनी, पुस्तक परिचर्चा, उपन्यास और कविता लेखन पर कार्यशाला, साहित्य की एक कला के रूप में रंगमंच आदि विविध विषयों पर बुद्धिजीवियों के बीच सार्थक परिचर्चाएं हो रही थीं. ‘ट्रांसजेंडर’ को समर्पित एक सत्र ‘रेनबो कोन्क्लेव’ इस समारोह का एक अनूठा आयोजन था, जिसमें ‘ट्रांसजेंडर’ समुदाय के कवियों ने अपनी रचनाओं के माध्यम से अपनी अस्वीकृति, अपमान, उपेक्षा आदि के दर्द को बखूबी बयान किया. प्राय: सभी सत्रों में बङी संख्या में स्थानीय शिक्षण संस्थाओं के विद्यार्थी भी अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहे थे. प्रतिदिन रात्रि भोज के साथ-साथ, रंगारंग सांस्कृतिक कार्यक्रमों में सभी उम्र के साहित्यकारों को बिंदास नाचते गाते झुमते देखना और उनका हिस्सा बनना अविस्मरणीय था.
चार नवंबर की रात को ‘ह्वेन ताई होम स्टे’ में गुवाहाटी की श्रीमती रूमी लश्कर बोरा और इलाहाबाद की डॉ. शमेनाज बानो भी आ पहुँची, लेकिन डॉ. शमेनाज शेख और डॉ. राजेश रठवा अगली सुबह ही चेक आउट कर चले गए. उस रोज मुक्ता नामचूम के भोजन कक्ष में सुबह के नाश्ते के उपरांत बातचीत के दौरान रूमी बोरा ने बताया कि यहाँ से थोङी ही दूरी पर 7-केएम नामक एक रिसोर्ट में साहित्य अकादमी कलकत्ता के क्षेत्रीय सचिव श्री देवेंद्र कुमार देवेश, पंडित रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय, रायपुर की सहायक प्राध्यापक डॉ. आरती पाठक और जशपुर, छत्तीसगढ़ से सहायक प्राध्यापक श्रीमती कुसुममाधुरी टोप्पो ठहरे हुए हैं और आज उनका परशुराम कुंड देखने का कार्यक्रम है. ड्राइवर सहित दो गाङियों की व्यवस्था थी, अत: मैं भी उनके काफिले में शामिल हो गया. मुझे और श्रीमती बोरा को लेकर ड्राइवर 7-केएम रिसोर्ट पहुँचा. यहाँ शेष लोग हमारा इंतजार कर रहे थे.
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7-केएम रिसोर्ट श्रीमती रूमी बोरा और लेखक |
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7-केएम रिसोर्ट श्रीमती रूमी बोरा |
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7-केएम रिसोर्ट डॉ. आरती पाठक और लेखक |
7-केएम रिसोर्ट चौंखम गाँव से कुछ एक किलोमीटर की दूरी पर ही था. स्वच्छ-पारदर्शी नील-वर्ण पानी की एक छोटी नदी के पास कई एकङ में फ़ैले इस रिसोर्ट की सुंदरता देखते लायक थी. एक तरफ, लकङी, घासफूस और बाँस के अनेक कॉटेज नजर आ रहे थे. नदी पर बने सुंदर लकङी के पुल के उस पार रिसोर्ट था. नदी किनारे लगभग आठ से दस बाँस से कलात्मक झोंपङे थे. प्रत्येक झोंपङे के आगे ढलान में, नदी के पानी को छूती हुई बांस की चटाइयाँ बिछी थीं. पानी इतना पारदर्शी था कि तलहटी में तैरती छोटी-छोटी सैंकङों मछलियाँ और लुढ़कते हुए कंकर-पत्थर तक एकदम साफ नजर आ रहे थे.
इस समय आसमान में काफी ऊँचाई पर छितराए बादल तैर रहे थे. रिसोर्ट के पीछे लंबे-चौङे मैदानों के अंत में दूर कहीं नीली चुनरिया ओढे मिश्मी पहाङियों की लम्बी शृंखला थी. आसपास के खेतों में चाय और अन्य फसलें लहलहा रही थीं. पंद्रह से बीस सैलानी भी इधर-उधर मौज मस्ती में व्यस्त थे. रिसोर्ट के भोजन कक्ष, स्वागत कक्ष और अन्य सभी प्रकार के ढांचों का निर्माण सौ फ़ीसद बाँस, केन, घासफूस आदि द्वारा अत्यंत आकर्षक डिज़ाइन में किया गया था. यहाँ कई तरह के मनोरंजक इनडोर खेल-कूद की भी व्यवस्था थी. कुछ लोग नदी में स्नान का आनंद ले रहे थे.
नदी के समीप एक प्लेटफॉर्म पर सजी पंक्तिबद्ध आराम कुर्सियों पर पसर कर हमने भी अल्प काल के लिए प्रकृति के सानिध्य में कल-कल बहते पानी के संगीत का आनंद लिया. मंथर गति से बह रहे पानी की गहराई अधिकतम कमर तक ही थी; अतएव यहाँ स्नान करने में किसी प्रकार का खतरा नहीं था. भारत में इतनी स्वच्छ एवं पारदर्शी नदियाँ दुर्लभ ही हैं. वर्ष 1988-89 में जब मैं ऊपरी सियांग जिले के तुतिंग कस्बे में था तब सियांग का पानी इसी प्रकार साफ, पारदर्शी और नील-वर्ण हुआ करता था. लेकिन, जब तीस वर्ष बाद, वर्ष 2019 में मेरा पुन: उस क्षेत्र में जाना हुआ तो गेल्लिंग से लेकर पासीघाट तक सर्वत्र सियांग के जल को काला और मटमैला पाया.
हमने थोङी देर रुककर इस रिसोर्ट के प्राकृतिक सौंदर्य का लुत्फ उठाया और फिर आगे के लिए निकल पङे. एक गाङी में मैं, देवेंद्र देवेश और रूमी बोरा थीं और दूसरी गाङी में डॉ. आरती पाठक, डॉ. कुसुममाधुरी टोप्पो उनकी बेटी और पति देव थे.
राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या 15 पर अवस्थित परशुराम कुंड की रिसोर्ट से लगभग 77 किलोमीटर की दूरी थी. इस राजमार्ग का रखरखाव अच्छा नहीं था. जगह-जगह से टूटी-फूटी होने के कारण खूब झटके लग रहे थे. सङक के दोनों ओर मैदानी भू-भाग पर दूर-दूर तक चाय और धान के खेत लहलहा रहे थे. जहाँ-तहाँ पीठ पर टोकरी लटकाए, सर पर बङे गोल केन वाले टोप ओढे, औरतें और आदमी खेतों में काम करते नजर आ रहे थे. आगे चलकर जब हमने मेडो चाय बागान और मेडो गाँव को पार किया तो पहाङी क्षेत्र आरंभ हो गया. कुंड की ओर जाने वाला मार्ग, मुख्य सङक से 90 डिग्री का कोण बनाते हुए एक पहाङी चढ़ाई वाला रास्ता था. अब हम कामलांग आरक्षित वन क्षेत्र से गुजर रहे थे. यहाँ ऊँचाई वाले पेङों, जंगली पौधों और सघन लताओं का साम्राज्य था. रास्ते में हमने अनेक सूखे नालों को भी पार किया. इस क्षेत्र में सूखे नालों की उपस्थिति असमान्य बात थी, क्योंकि जहाँ तक मेरी जानकारी थी हिमालयन नदी-नालों में वर्ष पर्यंत पानी बहता रहता है.
अरुणाचल व असम में 200 किलोमीटर की यात्रा करने के बाद लोहित नदी ब्रह्मपुत्र में समाहित होती है. इसका उद्गम तिब्बत (वर्तमान चीन) की तिरप-फासी पर्वत शृंखला है. यह दोनों देशों की सीमा पर ‘किबिथो’ नामक छोटे से गाँव के पास से गुजरते हुए भारत की सीमा में प्रवेश करती है. वहाँ से यह मिश्मी पहाङी के दर्रों को पार करती हुई लोहित जिले के मैदानी भाग में पहुंचती है. लोहित के ऊपरी इलाकों में मिश्मी जनजाति का बाहुल्य है तो इसके निचले या मैदानी भागों में खम्पति और सिंगफोस का.
लोहित जिले में जहाँ मिश्मी पहाङियाँ आरंभ होती है, वहीं विशुद्ध जल से लबरेज़ लोहित नदी भी पहाङियों से उतरकर अपना मैदानी सफ़र शुरु करती है. इसी जगह है परशुराम कुंड. पौराणिक कथाओं के अनुसार परशुराम को विष्णु भगवान के दश अवतारों में से एक माना गया है. कालिका पुराण और श्रीमद्भगवद्गीता के अनुसार त्रेता युग में ऋषि जमदग्नि की पत्नी रेणुका, एक बार नदी से पानी लेने गई. नदी में एक अत्यंत सुंदर राजकुमार को सुंदर स्त्रियों के साथ स्नान करते देख ऐसी मुग्ध हुई कि समय का ख्याल ही न रहा. रेणुका के आश्रम पहुँचने पर ऋषि जमदग्नि अत्यंत क्रोधित हो उठे और अपने पुत्रों से कहा कि वे रेणुका की हत्या कर दें. ऋषि के बङे पुत्र यह नहीं कर पाए लेकिन छोटे पुत्र परशुराम ने अपने पिता की आज्ञा का पालन करते हुए अपनी ही माँ की एक कुल्हाड़ी से हत्या कर दी. साथ ही साथ उसने अपने अन्य भाइयों की भी पिता की आज्ञा न मानने के कारण हत्या कर दी.
जब उसके पिता उससे प्रसन्न हो गए तो परशुराम ने उनसे, अपनी माँ और भाइयों को पुनर्जीवित करने का वर मांग लिया. ऋषि जमदग्नि ने पुत्र परशुराम को वर दे दिया साथ ही यह भी वर दिया कि पुनर्जीवित होने पर उसकी माँ या भाइयों को उनकी हत्या की घटना याद नहीं रहेगी. लेकिन मातृ हत्या के पाप के कारण कुल्हाङी का हत्था उसके हाथ से चिपक गया. परशुराम ने उससे छुटकारे का उपाय अपने पिता श्री से पूछा. ऋषि जमदग्नि ने कहा कि वह पवित्र नदियों में जाकर स्नान करे, जब वह पाप मुक्त हो जाएगा तो कुल्हाङी का हत्था भी छूट जाएगा.
इसी कारण परशुराम ने विभिन्न पवित्र नदियों में जाकर स्नान करना आरंभ किया और जब लोहित नदी के इस स्थान पर स्नान किया तो उसके हाथ से चिपका हुआ हत्था छूटकर गिर गया. इस प्रकार हिंदु धर्मावलंबियों के बीच, पापों से प्रायश्चित या मुक्ति की कामना के रूप में इस स्थान पर आकर स्नान करना प्रचलन में आया. प्रति वर्ष पौष माह (जनवरी) की मकर संक्रांति के दिन हजारों हिंदु श्रद्धालु यहाँ आकर पवित्र डुबकी लगाते हैं.
कुंड तक पहुँचने के लिए एक पगडंडी-नुमा रास्ता पहाङों के बीच से बना हुआ है. सबसे पहले सीमेंट के ऊंचे स्तंभों वाला एक द्वार नजर आया. इस पर लिखा था ‘ श्री परशुराम धाम कुण्ड 24.08.2010. गाङियों से उतरकर हम पैदल ऊपर की ओर चल पङे. आगे रास्ते में पुराने मंदिर परिसर के पास ही भगवान परशुराम का एक नया मंदिर बना हुआ था. इस मंदिर की 51 फुट की भगवान परशुराम की कांस्य मूर्ति का अनावरण दिनांक 21 मई 2022 को केंद्रीय गृह मंत्री श्री अमित शाह ने को किया था.
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श्री परशुराम कुंड धाम के पास लोहित नदी |
यहाँ दैनिक कामों में व्यस्त पुजारी, और कामगार लोग दिखाई पङ रहे थे. बंदर, लंगूर और गाय-बछड़े आदि भी देखे जा सकते थे. चंद प्रसाद और पूजा सामग्री से सजी-धजी दुकानें थीं. इनको पार करने पर एक घुमावदार रास्ता नजर आया-जहाँ पत्थर काट कर सीढ़ियां बनाई गईं थी. हम इन सीढ़ियों पर नीचे उतरते गए. सैंकङों सीढ़ियाँ और कई घुमाव पार करने के बाद आखिर में हमें लोहित नदी नजर आई. जहाँ सीढ़ियां समाप्त हो रही थीं वहाँ की चट्टानों से लोहित की प्रचंड लहरें टकरा कर भीषण गर्जना उत्पन्न कर रही थीं. एक ओर पहाङ के एक हिस्से में परशुराम कुण्ड का पवित्र धाम था. यहाँ एक पुजारी, श्रद्धालुओं को आशीर्वाद और प्रसाद वितरण कर रहे थे.
यद्यपि लोहित सियांग की तरह विशाल नदी नहीं कही जा सकती लेकिन इस बिंदु पर इसका बहाव काफी तेज था और पाट भी बहुत चौङा था. इस पाट के लगभग आधे हिस्से ही में नदी का प्रवाह था. थोङी ही दूरी पर नदी के आरपार एक लंबा पुल भी नजर आ रहा था. चारों ओर पहाङ, हरियाली और स्वच्छ वातावरण तन-मन को अंदर तक प्रफुल्लित कर रहे थे. यहाँ असल परीक्षा वापिस लौटते समय होती है जब खङी चढ़ाई वाली सैंकङों सीढ़ियां चढ़नी पङती हैं. गाङी की पार्किंग तक आते-आते हम सब की टांगे थक कर चूर हो चुकी थीं. यहाँ यह उल्लेख करना प्रासंगिक होगा कि जिन व्यक्तियों को घुटने में दर्द रहता है या अधिक उम्र के कारण चढ़ने-उतरने में परेशानी होती है, वे इन पहाङी सीढ़ियों पर किसी प्रकार का जोखिम न लें. लौटते समय हमने नदी पर बने पुल से बहुत सी तस्वीरें लीं और एक रेस्टौरेंट पर रुककर भोजन किया.
रास्ते में चौंखम कस्बे के नजदीक एक पालि विद्यालय का बोर्ड देखकर मैं चौंक उठा. पालि! पालि भाषा का विद्यालय और यहाँ? बाद में इस विषय पर और जानकारी जुटाने पर ज्ञात हुआ कि बौद्ध के धर्मोपदेश (धम्म) मूल रूप से पालि भाषा में ही लिपिबद्ध हुए. म्यांमार और थाईलैंड में भी बौद्ध धर्म का प्रसार-प्रचार, पूर्वोत्तर भारत से ही हुआ. बाद में ताई-खम्पति जो म्यांमार से इधर आए, अपने साथ अपनी भाषा और लिपि को भी लेकर आए. यद्यपि विश्व की सभी प्रमुख भाषाओं में बौद्ध साहित्य का अनुवाद आसानी से उपलब्ध होगा फिर भी इस लुप्तप्राय भाषा के नाम से इस छोटे से गाँव में एक विद्यालय के संचालन को इस भाषा के जरिए यहाँ के लोगों की अपनी आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक विरासत को संरक्षित रखने के एक प्रयास के रूप में देखा जा सकता है.
इस दौरे के बाद, राजीव गांधी विश्वविद्यालय दोईमुख के हिंदी विभाग के सह आचार्य श्री राजीव रंजन प्रसाद के सौजन्य से मुझे पूर्वोदय प्रकाशन, नई दिल्ली से वर्ष 2001 में प्रकाशित एक दुर्लभ ग्रंथ ‘अरुणाचल प्रदेश का खम्पति समाज और साहित्य’ प्राप्त हुआ. इसके रचयिता थे डॉ. भिक्षु कोण्डिन्य. इस पुस्तक में खम्पति समाज के इतिहास, रहन-सहन, भाषा-शैली, साहित्य, धार्मिक अनुष्ठान, बौद्ध परम्परा, रीति-रिवाज, खान-पान व कृषि आदि की अनुभवजन्य बारीक से बारीक जानकारियाँ प्रदान की गई है वह अचंभित करती है. नामसई में खम्पति प्रमुख जनजाति और थेरवादी बुद्धिज्म प्रमुख धर्म है.
आज महोत्सव का अंतिम दिन था. अरुणाचल प्रदेश लिटरेरी सोसाइटी के महासचिव मुकुल पाठक ने समारोह का विधिवत समापन किया और सभी साहित्यकारों और मेहमानों को माननीय उप मुख्यमंत्री चाउना मेन की ओर से चौंखम के नजदीक के एक गाँव ‘मेमे’ के ‘तुंग ताओ’ रिसोर्ट में आज रात्रि-भोज का न्योता भी दे दिया.
तुंग ताओ रिसोर्ट भी 7-केएम रिसोर्ट की भांति एक छोटी नदी के किनारे स्थित था. रात्रि भोज के साथ स्थानीय गीत-संगीत एवं नृत्य की शानदार व्यवस्था थी. ठंड से निपटने के लिए जगह-जगह अलाव जलाए गए थे. नदी के ऊपर बने लकङी के कलात्मक प्लेटफॉर्मों पर सांस्कृतिक आयोजन हो रहे थे. मुख्य अतिथि, साहित्यकारों और अन्य गणमान्य नागरिकों की गरिमामयी उपस्थिति में चुनिंदा लेखकों और कलाकारों को पारंपरिक ‘थाई सन पैरासोल एशियन छतरी’ के साथ सम्मानित भी किया गया. देर रात हम वापिस अपने स्टे होम में लौटे.
अगला दिन घर वापसी का दिन था. नामसई की ढेरों अविस्मरणीय यादें संजो कर हमने हमारी मेजबान श्रीमती मुक्ता वांगचूम से विदा ली और डिब्रूगढ़ हवाई अड्डे के लिए रवाना हो गए. इस समारोह में एक शख्सियत सूत्रधार की भांति हर समय हर जगह मौजूद थीं. हर व्यक्ति से उनका आत्मिक मेल-मिलाप औपचारिकताओं की सीमा से परे दिलों की सरहदों तक था. इस वृत्तांत के अंत में उस शख्सियत, हर दिल अजीज डॉ. जमुना बीनी तादर का हार्दिक आभार और धन्यवाद.
@ दयाराम वर्मा, पूर्व मुख्य प्रबंधक पंजाब नेशनल बैंक, जयपुर 09.05.2024