डोनाल्ड ट्रम्प की दादागिरी 

डोनाल्ड ट्रम्प ने अपने दूसरे कार्यकाल के लिए 20 जनवरी, 2025 को अमेरिका के 47वें राष्ट्रपति पद की शपथ ग्रहण की. जैसा कि अपेक्षित था, इस मर्तबा, ‘कभी भी’, कुछ भीबोलती उनकी बेलगाम जुबान, धौंस जमाते भाषण, असीमित दंभ में डूबी अभिवृत्ति, मन मुआफिक नियम-कानूनों की घोषणा, संवेदनाओं की हदों से कोसों दूर निरंकुश निर्णय, पहले से कहीं अधिक तीव्र और आक्रामक थे. 

अगले ही दिन ट्रम्प ने संयुक्त राज्य अमेरिका में, पूर्व राष्ट्रपति जो बाइडेन द्वारा पारित कई कार्यकारी आदेशों को वापस ले लिया. इनमें वे आदेश शामिल हैं जो ट्रांसजेंडर लोगों को सेना में सेवा करने की अनुमति देते थे, समलैंगिक, उभयलिंगी और ट्रांसजेंडर (LGBT) युवाओं के स्वास्थ्य और कल्याण को बढ़ावा देते थे, और शिक्षा, आवास और आव्रजन जैसे क्षेत्रों में संघीय लैंगिक भेदभाव सुरक्षा को यौन उन्मुखता या लिंग पहचान के आधार पर भेदभाव को रोकने के लिए व्याख्यायित करते थे. उन्होंने देश में अवैध आप्रवासन को समाप्त करने का भी वादा किया, यह कहते हुए कि लाखों "आपराधिक एलियंस" को निर्वासित कर दिया जाएगा.

ट्रांसजेंडर यानि थर्ड जेंडर होना कोई अपराध नहीं है. यह एक जन्मजात शारीरिक कमी है-जिस पर किसी का नियंत्रण नहीं होता. आज सभी सभ्य समाज, इनको मुख्यधारा में लाने की वकालत करते हैं और प्रत्येक स्तर पर इनके साथ सामाजिक बराबरी को बढ़ावा दे रहे हैं. हाँ समलैंगिकता या उभय-लैंगिकता, अति-भौतिकवाद से उपजा एक ऐसा मानसिक विकार है जो अप्राकृतिक और निंदनीय है, अतएव ऐसे लोग सरकारी सहानुभूति के पात्र नहीं होने चाहिए. फिर गे, लेस्बियन और ट्रांसजेंडर को एक ही चश्मे से देखना क्या उचित है? लेकिन बड़बोले ट्रम्प ने तो सबको एक साथ लपेट लिया.

चुनावी प्रचार में अपने मेनिफेस्टो में अवैध आप्रवासियों को अमेरिका से निकाल बाहर करने का उनका ऐलान बेहद स्पष्ट था. शपथ ग्रहण के तुरंत बाद ही इसके बारे में घोषणा कर उन्होंने वर्षों से अमेरिका में रह रहे लाखों अवैध आप्रवासियों के जीवन यापन और सामाजिक सुरक्षा पर सवालिया निशान लगा दिए. अमेरिका के होमलैंड सुरक्षा विभाग के जनवरी 2022 के अनुमानों के अनुसार, वहाँ 110 लाख अवैध आप्रवासी हैं. अमेरिका के लिए एक ओर जहाँ यह समस्या है, वहीं उसकी अर्थ व्यवस्था में अपेक्षाकृत सस्ते श्रम का बङा योगदान भी इन आप्रवासियों का होता है.

यह पहली बार नहीं है कि अमेरिका में अवैध आप्रवासियों के खिलाफ अभियान शुरू किया गया है, अक्सर ऐसी कार्रवाइयाँ होती रही हैं. वर्ष 2013 में बराक ओबामा के समय भी 4.32 लाख लोगों का, उनके मूल राष्ट्रों में निर्वासन किया गया था. फर्क यह है कि इस बार का पैमाना सबसे बङा माना जा रहा है.  ट्रम्प ने कहा है कि वह एलियन एनिमीज़ एक्ट का सहारा लेंगे, जो 1798 का एक कानून है और राष्ट्रपति को यह अधिकार देता है कि वह किसी भी ऐसे गैर-नागरिक को निर्वासित कर सकते हैं जो उस देश का हो, जिसके साथ अमेरिका युद्ध में है.

लेकिन ट्रम्प भारत जैसे अपने दोस्त राष्ट्रों को भी नहीं बख्श रहे. 1980 में अमेरिका में शरण लेने के अधिकारका कानून बना. 2001 के एक सुप्रीम कोर्ट के फैसले के तहत, यदि यह संभावित नहीं है कि किसी व्यक्ति के मूल देश उसे वापस ले लेंगे, तो ऐसे मामलों में अवैध रूप से देश में रहने वाले लोगों को अनिश्चित काल तक हिरासत में नहीं रखा जा सकता. क्यूबा, वेनेजुएला, निकारागुआ और अन्य देश या तो अपने नागरिकों को स्वीकार करने में देरी करते हैं या मना कर देते हैं.

ट्रम्प ऐसे नियमों को ठेंगा दिखाने में जरा भी नहीं हिचकते. जनवरी के अंतिम सप्ताह से ही अमेरिका में अवैध आप्रवासियों के साथ खूंखार अपराधियों की तरह बर्ताव आरंभ कर दिया गया. जो पकङे गए उनके हाथों, कमर व पैरों में बेङियाँ डाल कर, वायु सेना के जहाजों में लाद कर मूल देशों में भेजने की कार्रवाई शुरु हो गई. इसी क्रम में 5 फरवरी को पहली खेप के रूप में भारत के 104 ऐसे चिन्हित लोगों को अमृतसर हवाई अड्डे पर छोङा गया. इनमें 19 महिलाएं और 13 नाबालिग भी शामिल हैं.  

यहाँ अमेरिकी राष्ट्रपति की ग़ज़ा को लेकर एक और हास्यास्पद घोषणा का जिक्र भी प्रासंगिक है. उन्होंने कहा कि अमेरिका 'ग़ज़ा पट्टी में काम करेगा.' उनके सुझावों में ग़ज़ा पट्टी का पुनर्विकास करना और इसे 'मध्य पूर्व का रिविएरा (छुट्टी बिताने वाली ख़ूबसूरत जगह)' में बदलना शामिल है. इससे पहले ट्रम्प ने कहा था कि फिलिस्तीनियों को मिस्र और जॉर्डन में स्थायी रूप से 'बसाया' जाए. गोया, ग़ज़ा जंग में जीती गई कोई वस्तु है जिसे वह जैसे चाहें इस्तेमाल करे! वहाँ के लोग, इंसान नहीं, भेङ-बकरियां हैं जिन्हें जब चाहें, काटा जा सकता है, जब चाहे जहाँ चाहे, हाँका जा सकता है.

उनकी तानाशाही मानसिकता, पनामा नहर को कब्जे में लेने और ग्रीनलैंड पर आधिपत्य स्थापित करने को लेकर उनके हालिया के बयानों से भी पुष्ट हो रही है. जो विरोध करे, वे आर्थिक प्रतिबंधों से लेकर, अपने निर्यात पर भारी भरकम अमेरिकी शुल्क चुकाने के लिए तैयार रहें.

किसी अपराजेय योद्धा की शैली में ट्रम्प द्वारा एक के बाद एक की जा रही ये घोषणाएं पूरी दुनिया के लिए गंभीर चिंता के मुद्दे होना चाहिए. लेकिन विश्व की सबसे बङी आर्थिक एवं सामरिक ताकत और परमाणु शक्ति संपन्न अमेरिका के सामने इस समय केवल रूस और चीन के अलावा, दुनिया के किसी भी राष्ट्र की विरोध करने की हिम्मत नहीं है. बल्कि रूस और चीन भी प्रत्यक्ष विरोध करने से बचते हैं. यही कारण है कि ट्रम्प जैसे धुर दक्षिणपंथी, तानाशाही विचारधारा के शासक, पूरी दुनिया को अपनी मर्जी से चलाना चाहते हैं. उन्हें न मानवाधिकार संगठनों की परवाह है, न संयुक्त राष्ट्र संघ के निंदा प्रस्तावों की, न व्यापक आलोचनाओं की. छिटपुट राष्ट्रों की आपत्तियों की तो वे क्या ही परवाह करेंगे.

अपमान और अन्याय के विरुद्ध चुप्पी के अन्य कारणों में, हो सकता है अनेक राष्ट्राध्यक्षों के निजी स्वार्थ आङे आते हों, या उनके व्यापारिक हित दाँव पर लगे हों. हो सकता है उनकी व्यक्तिगत गुप्त जानकारियां या भ्रष्टाचार के सबूत आदि, ट्रम्प और उसके शक्तिशाली व्यापारी दोस्तों के हाथों में हो, जैसे गूगल, जी मेल, ट्विटर, व्हाट्सएप, पेगासस आदि प्लेटफॉर्म और एप के मालिक! इनके जरिए दुनिया के साइबर सिस्टम को नियंत्रित करने वाले चंद लोगों के लिए, ताकतवर लोगों की खुफिया जानकारी जुटाना और उसे अपने फायदे के लिए इस्तेमाल करना कोई आश्चर्य की बात नहीं.

इस संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता कि इन जानकारियों का वे लोग ठीक वैसे ही इस्तेमाल कर रहे हों जैसे कि बहुधा सत्ताधारी दल, पुलिस, प्रशासन और अन्य प्रवर्तन संस्थाओं का इस्तेमाल, अपने विरोधियों और विपक्ष को कुचलने के लिए करते हैं!

लेकिन जब बङी-बङी ताकतों के मुँह सिले हुए होते हैं, भयभीत राष्ट्र अपनी भीरुता को व्यवहारिकता के लबादे में छुपाकर, न्यायोचित ठहराने का स्वांग कर रहे होते हैं, ठीक उसी समय एक मामूली सा शख्स उठ खङा होता है, कोई छोटा सा गैरतमंद राष्ट्र अपनी तमाम कमजोरियों के बावजूद, अपना विरोध दर्ज करा देता है. इंसाफ और इंसानियत के पक्ष में उनकी मंद आवाज, फ़ासिस्ट नक्कारखाने की दीवारों को यदि ढहा नहीं सकती तो कम से कम हिला जरूर सकती हैं.

जो बात बङे-बङे दिग्गज कहने से कतराते हैं-घबराते हैं, वह बात ऐसे शख्स बेखौफ कह जाते हैं. इनमें से एक नाम है एपिस्कोपल बिशप द राइट रेव. मारियान एडगर बुड का. जब ट्रम्प ने 21 जनवरी को वाशिंगटन नेशनल कैथेड्रल में एक परंपरागत प्रार्थना सत्र में भाग लिया तो प्रार्थना सत्र के बाद चर्च की बिशप एडगर ने अत्यंत शालीन शब्दों में निवेदन करते हुए, उनके मानवता विरोधी फैसलों को नग्न कर डाला.

यद्यपि एडगर बुड एक कट्टर धर्म गुरू मानी जाती है लेकिन उन्होंने सीधे-सपाट शब्दों में दुनिया के सबसे ताकतवर देश के राष्ट्रपति से अपील करते हुए कहा,  “आइए मैं एक अंतिम निवेदन करती हूँ, माननीय राष्ट्रपति. करोड़ों लोगों ने आप पर अपना विश्वास जताया है. जैसा कि आपने कल राष्ट्र से कहा था, आपने एक प्रेममय ईश्वर के दिव्य हस्तक्षेप को महसूस किया है. मैं आपसे हमारे ईश्वर के नाम पर अनुरोध करती हूं कि आप हमारे देश के उन लोगों पर दया करें, जो इस समय डरे हुए हैं. डेमोक्रेट, रिपब्लिकन और स्वतंत्र परिवारों में ऐसे समलैंगिक, लेस्बियन और ट्रांसजेंडर बच्चे हैं जो अपनी जान को लेकर डरे हुए हैं. और वे लोग जो हमारी फसलें तोड़ते हैं और हमारे कार्यालय भवनों की सफाई करते हैं; जो हमारे पोल्ट्री फार्म और मीट-पैकिंग प्लांट्स में काम करते हैं; जो हमारे रेस्तरां में खाना खाने के बाद बर्तन धोते हैं और अस्पतालों में रात की पाली में काम करते हैं.

हो सकता है वे नागरिक न हों या उनके पास उचित दस्तावेज़ न हों, लेकिन अधिकांश प्रवासी अपराधी नहीं हैं. वे कर चुकाते हैं, और अच्छे पड़ोसी हैं. वे हमारी चर्च, मस्जिद, सिनेगॉग, गुरुद्वारा और मंदिरों के समर्पित सदस्य हैं.

माननीय राष्ट्रपति, उन लोगों पर दया करें जो हमारी समुदायों में हैं, जिनके बच्चे इस डर में जी रहे हैं कि उनके माता-पिता को उनसे अलग कर दिया जाएगा. उन लोगों की मदद करें जो युद्ध क्षेत्रों और अपने ही देश में हो रहे उत्पीड़न से बचकर यहां दया और स्वागत की उम्मीद में आए हैं. हमारा ईश्वर हमें सिखाता है कि हमें अजनबियों पर दया करनी चाहिए, क्योंकि हम भी कभी इस भूमि पर अजनबी थे. ईश्वर हमें सभी मनुष्यों की गरिमा का सम्मान करने, प्रेमपूर्वक सत्य बोलने, और एक-दूसरे तथा अपने ईश्वर के साथ विनम्रता से चलने की शक्ति और साहस प्रदान करें, ताकि इस राष्ट्र और पूरी दुनिया के सभी लोगों की भलाई हो सके.” एडगर बुड के इस भावुक भाषण की यह पंक्ति काबिल-ए-गौर है जिसमें वे कहती हैं हमारा ईश्वर हमें सिखाता है कि हमें अजनबियों पर दया करनी चाहिए, क्योंकि हम भी कभी इस भूमि पर अजनबी थे.

और, यह एक कटु ऐतिहासिक सच है कि अमेरिका के मूल निवासियों को खदेङा गया, गुलाम बनाया गया, प्रताङित किया गया, मारा गया. बाहरी लोगों, विशेषकर यूरोपियन देशों के समुद्री लुटेरे, भागकर आए पढ़े लिखे, होशियार और अवसरवादी लोग वहाँ काबिज हो गए और कालांतर में अमेरिका के मालिक बन बैठे. यह ज्यादा पुरानी बात नहीं है, लगभग सात सौ वर्ष पूर्व, 15वीं शताब्दी के दौरान, स्पेन और पुर्तगाल के यूरोपीय देशों ने एशिया के लिए नए व्यापार मार्ग खोजने के लिए समुद्री अभियान आरंभ किए. इन्हीं में से एक अभियान के दौरान क्रिस्टोफर कोलंबस को 1492 में पश्चिमी गोलार्ध में एक भूमि मिली-कैरिबियन द्वीप! और उसके बाद इन यूरोपीयन देशों ने उत्तरी अमेरिका और दक्षिणी अमेरिका की भूमि और संसाधनों पर कब्जे की होङ लगा दी.

वहाँ के मूल निवासियों में अधिकांश, बाहर से आई चेचक जैसी गंभीर संक्रामक बीमारियों से मारे गए. उनको गुलाम बना लिया गया और कालांतर में समाप्त प्राय: कर दिया गया. ठीक वैसे ही जैसे कि आस्ट्रेलिया के मूल निवासियों को यूरोपियन लोगों ने अपनी सत्ता, वैभव, धन एवं संपत्ति की लोलुपता का शिकार बनाकर, हजारों साल पहले पूरी तरह नष्ट कर दिया और खुद वहाँ के स्वामी बन बैठे. स्वयं ट्रम्प की पारिवारिक जड़ें यूरोप में हैं, उनके पिता जर्मन थे और मां स्कॉटलैंड वासी.

यह सच है कि अवैध आप्रवासन पर कङे नियम बनाना और उनकी अनुपालना, किसी भी देश का अपना आंतरिक मामला है. वह चाहे तो बाहरी लोगों को शरण दे, चाहे तो न दे. अवैध आप्रवासियों के मनी लॉन्ड्रिंग, ड्रग्स और मानव तस्करी जैसे अपराधों में लिप्त हो जाने की संभावनाएं अधिक होती हैं. किसी भी देश को अपनी कानून-व्यवस्था के मद्देनजर, इनके खिलाफ कार्रवाई करने और प्रभावी कानून बनाने की आजादी है. सतही तौर पर तो ये दलीलें बहुत स्पष्ट और अकाट्य प्रतीत होती हैं, परंतु क्या अवैध आप्रवासन के सभी मामले, विशेषकर अमेरिका के संदर्भ में, एक ही पंक्ति में परिभाषित किए जा सकते हैं?

अवैध आप्रवासियों पर प्राय: घुसपैठिये और आतंकवादी होने के लेबल चस्पा कर दिए जाते हैं- कुछ एक घटनाओं को आधार बना कर सभी आप्रवासियों को एक ही तराजू में तौल दिया जाता है. लेकिन अवैध आप्रवासन और अपराध दोनों अलग हैं. आप्रवासियों के साथ मानवोचित और न्यायोचित व्यवहार अपेक्षित है- चाहे वे वैध रूप से आए हैं या अवैध रूप से.

दुनिया के अधिकांश देशों में अवैध आप्रवासी रहते हैं-कहीं कम कहीं ज्यादा. कोई भी व्यक्ति अपनी सर-जमीं को आसानी से नहीं छोङना चाहता और जब बात अवैध रूप से घुसने की होती है, उसे पता होता है कि कितने खतरे है, जेल जाने से लेकर सुरक्षा बलों की गोलियों से मारे जाने तक के खतरे. डंकी-रूट[1] की कुख्यात और भयानक कहानियाँ इस बात की पुष्टि करती हैं.

ये लोग अपेक्षाकृत कम पढ़े-लिखे होते हैं, कमजोर आर्थिक पृष्ठभूमि से आते हैं, अल्प या नगण्य व्यवसायिक योग्यता रखते हैं और वैध माध्यमों से अमेरिका का वीजा प्राप्त नहीं कर पाते. लेकिन फिर भी कर्ज उठाकर, जमीनें बेच कर, रिश्तेदारों-दोस्तों से उधार लेकर, भारी भरकम रकम जुटाते हैं एवं वीजा एजेंट्स के झांसों में फंसते हैं. यूरोप और अमेरिका में कामकाज के बेहतर अवसर और इज्जत की जिंदगी, न्याय और समानता, अपेक्षाकृत कम भ्रष्टाचार, जाति-धर्म-नस्ल आदि की भिन्नता को प्राथमिकता न देकर योग्यता को तरजीह, कम समय में मोटी कमाई आदि ऐसे अनेक कारण हैं जो भारतीय उप महाद्वीप, खाङी के देशों, अफ्रीकी देशों, लैटिन अमेरिकी देशों के लाखों लोगों को आकर्षित करते हैं.

प्यू रिसर्च सेंटर की 2022 की रिपोर्ट के अनुसार अमेरिका में सर्वाधिक अवैध प्रवासी मेक्सिको के हैं-41लाख, दूसरे नंबर पर अल साल्वाडोर-8 लाख , तीसरे स्थान पर भारत-7.25 लाख, चौथे स्थान पर ग्वाटेमाला-7 लाख और 5.5 लाख की संख्या के साथ पाँचवें स्थान पर होंडुरास है. जाहिर है इतनी बङी संख्या में ये लोग रातों रात वहाँ नहीं पहुँचे होंगे; हो सकता है इनमें से बहुत से लोग दशकों से वहाँ रह रहे हों.

शायद ही किसी मुल्क के बहु-संख्यक धर्म मानने वालों के धर्म-गुरुओं ने अपने राष्ट्र में हो रहे विदेशी लोगों के साथ अमानवीय व्यवहार को लेकर, अपने देश के सर्वोच्च लीडर से, इस प्रकार की अपील का कभी साहस किया हो जैसा कि बिशप एडगर ने किया है. इस लिहाज से, मानव मात्र के प्रति सहानुभूति, दया और मानवीय दृष्टिकोण अपनाए जाने की बिशप एडगर की ट्रम्प द ग्रेटको की गई यह अपील, एक असाधारण अपील है. यद्यपि ट्रम्प ने तुरंत उनकी इस अपील को अपने छिछले अंदाज में खारिज कर दिया लेकिन एडगर के हौसले ने इतिहास में अभिव्यक्ति को शर्मसार होने से बचा लिया.

ट्रम्प को जवाब देने वालों में दूसरा नाम है, कोलंबिया के राष्ट्रपति गुस्तावो पेट्रो का. उन्होंने बेङियों में जकङकर अपने देशवासियों की वापसी के अपमानजनक तरीके के विरोध में अमेरिका से आ रही उड़ानों को हवाई रास्ता देने से इनकार कर दिया. पेट्रो ने अमेरिका में कोलंबियाई प्रवासियों के साथ अपराधियों जैसा व्यवहार करने पर आपत्ति जताते हुए कहा कि जब तक अमेरिका प्रवासियों के सम्मानजनक व्यवहार का प्रोटोकॉल नहीं बनाता है, तब तक कोलंबियाई प्रवासियों को लाने वाले अमेरिकी विमानों को देश में प्रवेश की इजाजत नहीं दी जाएगी. उन्होंने अपने स्वयं के विमान भेजे जो अवैध प्रवासियों को लेकर राजधानी बोगोटा लौटे.

और तीसरा नाम है, मैक्सिकन राष्ट्रपति क्लाउडिया शीनबाम का. ट्रम्प की मैक्सिकन सामान के आयात पर भारी शुल्क की धमकी और अन्य अपमानजनक टिप्पणियों से आहत होकर उन्होंने कहा: “तो, आपने दीवार बनाने के लिए वोट दिया... खैर, प्यारे अमेरिकियों, भले ही आपको भूगोल के बारे में ज़्यादा जानकारी न हो, क्योंकि अमेरिका आपके लिए आपका देश है, महाद्वीप नहीं, इसलिए यह ज़रूरी है कि आप पहली ईंट रखे जाने से पहले ही पता लगा लें कि उस दीवार के पार 7 अरब लोग हैं. लेकिन चूंकि आप वास्तव में "लोग" शब्द नहीं जानते, इसलिए हम उन्हें "उपभोक्ता" कहेंगे. 7 अरब उपभोक्ता 42 घंटे से भी कम समय में अपने आई-फोन को सैमसंग या हुआवेई डिवाइस से बदलने के लिए तैयार हैं.

वे लेवी की जगह ज़ारा या मासिमो डूटी की जीन्स भी ले सकते हैं. छह महीने से भी कम समय में, हम आसानी से फ़ोर्ड या शेवरले की कारें खरीदना बंद कर सकते हैं और उनकी जगह टोयोटा, किआ, माज़दा, होंडा, हुंडई, वोल्वो, सुबारू, रेनॉल्ट या बीएमडब्ल्यू ले सकते हैं, जो तकनीकी रूप से उनके द्वारा उत्पादित कारों से बेहतर हैं.

 वे 7 बिलियन लोग डायरेक्ट टीवी की सदस्यता लेना भी बंद कर सकते हैं, और हम ऐसा नहीं करना चाहते, लेकिन हम हॉलीवुड की फिल्में देखना बंद कर सकते हैं और अधिक लैटिन अमेरिकी या यूरोपीय प्रोडक्शन देखना शुरू कर सकते हैं, जिनमें बेहतर गुणवत्ता, संदेश, सिनेमाई तकनीक और सामग्री है. हालांकि यह अविश्वसनीय लग सकता है, हम डिज्नी को छोड़ सकते हैं और कैनकन, मैक्सिको, कनाडा या यूरोप में एक्सकेरेट रिसॉर्ट जा सकते हैं: दक्षिण, पूर्वी अमेरिका और यूरोप में अन्य बेहतरीन गंतव्य हैं. और भले ही आपको विश्वास न हो, मैक्सिको में भी मैकडॉनल्ड्स से बेहतर बर्गर हैं और उनमें बेहतर पोषण सामग्री है.

क्या किसी ने अमेरिका में पिरामिड देखे हैं? मिस्र, मैक्सिको, पेरू, ग्वाटेमाला, सूडान और अन्य देशों में अविश्वसनीय संस्कृतियों वाले पिरामिड हैं. जानें कि प्राचीन और आधुनिक दुनिया के अजूबे कहाँ हैं... उनमें से कोई भी अमेरिका में नहीं है... ट्रम्प पर शर्म आती है, उन्होंने इसे खरीदा और बेचा होगा!

हम जानते हैं कि एडिडास मौजूद है, न कि केवल नाइकी और हम पैनम जैसे मैक्सिकन टेनिस जूते पहनना शुरू कर सकते हैं. हम जितना सोचते हैं, उससे कहीं ज़्यादा जानते हैं.  उदाहरण के लिए, हम जानते हैं कि अगर ये 7 बिलियन उपभोक्ता उनके उत्पाद नहीं खरीदते हैं, तो बेरोजगारी होगी और उनकी अर्थव्यवस्था (नस्लवादी दीवार के भीतर) इतनी ढह जाएगी कि वे हमसे इस बदसूरत दीवार को तोड़ने की भीख मांगेंगे. हम ऐसा नहीं चाहते थे लेकिन.. आप दीवार चाहते हैं, आपको दीवार मिलती है. ईमानदारी से आभार के साथ.” 

उन्होंने ट्रम्प के सामूहिक जबरन निर्वासन की योजना पर बोलते हुए कहा कि, संयुक्त राज्य अमेरिका में रहने वाले मैक्सिकन यह जान लें कि वे "अकेले नहीं हैं, वे ला पातरिया (राष्ट्र) के नायक और नायिकाएं हैं-उन्हें कानूनी, वित्तीय, तार्किक और अन्य सहायता दी जाएगी. संयुक्त राज्य अमेरिका में रह रहे लाखों मैक्सिकन, मेक्सिको की अर्थव्यवस्था के भी स्तंभ हैं, जो हर साल अपने रिश्तेदारों और अन्य लोगों को 60 अरब डॉलर से अधिक की राशि भेजते हैं.

अवैध आप्रवासन के विरुद्ध, ट्रम्प द्वारा वर्तमान में की जा रही कार्रवाई के दो पक्ष हैं, कानूनी और मानवीय. कानून की दृष्टि में उनके निर्णय उचित हैं लेकिन मानवीय दृष्टि से उनके द्वारा अपनाए जा रहे तरीके गैर जरूरी, बेहूदा, अहंकारी और अपमानजनक हैं. बङी संख्या में किसी भी देश के वासियों को जो अन्यथा, घोषित अपराधी नहीं हैं, हथकङियों और बेङियों में जकङ कर, पशुओं की भांति सैनिक विमानों में लादकर डिपोर्ट कर देना, किसी भी स्वाभिमानी राष्ट्र के आत्मसम्मान को चोट पहुँचाता है. और बङी बात यह है कि ट्रम्प ने ऐसा जानबूझकर किया है-जैसे कि वे दुनिया को संदेश दे रहे हों. देखो, अमेरिका की ताकत! हम कुछ भी कर सकते हैं. 

मानवीय दृष्टिकोण को धता बताकर, विकसित देश अपने कुत्सित इरादों को पूरे करते रहें! कमजोर मुल्कों के संसाधन, जमीन, तेल, खनिज आदि चतुराई से, ढिठाई से, घुङकी से, साम-दाम-दंड-भेद,  किसी भी तरीके से हासिल करते रहें, छीनते रहें! उनके मानव संसाधनों का सस्ती मजदूरी के रूप में उपयोग करते रहें, और जरूरतें पूरी होने पर लात मारकर बाहर कर दें! क्या यही 21-वीं सदी का न्यू वर्ल्ड ऑर्डर है! विश्व की सबसे अधिक जनसंख्या, 145 करोङ-वाला देश भारत, विकसित राष्ट्रों की नजर में सबसे बङी उपभोक्ता मंडी! हम इस पिक्चर में कहाँ फिट हो रहे हैं. गंभीर आत्मावलोकन  की आवश्यकता है.



[1] डंकी शब्द पंजाब के डुंकी शब्द से आया है, जिसका मतलब होता है एक जगह से दूसरी जगह कूदना.

© दयाराम वर्मा, जयपुर (राज.), 10 फरवरी, 2025

 

महाकुंभ हादसा और दो सवाल 

28 जनवरी, 2025 रात करीब 1 ½ बजे, मौनी अमावस्या के स्नान से पहले, महाकुंभ में प्रयागराज के संगम नोज इलाके में मची भगदङ में बहुत से लोग मारे गए. बहुत से अभी भी लापता बतलाए जा रहे हैं. उनके परिजन कभी इस अस्पताल तो कभी उस अस्पताल, कभी इस चौकी तो कभी उस चौकी भटक रहे हैं, लेकिन कहीं से कोई संतोषजनक जवाब या खबर नहीं मिल रही. जैसा कि, उत्तरप्रदेश सरकार द्वारा प्रचारित किया जा रहा है, 13 जनवरी, 2025 से लेकर 26 फरवरी, 2025 तक 45 दिन चलने वाले इस महा समागम में देश-विदेश के लगभग चालीस करोङ लोगों के आने की संभावना के बरअक्स सौ करोङ लोगों के लिए समुचित व्यवस्था है. लेकिन जिन परिस्थितियों में भगदङ मची, लोग कुचले और मारे गए, लापता हो गए वह अत्यंत दुखद और अफसोसनाक है. यह भी कहा जा रहा है कि भगदङ एक जगह न होकर तीन जगहों पर हुई-जिनमें झूंसी और सेक्टर-21 का संगम लोअर मार्ग भी शामिल है.

दुर्घटना के एक सप्ताह बाद भी सरकार की ओर से न तो मरने वालों के सही आँकङे प्रस्तुत किए जा रहे हैं, न ही लापता लोगों के. यह स्थिति दिन प्रति दिन घायल, मृत और लापता लोगों के परिजनों की तकलीफ और दर्द के जख्मों को और गहरा करती जा रही है.

दूसरी और सोशल मीडिया पर इस हादसे के पीङित लोगों और प्रत्यक्षदर्शियों के जो साक्षात्कार और बयान छनकर आ रहे हैं, उनसे उत्तरप्रदेश सरकार के दावों के उलट, महाकुंभ की चाक चौबंद व्यवस्था का खोखलापन स्पष्ट नजर आ रहा है. लापता लोगों के बारे में शासन-प्रशासन से अपेक्षित सहायता और आश्वासन न मिलने पर, लोग बुरी तरह से छुब्ध हैं, आक्रोशित हैं, पस्त और लाचार हैं.  

यह दुर्घटना क्यों हुई, इसके क्या कारण रहे? क्या इसे रोका जा सकता था? व्यवस्थाओं में कौनसी कमी रह गई थी? दुर्घटना के बाद हालात को बेहतर तरीके से कैसे संभाला जा सकता था? ये सवाल तो जरूरी हैं ही. यह और भी अधिक जरूरी हो जाता है कि हादसे के बाद पुलिस और प्रशासन, पीड़ितों के साथ पूरी संवेदना के साथ पेश आए और उनका हर प्रकार से सहयोग करे. दुर्घटनाएं, पूछ कर नहीं आती लेकिन बाद की परिस्थितियों को तो संभाला जा सकता है. भारत विश्व का सर्वाधिक आबादी वाला देश होने के साथ-साथ एक अल्प विकसित देश भी है. बहुत बङी संख्या में लोग गरीब हैं. लेकिन यहाँ धार्मिक सत्संग, मेले और उत्सव प्राय: हर प्रांत में होते रहते हैं. इनमें कुछ एक हजार से लेकर लाखों की संख्या में श्रद्धालु एकत्र होते हैं. पूजा-अर्चना होती है, प्रवचन सुने जाते हैं, पवित्र स्नान किए जाते हैं और सामूहिक लंगर में भोजन किया जाता है.

कई बार ऐसे आयोजनों में भगदङ और अव्यवस्था भी हो जाती है. जैसे हाल ही में 2 जुलाई 2024 को उत्तर प्रदेश के हाथरस जिले में एक हिंदू धार्मिक आयोजन में भगदड़ मच गई थी. इसमें कम से कम 123 लोगों की मौत हो गई, जिनमें अधिकांश महिलाएँ और बच्चे थे. मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार उस सत्संग समागम में अस्सी हजार लोगों के आने की संभावना थी लेकिन ढाई लाख लोग आ गए. मात्र 2.5 लाख लोगों के जमावड़े के बीच थोङे से समय में मची भगदङ ने 123 लोगों की जान ले ली. इस छोटी सी उपस्थिति की प्रयागराज की करोङों की भीङ से कोई तुलना नहीं हो सकती. यदि अव्यवस्था, बदइंतजामी या कोई अन्य कारण, 2.5 लाख की अपेक्षाकृत बहुत छोटी भीङ में इतने बङे हादसे का सबब बन सकता है तो महाकुंभ तो इससे सौ गुना अधिक भीङ है. वहाँ के इंतजाम भी तो सौ गुना बङे स्तर पर होने चाहिए थे!  

भारत में ऐसी अनेक संस्थाएं और संप्रदाय हैं जिनके धार्मिक या सामाजिक आयोजन प्राय: होते रहते हैं, जहाँ लाखों की भीङ जुटती है. लेकिन उनमें कई आयोजन, अत्यंत सुव्यवस्थित और अनुशासित तरीके से होते हैं. जगह-जगह पूछताछ केंद्र, शानदार यातायात और पार्किंग प्रबंधन, आसपास के सभी रेलवे स्टेशनों, बस अड्डों पर धार्मिक स्थल तक लाने-ले जाने के लिए स्पेशल बस सेवाएं और वहीं पर श्रद्धालुओं का मार्गदर्शन करने से लेकर मदद करने तक, पर्याप्त संख्या में सेवादारों की मौजूदगी. बुजुर्गों के लिए व्हील चेयर, स्पेशल फेरी सेवाएं, बैठने के लिए कुर्सियां और चाय-नाश्ते की सेवा! इस प्रकार के प्रबंध केवल स्थानीय पुलिस और प्रशासन के सीमित कर्मियों द्वारा संभव नहीं हो सकते बल्कि संभव होते हैं, हजारों समर्पित और प्रशिक्षित सेवादारों की चप्पे-चप्पे पर उपस्थित के द्वारा. उनकी 24-घंटे, तन-मन से अथक सेवा के द्वारा. ऐसे आयोजनों में हमें, हर पल विनम्र भाव से, मार्गदर्शन और सहायता को तत्पर हजारों सेवादार, भागते-दौङते, अपनी सेवाएं अर्पित करते नजर आएंगे.

यदि इस बात पर गौर करेंगे तो पाएंगे कि इस महापर्व में न केवल सरकार बल्कि आम जनता, आयोजकों, प्रायोजनों सभी ने इस महत्वपूर्ण बिंदु की अनदेखी की. आयोजकों को छोटे-छोटे धार्मिक समागमों-सत्संगों से भीङ नियंत्रण, अनुशासन और सेवाभाव सीखना चाहिए था. सवाल (1) यदि लाखों की भीङ को नियंत्रित करने के लिए, हजारों की संख्या में सेवादार मौजूद हो सकते हैं तो करोङों की भीङ के लिए लाखों समर्पित और प्रशिक्षित सेवादारों क्यों नहीं?  

हादसे में जो लोग मारे गए, वे किसी से शिकायत करने नहीं आएंगे. लेकिन उनके रोते-बिलखते परिजन आते हैं-गुहार लगाते हैं-गिड़गिड़ाते हैं. उस वक्त सबसे अधिक सहानुभूति, मदद और सही सूचना की उनको जरूरत होती है. करोङों लोगों की व्यवस्था करने वाली सरकार के लिए, हजार-पाँच सौ लोगों के लिए क्या इतना भर नहीं हो सकता कि वे घटना स्थल पर ही विशेष शिविर लगा कर, उनकी शिकायत को दर्ज कर लें. संभावित मृत या लापता लोगों की फोटो, नाम, लिंग, उम्र, संपर्क सूत्र व पता आदि की सूची के आधार पर, पुलिस-अस्पताल और परिजनों का एक विशेष नेटवर्क बनाकर, दूरदर्शन और अन्य टी.वी. चैनलों के माध्यम से जानकारी को सार्वजनिक करें, डेडिकेटेड व्हाट्सएप ग्रुप बनाकर जानकारी साझा करें, जो लगातार अद्यतन की जाए. इस प्रकार के उपायों से सभी अफवाहों पर तत्काल विराम लग सकता है और पीड़ितों की परेशानी व दर्द को बहुत हद तक कम किया जा सकता है. सवाल (2) क्या इस प्रकार की पारदर्शी, सूचना प्रणाली महाकुंभ हादसे के संदर्भ में कहीं नजर आ रही है?   

 © दयाराम वर्मा, जयपुर. 07 फरवरी, 2025 



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व्यंग्य: झटका रपट


सुना है, हाल ही में यू-ट्यूब पर नेता प्रतिपक्ष के एक भाषण से बिहार में समस्तीपुर के सोनूपुर निवासी एक दूध बेचने वाले युवक को अइसा झटका लगा कि उसके हाथों से दूध की बाल्टी गिर गई. पूरा पाँच लीटर दूध बिखर गया! पचास रूपये प्रति लीटर के भाव से दो सौ पचास रूपये का भारी भरकम नुकसान! महँगाई और बेरोजगारी के इस आफत-काल में वाकई यह बहुत बङा हादसा माना जाना चाहिए. भला हो उस युवक के शुभचिंतकों का, जो उन्होंने उसे थाने जाकर रपट लिखाने की सही सलाह दी. एक बात तो तय है कि उस सज्जन का इस हादसे से पूर्व कभी पुलिस से वास्ता नहीं पङा था और ना ही उन्होंने पुलिस की छवि की छीछालेदर करने वाले साहित्य या फिल्में देखी थीं-लिहाजा उनका कानून पर विश्वास अटूट था.

तो हुआ ये कि जैसे ही पीङित महाशय थाने पहुँचे-उनके साथ हुई इस जघन्य वारदात को सुनकर मुंशी से लेकर थानेदार तक के रोंगटे खङे हो गए और वहीं के वहीं तत्काल एफआईआर दर्ज हो गई. अब नेताजी होंगे नेता प्रतिपक्ष, होंगे प्रभावशाली व्यक्ति! आम आदमी की भी तो कोई हैसियत है. उसके साथ हुई नाइंसाफी की फिक्र यदि पुलिस नहीं करेगी तो कौन करेगा. पुलिस की इस कार्रवाई के बाद अब किसी को सवाल नहीं करना चाहिए कि आम आदमी के अच्छे दिन आए क्या? भला इससे बङा और प्रमाण क्या चाहिए आपको!

पचहत्तर साल हो गए देश को आजाद हुए, हिंदुस्तान की पुलिस से जनता सदा ख़फ़ा-ख़फ़ा रही है. बङे-बङे कांड हो जाते हैं, दिन दहाङे लूट, चोरी, सीनाजोरी, छींटाकशी, नकबजनी, बलात्कार और हत्या तक हो जाती है, होती रहती है, होती रहेगी. लेकिन क्या मजाल सीधे-सीधे प्रथम दृष्टया, प्रथम सूचना रपट यानि एफआईआर दर्ज हो जाए! एङी-चोटी का जोर लगाना पङता है-जनाब. अक्सर गाँधी जी एक जेब से चलकर दूसरी जेब में प्रवेश करते हैं तब कहीं जाकर मुंशी जी की कलम अंगङाई लेती है. संवेदनशील मामलों में तो जान पहचान के मंत्री से लेकर संतरी, विधायक से लेकर सांसद तक के यहाँ तमाम नए-पुराने जूते-चप्पल घिसाने पङते हैं-तिस पर भी गारंटी नहीं. महिलाओं या छोटी जात वालों के साथ रसूखदारों की ज्यादती के विरुद्ध रपट लिखाने की नौबत आन पङे तो पूछो मत. जब तक मुद्दा सङकों पर सर पटक-पटक कर लहूलुहान न हो जाए, नारे बाजी, पत्थरबाजी, धरना-प्रदर्शन से पब्लिक शासन-प्रशासन की सुकोमल नाक में नजला न कर दे, क्या मजाल, एफआईआर दर्ज हो जाए!

बॉलिवुड से टॉलिवुड तक की फिल्में और टी.वी. धारावाहिक तो पुलिस की इस क़दीम विरासत की ह्रदय की पेंदी से आभारी रहती रही है. उक्त विशिष्ट पुलसिया कार्य शैली की जन-जनार्दन में, दूध में पानी और आटे में नमक जैसी सहज स्वीकृति है. लेकिन समस्तीपुर के अमुक थाने ने 250 रूपये के नुकसान पर एफआईआर दर्ज कर, हमारी वर्षों की आस्था, परंपरा और अटूट विश्वास की चूलें हिला दीं-इसमें तनिक भी शक-ओ-शुब्हा नहीं. इस लिहाज से सरपट लिख दी गई यह रपट वाकई एक ऐतिहासिक गजट है.

इस नायाब रूदाद[1] की नूरानी रोशनी में न केवल आम और खास को बल्कि, कानून को बनाने वालों, लागू करनेवालों, परिभाषित करने वालों, कोर्ट कचहरी में बहस करने वाले अधिवक्ताओं और मीलॉर्ड तक को एक नई दिशा और दृष्टि मिल गई है. अब उन छुटभैये टी.वी. एंकर्स और यू-ट्यूबर्स की खैर नहीं, जो जान बूझकर टी.आर.पी. बटोरने के चक्कर में ऊल-जलूल थंबनेल लगाकर खबरें परोसते हैं. राई जितनी खबर का पहाङ बना डालते हैं, हर बङे ब्रेक को छोटा और हर छोटी खबर को बङी बताकर, ड्राइंग रूम में ऐसी सनसनी फैला देते हैं कि कभी रोमांच तो कभी खौफ के साये में मिस्टर वागले सोफे से फेविकोल की तरह चिपके रहते हैं. उछल-कूद और चीख-पुकार की सर्कस से दर्शकों को न केवल सकते में बल्कि कोमा में पहुँचा देने का हर संभव प्रयास करने वाले खबर-खजूरो सावधान! अब सुन लइयो, जे तुहार खबर सुनकर भौजाई को सदमा लग गयो तौं? सब्जी जल सकती है, और हो सकता है सब्जी आलू-बैंगन की न होकर महंगे मटर-पनीर की हो! दूध उफन सकता है. काँच का कीमती क्रॉकरी सेट हाथ से गिर कर चकनाचूर हो सकता है, अंतहीन व्यापक संंभावनाएं हैं. 

किसी व्यक्ति को उसके भाषण के किसी अंश से किसी अन्य व्यक्ति को पहुँचे मानसिक आघात और उसकी नैसर्गिक प्रतिक्रिया के परिणामस्वरूप हुई किसी भी प्रकार की भौतिक, मानसिक, आर्थिक, सामाजिक या आध्यात्मिक हानि के लिए जिम्मेवार ठहराया जा सकता है. इस प्रकार के शाब्दिक आघात को आपराधिक श्रेणी में शामिल कर लिए जाने के बाद, सीख लेते हुए अंट शंट बोलकर चल देने वाले नेताओं को अब दो बार सोचना होगा. साली और बीबी पर ‘साली ने जीजा से कहा, जीजा जी मैं पास हो गई मिठाई खिलाओ’ और ‘एजी सुणो हो..’ सरीखी हास्य रचनाएं सुना-सुनाकर महफिल लूटने वाले हास्य कवि, परम आदरणीय प्रदीप चौबे और सुरेंद्र शर्मा के शागिर्द, नई पीढ़ी के हास्य कवियों! उनकी तो जैसे-तैसे कट गई, तुम्हें अतिरिक्त सावधानी बरतनी होगी. जाने तुम्हारी कौनसी लाइन-कब किस मुहतरमा के दिल से सीधी जा टकराए. और मामला शोहर से होते हुए शोहदों तक जा पहुँचे. मुहतरमा की शान में गुस्ताखी की रपट तो होगी ही, हो सकता है शेष उम्र बैसाखियों के सहारे कवि सम्मेलनों में शिरकत करना पङे.

कुल मिलाकर, अब वह दिन दूर नहीं जब रामलाल को भी एफआईआर करवाकर न्याय की गुहार लगाने का मौका मिल जाएगा, जिसकी भूरी भैंस का दूध, देश के लोकप्रिय नेता के उस भाषण को सुनने के बाद थनों में ही सूख गया, जिसमें कहा गया था कि भूरी की जोड़ीदार, काली भैंस को कोई विपक्षी नेता खोलकर ले जाने वाला है.


[1] रूदाद-कार्रवाई


© दयाराम वर्मा, जयपुर (राज.) 02 फरवरी, 2025



                                                   सौजन्य-दैनिक भास्कर 



संक्षिप्त समीक्षा 

सकारात्मक अर्थपूर्ण सूक्तियाँ
लेखक हीरो वाधवाणी


जीवन एक संघर्ष है। उतार-चढ़ाव आते हैं, सुख-दु:ख आते हैं, लाभ-हानि होती है। बहुधा प्रतिकूल परिस्थितियों में इंसान को निराशा, भय और अवसाद के भंवर घेर लेते हैं। आदरणीय वाधवानी जी की 168 पृष्ठों की ‘सकारात्मक अर्थपूर्ण सूक्तियाँ’ नामक पुस्तक में, जिसका प्रथम संस्करण ‘अयन प्रकाशन नई दिल्ली’ से हुआ है; जिन अमूल्य प्रेरणास्पद व सकारात्मक जीवनोपयोगी सूक्तियों का सारगर्भित संकलन किया है वे निश्चितत: पाठक के मन में उमड़ते संशयों, भ्रमों, चिंता व दुश्चिंताओं का शमन कर तपती धूप में शीतल बयार के झोंके की भांति एक अभिनव सोच और ऊर्जा प्रवाहित कर उसमें पुन: जीवन रूपी संघर्ष को सहज भाव से जीने की ओजस्वी चेतना फूँक देती हैं।

गागर में सागर ये सूक्तियाँ हमें बरबस महान संत कबीर और रहिम दास के दोहों की याद दिलाती है। हिन्दी साहित्य को ऐसी संग्रहणीय कृति प्रदान करने के लिए वाधवानी जी को साधुवाद और अनंत शुभकामनाएं।

समीक्षक-दयाराम वर्मा, भोपाल (एमपी) 29.09.2018




                  हीरो वाधवानी



अन्य पुस्तकें







समीक्षा: चौपाल की कहावतें :- लेखक डॉ. मोहन तिवारी ‘आनंद’
प्रकाशक लोक साहित्य प्रकाशन 17-ए, शिवकुटी, इलाहाबाद , प्रथम संस्कारण 2017



डॉ. मोहन तिवारी-भोपाल


प्राचीन काल में कहावतों और लोकोक्तियों का समाज में न केवल एक महत्वपूर्ण स्थान था वरन वे समय की कसौटी पर जाँचे परखे कटु सत्य के रूप में स्वीकार्य थी। यह वह दौर था जब विज्ञान किसी मौसम या बीमारी की भविष्यवाणी करने के लिए उपलब्ध नहीं था। प्राकृतिक आपदा हो, बारिश या अकाल हो, बीमारी हो या कोई शुभ कार्य के लिए प्रस्थान करना हो, इंसान में सदैव परिणाम के पूर्वानुमान की जिज्ञासा रही है। 

आदिकाल में इंसान की पशु-पक्षियों से अति निकटता रही। वह उनकी हर गतिविधि को देखता और परखता रहा। कभी कभी उनकी विशेष आवाज, कोलाहल या असामान्य व्यवहार, भविष्य में होने वाली किसी घटना से जुड़ जाते। जब मनुष्य ने इन संकेतों का बार-बार विश्लेषण किया और जो निष्कर्ष अधिकांशत: सच साबित हुए तो उनसे मनुष्य ने एक अवधारणा का निर्माण किया होगा। शैने-शैने इन अवधारणाओं ने लोक कहावतों का रूप ले लिया और वे पीढ़ी दर पीढ़ी विरासत के रूप में सौंपी जाती रही। गाय व घोड़े के शुभ शकुन पर कवि ने लिखा है, “दूध पिलाती शिशु को, दाएँ दिखवे गाय। अति शुभकारी शकुन है, पंडित रहे बताय॥” अर्थात यदि यात्रा पर जाते समय गाय दाईं ओर से शिशु को दूध पिलाती हुई दिखे तो शुभ शकुन है। “दाएँ पाँव से अश्व यदि, धरती खोदे जोय। शुभकारी है शकुन यह, यात्रा मंगल होय॥” अर्थात यदि बाईं ओर से घोड़े के हिनहिनाने की आवाज सुनाई ड़े तो शुभ माना जाता है। 

इसी प्रकार कौवे को लेकर लिखा है, “गृह-प्रवेश करते समय, कौआ बोले बैन। तो शुभ मानो मिलेगा, लाभ और सुख-चैन॥” अर्थात, यदि आप घर में प्रवेश कर रहे हैं और कौआ आकार बोले तो शुभ शकुन है। आपको सुख और शांति की प्राप्ति होगी। मेघों पर कवि ने लिखा है, “भाद्र बड़ी एकादशी, बदरा नहीं दिखायं। चार माह बरसात के, सूखे-सूखे जायं॥” अर्थात, यदि भद्रपद कृष्ण पाक्स की एकादशी को आसमान निर्मल रहे, अर्थात बादल न हों और चंद्रमा पर श्वेत घेरा दिखे तो चौमासा सूखा जाएगा। आज आधुनिक विज्ञान के आधार पर मनुष्य ने अनुभव जन्य कहावतों को भले ही बिसरा दिया हो लेकिन बहुतार्थ में वे आज भी प्रासांगिक है। यद्यपि शकुन, अपशुकन की धारणा को विद्वानों की एक विचारधारा, अवैज्ञानिक, अतार्किक और अंधविश्वास से जोड़कर देखती है तथापि समय की कसौटी पर बार-बार खरी उतरती बहुत सी ऐसी लोक कहावतें यह तो प्रमाणित करती ही हैं कि पशु-पक्षियों में कुछ ऐसी अज्ञात शक्तियाँ या विशेषताएँ होती हैं जो उन्हे आने वाले किसी खतरे या प्राकृतिक परिवर्तन का पूर्व-बोध करा देती है। 

डॉ. मोहन तिवारी रचित,‘चौपाल की कहावतें’ मुख्य रूप से ग्रामीण अंचल के कृषकों और कृषि मजदूरों से संकलित सैंकड़ों दुर्लभ कहावतों का एक अनूठा दस्तावेज़ है। यद्यपि इस प्रकार की कहावतें हर भाषा और क्षेत्र में कमोबेश विभिन्न स्वरूपों में उपलब्ध होंगी लेकिन डॉ. मोहन तिवारी ने ग्रामीण क्षेत्रों में भ्रमण कर पुरानी पीढ़ी के लोगों से न केवल इनका संकलन किया बल्कि उन्हे दोहा-छंद की सधी हुई उत्कृष्ट साहित्यिक विधा में ढाला। इस दृष्टि से यह एक पठनीय व संग्रहणीय कृति है और विलुप्त होती जा रही हमारी दुर्लभ कहावतों को चिरकाल तक जीवित रखने में सक्षम और सफल है। ऐसी अनुभवजन्य कृति के सृजन के लिए डॉ. मोहन तिवारी ‘आनंद’ को साधुवाद और अनंत शुभकामनाएं। 

समीक्षक दयाराम वर्मा, 02.10.2018 भोपाल

बाल कविता: रिमझिम बादल बरसा




रिमझिम-रिमझिम बादल बरसे
पेङ-पत्तियां, बाग-बगीचे, हुलसित-पुलकित हरखे
गौरैया फुदके, मेंढक टरके!

छत, आंगन धूप न आए
उमङ-घुमङ बादल छाए, सूरज बैठा मुँह छिपाए
गीले कपङे कहाँ सुखाएं!

गलियाँ डूबीं, डूबे खेत खलिहान
कीचङ में फंसी बैल गाङी, हो रही खींचतान
हुए लबालब ताल-तलैया, नोनू चलाए कागज की नैया!

छुपा रोमी बिस्तर में, घन-गर्जन से डरता
टप्पू का टप-टप टपरा टपकता, झंडू का झोंपङा झरता
मारे ठंड के, ‘मोती’ बेचारा कूँ-कूँ करता!


खिङकी- दरवाजे फूले न समाएं
जाम हुआ गेट संडास का, फंस गए दद्दू जोर लगाएं
अंदर बैठे चीखें चिल्लाएं!


© दयाराम वर्मा, जयपुर. 17 जनवरी, 2025




परिचय: डॉ. ज्योत्सना राजावत: छोटे पंख-ऊंची उड़ान



डॉ. ज्योत्सना राजावत


हाल ही में डॉ. ज्योत्सना राजावत रचित दो काव्य संग्रहों का पढ़ने का सुअवसर प्राप्त हुआ। प्रथम, ‘संदर्भ प्रकाशन’ भोपाल से प्रकाशित ‘अंतहीन पथ’ और दूसरा वर्ष 2016 में जे.एम.डी. नई दिल्ली से प्रकाशित ‘हाइकु छटा’। ‘अंतहीन पथ’ की रचनाओं में पिता, माँ, बेटी, भाई जैसे रिश्तों की प्रकृतिजन्य अंतरंगता सुवासित है तो वहीं किसान, अनाथ, शिक्षक और मजदूर के जीवित उद्घोष हैं। दूसरी ओर ‘ख़्वाहिश’, ‘स्त्री का अंतर्मन’, ‘शक’, ‘दिया’, ‘माँ आयेगी’ सरीखी दर्शन और चिंतन के धरातल पर खींची अर्थपूर्ण लकीरें भी हैं। समग्र रूप से यह संग्रह किसी एक विषय पर केन्द्रित न होकर कवयित्री की कल्पनाओं और संवेदनाओं के असीम विस्तार का समागम प्रतीत होता है।

संग्रह की कविताओं से उद्धृत कुछ पंक्तियाँ मात्र ही इनकी काव्यात्मक गहराई और पैनेपन को पुष्ट करने के लिए पर्याप्त हैं। यथा, संग्रह के आगाज में ‘आईना’, अपने स्वभाव के अनुरूप ‘मुखौटे’ को अनावृत करते हुए कहता है “देखता हूँ हर रोज सौन्दर्य तुम्हारा/ जो ढका रहता है अनेक परतों के आवरण में/तुम्हारी हकीकत और तुम्हारा बनावटीपन/ दोनों से भली भांति परिचित हूँ”। क्या कभी हँसी भी एक ठोस हिम खंड सी जड़ हो सकती है? हाँ, लेकिन कवयित्री को हँसी का यह रूप स्वीकार नहीं और वह कह उठती है, ‘ठोस हिम खंड सी हँसी को पिघल जाने दो/ बन जाने दो सहस्र धारा……… तुम्हारी हँसी अमृत रस है/ किसी की खुशी के लिए/ किसी की चाहत के लिए/ आज गम को बिखर जाने दो.....’ इसी प्रकार ‘अंतहीन पथ’ कविता की पंक्तियाँ.... ‘हृदय में चंचलता/ विचारों में व्याकुलता लिए/ ढूँढती हूँ पथ/ बंद आँखों से/ अज्ञानता की लाठी से/ अविवेकी बन/ झूठे ढकोसलों संग/ जीवन का यथार्थ जाने बिना/ प्रभु को पहचाने बिना/ अंतहीन पथ पर/ ढूँढने चली अपना पथ...’ रचनाकार के लेखन का दर्शनीय फ़लक है।

दूसरा काव्य संग्रह ‘हाइकु छटा’ भी उतना ही अनूठा और अद्वितीय है। साहित्य की ‘हाइकु’ शैली का प्रादुर्भाव जापान में हुआ। तीन पंक्तियों में लिखी जानी वाली कविताओं में बिम्ब समीपता, इस शैली का मूल लक्षण है। पुस्तक की भूमिका लिखते हुए डॉ. विद्यालंकार ने हाइकु की बारीकियों और विशेषताओं का अत्यंत सारगर्भित शब्दों में जो वर्णन किया है उससे सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि इस विधा में रचना करना किसी सामान्य रचनाकार के लिए संभव नहीं।

हाइकु में उपयुक्त शब्दों का चयन, उनका क्रमागत अनुप्रयोग और अत्यंत सूक्ष्म कलेवर के साथ कवि हृदय की बात पाठक के अंत: मन तक सफलता पूर्वक पहुँचाने को डॉ. विद्यालंकार ने एक योगी की साधना से भी उच्चतर महत्व दिया है। यह अपने आप में बड़ी बात है। आलोच्य संग्रह में 62 शीर्षक और 10 हाइकु छटाएं हैं। संग्रह की कुछ रचनाएँ;

भूख: ‘कंगाली भूख/ निगल जाती/ बासी सूखी रोटियाँ; व्याकुल भूख/ तृप्ति पर लुटाती/ ढेरों आशीष; छोड़ के चिंता/ फिर सोती जी भर/ चैन की नींद’

हमारे नेता: ‘हमारे नेता/ स्वार्थी सत्ता लोलुप/मौका परस्त; खुद ही लूटें/ महमूद गजनवी/ बन कर देश; हरण करे/देश की अस्मिता को/ दुर्योधन सा; पूजें देवी सा/ भ्रष्टाचार का दैत्य/ चारों पहर; देश उत्थान/ सत्ता के खेल पर/ बना मोहरा’; हमारे नेता/ अपराधी नदियों/ के सिंधु बने’

बने कविता: ‘अनवरत/ तरंगित हो भाव/ बने कविता; पानी की बूंदें/ टपके आसमान से/ बने कविता; उड़े तितली/ फड़फड़ाये-झूमे/ बने कविता; बढ़े बेचैनी/ हो उथल-पुथल/ बने कविता; आयी आसमान/ से भोर की किरण/ बने कविता’

गांधी का पाठ; ‘सहमा सत्य/ घायल मानवता/ गाँधी को ढूँढे; गाँधी के घाट/ पर रोती अहिंसा/ ढूँढे वजूद; गाँधी का पाठ/ भूल गया इंसान/ करे दिखावा; अँग्रेजी भूत/ चढ़ा इंसान पर/ भूला वतन’

उक्त कविताओं के अवलोकन मात्र से डॉ. विद्यालंकार द्वारा रचनाकार के लिए की गई टिप्पणी पर किसी भी प्रकार की अतिशयोक्ति की संभावना समाप्त हो जाती है। निःसंदेह, प्रचलित भाषा और सरल शब्दावली के सहारे, रोचक काव्यात्मक शैली में गूँथी रचनाओं से कवयित्री ने उक्त दोनों ही काव्य संग्रहों में अपने मर्मस्पर्शी, संवेदनशील और बोधगम्य लेखन की परिपक्वता को सिद्ध किया है।

इन सबके इतर हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में विभिन्न पत्रिकाओं का प्रतिनिधि संपादन, शोध पत्र, समीक्षाएं, आलेख आदि का सतत लेखन, राजकीय सेवा और घर गृहस्थी की समानान्तर जिम्मेवारी का निर्वहन, निश्चित रूप से साहित्य के प्रति आपके अटूट लगाव, समर्पण और अत्यधिक मानसिक व शारीरिक ऊर्जा का प्रतिफल है।

आप साहित्य अकादमी भोपाल की पाठक मंच इकाई भोपाल की सक्रिय सदस्य भी हैं और इन्हें इनकी विशिष्ट साहित्यिक उपलब्धियों के मद्देनजर समय-समय पर अनेकों साहित्यिक सम्मान यथा ‘कालिदास एकेडमी एवं भवभूति समिति सम्मान’, ‘अखिल भारतीय साहित्य परिषद भिंड इकाई सम्मान’, ‘डॉ पी दत्त बर्थवाल समिति सम्मान’, ‘राष्ट्रीय कवि संगम एवं राष्ट्रीय महिला मंच ग्वालियर सम्मान’, ‘संस्कार भारती आगरा रंगोत्सव सम्मान’, ‘साहित्य सृजन एवं हिन्दी सेवी सम्मान लोकमंगल पत्रिका’, ‘नारी शक्ति सम्मान 2016 बेटी मंच ग्वालियर’, ‘सोशल रिसर्च फाउंडेशन की ओर से सम्मान’ आदि से नवाजा गया है। हिन्दी साहित्य में आप निरंतर इसी प्रकार अपना योगदान देती रहें। अनंत शुभकामनाएँ ।

समीक्षक- दयाराम वर्मा, ई- 5, कम्फर्ट गार्डन, चूना भट्टी, कोलार रोड, भोपाल- 462016 (मध्यप्रदेश) 23 अप्रैल, 2019

publication-साहित्य एक्सप्रेस ग्वालियर (मई, 2019)







पाँच लघु कथाएं

(1) अविश्वास

आज साँयकाल एक प्रदर्शन है। सुरति और उसकी बस्ती के मर्द व औरतों को कभी कभार किसी प्रदर्शन में नारेबाजी के लिए रोशन की ओर से काम मिल जाता था। दो चार घंटे की नारे बाजी और मेहनताना भी ठीक ठाक। अपराह्न चार बजते ही बस्ती की झुमकी उसे पुकारती आ धमकी। सुरति ने सोई हुई अपनी दो वर्षीय बच्ची के भोले भाले मुखड़े को प्यार से निहारा और फिर उसे बाहर खटिया पर बैठे बद्री दद्दा की गोद में डाल दिया। प्राय: ऐसा ही होता था। सुरति का पति मजदूरी करने अलसुबह निकल जाता था। घर में कोई और नहीं था। पड़ौस के बद्री दद्दा, गठिया की वजह से कोई काम धंधा नहीं कर पाते थे और दिनभर घर से बाहर खटिया पर बैठे रहते। सुरति को जब कहीं बाहर जाना होता तो अपनी लाड़ली को दद्दा के पास छोड़ जाती। सच में उनका बड़ा सहारा था उसे।

“चल-चल जल्दी कर।” झुमकी ने सुरति की बाँह खेंचते हुए कहा।

“अच्छा दद्दा ख्याल रखना बिटिया का।”

और फिर दोनों तेज कदम उठाते हुए मुख्य सड़क पर बस्ती की कुछ और औरतों के झुंड में शामिल हो गई। सिविल लाईंस के करीब सड़क पर लोगों की संख्या बढ़ने लगी थी और चौराहे तक पहुँचते-पहुँचते सड़क के बाईं और लोगों का विशाल हुजूम नजर आने लगा। बस्ती की औरतों के पास पुरानी जींस और काली टी-शर्ट पहने दादा किस्म का एक अधेड़ आया और उन सबको नारे लिखी तख्तियाँ पकड़ा गया। थोड़ी देर बाद भीड़ ने बड़े जूलुस की शक्ल ले ली। आगे चल रहे किसी व्यक्ति ने ज़ोर से नारा लगाया; उसके पीछे-पीछे भीड़ भी नारे लगाने लगी।

“खुशबू के हत्यारों को”

“फांसी दो....फांसी दो”

“मुख्यमंत्री होश में आओ”

“होश में आओ....... होश में आओ”

“आजाद भेड़ियों को गिरफ्तार करो”

“गिरफ्तार करो.....गिरफ्तार करो”

सहसा, कौतूहल वश सुरति पूछ बैठी। “झुमकी क्या हुआ?..... आज ये नारे किसलिए लग रहे हैं”?

“अरे, एक बच्ची के साथ कई लोगों ने रेप किया और फिर जलाकर मार डाला....अभी तक कोई गिरफ्तार नहीं हुआ।”

“हे भगवान.......”! सुरति की रूह कांप उठी। “बच्ची की उम्र क्या थी”?

“यही कोई सात आठ साल।”

“क्या”? क्रोध और भय के मिलेजुले भाव तेजी से सुरति के चेहरे को मलीन कर गए।

“दरिंदे थे दरिंदे।”

“अब तो दूधपीती बच्चियाँ भी सुरक्षित नहीं।”

जुलूस आगे बढ़ रहा था लेकिन सुरति के पैर लड़खड़ाने लगे। उसका सर चकराने लगा। हाथ की तख्ती गिर पड़ी। भीड़ से अलग हटकर उसने सड़क के किनारे, एक खंबे का सहारा लिया। झुमकी ने पीछे मुड़कर उसे पुकारा परंतु सुरति ने जैसे कुछ सुना ही नहीं। रोशन दादा गुर्राते हुए उसके पास से निकला। “चलो चलो ... भीड़ में, और ज़ोर से नारे लगाना।”

लेकिन सुरति की आँखों के सामने बद्री की गोद में लेटी अपनी नन्ही जान का मासूम चेहरा लगातार घूम रहा था और साथ ही घूम रहा था बद्री दद्दा का एक अलग ही रूप! उसकी आँखें आज हवस में डूबी थी। नापाक इरादे लिए उसके हाथ बच्ची को जकड़ रहे थे और बच्ची आजाद होने के लिए छटपटा रही थी।

“नहीं... कमीने.. छूना नहीं मेरी बच्ची को।” सुरति की चीख दूर तक गूंज उठी। नारे लगाती भीड़ सहसा ठिठक गई। और बदहवास सुरति, उल्टे कदम, बस्ती की और दौड़ती जा रही थी।

Publication-लघुकथा टाइम्स भोपाल



(2) नशेड़ी कहीं का

जनवरी माह की एक अत्यंत सर्द सुबह। शहर के मुख्य सरकारी अस्पताल के सर्जरी विभाग के प्रभारी, डॉक्टर भार्गव की चमचमाती सफ़ेद ऑडी, कॉलोनी से बाहर निकली ही थी कि यकायक तेज ब्रेक लगने से उनका सर आगे की सीट से टकरा गया। माथे पर हल्की चोट आ गई और खून बह निकला।

“अरे क्या कर रहे हो? संभल के चलाओ....” उन्होनें ड्राईवर को डाँटा और रूमाल से चोट को दबाया।

“सॉरी सर। .... वह नशेड़ी अचानक गाड़ी के आगे आ गया था।” ड्राईवर ने दाहिनी ओर इशारा करते हुए सफाई दी।

डॉक्टर भार्गव ने बाहर नजर दौड़ाई। नंगे पैर, बिखरे बाल और उलझी हुई दाढ़ी वाला एक भिखारी नुमा कृशकाय सख्स, मैले-कुचले लिबास में लिपटा किसी तरह सड़क किनारे, दोनों हाथ फैलाये किसी प्रकार जमीन पर अपना संतुलन बनाने की कोशिश कर रहा था। सहसा डॉक्टर भार्गव के मन में उस इंसान के प्रति करुणा के भाव उमड़ पड़े। “ओह कितनी ठंड है आज! यह बेचारा कैसे रात बिताता होगा? कैसे पेट भरता होगा...?” लेकिन वे कुछ करने का सोचते, उससे पूर्व ही गाड़ी मुख्य सड़क पर आ चुकी थी। चौथा गियर बदलते हुए ड्राईवर ने अपना दर्शन झाड़ा।

“सर, ऐसे लोग बेचारे नहीं होते। ये नशेड़ी लोग हैं। काम धंधा कुछ करना नहीं चाहते। भीख मांग लेते हैं और पड़े रहते हैं नशा करके।”

“लेकिन इसकी हालत से लगता नहीं कि यह कोई काम करने लायक है भी।”

“सर, ऐसा स्वांग नहीं रचेगा तो भीख कैसे मिलेगी ....”?

अगले दिन सुबह की सैर करते समय प्रशासनिक अधिकारी आर.पी. नागर और प्रोफेसर दिलीप कलमकर ने जब डॉक्टर भार्गव से माथे की चोट के बारे में पूछा तो प्रसंगवश उन्होनें कल की घटना उनसे साझा की। श्री नागर और श्री कलमकर का भी मानना था कि ऐसे सख्स शराबी व चोर-उच्चके होते हैं और इन्हे भीख नहीं देनी चाहिए। अखबारों में तो ऐसे लोगों की ठगी और चोरी की खबरें अक्सर आती रहती है। ‘ये लोग कोढ़ हैं सोसाइटी पर, परजीवी कहीं के! इनको सहायता देकर तो इन्हे और बिगाड़ना है।’ उक्त दलीलों से, डॉक्टर भार्गव के मन में उपजी क्षणिक संवेदना मुरझाने लगी। कुछ दिन और बीत गए। वह भिखारी नुमा सख्स कभी कभार उनकी कॉलोनी के बाहर किसी गुमटी के पास दुबका नजर आ जाता। उसके फैले हाथ और डरावनी आँखें डॉक्टर भार्गव की गाड़ी का पीछा करती लेकिन वे हिकारत से मुंह फेर लेते, ‘नशेड़ी कहीं का’!

एक दिन अस्पताल में पुलिस वाले एक लावारिस लाश को पोस्टमॉर्टम के लिए लेकर आए। संयोगवश डॉक्टर भार्गव उस समय ड्यूटी पर थे। लाश को देखते ही चौंक पड़े- “अरे ये तो वही नशेड़ी है।” जूनियर डॉक्टर ने पोस्टमॉर्टम की औपचारिकता पूरी की और रिपोर्ट उनके सन्मुख रख दी। डॉक्टर भार्गव के चेहरे से अनुभव और वरिष्ठता की गंभीरता टपक रही थी। उन्होनें बिना रिपोर्ट पढे ही जूनियर डॉक्टर की आँखों में झाँकते हुए कहा।

“सिरोयसिस, अत्यधिक अल्कोहल से लिवर खत्म हो गए, क्यों? यही है ना?”

‘नो सर! उसके शरीर में कम से कम दो सप्ताह से अन्न का कोई दाना नहीं गया था। संभवत: मानसिक रूप से भी ठीक नहीं था। डेथ ड्यू टू स्टारवेशन।”

Publication-लघुकथा टाइम्स भोपाल (मार्च, 2020), सत्य की मशाल भोपाल (मार्च, 2020)

(3) संकल्प

“महात्मा गांधी” चौराहे के पास रिक्शा पर सुस्ताते भीमा ने एक बार फिर, तपती सड़क पर दूर तक दृष्टि दौड़ाई। लेकिन कोई पैदल राहगीर नजर नहीं आया। उसके चेहरे पर चिंता की लकीरें, चढ़ते सूरज की धूप के साथ साथ और गहराने लगी। कोई सवारी मिले तो कुछ खाने का जुगाड़ बने। भोजन के ख्याल मात्र से ही भीमा के पेट की ऐंठन तेज हो उठी। ‘हे भोले नाथ आज जो बौनी होगी उसमें से पाँच रूपये का प्रसाद तेरे चरणों में चढ़ाऊँगा’। लंबे इंतजार के बाद भीमा ने आँखें बंद कर मन ही मन संकल्प लिया।

सेठ कश्मीरी लाल ने “महात्मा गांधी” चौराहे पर पहुँचकर अपने ललाट पर उभरी पसीने की बूंदों को पौंछा और फिर इधर-उधर नजरें दौड़ाई। सवारी देख, भीमा ने तुरंत अपने अंगोछे से सीट साफ की और सेठ की ओर याचक नजरों से देखा। दोनों की आंखे चार हुई। कचहरी तक का किराया 20 रूपये था। कश्मीरी लाल ने तुरंत हिसाब लगाया। ये रिक्शा वाले तो सवारी को लूटते हैं, इनको अधिक किराया देने से क्या लाभ? पाँच रूपये का वह भोले को प्रसाद चढ़ाएगा, भगवान का आशीर्वाद रहा तो आज फैसला हो जाएगा. और वह 15 रूपये पर अड़ा रहा। ‘चलना है तो चलो, ये सामने ही तो है कचहरी’ । ‘साहब चढ़ाई है और बिल्कुल वाजिब किराया है’, भीमा गिड़गिड़ाया। लेकिन सेठ 15 रूपये से ऊपर एक नया पैसा देने को तैयार न हुआ।

अंतत: मन मसोसकर भीमा ने हाँ कर दी। ‘तनिक मंदिर पर रोक कर चलना भाई’। रास्ते में सेठ जी ने असीम श्रद्धाभाव से शिव जी के चरणों में पाँच रूपये का प्रसाद अर्पित किया। भगवान की आँखों में दया का सागर लहरा रहा था।

लौटते समय भीमा ने मंदिर के पास रिक्शा रोका और श्रद्दानवत उनके चरणों में पाँच रूपये का प्रसाद अर्पित किया। ‘हे भोले शुक्र है तेरा जो सवारी भेज दी।’ भगवान की आँखों में अब भी दया का सागर लहरा रहा था।

Publication-सत्य की मशाल भोपाल (सितंबर, 2019)

(4) साफ़-सफ़ाई अभियान

वह एक पत्रकार था, स्वतंत्र पत्रकार. सच को जानने, उजागर करने की जैसे हमेशा उस पर धुन सवार रहती. हाल ही में उसे एक बङे सनसनीख़ेज मामले की भनक लगी. मुद्दा सीधे-सीधे, मौजूदा सरकार के एक बहुत बङे नेता की अस्मिता से जुङा था एतएव मुख्य धारा के मीडिया और अख़बारों ने एक छोटी सी गोल-मोल ख़बर निकाल कर इतिश्री कर ली.

लेकिन वह ठहरा एक जुनूनी पत्रकार, कुछ विशेष कर गुज़रने की इच्छा और पत्रकारिता धर्म, उसे उद्वेलित करने लगे. अपनी प्रारंभिक जाँच में उसने पाया कि सच, अनगिनत छद्म आवरणों के नीचे कहीं दफ़न है. पत्रकार ने सच को अनावृत करने की ठान ली. रास्ता ख़तरों से भरा था, अत: उसने वेश बदला और संभावित जगहों को खोदना शुरु किया. अनेक असफल प्रयासों के पश्चात, एक स्थान पर उसे सच की सुगबुगाहट सुनाई पङी. वह दोगुने उत्साह से फावङा चलाने लगा. झूठ और फ़रेब की कठोर परतें टूटने लगीं. पत्रकार ने अपनी पूरी उर्जा झौंक दी और अंतत: गहराई में दफ़न सच की झलक उसे मिली ही गई.

हाथ बढाकर वह सच को छू लेने वाला ही था कि अचानक भारी भरकम बुलडोज़र की आवाज से चौंक पङा. इससे पहले कि वह सच को लेकर गड्ढे से निकल पाता, बाहर एकत्र मलबे का ढेर भरभराकर अंदर गिरा और दोनों दफ़न हो गए. अगले दिन अख़बारों में बङे-बङे शीर्षकों में ख़बर छपी, ‘साफ़-सफ़ाई अभियान के अंतर्गत प्रशासन ने शहर के खतरनाक गड्ढों को पाटा.’

दयाराम वर्मा, जयपुर 20.10.2022

(5) डॉ. दिलीप महालनोबिस

“हिटलर को तो सारी दुनिया जानती है. लगभग कितने लोग उसके नफ़रती नरसंहार के शिकार हुए होंगे?”

“मेरे ख्याल से मानवीय इतिहास में हिटलर से अधिक क्रूर इंसान अभी तक पैदा नहीं हुआ. मात्र छ: वर्ष में उसने 60 लाख यहुदियों को मौत के घाट उतार दिया. इनमें 15 लाख तो केवल बच्चे थे.”

“बिल्कुल सही. आपने निठारी कांड वालों का नाम भी सुना होगा?”

“हाँ, हाँ, क्यों नहीं. 2005-06 के दौरान दर्जनों बच्चियों और लङकियों के बलात्कार और हत्या के दोषी, सुरेंदर कोली और मोहिंदर सिंह पंढेर! इन नरपिशाचों को कौन नहीं जानता, दोनों को फ़ाँसी हुई थी.”

“और 9/11 के बारे में भी आपको जानकारी होगी?”

“9/11! हाँ, वो ट्विन-टॉवर वाला हमला! नवंबर, 2011 में अमेरिका के न्यूयॉर्क और वाशिंगटन शहरों में अल-कायदा आतंकवादियों ने अपहृत विमानों से आत्मघाती हमले किए थे. इनमें करीब तीन हज़ार लोग मारे गए थे. इसके पीछे ओसामा बिन लादेन का हाथ माना जाता है.”

“बहुत ख़ूब! और मुम्बई में वो ताज होटल पर आतंकी हमला............ ”

“ओह, कसाब, उस हराम... को फ़ाँसी हुई. वर्ष 2008 में मुम्बई के कई रेलवे स्टेशनों, अस्पतालों, कैफ़ेटेरिया और होटल आदि को निशाना बनाया. इसमें भी करीब 150-200 लोग मारे गए थे.”

“हूँ. और 1984 के दिल्ली दंगों, 2002 के गोधरा दंगो के बारे में आपकी क्या राय है? कितने लोग मारे गए होंगे ऐसे दंगों में?”

“भारतीय इतिहास की बेहद दुखद घटनाओं में से हैं ये. एक अनुमान के अनुसार 1984 के सिख विरोधी दंगों में दिल्ली और अन्य शहरों में तीन हज़ार से अधिक लोग मारे गए थे. गुजरात के गोधरा में भी दो से तीन हज़ार लोग मारे गए होंगे.”

“अच्छा! आपका सामान्य ज्ञान बहुत बढ़िया है. बस एक अंतिम सवाल, क्या आपने डॉ. दिलीप महालनोबिस का नाम सुना है?”

“डॉ. दिलीप महालनोबिस! ......नहीं. माफ़ कीजिए. यह नाम तो मैंने पहली बार सुना है. कौन था यह डॉक्टर? क्या किसी नक्सली आंदोलन से जुङा था?”

“जी नहीं. 16 अक्टूबर, 2022 को 88 वर्ष की उम्र में उनका निधन हो गया है. डायरिया के मरीजों को डीहाइड्रेशन से होने वाली मौत से बचाने वाले ओ.आर.एस. (ओरल रीहाइड्रेशन सोल्युशन) घोल के वे जनक थे. 1971 में बांग्लादेश युद्ध के पश्चात पश्चिम बंगाल के विभिन्न शरणार्थी शिविरों में व्यापक स्तर पर हैजा फैल गया था. उस समय डॉ. महालनोबिस ने अपने कर्मचारियों के साथ वहाँ जाकर ओ.आर.एस. का इस्तेमाल किया और लाखों लोगों की जान बचाई. विश्व स्वास्थ्य संघटन के अनुसार ओ.आर.एस. से दुनिया भर में 6 करोङ से ज़्यादा जानें बचाई गई हैं. इनमें अधिकांश बच्चे हैं. भविष्य में कितनी और जिंदगियाँ इस घोल से बचाई जाती रहेंगी, अनुमान लगाना संभव नहीं है. और जानते हो, उन्होंने इस घोल का कोई पेटेंट नहीं करवाया था.”

“.........................!!!”

(c) दयाराम वर्मा, जयपुर (राज.)
नज्म: मुसलसल गुफ्तगू




याद है उस रोज
जब लहरें थी बेतकल्लुफ[1] और
दरिया था ख़ुमार[2] पर
ढलती रही घरौंदों में, साहिल की रेत रात भर

जुबान खुली भी न थी
लब थे खामोश
होती रही गुफ्तगू मुसलसल[3]
कभी इस बात पर, कभी उस बात पर

देता रहा तसल्ली सितमगर
तमस में, रंज-ओ-अलम[4] में, फ़िराक़[5] में
शाहकार[6] एक नायाब[7]
हुआ नुमायाँ, जज़्बात ही जज़्बात में

फासले दरम्यान लाख सही
कल तय हो भी जाएंगे
तेरी तमन्ना, तेरा तसव्वुर[8], तेरा इंतिज़ार
धङकता है दिल में, इफ़रात[9] में

कोहरे की चद्दर में लिपटी
हर शय ख़ुद-रफ़्ता[10] है
लेकिन मेरी जिद्द भी है की है, ग़ैर-मुतहर्रिक[11]
पिघलेगी एक रोज बर्फ, इसी हयात[12] में



© दयाराम वर्मा, जयपुर 19.01.2025


[1] बेतकल्लुफ-निस्संकोच
[2] ख़ुमार-मदहोशी
[3] मुसलसल-लगातार
[4] रंज-ओ-अलम-दुख तकलीफ में
[5] फ़िराक़-बिछोह, जुदाई
[6] शाहकार- कला संबंधी कोई महान कृति
[7] नायाब- उत्कृष्ट, जो दुर्लभ हो
[8] तसव्वुर-ख्याल
[9] इफ़रात- जरूरत से अधिक
[10] खुद-रफ्ता- संज्ञाहीन, निश्चेष्ट
[11] ग़ैर-मुतहर्रिक-अचल
[12] हयात-जीवन


नज़्म: इत्तिफ़ाक़




गर तुमसे मुलाकात न होती, आलम-ए-दीवानगी पास न होती
रहा साथ तो ख्वाबों में, होश में वस्ल[1] फ़रेबी, तेरी आस न होती


कसमें जीने की-मरने की, ‘जुनूनी[2] गुफ़्तगू[3]’, वो बेबाक न होती
हो भी जाते दफ़न अफ़साने सौ, सितमगर मेरी जाँ आप न होती


धुआँ-धुआँ है सोज़-ए-दिल[4], उम्मीद-ए-विसाल[5] पाक न होती
कर लेते तय सफर तन्हा, जो हुई मुलाक़ात इत्तिफ़ाक़[6] ही होती


हवाएँ थीं आवारा, खुशबू-ए-नग़्मा-ए-वफ़ा कम-ज़ात नहीं होती
चलते चले जाना बेसाख़्ता दीप, इन राहों की कभी रात नहीं होती


@ दयाराम वर्मा, जयपुर (राज.) 23 जनवरी, 2025


[1] वस्ल-मेल मिलाप, मिलन
[2] जुनूनी- दीवानगी भरा
[3] गुफ़्तगू- बातचीत
[4] सोज़-ए-दिल- ह्रदय में जलती प्रेम की अग्नि
[5] उम्मीद-ए-विसाल—मिलन की आस
[6] इत्तिफ़ाक़—अचानक, संयोग




कविता: चल उठा बंदूक




पहले खलता था, अब आदत में शुमार है
ढ़लती शाम के साथ
थके कदमों बैरक में लौटना
और अलाव की धुँधली रोशनी में
घूरते रहना, कठोर-खुरदरे चेहरे
सपाट, मदहोश, हंसमुख तो कुछ भावुक
रफ़्ता-रफ़्ता पिघलते चेहरे!

अंधेरे की चादर
सीमा पर फैली पहाड़ियों को
बहुत तेजी से ढकती चली जाती है
स्याह-सर्द रातों में ख़्वाब तक सो जाते हैं
तब भी चार खुली आँखें
सुदूर सूने आसमान में कुछ टटोलती हैं!

गलवान घाटी की इस चोटी पर एक बंकर में
हर आहट से चौंकता मैं और मीलों दूर
बूढ़ी बावल वाले घर के आँगन में
करवटें बदलती तुम!

कल सोचा था तुम्हें देखूँगा मैं चाँद में
मेरी तरह जिसे
हर रोज तुम भी तो निहारती हो, मगर!
सारी रात घटाएँ छाई रहीं
और आज हिमपात शुरू हो गया है!

बर्फीली चोटियों पर सुन्न हो जाता है शरीर
और जम सा जाता है रक्त
मगर अरमान सुलगते रहते हैं!

आहिस्ता-आहिस्ता
कानों में बजती है पायल की झंकार
बंद पलकों के पीछे
गर्मी में तुम्हारा तमतमाया चेहरा
और गोबर सने हाथ, अक्सर उभर आते हैं!

यहाँ मोबाइल नेटवर्क नहीं है
तुम्हारी अंतिम चैट के बिखरे से जज़्बातों को
समेट कर मैं पढ़ता हूँ

और तब मेरे सिमटे से जज़्बात
बिखरते चले जाते हैं!

दिन-सप्ताह और महीने
बहुत से बीत गए हैं
जबकि हर पल साल की तरह बीता है!

अधूरे से स्वप्न की, अधूरी मुलाकात
गोलियों की तङ-तङ से
भंग हो जाती है!

र बावळे जादा ना सोच्या करदे
बंद कर मोबाइल, सिराणं तळ धरदे
चल उठा बंदूक, कर दुश्मन का नाश
बहुत हुई भावुकता, छोङ ये सारे मोह पाश!
जय हिंद!


© दयाराम वर्मा, जयपुर (राज.) 19.01.2025

कविता: शीशमहल बनाम राजमहल

शीशमहल सजा सबसे न्यारा
वियतनामी मारबल से दमके आंगन प्यारा-प्यारा
रेशमी परदे ढाते कमाल
काष्ठ-कला, असबाब की है अद्भुत, बेमिसाल
मचल उठा ‘राजमहल’ का रौनक लाल!

लूंगा लुत्फ स्पा का, पहन लंगोट
पेलूंगा डंड जिम में, ट्रेड-मील पर दौङ लगाऊँगा
उठाकर डंबल-संबल
मैं भी सिक्स-पैक बनाऊँगा
छपती सुर्खियां शीशमहल की, दिल्ली-पटना-भोपाल
तङप उठा रौनक लाल!

दस रुपल्ली वाला टांगकर पेन
प्रेस कांफ्रेंस में, फोटो स्टाइलिश खिंचवाऊँगा
तरणताल में तैरूँगा, तन-बदन, मल-मल नहाऊँगा
डूब गया रौनक सपनों में शाम-ओ-सहर
लगती आँख बस पहर दो पहर!

डालूँगा पैरों में स्लीपर सस्ती
बन आम आदमी, वोटर रिझाऊँगा
पहनूँगा ‘अतिरिक्त बङी’ चैक वाली कमीज
हाथों में झाङू, गुलूबंद गले में अटकाऊँगा
शीशमहल जब मैं जाऊँगा!

सुना है वहाँ, है एक खूबसूरत मिनी बार
सुरा पान, टकराते जाम, आह! करना होगा दीदार
मन डोल गया, रौनक लाल सच बोल गया
शीशमहल अवश्य जाऊँगा
चैन तब कहीं पाऊँगा!

राजमहल जाऊँगा
वरना खाना नहीं खाऊँगा
कभी टोयोटा, कभी मर्सिडीज, कभी लैंड-क्रूजर
एक से बढ़कर एक, गाङी दौड़ाऊँगा
मचल उठा शीशमहल का नौनिहाल
नटखट, जिद्दी शिशु पाल!

नहीं रखना बटुआ-सटुआ
टांगूँगा कंधे पर मैं तो, झोला झालरदार
पहनूँगा नित जूते नए, बदलूँगा टाई-सूट कई बार
शान-ओ-शौकत, दुनिया को दिखलाऊँगा
राजमहल जरूर जाऊँगा!

सुनो माताओं, सुनो बहनों
देखो कालीन बिछा राज दरबार
लगे हैं जिसमें बाईस कैरेट सोने के तार
झूमर हीरे जङे, बङी दूर से मारे हैं चमकार
देखेंगे जाकर हम भी ये शाहकार!

स्वांग फकीरी, असल अमीरी
जुमलों की भरमार
हो सवार ‘एयर-इंडिया-वन’ में
उङ जाऊँगा आसमान, सात समंदर पार
करूंगा सैर देश, दुनिया-जहान की
जपेंगे माला ट्रम्प, पुतिन, जिनपिंग मेरे नाम की!

ईडी, सीबीआई, इनकम-टैक्स, केंचुआ
रिमोट सभी का हथियाऊँगा
रोब-दाब, धाक-धौंस, प्रतिपक्ष पर खूब जमाऊँगा
गर राजमहल नहीं जा पाऊँगा
बन जाऊँगा आपदा, कर दूंगा बेहाल 
सनक गया चिरंजीवी शिशु पाल!

© दयाराम वर्मा, जयपुर. 14 जनवरी, 2025


कविता: इंसानी भूख




विस्तारवाद की भूख
सत्ता पर चिर-आधिपत्य की भूख
संसाधनों पर स्वामित्व की भूख
व्यापार और बाजार पर एकाधिकार की भूख
जिस्मानी भूख से इतर
तमाम तरह की ‘इंसानी’ भूख!

निगल चुकी है एक-एक कर
इंसानियत के अंग-प्रत्यंग
संवेदना, संतोष, उदारता, प्रेम, करुणा आदि-आदि
इसका हृदय न धङकता है, न पिघलता है
हृदयगति थम जो चुकी है
निस्तेज पुतलियों में निःशेष है दृष्टि
आओ पढ़ते हैं मर्सिया
करते हैं अंतिम अरदास, कहते हैं ‘रेस्ट-इन-पीस’
और सजाते हैं अर्थी!

बारूदी शहरों में
चतुर्दिक धधकती चिताओं पर लेटी है इंसानियत
संभव है
इसकी अंत्येष्टि के पश्चात
हो सकेंगे सभी द्वंद्व समाप्त
वर्चस्व, आन-बान-शान और अभिमान की
सभी लङाइयाँ तोङ देंगी दम
और खत्म हो जाएगी ‘इंसानी’ भूख!

मुखाग्नि देने को आतुर
बैठे हैं कतारबद्ध, युग-प्रवर्तक, महामानव
रूस, चीन, अमेरिका, इजराइल, ईरान, अफगानिस्तान, म्यांमार…….
फेहरिस्त लंबी है!


© दयाराम वर्मा, जयपुर (राज.) 09 जनवरी, 2025

कविता: मेरे चले जाने के बाद मेरे चले जाने के बाद बिना जाँच-बिना कमेटी किया निलंबित आरोपी प्रोफ़ेसर-तत्काल करेंगे हर संभव सहयोग-कह रहे थे वि...