नरसंहार

 

(1)
यह ग़ज़ा है

इसके अस्त-व्यस्त अस्पताल के एक बेड पर
बुरी तरह घायल, पाँच वर्षीय साफ़िया
उसके बाएँ पैर की टाँग घुटने तक काट दी गई है
क्यों?… उसे नहीं पता
उसे याद है-अभी तीन दिन पहले
जब दूर आसमान में चाँदनी छिटकी हुई थी

घर की बालकनी में चुंधियाती रोशनी के साथ एक भीषण धमाका
और बस!

 

फ्रॉक की जगह
उसके पूरे बदन पर लाल धब्बों वाली सफ़ेद पट्टियाँ बँधी हैं
रोम-रोम से रिसता क्रूर, असहनीय दर्द
भयानक चीख़ों से लिपटकर
आज़ाद होने की असफल कोशिशें करता है
अस्पताल के गूँगे गलियारों से प्रतिध्वनित उसका क्रंदन
अन्ततः थक-हारकर
बेहोशी की चादर में गुम हो जाता हैं!

कभी जब उसे होश आता है
एक पल के लिए देखती है ठीक सामने-माँ
माँ-उसकी प्यारी माँ
दुनिया की सबसे सुंदर सौगात-उसकी माँ
दोनों हाथ फैलाए आ रही है दौड़ती हुई-उसकी ओर
माँ… माँ…”
लेकिन साफ़िया के हाथ… साफ़िया के पाँव…
नहीं उठते, नहीं उठ पाते
मेरे हाथ-मेरे पाँव क्यों… क्यों…क्यों…?”
अस्फुट आवाज में उलझे उसके लङखङाते सवाल
केवल सवाल, कोई जवाब नहीं!

उसके ठीक ऊपर
सफ़ेद छत तेजी से घूम रही है
काश, यह रुक जाए अभी की अभी
हरे लबादे में लिपटी एक आकृति झुकती है-उसके बदन पर
एक सुई कहीं चुभती है
वह सिहर उठती है-कराह उठती है
एक नई पीड़ा को जन्म देता-डॉक्टर का स्पर्श
माँ की धुँधली छवि-अश्रुओं की बूँदों में घुलकर बह निकलती है
कोई तो नहीं है
यहाँ उसके आसपास-है तो केवल दर्द
भयानक दर्द-जिस्म के हर हिस्से को पिघलाता हुआ
चीरता हुआ, जलाता हुआ!


(2)
जहाँ तक नज़र जाती है —
इमारतों के मलबे के ढेर, टूटी सड़कें, बिखरा असबाब
खाना और पानी की तलाश में भटकते लोग
इन्हीं में से एक है नासिर
लगभग सात वर्षीय नासिर
नंगे पाँव, अर्ध-नग्न, मैला-कुचैला बदन
बदहवास-हाथ में एक कटोरा थामे वह दौड़ रहा है
वहाँ सामने खाना बँट रहा है!

वह झौंक देता है

अपने कमजोर शरीर की पूरी ताकत
भीड़ में कभी आगे, कभी पीछे धकेला जाता है
खिचड़ी की तेज़ खुशबू
पाँच दिन से भूखे नासिर को आक्रामक बना देती है
अपने से छोटे, कमजोर बच्चों को धकियाते हुए
जैसे तैसे वह कामयाब हो जाता है!

 

ज्योंही तरल खिचड़ी का एक घूँट
उतरता है उसके हलक से नीचे
भूख किसी भेड़िये की तरह  गुर्राने लगती है
लेकिन वह जब्त करता है
वहाँ दूर, मलबे के दूसरे ढेर के पास
उसे लौटना है

और वह दौड़ पड़ता है!

 

लेकिन तभी-तड़-तड़-तड़…
गोलियों की आवाज़ों के साथ चीख-पुकार
बच्चे, बड़े, औरतें-सब भाग रहे हैं, गिर रहे हैं
एक बच्चा चीखता हुआ
ठीक उसके ऊपर आ गिरता है
नासिर के गिरने के साथ ही उसका कटोरा भी छूटकर
जा गिरता है — धूल में!

 

मृत बच्चे को अपने बदन से हटाकर वह खड़ा होता है
दोनों खून से सने हैं, लेकिन शुक्र है
मृतक के हाथ का कटोरा अब भी सुरक्षित है
अंतिम पलों तक
उसने भोजन को संभाले रखा  
नासिर उसी कटोरे को उठाकर फिर दौड़ पड़ता है!

चीखने-चिल्लाने की मार्मिक आवाज़ें
उसका पीछा करती हैं
लेकिन उसे पहुँचना है-जल्द से जल्द अपने घर
तंबू में चिथड़ों में लिपटी उसकी माँ
हफ्तों से भूखी, बुखार में तपती, जीर्ण-शीर्ण
अब केवल माँ ही तो बची है!

माँ… माँ… माँ…
देखो, मैं खिचड़ी लाया हूँ!
माँ उठो, कुछ खा लो- माँ… माँ…
तंबू में घुसते ही नासिर चिल्लाता है
लेकिन माँ के शरीर में कोई हलचल नहीं है
उसकी पुतलियाँ स्थिर हैं, हाथ-पाँव ठंडे पड़ चुके हैं
तो क्या? माँ भी…
उसके बदन में एक झुरझुरी-सी दौड़ जाती है
उसका दिमाग सुन्न हो जाता है!


चारों ओर पसरा है डरावना सन्नाटा
धीरे-धीरे नासिर के तमाम दर्द, भय, क्रोध भावशून्य हो जाते हैं
और पेट की बेरहम, बेशर्म भूख
कटोरे पर झुक जाती है!

 

© दयाराम वर्मा, जयपुर (राज.) 13 जुलाई, 2025


व्यंग्य: राष्ट्रीय फसल




वर्षों की भक्ति से प्रसन्न, बाबा भूतनाथ ने अपने परम शिष्य लच्छूलाल बङबोले को गुदड़ी में छिपाकर रखी नक़्क़ाशीदार बोतल थमाते हुए कहा-“वत्स! तुम्हारी सेवा चाकरी से प्रभावित होकर हम तुम्हें अपना सबसे खास तोहफ़ा भेंट कर रहे हैं.”

लच्छूलाल ने उलट-पलट कर बोतल को देखा. इस पर हरे रंग का रैपर चिपका था; रैपर पर लंबे-लंबे दाँतों, डरावनी आँखों, फङफङाती भुजाओं और सफ़ाचट खोपङी वाले किसी दैत्य की तस्वीर छपी थी. वैसे तो बङबोले को सैंकङों किस्म की ब्रांडेड सोमरस चखने का दीर्घकालीन अनुभव था, लेकिन उसकी पारखी नज़रों के सामने ऐसी अजीब-ओ-ग़रीब बोतल पहली मर्तबा पेश हो रही थी. अपेक्षाकृत वज़्नी बोतल में सोमरस की तरल-दिलकश हलचल के स्थान पर कोई ठोस वस्तु लुढ़क रही थी. उसे इस तरह हैरान-परेशान देख, बाबा भूतनाथ ने ज़ोरदार ठहाका लगाया.

“तुम जो समझ रहे हो, वह इसमें नहीं है लच्छू! इसमें है जिन्न-आईटी जिन्न. जैसे ही ढक्कन खोलोगे, बाहर आ जाएगा, हा…हा…हा…..”

“क्या! मारे अचरज के लच्छूलाल उछल पङा, बोतल उसके हाथ से गिरते-गिरते बची.”

“अरे.रे…. रे, संभल कर! जिन्न बहुत आज्ञाकारी और उसूलों का पक्का है. जो कहोगे करेगा. लेकिन….”

“लेकिन क्या गुरुदेव”?

“जिन्न को हर वक्त किसी न किसी काम में उलझा कर रखना अति आवश्यक है, अन्यथा बाजी उलटी भी पङ सकती है.”

“अवश्य गुरुदेव.” लच्छूलाल की आँखें चमकने लगी. वर्षों से उसे ऐसी ही किसी चमत्कारी चीज की तो तलाश थी! उसका बायाँ हाथ फ़ुर्ती से बोतल के ढक्कन की ओर लपका.

“ठहरो! ऐसे नहीं, इतना जल्दी भी नहीं. पहले सोच लो इससे क्या काम करवाना है”? बाबा भूतनाथ ने आगाह किया. लेकिन लच्छूलाल बङबोले तो चमत्कार को जल्द से जल्द साक्षात कर लेना चाहता था, बोला-“सोच लिया गुरुदेव, ऐसा काम दूंगा कि जिन्न भी याद रखेगा.”

“ठीक है वत्स, जैसी तुम्हारी मरजी.”

आनन-फ़ानन में लच्छूलाल ने बोतल का ढक्कन खोल दिया. बोतल से पहले धीरे-धीरे, फिर तेज़ी से धुआँ उठने लगा. देखते ही देखते धुएं ने विशाल आकार ग्रहण कर लिया और भयंकर अट्टहास करते हुए इसमें से एक दैत्य प्रकट हुआ. यह दैत्य हू-ब-हू बोतल के रैपर पर छपी तस्वीर सदृश था. लगभग आठ फिट लम्बे-चौङे, हट्टे-कट्टे जिन्न ने झुककर लच्छूलाल बङबोले को सलाम किया.

“मैं हूँ आईटी जिन्न, आपका गुलाम. आप जो कहेंगे-वही करूंगा. हुक्म करो, हुक्म करो मेरे आका.”

लेकिन लच्छूलाल बङबोले तो डर के मारे कांप रहा था. बाबा ने हाथ उठाकर शांत स्वर में कहा-“घबराओ नहीं, वह तुम्हारा गुलाम है. उसे आदेश दो.”

लच्छूलाल ने हिम्मत जुटाई. “जाओ, जाकर फलां-फलां को गालियाँ देकर आओ.”

“जो हुक्म मेरे आका.” अगले ही पल जिन्न अंतर्धान हो गया. बाबा भूतनाथ के इस चमत्कारी तोहफे को पाकर लच्छूलाल न केवल आश्चर्यचकित एवं खुश था बल्कि अत्यंत कृतज्ञ भी था. उसने बाबा के चरणों पर बारंबार माथा रगङा.

उधर जिन्न ने अपना नवीनतम एप्पल मोबाइल निकाला, कीपैड पर दनादन अंगुलियां दौड़ाईं और एक दमदार मैसेज जिन्न बिरादरी के देश भर में फैले विशाल व्हाट्सएप समूहों और फेसबुक, ट्विटर आदि पटलों पर पोस्ट कर दिया. दूसरे दिन शाम तक मैसेज का प्रभाव हर गली-कूचे में नजर आने लगा. काम पूरा होते ही वह लंबे-लंबे डग भरता हुआ-लच्छूलाल बङबोले के घर जा पहुँचा.

“हुक्म मेरे आका! बोल अब क्या करना है”? लच्छूलाल ने प्रशंसनीय नजरों से जिन्न को देखा.

“ऐसा करो, फलां-फलां के जो-जो दोस्त हैं; उन सबको भी गालियाँ दे डालो.”

“जो हुक्म मेरे आका.” जिन्न तुरंत हुक्म-बरदारी में जुट गया. अगली सुबह तक फलां-फलां के सभी यार-दोस्तों की पहचान कर ली गई और शुद्ध घासलेट में तली हुई, गर्मा-गरम गालियाँ उनके फेसबुक, ट्विटर, व्हाट्सएप आदि पटलों पर चस्पा कर दी गईं. जिन्न का उसूल था कि जैसे ही काम पूरा होता, अगले आदेश के लिए वह तुरंत आका के सामने हाजिर हो जाता.

सुबह-सुबह लच्छूलाल बङबोले हल्का होने संडास की ओर जा ही रहे थे कि कॉलबैल बज उठी. दरवाज़े पर चिर परिचित अंदाज़ में जिन्न खङा था. लच्छूलाल को देखते ही झुककर बा-अदब सलाम ठोका, “बोल मेरे आका, अब क्या हुक्म है.”

“अरे! इस बार तो बहुत जल्द काम खत्म कर लिया. वाकई तुम कमाल के हो….. हम्म…हाँ, ऐसा करो-पता लगाओ, कौन लोग हैं जो फलां-फलां से हमदर्दी रखते हैं, और उन सबके मुँह पर भी एकदम ताजा और तीखी गालियां चिपका दो.”

“जो हुक्म मेरे आका.” अगले ही पल जिन्न अंतर्धान हो गया. इंटरनेट, एल्गोरिदम और ए.आई. के जमाने में जिन्न के लिए इस प्रकार के काम बहुत आसान हो गए थे. शाम ढलते-ढलते, उसने फलां-फलां के सभी हमदर्दों के आभासी ठिकानों पर नए डिजाइन की नमकीन गालियों के डिब्बे बख़ूबी पहुँचा दिए.

“हुक्म मेरे आका….”

लच्छूलाल बङबोले की मुट्ठी में कसी हुई मुर्गे की टाँग अभी हवा में ही लहरा रही थी. इस वक्त जिन्न को देख, उन्हें बङी झुंझलाहट हुई. लेकिन उसे इंतिज़ार के लिए भी तो नहीं कह सकते थे. बाबा के बताए अनुसार, एक काम पूरा होते ही, तुरंत उसे दूसरा काम देना आवश्यक था. लच्छूलाल को एक आइडिया सूझा.

“अच्छा बताओ, कौनसी गाली दी? माँ की या बहन की”?

“माँ की मेरे आका.” लच्छूलाल को जैसे राहत मिली. तुरंत हुक्म दिया.

“जाओ, जिनको माँ की गाली दी है, उन सभी को बहन की गालियां भिजवाओ.”

“जो हुक्म मेरे आका.” कहते हुए जैसे ही जिन्न गायब हुआ, लच्छूलाल ने एक गहरी साँस छोङी. ‘चलो अब कम से कम कल शाम तक की छुट्टी’, और वह स्वाद ले-लेकर मुर्गे की मसालेदार टाँग को दाँतो से नोचने लगा. दो पैग स्कॉच के साथ लज़ीज़ खाना समाप्त कर लच्छूलाल सोफे पर पसर गया और टीवी ऑन कर लिया.

इस बीच जाने कब उनकी आँख लग गई और जब अचानक नींद खुली तो देखा कोई दरवाज़ा पीट रहा है. बिजली गुल थी. मोबाइल टॉर्च जलाकर दरवाज़ा खोला-सामने जिन्न खङा था. खीजते हुए उन्होंने आँखें झपझपाई-“इस वक्त! रात के बारह बज रहे हैं. सुबह होने का तो इंतिज़ार कर लेते?”

“मेरे आका. फलां-फलां को, उनके यार-दोस्तों को और उनके हमदर्दों को-बहन की खुशबूदार, चटपटी गालियाँ परोस दी गई हैं. जिन्नात के दिन रात नहीं होते. आप तो बस अगला आदेश दीजिए.”

“अमा यार. इतनी जल्दी कैसे कर लेते हो सब”? स्वर में थोङी नरमी लाते हुए लच्छूलाल ने आश्चर्य व्यक्त किया.

“हम जिन्नात का नेटवर्क बहुत स्ट्रांग है मेरे आका. फिल्ड जिन्नात को प्रति फॉरवर्ड, दो गिन्नी प्रोत्साहन राशि दी जाती है. लेकिन आप इन सब की चिंता छोङो. आपका गुलाम मैं हूँ; हुक्म करो, अब किसकी माँ-बहन करनी है”?

क्या मुसीबत है. लच्छूलाल बङबोले ने बङबङाते हुए दिमाग पर जोर डाला; थोङा विचार करने के उपरांत जिन्न से मुख़ातिब हुए.

“इन सबको बाप की गाली निकालो.” जिन्न ने वहीं खङे-खङे मोबाइल पर कुछ टाइप किया और बोला, “जिन्नात को हिदायत दे दी गई है-काम थोङी देर में हो जाएगा. मैं फिर हाजिर होता हूँ मेरे आका.”

अपेक्षा से कम समय में यह काम भी संपन्न हो गया. लच्छूलाल बङबोले के आगामी आदेशानुसार, फलां-फलां के दादा, परदादा यहाँ तक की सैंकङों साल पहले मर चुके पूर्वजों तक को गालियाँ चस्पा करवा दी गई. देश के हर आम और खास के मोबाइल में रोज गालियों की नई-नई खेप आती और ड्राइंग रूम से होते हुए, गली-मोहल्ले-ऑफिस, चौपाल और मंचों तक छा जातीं.

लेकिन रोज़-रोज़ गालियों के नए विषय ढूँढना लच्छूलाल के लिए अब चुनौती बनता जा रहा था. तमाम तरह के रिश्ते नातों का नंबर लग चुका था. लच्छूलाल के विशेष सलाहकार ने कुछ और विषय सुझाए जैसे-पहनावा, रीति-रिवाज, पूजा-अर्चना पद्धति, धर्म-स्थल, खान-पान आदि; जिनके माध्यम से जिन्न को कुछ और दिनों के लिए व्यस्त कर दिया गया. लेकिन यह सब भी निपट गया … अब आगे क्या? थक-हारकर लच्छूलाल ने बाबा से जिन्न को काबू करने का उपाय पूछा.

“बङा आसान है, वत्स. जिस बोतल में वह कैद था, उसमें राई के बीज भरकर जिन्न से कहना कि इनको गिनकर बताओ. और जैसे ही वह बोतल में घुसे, चुपचाप मौका देखकर बाहर से ढक्कन बंद कर देना. लेकिन वत्स फिर बोतल मुझे लौटानी होगी-जिन्न अपने साथ धोखा करने वालों को कभी माफ़ नहीं करता. लच्छूलाल बङबोले को जिन्न से छुटकारा पाना था-सो बाबा के बताए अनुसार उसे पकङा और बोतल बाबा को सौंप दी.

उधर देश के हर टीवी चैनल पर गाली आधारित प्राइम टाइम चर्चाओं में कहीं कोई कमी नहीं हुई. बङे-बङे सेमिनार, चुनावी रैलियाँ, सभाएं गालियों से आरंभ होती, गालियों से ही परवान चढ़ती और समाप्त भी किसी गाली पर जाकर ही होती.

व्हाट्सएप, ट्विटर, फेसबुक, यू-ट्यूब आदि आभासी पटलों पर नई-नवेली गालियों, प्रति-गालियों से अलंकृत, सुसज्जित मैसेज, मीम, चुटकुलों और रील्स आदि की बाढ़ बदस्तूर बह रही थी. छोटे-छोटे गाँवों से लेकर महानगरों तक, डिजाइनर गालियों का बेतहाशा उत्पादन और आदान-प्रदान हो रहा था. इस दौङ में छुटभैयों से लेकर बङे-बङे स्वनामधन्य (तथाकथित) कवि, लेखक, चिंतक, विद्वान, साहित्यकार और धर्मगुरु भी शामिल थे.

हर तबके, जाति, धर्म, पेशे, दल और विचारधारा के लोग गालियों को परोक्ष या अपरोक्ष ग्रहण कर रहे थे. एक विशेष वर्ग के लोग तो गालियों के इस कदर व्यसनी हो चुके थे कि गाली खाते, गाली की जुगाली करते, गाली मूतते और गाली ही हगते. ऐसे लोगों को जब कभी क़ब्ज़ की शिकायत होती और डॉक्टर एनीमा करते तो आंतों से गालियों की सङी हुई गाँठें बाहर निकलती.

चपरासी से लेकर कलेक्टर, सिपाही से लेकर आई.जी., नेता-अभिनेता, पत्रकार, मंत्री, मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री, न्यायाधीश, सचिव, यहाँ तक की सैन्य अधिकारी, शहीद एवं उनकी विधवाएं तक भी गालियों की जद में आ चुके थे. गालियाँ हवाओं में घुल चुकी थीं. किसी को पता नहीं था कि कब, क्यों, कैसे और किस दिशा से उस पर गालियाँ बरसने लगेंगी.

एक रोज़ लच्छूलाल बङबोले ने अपने विशेष सलाहकार से पूछा-“सलाहकार महोदय, जिन्न को तो हमने बोतल में डाल दिया था, फिर भी गालियों की फसल कैसे लहलहा रही है? इसे कौन खाद-पानी दे रहा है भाई”?

सलाहकार ने थोङा सोचा, फिर सधे हुए शब्दों में विनम्रता पूर्वक निवेदन किया, “सर, गुस्ताख़ी माफ़ हो तो अर्ज़ करूँ.

“कहो-कहो, बेफ़िक्र होकर कहो.”

“सर, गालियों के लिए अब किसी जिन्न की जरूरत नहीं रही. अधिकांश लोग गाली परस्त हो चुके हैं. अनियंत्रित जातिगत भेदभाव और धार्मिक उन्माद से देश की आत्मा पहले से ही छलनी थी; अब वैचारिक और तार्किक असहिष्णुता और हद दर्जे की कूपमंडूकता ने रही सही कसर भी पूरी कर दी है. बाज़ लोग घरों में गालियाँ बोते हैं, गमलों की तरह सजाते हैं, मालाओं में पिरोते हैं, एक दूसरे को देते और लेते हैं. गाली अब राष्ट्रीय फसल बन चुकी है सर!”

लच्छूलाल बङबोले ने बात की गहराई को समझा. परम संतुष्टि के भावों से उसका रोम-रोम खिल उठा. धीरे-धीरे विजयी मुस्कान की एक लंबी लकीर उसके चेहरे पर खिंचती चली गई.


© दयाराम वर्मा, 17 मई, 2025-जयपुर (राज.)



आलेख: डॉ. त्रिलोक चंद माण्डण की मूर्तिकला और काव्यधारा 

एक अद्भुत मूर्तिकार:

भारतीय परंपरा में 64 कलाओं का उल्लेख मिलता है, जिन्हें "चौषष्ठि कलाएं" कहा गया है. इनमें जीवन के प्रत्येक पहलू को कला के रूप में देखा गया है, चाहे वह संगीत हो, नृत्य हो, वास्तु हो या मूर्तिकला. आधुनिक दृष्टिकोण से कला को तीन प्रमुख श्रेणियों में बाँटा गया है: दृश्य कला, श्रव्य कला और दृश्य-श्रव्य कला.

पाश्चात्य संस्कृति में शास्त्रीय कलाओं को मुख्यतः आठ भागों में विभाजित किया गया है, तथापि मूर्तिकला इन सभी वर्गीकरणों में अनिवार्य रूप से विद्यमान है. किसी टेढ़े-मेढ़े पत्थर या लकङी के टुकङे को छैनी-हथौड़े के माध्यम से एक सुंदर और सजीव रूप प्रदान करना केवल श्रमसाध्य कार्य ही नहीं, बल्कि एक कलाकार की एकाग्रता, धैर्य और कल्पनाशक्ति की कठोर परीक्षा भी है. राजस्थान के हनुमानगढ़ जिला मुख्यालय से लगभग 67 किलोमीटर दक्षिण की ओर नोहर तहसील के एक छोटे से गाँव-ढंढेला निवासी श्री त्रिलोक चंद माण्डण काष्ठकला के ऐसे ही एक समर्पित साधक हैं.

सन 1986 में हाईस्कूल तक की शिक्षा पूर्ण करने के पश्चात आपने अपने पुश्तैनी व्यवसाय, ‘फर्नीचर निर्माण’ में पदार्पण तो किया, परंतु यह कार्य उन्हें मानसिक संतुष्टि नहीं दे पा रहा था. वस्तुत: उनका मन तो कुछ और, सृजन के कुछ अलग-अभिनव प्रयोग करने को उद्वेलित था. उनका अंतस किसी आराध्य, किसी घरेलू सामान, किसी क्रांतिकारी या किसी प्रसिद्ध व्यक्ति की त्रिआयामी ज्यामितीय आकृतियों में उलझा रहता. अंगुलियाँ काष्ठ के उबड़-खाबड़ टुकड़ों पर कल्पनाओं को मूर्त रूप प्रदान करने के लिए मचलती रहतीं.

और अंतत: गणेश चतुर्थी सं. 2054 (वर्ष 1997) के रोज आपने भगवान गणेश की एक मूर्ति बनाकर काष्ठकला का विधिवत श्री गणेश कर ही दिया. इसके बाद इन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा. एक के बाद एक विविध कलाकृतियां, मूर्तियां, गहने, चित्रकारी और घरेलू उपयोग की वस्तुएं बनाते हुए वे अपनी कला को निरंतर निखारते गए. यद्यपि लकङी की कारीगरी इन्हें पुश्तैनी धंधे के रूप में मिली लेकिन इसे एक कला के रूप में विकसित करने का विचार इनका अपना था. बाद में हरियाणा के एक कस्बे शेखूपर दड़ौली के श्री साहबराम भथरेजा के सान्निध्य में आपने कला की बारीकियों को सीखा. इसी क्रम में इन्हें पेंटर श्री एस. कुमार नांगल से भी काफ़ी प्रोत्साहन मिला.

"मैं अकेला ही चला था जानिब-ए-मंज़िल मगर/ लोग साथ आते गए और कारवाँ बनता गया”

पिछले तीन दशकों में श्री माण्डण ने एक हजार से अधिक नायाब काष्ठ की मूर्तियों और कृतियों को गढ़ा है और अनेक कीर्तिमान स्थापित किए हैं. गौरतलब है कि आप बिना किसी प्रकार की मशीन, उपकरण या ग्लू आदि की सहायता के केवल परम्परागत औजारों से ही मूर्तियों को उकेरते हैं. आपने पतंजलि योग-दर्शन के समाधिपाद के 51 संस्कृत सूत्रों और संविधान की प्रस्तावना को भी काष्ठ पट्टिका पर उकेरा है. इनके शिल्प की सफ़ाई और बारीकी, देखने वालों का ध्यान अपनी ओर बरबस ही आकृष्ट कर लेती हैं. विशेष बात यह भी है कि आप इन अनमोल कलाकृतियों का विक्रय नहीं करते.

अनेक स्थानीय पुरस्कारों के अतिरिक्त, देश भर की विभिन्न संस्थाओं द्वारा श्री माण्डण को दो दर्जन से अधिक राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार एवं सम्मान और अन्य प्रतिष्ठित संस्थाओं से लगभग एक सौ सम्मान मिल चुके हैं. इनमें राजस्थान का ‘विश्वकर्मा रत्न’ सम्मान, पंजाब का ‘राष्ट्रीय गौरव अवॉर्ड’, नई दिल्ली का ‘द लीजेंड ऑफ सुभाष चन्द्र बोस राष्ट्रीय अवॉर्ड’, महाराष्ट्र का ‘ग्लोबल रत्न अवार्ड’ आदि उल्लेखनीय हैं.

अमेरिकन आर्ट्स वोसा, वर्ल्ड ह्युमेन राइट्स ऑर्गेनाइजेशन और आर्ट एंड लिटरेचर इंटरनेशनल डायमंड एकेडमी (हंगरी) द्वारा आपको मानद डॉक्टरेट की उपाधि प्रदान की गई. डायनामिक रिकॉर्ड बुक ने मई 2019 में इनके द्वारा बनाई गई 6mm की काष्ठ-आटा चक्की (flour mill) को विश्व की सबसे छोटी आटा चक्की के रूप में दर्ज किया. अंतरराष्ट्रीय विश्व कीर्तिमान की पुस्तक ने अपने वर्ष 2025 के संस्करण में आपको ‘राइजिंग स्टार’ के रूप में शामिल किया. रॉयल पीस फेडरेशन द्वारा मई 2025 में ‘रॉयल पीस अवार्ड’, आइडियल इंडियन बुक ऑफ रिकॉर्ड्स की ओर से वर्ष 2022 का ‘लाइफ टाइम अचीवमेंट अवार्ड’, ‘गोल्डन स्टार ऑफ द वर्ल्ड’-जुलाई 2024. रॉयल ट्रस्ट इंटरनेशनल द्वारा ‘बेस्ट एनवायरनमेंट स्पोर्टर’ और ऑस्कर मैगजीन फॉर अरब एंड इंटरनेशनल आर्ट्स एंड लिटरेचर द्वारा ‘द गोल्डन मेडल’ से नवाजा जा चुका है.

एक ओर जहाँ श्री माण्डण, एक समर्पित साधक की तरह काष्ठ कला को उत्कृष्टता की ऊंचाइयों पर पहुँचाने का अतुल्य और प्रशंसनीय कार्य निस्वार्थ भाव से करते आ रहे हैं, वहीं दूसरी ओर-‘उच्च विचार-सादा जीवन’ सुक्ति वाक्य को चरितार्थ करते हुए, एक साधारण किसान की भांति अपने खेतों को भी शिद्दत से संभालते हैं.

कृत्रिम मेधा और आधुनिक CNC लेजर कटिंग मशीनों के प्रादुर्भाव के कारण वर्तमान में मूर्तिकला जैसी परंपरागत कलाओं पर गहरा संकट छा गया है. जो काम एक कलाकार कई दिन की अथक मेहनत से करता था, वह चंद घंटों में ही इन मशीनों द्वारा किया जा सकता है. लेकिन श्री माण्डण जैसे अद्भुत कलाकार की मौलिक कलाकृतियों का स्थान कोई मशीन कभी नहीं ले सकती. निश्चित रूप से आपने, काष्ठ कला को एक नई ऊंचाई प्रदान की है और अपने गाँव, अंचल और देश का नाम रोशन किया है.

एक अलबेला कवि और लेखक:

बहुमुखी प्रतिभा के धनी श्री माण्डण जितने अच्छे काष्ठ मूर्तिकार हैं उतने ही अच्छे लेखक और कवि भी हैं. आपके लेखन में, आध्यात्मिक दर्शन एवं चिंतन, सांस्कृतिक समावेश, व्यवहारिक दृष्टिकोण और सामाजिक सरोकार की धाराएं एक साथ प्रवाहमान हैं. इनके छंदात्मक दोहे, बरबस ही अकबर के नवरत्नों में से एक कवि ‘अब्दुर रहीम ख़ानख़ाना’ के ‘गागर में सागर’ सरीखे, नीतिगत दोहों की याद दिलाते हैं.

बिना किसी औपचारिक शिक्षा के इस तरह का उच्च कोटि का काव्य सर्जन चकित करता है. इनके दोहों में अनुभवजन्य यथार्थ, आलंकारिक सौंदर्य, धार्मिक और सांस्कृतिक सहिष्णुता और मानव संबंधों की सूक्ष्म समझ का प्रभावशाली संमिश्रण है. आपने अपनी काव्यधारा में राजस्थानी-मारवाड़ी अंचल के देशज शब्दों का सांगोपांग प्रयोग किया है. प्रस्तुत है भावार्थ सहित, इनके द्वारा रचित चंद दोहे.


“मन ठोकरां ठिकर हुआ, हीरां पकड़ी गेल/ धी बोध उलट धर दिया,इन्ह विद रचा खेल”


“मन ठोकरां ठिकर हुआ,हीरां पकड़ी गेल”: इस पंक्ति में कवि का आशय है कि मन जब तक वासनाओं, इच्छाओं और भ्रमों में उलझा रहा, तब तक वह ठोकरें खाता रहा और टूटे हुए ठीकरों (मिट्टी के बर्तनों) की तरह बिखरा हुआ था. लेकिन जब ज्ञान, विवेक या सत्संग के माध्यम से जागृति आई, तब 'हीरा' (अर्थात् सच्चा आत्मबोध या परम सत्य) हाथ लग गया. यानी जीवन का असली रत्न जब मिल गया तो मन भटकाव से मुक्त हो गया.

“धी बोध उलट धर दिया, इन्ह विद रचा खेल”: जब ज्ञान (धी = बुद्धि, बोध = जागरूकता) प्राप्त हुई, तो दृष्टिकोण ही उलट गया. दुनिया को देखने का नजरिया पूरी तरह बदल गया. वही संसार, वही जीवन, पर अब उसे देखने की ‘विद्या’ (अर्थात विवेकपूर्ण दृष्टि) अलग है. और इसी 'बदलाव' के साथ एक नया 'खेल' रचा गया – यानी जीवन को अब एक लीलामय, जागरूक दृष्टि से देखा जाने लगा.


“सेंवरा साथ जिंदगी, सहारा ले निभाय/ चार दिना री चाँदणी, बिछेड़ा ह निर्धाय”


"सेंवरा साथ जिंदगी, सहारा ले निभाय”: "सेंवरा" यानी जीवन का साथी, प्रियतम, जीवनसाथी या जिसे जीवन में सहारा माना गया हो. कवि कहता है कि जीवन अपने साथी (सेंवरा) के साथ बीता है, लेकिन यह साथ भी एक "सहारा" था, स्थायी नहीं. यह साथ निभाना, जीना, सब केवल एक सहारे के भरोसे हुआ, यानी अस्थायी आधार पर टिका था.

"चार दिना री चाँदणी, बिछेड़ा ह निर्धाय”: चार दिनों की चाँदनी-यह एक मुहावरा है जिसका अर्थ होता है थोड़े समय की सुखद स्थिति. यहाँ बताया गया है कि यह जीवन या साथ केवल कुछ समय की चाँदनी की तरह चमका, बहुत सुंदर, लेकिन अस्थायी. और अंत में "बिछेड़ा ह निर्धाय"-अर्थात् बिछड़ना (वियोग) तो पहले से ही तय था. यह साथ जितना भी प्यारा था, उसका अंत विछोह से होना था.


“जळ जन जीवन जेवड़ी,जळ प्राण जगदीश/ सहज समित जळ राखणा,करो भूमि प्रवेश”


भावार्थ-जल ही जन जीवन का मूल स्रोत है. यह केवल मानव का ही नहीं, बल्कि समस्त सृष्टि और ईश्वर की चेतना का भी आधार है. अतः जल को सहजता और संतुलन के साथ संरक्षित रखना चाहिए, और उसे भूमि में प्रवेश कराकर भूजल स्तर को बनाए रखना चाहिए.


“चुग चुगली झोळी भरी, बां'ट घणा परवान/ निज आत्म ओळख बिना, भौंक रह्यो स्वान”


भावार्थ: कपटी व्यक्ति चुगली और निंदा से अपनी झोली भर रहा है और समाज में उसे मान्यता भी मिल रही है. लेकिन जिसने अपनी आत्मा को नहीं पहचाना, वह तो बस एक कुत्ते के समान भौंकता ही रह गया, शोर करता है, पर अर्थहीन.


“भौंक ध्ये धर्म धरिया, झोळी कपट खोरिया/ मार-मार जीव भरमा'व, निज स्वार्थ कारण जारिया”


भावार्थ: जो केवल ऊपरी धार्मिकता के नाम पर भौंकते हैं, वे धर्म की गहराई नहीं समझते. उनकी झोली कपट और पाखंड से भरी है. वे दूसरों को डराकर, उलझाकर अपने स्वार्थों की पूर्ति करते हैं. निज स्वार्थ के लिए दूसरों को भ्रम में डालते हैं.


“भेख देख जगत भरमाई, झोळी मांय राग समाई/ राग पलट मन द्वेषा आई, गौचर शिद्ध हुआ रे भाई”


भावार्थ: दुनिया केवल उनका भेख (वेशभूषा) देख कर भ्रमित हो जाती है, जबकि उनकी झोली में राग (आसक्ति) भरी होती है. जब वह राग (मोह) बदलता है, तो उनके मन में द्वेष (घृणा) आ जाती है. ऐसे लोग गौचर (ज्ञेय, जानने योग्य) सत्य से दूर हो जाते हैं, और वास्तविक सिद्धि से च्युत हो जाते हैं.

काव्य सृजन के अतिरिक्त, श्री माण्डण, प्रेरणाप्रद आध्यात्मिक एवं सामाजिक आलेखन भी करते हैं. विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में साया इनके आलेखों में से कुछ एक के शीर्षक इस प्रकार से हैं- ‘इच्छाएं ऐसी हों जो सुख का कारण बने’, ‘मन शुद्धि के लिए पाँच कोषों की अहम भूमिका’, ‘क्या गीता पढ़ने से कल्याण व मोक्ष हो जाएगा’? ‘युवाओं के लिए हर क्षेत्र में ध्यान की अहम भूमिका’, ‘त्रि-गुणात्मक माया भजनानंदी के लिए व्यवधान’, ‘विघ्न अप्रत्यक्ष व प्रत्यक्ष दोनों रूपों में मनुष्य के लिए घातक’. जिस प्रकार इनकी पद्य शैली, काव्य की गहराइयों को छूती हुई पाठक को आह्लादित करती है-ठीक वैसे ही प्रेरक और उत्कृष्ट गद्य शैली भी सम्मोहित करती है.

इस आलेख को अंतिम रूप देने से पूर्व डॉ. त्रिलोक चंद से जब मेरी बातचीत हुई तो उन्होंने अपने उद्गार इस प्रकार व्यक्त किए: “बड़ा रूप देखन चली,लघुता कूपाँ डार/ विगतवार जाने नहीं, मोटा कर प्रचार-जब तक मनुष्य की बुद्धि संसार के बड़े रूपों को देखती रहती है, तब तक वह अपने लघु (सूक्ष्म) रूप को कूप (कुएँ) में धकेलती रहती है. ‘बड़ी बातों’ के आकर्षण और प्रचार-प्रसार में ‘लघु’ यानी सूक्ष्म लेकिन महत्वपूर्ण बातों की उपेक्षा कर दी जाती है.

इस कारण बुद्धि अपने वास्तविक विस्तार (आकाश) को पहचानने में असमर्थ रहती है. लेकिन जब वह लघुता को स्वीकार करती है (ऐसी अवस्था जब बुद्धि, अहंकार और घमंड के प्रभाव से निकल कर, अस्तित्व की सच्चाई को समझ लेती है) तब वह परा-स्पर्शी चूहे की तरह काँपने लगती है, और सूक्ष्मता को ग्रहण करने लग जाती है. मेरे प्यारे दोस्त, शिल्पकार की बुद्धि सूक्ष्म होती है.

शिल्पकारों ने न जाने कितनी यातनाओं का सामना किया है, लेकिन अपनी मर्यादाओं को नहीं छोड़ा. लेखक-लेखन कार्य करते रहे; सृजनकर्ता सृजन करते रहे परंतु अपने कर्तव्य पालन में सदैव निष्ठावान बने रहे. प्राचीन शिल्प की कलाकृतियां दुनिया भरे में बिखरी पङी हैं. इन कृतियों के कारण ही आज भी हजारों साल पुराना इतिहास जीवंत है, लेकिन उनको गढ़ने वाले शिल्पकार का कहीं कोई नाम नहीं. बगैर किसी लालसा के सृजन को अपनाए रखना ही एक मूल सृजनकर्ता की वास्तविक पहचान है.”

यद्यपि एक काष्ठ मूर्तिकार के रूप में आपको देश-विदेश में एक पहचान मिली है, लेकिन यह पहचान साहित्य के क्षेत्र में भी अपेक्षित है. हम उम्मीद करते हैं कि डॉ. त्रिलोक चंद माण्डण अपनी रचनाओं को पुस्तक के रूप में संकलित करप्रकाशित करेंगे. ऐसा होने पर उनकी अनूठी-अलबेली लेखन शैली से हिंदी साहित्य-जगत न केवल परिचित होगा बल्कि समृद्ध भी होगा.

@ दयाराम वर्मा, जयपुर (राज.) 12 मई, 2025






























कविता: सुनो-सच

सुनो-सच!
पहले तो वे करेंगे-तुम्हारी उपेक्षा
तत्पश्चात लाया जाएगा, निंदा प्रस्ताव
बुना जाएगा तुम्हारे इर्द-गिर्द, दमघोंटू मख़ौल-माहौल!

यदि नहीं हुए हतोत्साहित
आलोचना और बदनामी, कूद पङेंगी मैदान में
धमकी, घुङकी, कुङकी, लालच, मार-पीट
तोङ-फोङ, अपहरण, शीलहरण ..और न जाने क्या-क्या
घेर लेंगे तुम्हें चारों ओर!

यदि नहीं टूटे अब भी
घोषित कर दिया जाएगा तुम्हें-देशद्रोही
खूंखार आदतन अपराधी, और संभवतया गद्दार भी
और कस दिया जाएगा-कानूनी शिकंजा!

इन सबसे गुजरने के बाद भी
यदि तुमने नहीं टेके घुटने
एनकाउंटर के बहुत से तरीकों में से
किसी एक का किया जा सकता है-तुम पर प्रयोग
तो सच
कहो अब क्या कहते हो!

अंधेरी कोठरी का दरवाजा चरमराया
सन्नाटे को चीरती हुई
एक बेखौफ- बुलंद आवाज गूँज उठी
सच-सच-सच!


© दयाराम वर्मा, जयपुर (राज.) 16 अप्रैल, 2025


कविता: गाँधी-वध


मिस्टर गांधी, तुम पर लगे हैं
तीन संगीन जुर्म
पहला-रोज़-रोज़ की तुम्हारी भङकाऊ प्रार्थना
“ईश्वर, अल्लाह तेरो नाम…”
दूसरा-लोगों को दिग्भ्रमित करने वाली ये अपील
“सबको सम्मति दे भगवान … ”
और तीसरा-“सत्य और अहिंसा”
जैसे ख़तरनाक शस्त्रों का बार-बार प्रयोग!


जानते हो इस देश पर
हज़ारों साल, विदेशियों ने राज किया
जमकर लूटा-खसोटा और ढाए बे-इंतहा ज़ुल्म
लेकिन किसी ने
रिआया के धर्म और नैतिकता के जङ-विचारों के साथ
ऐसी छेङ-छाङ, ऐसी धृष्टता कभी नहीं की
बल्कि इन्हें प्रश्रय और प्रोत्साहन ही दिया
और रहे जन-क्रांतियों से महफ़ूज़!


और एक तुम हो कि
न केवल अंग्रेजों को खदेङा
बल्कि जनता के दिल-ओ-दिमाग़ में
अपने ऊल-जलूल सिद्धांत भी ढूंस-ढूंस कर भर दिए
ज़रूरी है अब इनका समूल ख़ात्मा!


और जरूरी है राजा के लिए
अपने समय के राजधर्म की पालना
तदनुसार, दरबार की जूरी ने पाया है कि
तुम्हारी हत्या
हत्या नहीं, एक न्यायोचित वध था
इस संबंध में
सभी प्राथमिक साक्ष्य जुटा लिए गए हैं
तुम्हारे विरुद्ध तमाम गवाहों के बयान हो चुके हैं दर्ज
और फ़ैसला भी लिखा जा चुका है
बस इंतिज़ार है
एक उपयुक्त तारीख़ का!


© दयाराम वर्मा, जयपुर (राज.) 11अप्रैल, 2025


कविता: देहाती हाट


गरीब, असभ्य और अविकसित लोगों के
छोटे-छोटे देहाती हाट
लगते हैं खुले आसमान तले
लकङी के तख्तों और जूट की बोरियों पर
सजते हैं सङक किनारे
कपङे, जूते, हस्तशिल्प, सस्ती साड़ियां
रंग बिरंगे गुब्बारे
बच्चों के ट्रैक्टर और लारियाँ!

हाट की हवा में तैरती है
पसीने की बू और कच्चे मांस की गंध
वहाँ बिकते हैं
ताजा झींगे, केकड़े और मछलियाँ
मुर्गे-मुर्गियां, भेङ, बकरियाँ
बाँस, केन और जूट के थैले, टोपियाँ, टोकरियाँ
धान, गेहूँ, आलू, गोभी, बैंगन, मिर्च
ककड़ी, केले, संतरे ..!

फैले रहते हैं बेतरतीबी से
खुरपी, दरांती, हल, हंसिया वगैरह-वगैरह
घर और खेत, ढोर-डंगर, बदन और पेट
सभी की जरूरत का सामान
छोटी-छोटी खुशियाँ
मिल जाती हैं
गरीब, असभ्य और अविकसित लोगों के
छोटे-छोटे देहाती हाट में!

लेकिन
वहाँ नहीं मिलते
इंसानो के किफायती मशीनी विकल्प
फसल बोने से लेकर
काटने तक के स्वचालित उपकरण
एक साथ, हजारों लोगों के श्रम और रोजगार को
निगल जाने वाले इलेक्ट्रॉनिक गेजेट्स
और कृत्रिम-मेधा संपन्न रोबोट्स!

वहाँ नहीं मिलती
विलासिता, चकाचौंध, चमक-दमक, बनावट
नहीं बिकती
लूट-खसोट की योजनाएं
बर्बादी और तबाही की मिसाइलें
भय, आतंक, लालसा, वर्चस्व और विस्तार के
रक्त पिपासु बारूदी हथियार!

ये मिलते हैं तथाकथित
अमीर, सभ्य और विकसित मुल्कों के
विशाल आधुनिक बाजारों में!

© दयाराम वर्मा, जयपुर (राज.) 03 अप्रैल, 2025


कविता: तीन पाठशालाएँ



सभ्यता के सोपान पर
जैसे-जैसे इंसान आगे बढ़ा
तीन तरह की पाठशालाएँ विकसित हुईं!


पहली पाठशाला में पढ़ाया गया
"आ" यानि आस्था, यहाँ समझाया गया
अवतार पुरुषों, पैगंबरों और ईश्वर के दूतों ने
पवित्र ग्रंथों के माध्यम से जो कहा, वही अंतिम सत्य है
और-इनके शिष्यों ने
अपनी दोनों आँखें बंद कर लीं!


दूसरी में वितरित किया गया भय
कहा गया-"आ" से होता है केवल और केवल आतंक
उनका दृढ़ मत था, यदि स्वयं को बचाना है
तो औरों को भयभीत करना होगा
और-इनके शिष्यों ने
दोनों आँखों के साथ-साथ कान भी बंद कर लिए!


तीसरी में थे तर्क और तथ्य
उन्होंने सिद्ध किया “आ" से होता है आविष्कार
उनका सिद्धांत था-क्या, क्यों और कैसे…
जब तक देख न लो-समझ न लो, नहीं मानना
और-इनके शिष्यों ने
न केवल दोनों आँखें बल्कि कान भी खोलकर रखे!


© दयाराम वर्मा, जयपुर (राज.) 09 अप्रैल, 2025




व्यंग्य: जन-गण की बात


जाने कितने वैद्य, हकीम और डॉक्टरों को दिखाया, भांति-भांति की दवाइयाँ लीं, कड़वा काढ़ा गटका, परहेज़ रखा-लेकिन उसकी सेहत दिन-ब-दिन बिगड़ती ही गई। थक हारकर, उसके चंद विश्वस्त मित्रों ने नामवर चिमटा बाबा के यहाँ उसे ले जाने पर विचार किया।

चिमटा बाबा, बाबा गिरी से पहले एक मंचीय हास्य कवि था, लेकिन तीखा सच बोलने के कारण साहित्य के मैदान में ज्यादा टिक नहीं पाया। जबकि मंत्र साधना ने कम समय में ही उसके वारे न्यारे कर दिए; देखते ही देखते उसकी प्रसिद्धि देश भर में फ़ैल गई। दूर-दराज़ से दुखी और निराश लोग उनके पास अपनी समस्या लेकर आते और झोली में खुशियाँ भरकर लौट जाते। शुभचिंतकों के बारंबार अनुनय विनय के आगे झुकते हुए, अंततः मरीज़ ने सहमती प्रदान कर दी। अन्यथा पीर, पैग़ंबर, बाबा आदि के चमत्कार उसकी वैज्ञानिक सोच से कतई मेल नहीं खाते थे।

एक छोटे से पहाङी गाँव के समीप कल-कल बहती स्वच्छ नदी के किनारे, बाबा की कुटिया के सामने भक्तों की लंबी लाइन लगी थी। दोपहर तक उन्हें अपनी बारी का इंतिज़ार करना पङा। शुभचिंतकों ने कमज़ोर मरीज़ को सहारा देकर बाबा के सामने ज़मीन पर बैठाया।

मख़मली आसन पर चौकड़ी मारकर बैठे बाबा के माथे पर चंदन का बड़ा तिलक, पीठ पर बे-तरतीबी से फ़ैली-उलझी भूरी जटाएं, चेहरे पर लंबी घनी खिचड़ी दाढ़ी, गेरुएं वस्त्र, गले में रुद्राक्ष की कई मालाएँ और बाएं हाथ में एक चिमटा था। उनके दाहिनी ओर जल से भरे तांबे के कई छोटे-बड़े पात्र और बाईं ओर लाल कपड़े में लिपटा, रूई से भरा- एक डरावनी शक्ल वाला गुड्डा रखा था, नाम था-लटूरा लाल।

लोबान का धुआँ आसपास की हवा में घुलकर वातावरण में रूमानी खुशबू बिखेर रहा था। यत्र-तत्र देवी-देवताओं की तस्वीरें, त्रिशूल,और झंडे आदि टंगे थे। कुल मिलाकर रहस्य और रोमांच से भरपूर माहौल था। जैसे ही मरीज़ ने झुककर बाबा को प्रणाम किया, पूरी वादी बाबा के जोरदार अट्टहास से गूंज उठी-

“हा...हा...हा... आ गया तू! मुझे मालूम था... हा...हा...हा...”

ठहाका लगाते समय बाबा का थुलथुला शरीर आगे-पीछे लयबद्ध हिल रहा था। मरीज़ और उसके साथ आए शुभचिंतकों के चेहरों पर सन्नाटा सा खिंच गया। बाबा ने अपनी लाल-लाल आँखों से मरीज़ को घूरा।

“पहले अपना नाम बताओ, ना घबराओ-ना शरमाओ, लटूरा लाल पर ध्यान लगाओ!”

“प्रजा... प्रजातंत्र, बाबा,” मरीज़ ने काँपते स्वर में जवाब दिया।

बाबा ने मंत्रोच्चार आरंभ किया और चिमटे से लटूरा लाल को पीटना आरंभ कर दिया। जैसे ही लटूरा लाल से चिमटा टकराता, उस पर लगे घुंघरू बज उठते छन्न….छन्न….छन्न……

“बङे भारी ख़तरे में है तू प्रजातंत्र,
फूँकना पड़ेगा बाबा को महामंत्र!
घोर संकट छाया है, बुरी आत्माओं का साया है…”

“ॐ नमो भगवते वासुदेवाय धन्वंतराय, अमृत कलश हस्ताय, सर्व माया विनाशाय, त्रैलोक नाथाय, श्री महाविष्णवे नमः” सभी श्रद्धालु, साँस रोककर बाबा के कर्मकांड को देख रहे थे।

“हुआ लटूरे को ये इल्हाम[1], करता नहीं तू कोई काम।
बड़बड़ाता रहता सुबह-शाम,
नींद नहीं आती है, कमजोरी नहीं जाती है!”

चेले-चपाटों ने लगभग समाप्त हो चुकी लोबान के स्थान पर नई लोबान सुलगा दी। लटूरा लाल पर नजरें गङाए, प्रजातंत्र मन ही मन सोचने पर विवश था कि बाबा बिल्कुल सही दिशा में जा रहे हैं। धन्वंतरि मंत्र का दूसरा दौर आरंभ हुआ। चिमटा एक बार फिर लटूरा लाल पर बरस पड़ा।

छन्न… छन्न… छन्न…

“मधुमेह, उच्च रक्तचाप, चिंताओं ने घेरा,
विषाद, प्रमाद ने डाला तेरे दर पर डेरा।
रहता है तू डरा-डरा सा, है ज़िंदा लेकिन मरा-मरा सा,

... ओम् फट्ट!”

प्रजातंत्र और उसके साथी घोर आश्चर्य में डूब गए। किसी एक्सरे फिल्म की तरह, बाबा उसकी हर बीमारी को अनावृत कर रहे थे। श्रद्धानवत, प्रजातंत्र बाबा के चरणों में गिर पङा।

“आपने सब सच कहा है बाबा। बहुत निराश हो चला हूँ। अकेलापन महसूस करता हूँ। ऐसा लगता है मानो जीवन का कोई उद्देश्य ही नहीं बचा। कभी-कभी लगता है-इससे तो मर जाना ही अच्छा.” चिमटा बाबा ने आँखें खोलीं और मुस्कराते हुए ना की मुद्रा में गर्दन हिलाई। तत्पश्चात दाएँ हाथ में लटूरा लाल को लेकर मंत्रोच्चार करने लगे-

“कोठी-बंगले, नौकर-गाड़ी छोड़ना होगा,
नाता ऐश-आराम से तोड़ना होगा।
जुड़ कर जड़ों से वसुंधरा को चूमना होगा, गली-मोहल्ले घूमना होगा।
निकलना होगा सड़कों पर-सर्दी-गर्मी, दिन और रात;
करनी होगी जन-गण की बात!
दुख-दर्द-रोग, भय-भूत-प्रेत, अवसाद निकट नहीं तब आएगा;
कहे लटूरा लाल-काया अजर-अमर निरोगी तू पाएगा!”

इधर मंत्र की समाप्ति हुई और उधर प्रजातंत्र की पीठ पर चिमटे का एक ज़ोरदार प्रहार हुआ-छन्न…। उसके बदन में एड़ी से चोटी तक एक बिजली सी कौंधी. सकारात्मक उर्जा से परिपूर्ण, दिव्य प्रकाश पुंजों से उसका दिल और दिमाग रोशन हो उठा। उसकी दुर्बल, लड़खड़ाती टाँगों में जान लौटने लगी। कुछ ही पलों में वह बिना किसी का सहारा लिए, अपने पैरों पर खड़ा हो गया और दौड़ पड़ा।

अब उसके दिमाग में गूँज रही थी तो केवल- छन्न…छन्न…छन्न…की आवाज और बाबा का अंतिम मंत्र-“करनी होगी जन-गण की बात!”

© दयाराम वर्मा, जयपुर (राज.) 06 अप्रैल, 2025

[1] इल्हाम- देववाणी, आकाशवाणी

Publication- सीकर दर्पण- पीएएनबी सीकर सर्कल ऑफिस की छमाही ई पत्रिका (अक्टूबर 24 से मार्च 25) 






कविता: एक नदी की देशना


नील वर्ण, देह धवल
वह थी अनन्य हिमसुता[1] वत्सल[2]
कूदती-फांदती, लहराती, इठलाती, गुनगुनाती
सहोदरी संग करती आँख-मिचौली
छू-छू जाती सुवासित पवन हमजोली
मल-मल खुशबू पादप, कंद-मूल, लताओं की
थी प्रियदर्शिनी अति मुग्ध, मदहोश
दौङ रही थी शैल-कंदराओं में
बेफ़िक्र बेलौस!

छाया था उस पर
अल्हड़, उन्मत्त यौवन का खुमार
भंवर बनाती, बल खाती, बेकाबू थी रफ़्तार
कल-कल करती, टकराती साहिल से
बज उठती पायल सी झंकार
निर्मल निर्झर जब गिरते, उसके आँचल-आगोश
खिल-खिल जाता किलकारी से मुखमंडल
भर जाता दुगुना जोश
चट्टानों से झगड़ती, गरजती, लरजती, फुफकारती
हटो, सागर प्रीतम से है मिलना मुझको
श्वास-श्वास पुकारती!

और तब अचानक एक जगह
कदम सभी पहाङियों के रुक गए
श्वेत-स्याम पयोधर, चेहरों पर उनके झुक गए
हिलाते रहे, वन-उपवन, पर्ण-लताएं
रुककर बस खाली हाथ
देखते रहे ठिठक कर बाल-प्रपात
क्या अब आगे उसे अकेले ही बढ़ना होगा?
नए रास्तों पर ढलना होगा?
हाँ, मंजिल उसकी केवल रत्नाकर
हो जाना है सर्वस्व विलीन उसी में समाकर!

दूर-दूर तक
अब यहाँ थी केवल समतल जमीन
न पर्वत, न जंगल, न थी वो घाटियां अंतहीन
नादान थी, अनजान थी, हैरान थी
मुश्किल था कर लेना यकीन
पसरती, बिखरती सचमुच वह डरने लगी
संभल-संभल डग भरने लगी!

आगे एक शहर से
हुआ तब उसका वास्ता
नहीं था बच निकलने का अन्य कोई रास्ता
आया तभी एक दूषित सैलाब विद्रूप[3]
भर गई काठ-कबाङ-कचरे से
हो उठी कलुषित, कुरूप
मल-मूत्र, जूठन-उतरन, धूल-माला, फूल-प्लास्टिक
गिरने लगे उसमें असंख्य बजबजाते नाले
कर रहे थे आदम-ज़ात
गंदगी तमाम अपनी, उसके हवाले!

शहर-दर-शहर
मुश्किल होती गई राह-डगर
बरसने लगा उस पर जुल्मों-सितम और कहर
कहीं सङते जानवर
कहीं हड्डियां, कहीं मृत इंसान
वह छटपटाई, रोई जार-जार, हो गई बेसुध बेजान
हे तात! कैसा है यह मेरा इम्तिहान
पङ गए कोमल-कंचन काया पर
बदसूरत छालों के निशान
हुआ नील वर्ण स्याह मटमैला
विषाक्त मैल पापियों का, नस-नस उसकी फैला!

जिंदा थी, शर्मिंदा थी
हो रहा था आज उसे, अपने फैसले पर अनुताप[4]
परवश झेल रही, जिल्लत और संताप
जाने थी वह कैसी मनहूस घङी
छोङा घर-आँगन अपना
और निकल पङी!

अब अशक्त
बेजान सी वह बहती रहती है
व्यथा अपनी सुनाती, करती है ये गुहार
मत बनाओ माँ मुझे, करो मत मेरा दैवीय मनुहार
देखो देश हमारे पहले जाकर
रखते हैं स्रष्टा को अपने, हम मस्तक पर बैठाकर
चाहते हो रहना जीवित
और चाहते फले-फूले तुम्हारी भावी पीढ़ी-संतान
साफ, स्वच्छ हमें रखना अरे ओ कृतघ्न इंसान
मात्र पूजना नहीं, सीखो सहेजना
है यही विनती, यही मेरी अंतिम देशना[5]!


© दयाराम वर्मा, जयपुर (राज.) 31 मार्च, 2025



[1] हिमसुता-हिम की बेटी
[2] वत्सल-शिशु स्नेही
[3] विद्रूप-विकृत
[4] अनुताप-पश्चाताप
[5] देशना-उपदेश, सीख














कविता: सामंती-जीन




जब तक आम आदमी
झुक-झुककर, डर-डरकर
सफ़र जिंदगी का तय करता रहता
चुपचाप सहता
दमन, प्रताङना, अपमान, अन्याय, अत्याचार
शासक, प्रशासक
संस्था, संप्रदाय, समाज, टी.वी. या अखबार
दो टका, बाँटते खैरात
जतला देते हमदर्दी तीन टका, कभी कभार
पचानवे टका नहीं रखते कोई सरोकार!


लेकिन जिस रोज
सर उठाकर, आँख मिलाकर
कर बैठता आम आदमी, बुलंद स्वर में पुकार
हो जाता खङा पैरों पर
और लगता मांगने, इंसाफ़-हक-अधिकार!


हो उठता जीवंत, सामंती-जीन
भृकुटियाँ तन जाती
बात उसूल की, मगर ठन जाती
आया कैसे बराबरी का इसे ख्याल
हिमाकत तो देखो
खङा अकङ कर, करता हमसे सवाल?
सीख लिया कहाँ से इसने, इज़्ज़त से जीना
चलने लगा तानकर पिचका सीना!


© दयाराम वर्मा, जयपुर 27 मार्च, 2025










व्यंग्य: आगे की सोच -गड्ढों में




“पेंदी भैया, सुन रहे हो.”

“अरे ओ पेंदी भैया! क्या मुझे सुन पा रहे हो?”

सूखे कुएँ में घंटा प्रसाद की आवाज की प्रतिध्वनि गूँजने लगी. तीन चार बार पुकारे जाने के पश्चात, गहराई से एक खुरखुराता सा जवाब आया. “होवओ..होवअ…”

“आ जाओ बाहर. भोजन कर लो. आज सरसों का साग और मक्की की रोटी भेजी है भाभी ने.”

थोङी देर में, धूल-मिट्टी से सनी एक डरावनी सी काया कुएँ के बाहर निकली. उलझे हुए खिचङी बाल, बेतरतीब फैली दाढ़ी मूंछ, पिचका हुआ पेट….केवल आवाज से ही उसे पहचाना जा सकता था. भूख तेज थी अत: वह तुरंत भोजन पर टूट पङा. जब पेंदी लाल ने दो-तीन रोटियां उदरस्थ कर लीं तो अनुज, घंटा प्रसाद ने साहस जुटाया.

“भाई, दस साल हो गए खोदते-खोदते. कुछ भी तो हासिल नहीं हुआ. उलटे सारा खेत बर्बाद हो चुका है.”

“इसे तुम बर्बाद होना कह रहे हो? जानते नहीं यह कितना महान कार्य है!”

“लेकिन पेट भरने के लिए अनाज जरूरी है भाई.”

“यही तो अफ़सोस है, इस सोच से आगे निकलो. अपनी विरासत और इतिहास पर गर्व और गौरव करना सीखो, घंट्टू (घंटा प्रसाद का घर का यही नाम था).”

“लेकिन………..?”

पेंदी लाल, ने उसके हस्तक्षेप को नजर अंदाज करते हुए अपनी बात जारी रखी. “प्रातः स्मरणीय, चिर वंदनीय, परम श्रद्धेय, स्वनामधन्य, सूरमा वक्त्रवास ने अपनी नारंगी किताब में साफ़-साफ़ लिखा है, सैंकङों साल पहले हमारे पुरखों की बाहर से आए आतताइयों के साथ इसी जमीन पर जंग हुई थी. यद्यपि उस खूनी जंग में हमारे पुरखे हार गए थे, लेकिन वे बहादुरी से लङे, उनकी विरासत, उनकी हड्डियाँ, उनके गहरे राज यहीं गङे हैं. किताब में इस बात की ओर इशारा है.”

“इशारा?”

“महापुरुषों की कुछ बातें इशारों में होती है.”

“लेकिन भैया, उस किताब को पढ़ा तो मैंने भी है. सूरमा वक्त्रवास ने उसमें किसी शिलालेख, पुरानी इबारत, ताङ-पत्र, ताम्र-पत्र या किसी शोधार्थी या पुरातत्व विज्ञानी आदि का हवाला तो दिया नहीं?”

घंटा प्रसाद, कॉलेज के पुस्तकालय में कभी-कभार, इतिहास और विज्ञान की पुस्तकें पढ़ लेता था. पेंदी लाल ने खाना समाप्त कर एक लंबी डकार ली और किसी जंगली झाङ की तरह उग आई खिचङी दाढी पर हाथ फिराते हुए बोला.

“देख, घंट्टू. ये सच है कि तू पढ़ लिख गया, लेकिन तुम्हारी सोच वही है, जो पाजी इतिहासकारों ने दिमाग में ठूँस रखी है. हमारे पूजनीय पिता छेदी लाल और परम पूजनीय पितामह सौंदी लाल क्या पागल थे? उनका भी यही मत था. मैं तो उसको अमली जामा पहना रहा हूँ. देखना एक न एक दिन हम अपने अतीत का सच खोज निकालेंगे.” इसके साथ ही बिना प्रत्युत्तर की प्रतीक्षा किए पेंदी लाल, बंदर जैसी फुर्ती से रस्सी के सहारे कुएँ में उतर गया.

घंटा प्रसाद ने जूठे बर्तन समेटे और लगभग बंजर में तब्दील हो चुके अपने खेत पर एक व्यथित दृष्टि डाली. चारों तरफ सैंकङों छोटे-बङे गड्ढे-सूखे कुएँ और मिट्टी के ढेर …! वह मन मसोस कर रह गया. पङोस के खेतों में दूर-दूर तक सरसों की फसल लहलहा रही थी. पीले फूलों की मनमोहक खुशबू, उन पर मंडराते कीट-पतंगे, पक्षियों की चहचहाहट…. सब कितना दिलकश और जीवंत था! एक ठंडी आह भरते हुए, भारी कदमों से वह लौट पङा.



© दयाराम वर्मा, जयपुर. 26 मार्च 2025

Publication details: 
सत्य की मशाल-भोपाल के अप्रैल-2025



 



शहीद दिवस 23 मार्च, 2025 जयपुर


सभागार में शहीदों के परिजनों का सामूहिक छवि चित्र


“साथियों, स्वाभाविक है जीने की इच्छा मुझमें भी होनी चाहिए. मैं इसे छिपाना नहीं चाहता हूं, लेकिन मैं एक शर्त पर जिंदा रह सकता हूं कि कैद होकर या पाबंद होकर न रहूं. मेरा नाम हिन्दुस्तानी क्रांति का प्रतीक बन चुका है. क्रांतिकारी दलों के आदर्शों ने मुझे बहुत ऊंचा उठा दिया है, इतना ऊंचा कि जीवित रहने की स्थिति में मैं इससे ऊंचा नहीं हो सकता था. मेरे हंसते-हंसते फांसी पर चढ़ने की सूरत में देश की माताएं अपने बच्चों के भगत सिंह होने की उम्मीद करेंगी. इससे आजादी के लिए कुर्बानी देने वालों की तादाद इतनी बढ़ जाएगी कि क्रांति को रोकना नामुमकिन हो जाएगा. आजकल मुझे खुद पर बहुत गर्व है. अब तो बड़ी बेताबी से अंतिम परीक्षा का इंतजार है. कामना है कि यह और नजदीक हो जाए.” जेल से अपने साथियों को लिखा गया भगत सिंह का आखिरी खत.

आज ही के दिन यानि 23 मार्च, सन 1931 में लाहौर की तत्कालीन ब्रिटिश सरकार की सेंट्रल जेल में सुखदेव और राजगुरु के साथ शहीद-ए-आजम भगतसिंह को फाँसी दी गई. उस समय भगत सिंह की उम्र 24 वर्ष से भी कम थी. अंतिम समय, उनकी माँ विद्यावती उनसे जेल में मिली तो रुआंसी हो गई, बोली-‘बेटा भगत, तू इतनी छोटी उम्र में मुझे छोङकर चला जाएगा.’

भगतसिंह ने उत्तर दिया, ‘बेबे, मैं देश में एक ऐसा दीया जला रहा हूँ, जिसमें न तो तेल है और न ही घी. उसमें मेरा रक्त और विचार मिले हुए हैं, अंग्रेज मुझे मार सकते हैं, लेकिन मेरी सोच व मेरे विचारों को नहीं, और जब भी अन्याय व भ्रष्टाचार के खिलाफ जो भी शख्स तुम्हें लङता हुआ नजर आए, वह तुम्हारा भगत होगा,’

इतिहास गवाह है, उन्होंने कभी भी न तो माफी मांगी न ही सजा में रियायत की मांग की, बल्कि अंग्रेजों को ललकारते हुए लिखा,

“तुझे जिबह करने की खुशी और मुझे मरने का शौक है
है मेरी भी मरजी वही जो मेरे सैयाद की है.”


इन तीन क्रांतिकारियों की शहादत के दिन (23 मार्च) को ही पूरे देश में शहीद दिवस के रूप में मनाया जाता है. इस वर्ष, जयपुर में ‘तोतुक भवन, भट्टारक जी के जैन नसियाँ’, नारायण सिंह सर्किल पर, ‘भारत सेवा संस्थान’ और ‘शहीद दिवस योजना समिति जयपुर’ के तत्वाधान में शहीद दिवस का आयोजन एक अनूठे अंदाज में किया गया. इस बार देश भर से शहीदों के लगभग 40 परिजनों को निमंत्रित किया गया. इन शहीदों में, जहाँ बहुत से नाम सुपरिचित थे तो बहुत से गुमनाम भी थे.

कार्यक्रम में इन शहीदों के बारे में और जंग-ए-आजादी में उनके योगदान के बारे में, जानने और सुनने को मिला. प्रमुख शहीदों में, आखिरी मुगल बादशाह, बहादुर शाह ज़फ़र, झांसी की वीरांगना रानी लक्ष्मी बाई, नाना साहब पेशवा, मंगल पांडे, रामप्रसाद बिस्मिल, अशफ़ाक़ुल्लाह ख़ाँ, राजेंद्र लाहिड़ी, सुखदेव, राजगुरु, बटुकेश्वर दत्त, उधम सिंह, सुभाष चंद्र बोस के साथ-साथ राजस्थान की वीर प्रसूता धरती के शहीद प्रताप सिंह बारहठ, विजय सिंह पथिक, राव गोपाल सिंह, अर्जुन लाल सेठी और राजू सिंह रावत आदि के परिजन शामिल थे.

मंच पर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री श्री अशोक गहलोत, BRBSS फाउंडेशन के संस्थापक पद्म भूषण श्री डी.आर. मेहता, दैनिक नवज्योति के संस्थापक श्री दीनबंधु चौधरी, वरिष्ठ पत्रकार श्री प्रवीण चंद्र छाबङा, वॉटरमेन के नाम से मशहूर श्री राजेंद्र सिंह, प्रसिद्ध इतिहासकार-लेखक और ‘द क्रेडिबल हिस्ट्री’-यू-ट्यूब चैनल के फाउंडर श्री अशोक पाण्डेय, भारत सेवा संस्थान के सचिव श्री जी.एस.बाफ़ना और भारत सेवा संस्थान के अध्यक्ष श्री राजीव अरोङा आदि की गरिमामयी उपस्थिति रही.

सभाकक्ष के प्रवेश द्वार पर जाने अनजाने शहीदों की एक सुंदर चित्र प्रदर्शनी मुख्य आकर्षण का केंद्र थी. यह शहीद स्मारक हनुमानगढ़ टाउन और एडवोकेट शंकर सोनी जी के सद् प्रयासों से हो रहा था. उनकी https://patriotsofindia.com नामक एक वेबसाइट है, जिसमें भारत की आजादी की लङाई के 100 से भी अधिक शहीदों के सचित्र, संक्षिप्त परिचय उपलब्ध हैं. संयोग से मेरी मुलाकात श्री शंकर जी सोनी से हो गई और बातचीत के दौरान यह सुखद रहस्योद्घाटन हुआ कि उनका भी पारिवारिक संबंध मेरे पुराने कस्बे रावतसर से रहा है.

आगे उन्होंने बताया कि इस साइट पर गुमनाम शहीदों की जानकारी अपलोड करने की प्रक्रिया अनवरत जारी है. शहीदों के प्रति उनके इस अतुलनीय प्रयास की जितनी प्रशंसा की जाए उतनी कम है. कार्यक्रम की समाप्ति पर प्रसिद्ध साहित्यकार और TCH नामक U-Tube channel के श्री अशोक पाण्डेय से भी मिलने का अवसर प्राप्त हुआ. बङी संख्या में एक साथ शहीदों के परिजनों से रू-ब-रू होना और उनको सम्मानित होते हुए देखना, निःसंदेह एक दुर्लभ, अद्भुत और अविस्मरणीय अनुभव था, आयोजकों को हृदयतल से साधुवाद.




प्रसिद्ध लेखक एवं साहित्यकार अशोक पाण्डेय
के साथ लेखक




शहीद गयाप्रसाद के परिजन के साथ लेखक



शहीदों के परिजनों के साथ लेखक

श्री शंकर सोनी के साथ लेखक


Exhibition of martyrs



Exhibition of martyrs


Exhibition of martyrs







Smt. Nirmala Verma


Sh Dayaram Verma



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