नज़्म: इत्तिफ़ाक़

गर तुमसे मुलाकात न होती, आलम-ए-दीवानगी पास न होती
रहा साथ तो ख्वाबों में, होश में वस्ल[1] फ़रेबी, तेरी आस न होती
कसमें जीने की-मरने की, ‘जुनूनी[2] गुफ़्तगू[3]’, वो बेबाक न होती
हो भी जाते दफ़न अफ़साने सौ, सितमगर मेरी जाँ आप न होती
धुआँ-धुआँ है सोज़-ए-दिल[4], उम्मीद-ए-विसाल[5] पाक न होती
कर लेते तय सफर तन्हा, जो हुई मुलाक़ात इत्तिफ़ाक़[6] ही होती
हवाएँ थीं आवारा, खुशबू-ए-नग़्मा-ए-वफ़ा कम-ज़ात नहीं होती
चलते चले जाना बेसाख़्ता दीप, इन राहों की कभी रात नहीं होती
@ दयाराम वर्मा, जयपुर (राज.) 23 जनवरी, 2025
[1] वस्ल-मेल मिलाप, मिलन
[2] जुनूनी- दीवानगी भरा
[3] गुफ़्तगू- बातचीत
[4] सोज़-ए-दिल- ह्रदय में जलती प्रेम की अग्नि
[5] उम्मीद-ए-विसाल—मिलन की आस
[6] इत्तिफ़ाक़—अचानक, संयोग
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