पाँच लघु कथाएं

(1) अविश्वास

आज साँयकाल एक प्रदर्शन है। सुरति और उसकी बस्ती के मर्द व औरतों को कभी कभार किसी प्रदर्शन में नारेबाजी के लिए रोशन की ओर से काम मिल जाता था। दो चार घंटे की नारे बाजी और मेहनताना भी ठीक ठाक। अपराह्न चार बजते ही बस्ती की झुमकी उसे पुकारती आ धमकी। सुरति ने सोई हुई अपनी दो वर्षीय बच्ची के भोले भाले मुखड़े को प्यार से निहारा और फिर उसे बाहर खटिया पर बैठे बद्री दद्दा की गोद में डाल दिया। प्राय: ऐसा ही होता था। सुरति का पति मजदूरी करने अलसुबह निकल जाता था। घर में कोई और नहीं था। पड़ौस के बद्री दद्दा, गठिया की वजह से कोई काम धंधा नहीं कर पाते थे और दिनभर घर से बाहर खटिया पर बैठे रहते। सुरति को जब कहीं बाहर जाना होता तो अपनी लाड़ली को दद्दा के पास छोड़ जाती। सच में उनका बड़ा सहारा था उसे।

“चल-चल जल्दी कर।” झुमकी ने सुरति की बाँह खेंचते हुए कहा।

“अच्छा दद्दा ख्याल रखना बिटिया का।”

और फिर दोनों तेज कदम उठाते हुए मुख्य सड़क पर बस्ती की कुछ और औरतों के झुंड में शामिल हो गई। सिविल लाईंस के करीब सड़क पर लोगों की संख्या बढ़ने लगी थी और चौराहे तक पहुँचते-पहुँचते सड़क के बाईं और लोगों का विशाल हुजूम नजर आने लगा। बस्ती की औरतों के पास पुरानी जींस और काली टी-शर्ट पहने दादा किस्म का एक अधेड़ आया और उन सबको नारे लिखी तख्तियाँ पकड़ा गया। थोड़ी देर बाद भीड़ ने बड़े जूलुस की शक्ल ले ली। आगे चल रहे किसी व्यक्ति ने ज़ोर से नारा लगाया; उसके पीछे-पीछे भीड़ भी नारे लगाने लगी।

“खुशबू के हत्यारों को”

“फांसी दो....फांसी दो”

“मुख्यमंत्री होश में आओ”

“होश में आओ....... होश में आओ”

“आजाद भेड़ियों को गिरफ्तार करो”

“गिरफ्तार करो.....गिरफ्तार करो”

सहसा, कौतूहल वश सुरति पूछ बैठी। “झुमकी क्या हुआ?..... आज ये नारे किसलिए लग रहे हैं”?

“अरे, एक बच्ची के साथ कई लोगों ने रेप किया और फिर जलाकर मार डाला....अभी तक कोई गिरफ्तार नहीं हुआ।”

“हे भगवान.......”! सुरति की रूह कांप उठी। “बच्ची की उम्र क्या थी”?

“यही कोई सात आठ साल।”

“क्या”? क्रोध और भय के मिलेजुले भाव तेजी से सुरति के चेहरे को मलीन कर गए।

“दरिंदे थे दरिंदे।”

“अब तो दूधपीती बच्चियाँ भी सुरक्षित नहीं।”

जुलूस आगे बढ़ रहा था लेकिन सुरति के पैर लड़खड़ाने लगे। उसका सर चकराने लगा। हाथ की तख्ती गिर पड़ी। भीड़ से अलग हटकर उसने सड़क के किनारे, एक खंबे का सहारा लिया। झुमकी ने पीछे मुड़कर उसे पुकारा परंतु सुरति ने जैसे कुछ सुना ही नहीं। रोशन दादा गुर्राते हुए उसके पास से निकला। “चलो चलो ... भीड़ में, और ज़ोर से नारे लगाना।”

लेकिन सुरति की आँखों के सामने बद्री की गोद में लेटी अपनी नन्ही जान का मासूम चेहरा लगातार घूम रहा था और साथ ही घूम रहा था बद्री दद्दा का एक अलग ही रूप! उसकी आँखें आज हवस में डूबी थी। नापाक इरादे लिए उसके हाथ बच्ची को जकड़ रहे थे और बच्ची आजाद होने के लिए छटपटा रही थी।

“नहीं... कमीने.. छूना नहीं मेरी बच्ची को।” सुरति की चीख दूर तक गूंज उठी। नारे लगाती भीड़ सहसा ठिठक गई। और बदहवास सुरति, उल्टे कदम, बस्ती की और दौड़ती जा रही थी।

Publication-लघुकथा टाइम्स भोपाल



(2) नशेड़ी कहीं का

जनवरी माह की एक अत्यंत सर्द सुबह। शहर के मुख्य सरकारी अस्पताल के सर्जरी विभाग के प्रभारी, डॉक्टर भार्गव की चमचमाती सफ़ेद ऑडी, कॉलोनी से बाहर निकली ही थी कि यकायक तेज ब्रेक लगने से उनका सर आगे की सीट से टकरा गया। माथे पर हल्की चोट आ गई और खून बह निकला।

“अरे क्या कर रहे हो? संभल के चलाओ....” उन्होनें ड्राईवर को डाँटा और रूमाल से चोट को दबाया।

“सॉरी सर। .... वह नशेड़ी अचानक गाड़ी के आगे आ गया था।” ड्राईवर ने दाहिनी ओर इशारा करते हुए सफाई दी।

डॉक्टर भार्गव ने बाहर नजर दौड़ाई। नंगे पैर, बिखरे बाल और उलझी हुई दाढ़ी वाला एक भिखारी नुमा कृशकाय सख्स, मैले-कुचले लिबास में लिपटा किसी तरह सड़क किनारे, दोनों हाथ फैलाये किसी प्रकार जमीन पर अपना संतुलन बनाने की कोशिश कर रहा था। सहसा डॉक्टर भार्गव के मन में उस इंसान के प्रति करुणा के भाव उमड़ पड़े। “ओह कितनी ठंड है आज! यह बेचारा कैसे रात बिताता होगा? कैसे पेट भरता होगा...?” लेकिन वे कुछ करने का सोचते, उससे पूर्व ही गाड़ी मुख्य सड़क पर आ चुकी थी। चौथा गियर बदलते हुए ड्राईवर ने अपना दर्शन झाड़ा।

“सर, ऐसे लोग बेचारे नहीं होते। ये नशेड़ी लोग हैं। काम धंधा कुछ करना नहीं चाहते। भीख मांग लेते हैं और पड़े रहते हैं नशा करके।”

“लेकिन इसकी हालत से लगता नहीं कि यह कोई काम करने लायक है भी।”

“सर, ऐसा स्वांग नहीं रचेगा तो भीख कैसे मिलेगी ....”?

अगले दिन सुबह की सैर करते समय प्रशासनिक अधिकारी आर.पी. नागर और प्रोफेसर दिलीप कलमकर ने जब डॉक्टर भार्गव से माथे की चोट के बारे में पूछा तो प्रसंगवश उन्होनें कल की घटना उनसे साझा की। श्री नागर और श्री कलमकर का भी मानना था कि ऐसे सख्स शराबी व चोर-उच्चके होते हैं और इन्हे भीख नहीं देनी चाहिए। अखबारों में तो ऐसे लोगों की ठगी और चोरी की खबरें अक्सर आती रहती है। ‘ये लोग कोढ़ हैं सोसाइटी पर, परजीवी कहीं के! इनको सहायता देकर तो इन्हे और बिगाड़ना है।’ उक्त दलीलों से, डॉक्टर भार्गव के मन में उपजी क्षणिक संवेदना मुरझाने लगी। कुछ दिन और बीत गए। वह भिखारी नुमा सख्स कभी कभार उनकी कॉलोनी के बाहर किसी गुमटी के पास दुबका नजर आ जाता। उसके फैले हाथ और डरावनी आँखें डॉक्टर भार्गव की गाड़ी का पीछा करती लेकिन वे हिकारत से मुंह फेर लेते, ‘नशेड़ी कहीं का’!

एक दिन अस्पताल में पुलिस वाले एक लावारिस लाश को पोस्टमॉर्टम के लिए लेकर आए। संयोगवश डॉक्टर भार्गव उस समय ड्यूटी पर थे। लाश को देखते ही चौंक पड़े- “अरे ये तो वही नशेड़ी है।” जूनियर डॉक्टर ने पोस्टमॉर्टम की औपचारिकता पूरी की और रिपोर्ट उनके सन्मुख रख दी। डॉक्टर भार्गव के चेहरे से अनुभव और वरिष्ठता की गंभीरता टपक रही थी। उन्होनें बिना रिपोर्ट पढे ही जूनियर डॉक्टर की आँखों में झाँकते हुए कहा।

“सिरोयसिस, अत्यधिक अल्कोहल से लिवर खत्म हो गए, क्यों? यही है ना?”

‘नो सर! उसके शरीर में कम से कम दो सप्ताह से अन्न का कोई दाना नहीं गया था। संभवत: मानसिक रूप से भी ठीक नहीं था। डेथ ड्यू टू स्टारवेशन।”

Publication-लघुकथा टाइम्स भोपाल (मार्च, 2020), सत्य की मशाल भोपाल (मार्च, 2020)

(3) संकल्प

“महात्मा गांधी” चौराहे के पास रिक्शा पर सुस्ताते भीमा ने एक बार फिर, तपती सड़क पर दूर तक दृष्टि दौड़ाई। लेकिन कोई पैदल राहगीर नजर नहीं आया। उसके चेहरे पर चिंता की लकीरें, चढ़ते सूरज की धूप के साथ साथ और गहराने लगी। कोई सवारी मिले तो कुछ खाने का जुगाड़ बने। भोजन के ख्याल मात्र से ही भीमा के पेट की ऐंठन तेज हो उठी। ‘हे भोले नाथ आज जो बौनी होगी उसमें से पाँच रूपये का प्रसाद तेरे चरणों में चढ़ाऊँगा’। लंबे इंतजार के बाद भीमा ने आँखें बंद कर मन ही मन संकल्प लिया।

सेठ कश्मीरी लाल ने “महात्मा गांधी” चौराहे पर पहुँचकर अपने ललाट पर उभरी पसीने की बूंदों को पौंछा और फिर इधर-उधर नजरें दौड़ाई। सवारी देख, भीमा ने तुरंत अपने अंगोछे से सीट साफ की और सेठ की ओर याचक नजरों से देखा। दोनों की आंखे चार हुई। कचहरी तक का किराया 20 रूपये था। कश्मीरी लाल ने तुरंत हिसाब लगाया। ये रिक्शा वाले तो सवारी को लूटते हैं, इनको अधिक किराया देने से क्या लाभ? पाँच रूपये का वह भोले को प्रसाद चढ़ाएगा, भगवान का आशीर्वाद रहा तो आज फैसला हो जाएगा. और वह 15 रूपये पर अड़ा रहा। ‘चलना है तो चलो, ये सामने ही तो है कचहरी’ । ‘साहब चढ़ाई है और बिल्कुल वाजिब किराया है’, भीमा गिड़गिड़ाया। लेकिन सेठ 15 रूपये से ऊपर एक नया पैसा देने को तैयार न हुआ।

अंतत: मन मसोसकर भीमा ने हाँ कर दी। ‘तनिक मंदिर पर रोक कर चलना भाई’। रास्ते में सेठ जी ने असीम श्रद्धाभाव से शिव जी के चरणों में पाँच रूपये का प्रसाद अर्पित किया। भगवान की आँखों में दया का सागर लहरा रहा था।

लौटते समय भीमा ने मंदिर के पास रिक्शा रोका और श्रद्दानवत उनके चरणों में पाँच रूपये का प्रसाद अर्पित किया। ‘हे भोले शुक्र है तेरा जो सवारी भेज दी।’ भगवान की आँखों में अब भी दया का सागर लहरा रहा था।

Publication-सत्य की मशाल भोपाल (सितंबर, 2019)

(4) साफ़-सफ़ाई अभियान

वह एक पत्रकार था, स्वतंत्र पत्रकार. सच को जानने, उजागर करने की जैसे हमेशा उस पर धुन सवार रहती. हाल ही में उसे एक बङे सनसनीख़ेज मामले की भनक लगी. मुद्दा सीधे-सीधे, मौजूदा सरकार के एक बहुत बङे नेता की अस्मिता से जुङा था एतएव मुख्य धारा के मीडिया और अख़बारों ने एक छोटी सी गोल-मोल ख़बर निकाल कर इतिश्री कर ली.

लेकिन वह ठहरा एक जुनूनी पत्रकार, कुछ विशेष कर गुज़रने की इच्छा और पत्रकारिता धर्म, उसे उद्वेलित करने लगे. अपनी प्रारंभिक जाँच में उसने पाया कि सच, अनगिनत छद्म आवरणों के नीचे कहीं दफ़न है. पत्रकार ने सच को अनावृत करने की ठान ली. रास्ता ख़तरों से भरा था, अत: उसने वेश बदला और संभावित जगहों को खोदना शुरु किया. अनेक असफल प्रयासों के पश्चात, एक स्थान पर उसे सच की सुगबुगाहट सुनाई पङी. वह दोगुने उत्साह से फावङा चलाने लगा. झूठ और फ़रेब की कठोर परतें टूटने लगीं. पत्रकार ने अपनी पूरी उर्जा झौंक दी और अंतत: गहराई में दफ़न सच की झलक उसे मिली ही गई.

हाथ बढाकर वह सच को छू लेने वाला ही था कि अचानक भारी भरकम बुलडोज़र की आवाज से चौंक पङा. इससे पहले कि वह सच को लेकर गड्ढे से निकल पाता, बाहर एकत्र मलबे का ढेर भरभराकर अंदर गिरा और दोनों दफ़न हो गए. अगले दिन अख़बारों में बङे-बङे शीर्षकों में ख़बर छपी, ‘साफ़-सफ़ाई अभियान के अंतर्गत प्रशासन ने शहर के खतरनाक गड्ढों को पाटा.’

दयाराम वर्मा, जयपुर 20.10.2022

(5) डॉ. दिलीप महालनोबिस

“हिटलर को तो सारी दुनिया जानती है. लगभग कितने लोग उसके नफ़रती नरसंहार के शिकार हुए होंगे?”

“मेरे ख्याल से मानवीय इतिहास में हिटलर से अधिक क्रूर इंसान अभी तक पैदा नहीं हुआ. मात्र छ: वर्ष में उसने 60 लाख यहुदियों को मौत के घाट उतार दिया. इनमें 15 लाख तो केवल बच्चे थे.”

“बिल्कुल सही. आपने निठारी कांड वालों का नाम भी सुना होगा?”

“हाँ, हाँ, क्यों नहीं. 2005-06 के दौरान दर्जनों बच्चियों और लङकियों के बलात्कार और हत्या के दोषी, सुरेंदर कोली और मोहिंदर सिंह पंढेर! इन नरपिशाचों को कौन नहीं जानता, दोनों को फ़ाँसी हुई थी.”

“और 9/11 के बारे में भी आपको जानकारी होगी?”

“9/11! हाँ, वो ट्विन-टॉवर वाला हमला! नवंबर, 2011 में अमेरिका के न्यूयॉर्क और वाशिंगटन शहरों में अल-कायदा आतंकवादियों ने अपहृत विमानों से आत्मघाती हमले किए थे. इनमें करीब तीन हज़ार लोग मारे गए थे. इसके पीछे ओसामा बिन लादेन का हाथ माना जाता है.”

“बहुत ख़ूब! और मुम्बई में वो ताज होटल पर आतंकी हमला............ ”

“ओह, कसाब, उस हराम... को फ़ाँसी हुई. वर्ष 2008 में मुम्बई के कई रेलवे स्टेशनों, अस्पतालों, कैफ़ेटेरिया और होटल आदि को निशाना बनाया. इसमें भी करीब 150-200 लोग मारे गए थे.”

“हूँ. और 1984 के दिल्ली दंगों, 2002 के गोधरा दंगो के बारे में आपकी क्या राय है? कितने लोग मारे गए होंगे ऐसे दंगों में?”

“भारतीय इतिहास की बेहद दुखद घटनाओं में से हैं ये. एक अनुमान के अनुसार 1984 के सिख विरोधी दंगों में दिल्ली और अन्य शहरों में तीन हज़ार से अधिक लोग मारे गए थे. गुजरात के गोधरा में भी दो से तीन हज़ार लोग मारे गए होंगे.”

“अच्छा! आपका सामान्य ज्ञान बहुत बढ़िया है. बस एक अंतिम सवाल, क्या आपने डॉ. दिलीप महालनोबिस का नाम सुना है?”

“डॉ. दिलीप महालनोबिस! ......नहीं. माफ़ कीजिए. यह नाम तो मैंने पहली बार सुना है. कौन था यह डॉक्टर? क्या किसी नक्सली आंदोलन से जुङा था?”

“जी नहीं. 16 अक्टूबर, 2022 को 88 वर्ष की उम्र में उनका निधन हो गया है. डायरिया के मरीजों को डीहाइड्रेशन से होने वाली मौत से बचाने वाले ओ.आर.एस. (ओरल रीहाइड्रेशन सोल्युशन) घोल के वे जनक थे. 1971 में बांग्लादेश युद्ध के पश्चात पश्चिम बंगाल के विभिन्न शरणार्थी शिविरों में व्यापक स्तर पर हैजा फैल गया था. उस समय डॉ. महालनोबिस ने अपने कर्मचारियों के साथ वहाँ जाकर ओ.आर.एस. का इस्तेमाल किया और लाखों लोगों की जान बचाई. विश्व स्वास्थ्य संघटन के अनुसार ओ.आर.एस. से दुनिया भर में 6 करोङ से ज़्यादा जानें बचाई गई हैं. इनमें अधिकांश बच्चे हैं. भविष्य में कितनी और जिंदगियाँ इस घोल से बचाई जाती रहेंगी, अनुमान लगाना संभव नहीं है. और जानते हो, उन्होंने इस घोल का कोई पेटेंट नहीं करवाया था.”

“.........................!!!”

(c) दयाराम वर्मा, जयपुर (राज.)

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