कविता: चल उठा बंदूक




पहले खलता था, अब आदत में शुमार है
ढ़लती शाम के साथ
थके कदमों बैरक में लौटना
और अलाव की धुँधली रोशनी में
घूरते रहना, कठोर-खुरदरे चेहरे
सपाट, मदहोश, हंसमुख तो कुछ भावुक
रफ़्ता-रफ़्ता पिघलते चेहरे!

अंधेरे की चादर
सीमा पर फैली पहाड़ियों को
बहुत तेजी से ढकती चली जाती है
स्याह-सर्द रातों में ख़्वाब तक सो जाते हैं
तब भी चार खुली आँखें
सुदूर सूने आसमान में कुछ टटोलती हैं!

गलवान घाटी की इस चोटी पर एक बंकर में
हर आहट से चौंकता मैं और मीलों दूर
बूढ़ी बावल वाले घर के आँगन में
करवटें बदलती तुम!

कल सोचा था तुम्हें देखूँगा मैं चाँद में
मेरी तरह जिसे
हर रोज तुम भी तो निहारती हो, मगर!
सारी रात घटाएँ छाई रहीं
और आज हिमपात शुरू हो गया है!

बर्फीली चोटियों पर सुन्न हो जाता है शरीर
और जम सा जाता है रक्त
मगर अरमान सुलगते रहते हैं!

आहिस्ता-आहिस्ता
कानों में बजती है पायल की झंकार
बंद पलकों के पीछे
गर्मी में तुम्हारा तमतमाया चेहरा
और गोबर सने हाथ, अक्सर उभर आते हैं!

यहाँ मोबाइल नेटवर्क नहीं है
तुम्हारी अंतिम चैट के बिखरे से जज़्बातों को
समेट कर मैं पढ़ता हूँ

और तब मेरे सिमटे से जज़्बात
बिखरते चले जाते हैं!

दिन-सप्ताह और महीने
बहुत से बीत गए हैं
जबकि हर पल साल की तरह बीता है!

अधूरे से स्वप्न की, अधूरी मुलाकात
गोलियों की तङ-तङ से
भंग हो जाती है!

र बावळे जादा ना सोच्या करदे
बंद कर मोबाइल, सिराणं तळ धरदे
चल उठा बंदूक, कर दुश्मन का नाश
बहुत हुई भावुकता, छोङ ये सारे मोह पाश!
जय हिंद!


© दयाराम वर्मा, जयपुर (राज.) 19.01.2025

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