कविता: इंसानी भूख




विस्तारवाद की भूख
सत्ता पर चिर-आधिपत्य की भूख
संसाधनों पर स्वामित्व की भूख
व्यापार और बाजार पर एकाधिकार की भूख
जिस्मानी भूख से इतर
तमाम तरह की ‘इंसानी’ भूख!

निगल चुकी है एक-एक कर
इंसानियत के अंग-प्रत्यंग
संवेदना, संतोष, उदारता, प्रेम, करुणा आदि-आदि
इसका हृदय न धङकता है, न पिघलता है
हृदयगति थम जो चुकी है
निस्तेज पुतलियों में निःशेष है दृष्टि
आओ पढ़ते हैं मर्सिया
करते हैं अंतिम अरदास, कहते हैं ‘रेस्ट-इन-पीस’
और सजाते हैं अर्थी!

बारूदी शहरों में
चतुर्दिक धधकती चिताओं पर लेटी है इंसानियत
संभव है
इसकी अंत्येष्टि के पश्चात
हो सकेंगे सभी द्वंद्व समाप्त
वर्चस्व, आन-बान-शान और अभिमान की
सभी लङाइयाँ तोङ देंगी दम
और खत्म हो जाएगी ‘इंसानी’ भूख!

मुखाग्नि देने को आतुर
बैठे हैं कतारबद्ध, युग-प्रवर्तक, महामानव
रूस, चीन, अमेरिका, इजराइल, ईरान, अफगानिस्तान, म्यांमार…….
फेहरिस्त लंबी है!


© दयाराम वर्मा, जयपुर (राज.) 09 जनवरी, 2025

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