नज्म: मुसलसल गुफ्तगू




याद है उस रोज
जब लहरें थी बेतकल्लुफ[1] और
दरिया था ख़ुमार[2] पर
ढलती रही घरौंदों में, साहिल की रेत रात भर

जुबान खुली भी न थी
लब थे खामोश
होती रही गुफ्तगू मुसलसल[3]
कभी इस बात पर, कभी उस बात पर

देता रहा तसल्ली सितमगर
तमस में, रंज-ओ-अलम[4] में, फ़िराक़[5] में
शाहकार[6] एक नायाब[7]
हुआ नुमायाँ, जज़्बात ही जज़्बात में

फासले दरम्यान लाख सही
कल तय हो भी जाएंगे
तेरी तमन्ना, तेरा तसव्वुर[8], तेरा इंतिज़ार
धङकता है दिल में, इफ़रात[9] में

कोहरे की चद्दर में लिपटी
हर शय ख़ुद-रफ़्ता[10] है
लेकिन मेरी जिद्द भी है की है, ग़ैर-मुतहर्रिक[11]
पिघलेगी एक रोज बर्फ, इसी हयात[12] में



© दयाराम वर्मा, जयपुर 19.01.2025


[1] बेतकल्लुफ-निस्संकोच
[2] ख़ुमार-मदहोशी
[3] मुसलसल-लगातार
[4] रंज-ओ-अलम-दुख तकलीफ में
[5] फ़िराक़-बिछोह, जुदाई
[6] शाहकार- कला संबंधी कोई महान कृति
[7] नायाब- उत्कृष्ट, जो दुर्लभ हो
[8] तसव्वुर-ख्याल
[9] इफ़रात- जरूरत से अधिक
[10] खुद-रफ्ता- संज्ञाहीन, निश्चेष्ट
[11] ग़ैर-मुतहर्रिक-अचल
[12] हयात-जीवन

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