व्यंग्य: राष्ट्रीय फसल

वर्षों की भक्ति से प्रसन्न, बाबा भूतनाथ ने अपने परम शिष्य लच्छूलाल बङबोले को गुदड़ी में छिपाकर रखी नक़्क़ाशीदार बोतल थमाते हुए कहा-“वत्स! तुम्हारी सेवा चाकरी से प्रभावित होकर हम तुम्हें अपना सबसे खास तोहफ़ा भेंट कर रहे हैं.”
लच्छूलाल ने उलट-पलट कर बोतल को देखा. इस पर हरे रंग का रैपर चिपका था; रैपर पर लंबे-लंबे दाँतों, डरावनी आँखों, फङफङाती भुजाओं और सफ़ाचट खोपङी वाले किसी दैत्य की तस्वीर छपी थी. वैसे तो बङबोले को सैंकङों किस्म की ब्रांडेड सोमरस चखने का दीर्घकालीन अनुभव था, लेकिन उसकी पारखी नज़रों के सामने ऐसी अजीब-ओ-ग़रीब बोतल पहली मर्तबा पेश हो रही थी. अपेक्षाकृत वज़्नी बोतल में सोमरस की तरल-दिलकश हलचल के स्थान पर कोई ठोस वस्तु लुढ़क रही थी. उसे इस तरह हैरान-परेशान देख, बाबा भूतनाथ ने ज़ोरदार ठहाका लगाया.
“तुम जो समझ रहे हो, वह इसमें नहीं है लच्छू! इसमें है जिन्न-आईटी जिन्न. जैसे ही ढक्कन खोलोगे, बाहर आ जाएगा, हा…हा…हा…..”
“क्या! मारे अचरज के लच्छूलाल उछल पङा, बोतल उसके हाथ से गिरते-गिरते बची.”
“अरे.रे…. रे, संभल कर! जिन्न बहुत आज्ञाकारी और उसूलों का पक्का है. जो कहोगे करेगा. लेकिन….”
“लेकिन क्या गुरुदेव”?
“जिन्न को हर वक्त किसी न किसी काम में उलझा कर रखना अति आवश्यक है, अन्यथा बाजी उलटी भी पङ सकती है.”
“अवश्य गुरुदेव.” लच्छूलाल की आँखें चमकने लगी. वर्षों से उसे ऐसी ही किसी चमत्कारी चीज की तो तलाश थी! उसका बायाँ हाथ फ़ुर्ती से बोतल के ढक्कन की ओर लपका.
“ठहरो! ऐसे नहीं, इतना जल्दी भी नहीं. पहले सोच लो इससे क्या काम करवाना है”? बाबा भूतनाथ ने आगाह किया. लेकिन लच्छूलाल बङबोले तो चमत्कार को जल्द से जल्द साक्षात कर लेना चाहता था, बोला-“सोच लिया गुरुदेव, ऐसा काम दूंगा कि जिन्न भी याद रखेगा.”
“ठीक है वत्स, जैसी तुम्हारी मरजी.”
आनन-फ़ानन में लच्छूलाल ने बोतल का ढक्कन खोल दिया. बोतल से पहले धीरे-धीरे, फिर तेज़ी से धुआँ उठने लगा. देखते ही देखते धुएं ने विशाल आकार ग्रहण कर लिया और भयंकर अट्टहास करते हुए इसमें से एक दैत्य प्रकट हुआ. यह दैत्य हू-ब-हू बोतल के रैपर पर छपी तस्वीर सदृश था. लगभग आठ फिट लम्बे-चौङे, हट्टे-कट्टे जिन्न ने झुककर लच्छूलाल बङबोले को सलाम किया.
“मैं हूँ आईटी जिन्न, आपका गुलाम. आप जो कहेंगे-वही करूंगा. हुक्म करो, हुक्म करो मेरे आका.”
लेकिन लच्छूलाल बङबोले तो डर के मारे कांप रहा था. बाबा ने हाथ उठाकर शांत स्वर में कहा-“घबराओ नहीं, वह तुम्हारा गुलाम है. उसे आदेश दो.”
लच्छूलाल ने हिम्मत जुटाई. “जाओ, जाकर फलां-फलां को गालियाँ देकर आओ.”
“जो हुक्म मेरे आका.” अगले ही पल जिन्न अंतर्धान हो गया. बाबा भूतनाथ के इस चमत्कारी तोहफे को पाकर लच्छूलाल न केवल आश्चर्यचकित एवं खुश था बल्कि अत्यंत कृतज्ञ भी था. उसने बाबा के चरणों पर बारंबार माथा रगङा.
उधर जिन्न ने अपना नवीनतम एप्पल मोबाइल निकाला, कीपैड पर दनादन अंगुलियां दौड़ाईं और एक दमदार मैसेज जिन्न बिरादरी के देश भर में फैले विशाल व्हाट्सएप समूहों और फेसबुक, ट्विटर आदि पटलों पर पोस्ट कर दिया. दूसरे दिन शाम तक मैसेज का प्रभाव हर गली-कूचे में नजर आने लगा. काम पूरा होते ही वह लंबे-लंबे डग भरता हुआ-लच्छूलाल बङबोले के घर जा पहुँचा.
“हुक्म मेरे आका! बोल अब क्या करना है”? लच्छूलाल ने प्रशंसनीय नजरों से जिन्न को देखा.
“ऐसा करो, फलां-फलां के जो-जो दोस्त हैं; उन सबको भी गालियाँ दे डालो.”
“जो हुक्म मेरे आका.” जिन्न तुरंत हुक्म-बरदारी में जुट गया. अगली सुबह तक फलां-फलां के सभी यार-दोस्तों की पहचान कर ली गई और शुद्ध घासलेट में तली हुई, गर्मा-गरम गालियाँ उनके फेसबुक, ट्विटर, व्हाट्सएप आदि पटलों पर चस्पा कर दी गईं. जिन्न का उसूल था कि जैसे ही काम पूरा होता, अगले आदेश के लिए वह तुरंत आका के सामने हाजिर हो जाता.
सुबह-सुबह लच्छूलाल बङबोले हल्का होने संडास की ओर जा ही रहे थे कि कॉलबैल बज उठी. दरवाज़े पर चिर परिचित अंदाज़ में जिन्न खङा था. लच्छूलाल को देखते ही झुककर बा-अदब सलाम ठोका, “बोल मेरे आका, अब क्या हुक्म है.”
“अरे! इस बार तो बहुत जल्द काम खत्म कर लिया. वाकई तुम कमाल के हो….. हम्म…हाँ, ऐसा करो-पता लगाओ, कौन लोग हैं जो फलां-फलां से हमदर्दी रखते हैं, और उन सबके मुँह पर भी एकदम ताजा और तीखी गालियां चिपका दो.”
“जो हुक्म मेरे आका.” अगले ही पल जिन्न अंतर्धान हो गया. इंटरनेट, एल्गोरिदम और ए.आई. के जमाने में जिन्न के लिए इस प्रकार के काम बहुत आसान हो गए थे. शाम ढलते-ढलते, उसने फलां-फलां के सभी हमदर्दों के आभासी ठिकानों पर नए डिजाइन की नमकीन गालियों के डिब्बे बख़ूबी पहुँचा दिए.
“हुक्म मेरे आका….”
लच्छूलाल बङबोले की मुट्ठी में कसी हुई मुर्गे की टाँग अभी हवा में ही लहरा रही थी. इस वक्त जिन्न को देख, उन्हें बङी झुंझलाहट हुई. लेकिन उसे इंतिज़ार के लिए भी तो नहीं कह सकते थे. बाबा के बताए अनुसार, एक काम पूरा होते ही, तुरंत उसे दूसरा काम देना आवश्यक था. लच्छूलाल को एक आइडिया सूझा.
“अच्छा बताओ, कौनसी गाली दी? माँ की या बहन की”?
“माँ की मेरे आका.” लच्छूलाल को जैसे राहत मिली. तुरंत हुक्म दिया.
“जाओ, जिनको माँ की गाली दी है, उन सभी को बहन की गालियां भिजवाओ.”
“जो हुक्म मेरे आका.” कहते हुए जैसे ही जिन्न गायब हुआ, लच्छूलाल ने एक गहरी साँस छोङी. ‘चलो अब कम से कम कल शाम तक की छुट्टी’, और वह स्वाद ले-लेकर मुर्गे की मसालेदार टाँग को दाँतो से नोचने लगा. दो पैग स्कॉच के साथ लज़ीज़ खाना समाप्त कर लच्छूलाल सोफे पर पसर गया और टीवी ऑन कर लिया.
इस बीच जाने कब उनकी आँख लग गई और जब अचानक नींद खुली तो देखा कोई दरवाज़ा पीट रहा है. बिजली गुल थी. मोबाइल टॉर्च जलाकर दरवाज़ा खोला-सामने जिन्न खङा था. खीजते हुए उन्होंने आँखें झपझपाई-“इस वक्त! रात के बारह बज रहे हैं. सुबह होने का तो इंतिज़ार कर लेते?”
“मेरे आका. फलां-फलां को, उनके यार-दोस्तों को और उनके हमदर्दों को-बहन की खुशबूदार, चटपटी गालियाँ परोस दी गई हैं. जिन्नात के दिन रात नहीं होते. आप तो बस अगला आदेश दीजिए.”
“अमा यार. इतनी जल्दी कैसे कर लेते हो सब”? स्वर में थोङी नरमी लाते हुए लच्छूलाल ने आश्चर्य व्यक्त किया.
“हम जिन्नात का नेटवर्क बहुत स्ट्रांग है मेरे आका. फिल्ड जिन्नात को प्रति फॉरवर्ड, दो गिन्नी प्रोत्साहन राशि दी जाती है. लेकिन आप इन सब की चिंता छोङो. आपका गुलाम मैं हूँ; हुक्म करो, अब किसकी माँ-बहन करनी है”?
क्या मुसीबत है. लच्छूलाल बङबोले ने बङबङाते हुए दिमाग पर जोर डाला; थोङा विचार करने के उपरांत जिन्न से मुख़ातिब हुए.
“इन सबको बाप की गाली निकालो.” जिन्न ने वहीं खङे-खङे मोबाइल पर कुछ टाइप किया और बोला, “जिन्नात को हिदायत दे दी गई है-काम थोङी देर में हो जाएगा. मैं फिर हाजिर होता हूँ मेरे आका.”
अपेक्षा से कम समय में यह काम भी संपन्न हो गया. लच्छूलाल बङबोले के आगामी आदेशानुसार, फलां-फलां के दादा, परदादा यहाँ तक की सैंकङों साल पहले मर चुके पूर्वजों तक को गालियाँ चस्पा करवा दी गई. देश के हर आम और खास के मोबाइल में रोज गालियों की नई-नई खेप आती और ड्राइंग रूम से होते हुए, गली-मोहल्ले-ऑफिस, चौपाल और मंचों तक छा जातीं.
लेकिन रोज़-रोज़ गालियों के नए विषय ढूँढना लच्छूलाल के लिए अब चुनौती बनता जा रहा था. तमाम तरह के रिश्ते नातों का नंबर लग चुका था. लच्छूलाल के विशेष सलाहकार ने कुछ और विषय सुझाए जैसे-पहनावा, रीति-रिवाज, पूजा-अर्चना पद्धति, धर्म-स्थल, खान-पान आदि; जिनके माध्यम से जिन्न को कुछ और दिनों के लिए व्यस्त कर दिया गया. लेकिन यह सब भी निपट गया … अब आगे क्या? थक-हारकर लच्छूलाल ने बाबा से जिन्न को काबू करने का उपाय पूछा.
“बङा आसान है, वत्स. जिस बोतल में वह कैद था, उसमें राई के बीज भरकर जिन्न से कहना कि इनको गिनकर बताओ. और जैसे ही वह बोतल में घुसे, चुपचाप मौका देखकर बाहर से ढक्कन बंद कर देना. लेकिन वत्स फिर बोतल मुझे लौटानी होगी-जिन्न अपने साथ धोखा करने वालों को कभी माफ़ नहीं करता. लच्छूलाल बङबोले को जिन्न से छुटकारा पाना था-सो बाबा के बताए अनुसार उसे पकङा और बोतल बाबा को सौंप दी.
उधर देश के हर टीवी चैनल पर गाली आधारित प्राइम टाइम चर्चाओं में कहीं कोई कमी नहीं हुई. बङे-बङे सेमिनार, चुनावी रैलियाँ, सभाएं गालियों से आरंभ होती, गालियों से ही परवान चढ़ती और समाप्त भी किसी गाली पर जाकर ही होती.
व्हाट्सएप, ट्विटर, फेसबुक, यू-ट्यूब आदि आभासी पटलों पर नई-नवेली गालियों, प्रति-गालियों से अलंकृत, सुसज्जित मैसेज, मीम, चुटकुलों और रील्स आदि की बाढ़ बदस्तूर बह रही थी. छोटे-छोटे गाँवों से लेकर महानगरों तक, डिजाइनर गालियों का बेतहाशा उत्पादन और आदान-प्रदान हो रहा था. इस दौङ में छुटभैयों से लेकर बङे-बङे स्वनामधन्य (तथाकथित) कवि, लेखक, चिंतक, विद्वान, साहित्यकार और धर्मगुरु भी शामिल थे.
हर तबके, जाति, धर्म, पेशे, दल और विचारधारा के लोग गालियों को परोक्ष या अपरोक्ष ग्रहण कर रहे थे. एक विशेष वर्ग के लोग तो गालियों के इस कदर व्यसनी हो चुके थे कि गाली खाते, गाली की जुगाली करते, गाली मूतते और गाली ही हगते. ऐसे लोगों को जब कभी क़ब्ज़ की शिकायत होती और डॉक्टर एनीमा करते तो आंतों से गालियों की सङी हुई गाँठें बाहर निकलती.
चपरासी से लेकर कलेक्टर, सिपाही से लेकर आई.जी., नेता-अभिनेता, पत्रकार, मंत्री, मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री, न्यायाधीश, सचिव, यहाँ तक की सैन्य अधिकारी, शहीद एवं उनकी विधवाएं तक भी गालियों की जद में आ चुके थे. गालियाँ हवाओं में घुल चुकी थीं. किसी को पता नहीं था कि कब, क्यों, कैसे और किस दिशा से उस पर गालियाँ बरसने लगेंगी.
एक रोज़ लच्छूलाल बङबोले ने अपने विशेष सलाहकार से पूछा-“सलाहकार महोदय, जिन्न को तो हमने बोतल में डाल दिया था, फिर भी गालियों की फसल कैसे लहलहा रही है? इसे कौन खाद-पानी दे रहा है भाई”?
सलाहकार ने थोङा सोचा, फिर सधे हुए शब्दों में विनम्रता पूर्वक निवेदन किया, “सर, गुस्ताख़ी माफ़ हो तो अर्ज़ करूँ.
“कहो-कहो, बेफ़िक्र होकर कहो.”
“सर, गालियों के लिए अब किसी जिन्न की जरूरत नहीं रही. अधिकांश लोग गाली परस्त हो चुके हैं. अनियंत्रित जातिगत भेदभाव और धार्मिक उन्माद से देश की आत्मा पहले से ही छलनी थी; अब वैचारिक और तार्किक असहिष्णुता और हद दर्जे की कूपमंडूकता ने रही सही कसर भी पूरी कर दी है. बाज़ लोग घरों में गालियाँ बोते हैं, गमलों की तरह सजाते हैं, मालाओं में पिरोते हैं, एक दूसरे को देते और लेते हैं. गाली अब राष्ट्रीय फसल बन चुकी है सर!”
लच्छूलाल बङबोले ने बात की गहराई को समझा. परम संतुष्टि के भावों से उसका रोम-रोम खिल उठा. धीरे-धीरे विजयी मुस्कान की एक लंबी लकीर उसके चेहरे पर खिंचती चली गई.
© दयाराम वर्मा, 17 मई, 2025-जयपुर (राज.)