पाँच लघु कथाएं

(1) अविश्वास

आज साँयकाल एक प्रदर्शन है। सुरति और उसकी बस्ती के मर्द व औरतों को कभी कभार किसी प्रदर्शन में नारेबाजी के लिए रोशन की ओर से काम मिल जाता था। दो चार घंटे की नारे बाजी और मेहनताना भी ठीक ठाक। अपराह्न चार बजते ही बस्ती की झुमकी उसे पुकारती आ धमकी। सुरति ने सोई हुई अपनी दो वर्षीय बच्ची के भोले भाले मुखड़े को प्यार से निहारा और फिर उसे बाहर खटिया पर बैठे बद्री दद्दा की गोद में डाल दिया। प्राय: ऐसा ही होता था। सुरति का पति मजदूरी करने अलसुबह निकल जाता था। घर में कोई और नहीं था। पड़ौस के बद्री दद्दा, गठिया की वजह से कोई काम धंधा नहीं कर पाते थे और दिनभर घर से बाहर खटिया पर बैठे रहते। सुरति को जब कहीं बाहर जाना होता तो अपनी लाड़ली को दद्दा के पास छोड़ जाती। सच में उनका बड़ा सहारा था उसे।

“चल-चल जल्दी कर।” झुमकी ने सुरति की बाँह खेंचते हुए कहा।

“अच्छा दद्दा ख्याल रखना बिटिया का।”

और फिर दोनों तेज कदम उठाते हुए मुख्य सड़क पर बस्ती की कुछ और औरतों के झुंड में शामिल हो गई। सिविल लाईंस के करीब सड़क पर लोगों की संख्या बढ़ने लगी थी और चौराहे तक पहुँचते-पहुँचते सड़क के बाईं और लोगों का विशाल हुजूम नजर आने लगा। बस्ती की औरतों के पास पुरानी जींस और काली टी-शर्ट पहने दादा किस्म का एक अधेड़ आया और उन सबको नारे लिखी तख्तियाँ पकड़ा गया। थोड़ी देर बाद भीड़ ने बड़े जूलुस की शक्ल ले ली। आगे चल रहे किसी व्यक्ति ने ज़ोर से नारा लगाया; उसके पीछे-पीछे भीड़ भी नारे लगाने लगी।

“खुशबू के हत्यारों को”

“फांसी दो....फांसी दो”

“मुख्यमंत्री होश में आओ”

“होश में आओ....... होश में आओ”

“आजाद भेड़ियों को गिरफ्तार करो”

“गिरफ्तार करो.....गिरफ्तार करो”

सहसा, कौतूहल वश सुरति पूछ बैठी। “झुमकी क्या हुआ?..... आज ये नारे किसलिए लग रहे हैं”?

“अरे, एक बच्ची के साथ कई लोगों ने रेप किया और फिर जलाकर मार डाला....अभी तक कोई गिरफ्तार नहीं हुआ।”

“हे भगवान.......”! सुरति की रूह कांप उठी। “बच्ची की उम्र क्या थी”?

“यही कोई सात आठ साल।”

“क्या”? क्रोध और भय के मिलेजुले भाव तेजी से सुरति के चेहरे को मलीन कर गए।

“दरिंदे थे दरिंदे।”

“अब तो दूधपीती बच्चियाँ भी सुरक्षित नहीं।”

जुलूस आगे बढ़ रहा था लेकिन सुरति के पैर लड़खड़ाने लगे। उसका सर चकराने लगा। हाथ की तख्ती गिर पड़ी। भीड़ से अलग हटकर उसने सड़क के किनारे, एक खंबे का सहारा लिया। झुमकी ने पीछे मुड़कर उसे पुकारा परंतु सुरति ने जैसे कुछ सुना ही नहीं। रोशन दादा गुर्राते हुए उसके पास से निकला। “चलो चलो ... भीड़ में, और ज़ोर से नारे लगाना।”

लेकिन सुरति की आँखों के सामने बद्री की गोद में लेटी अपनी नन्ही जान का मासूम चेहरा लगातार घूम रहा था और साथ ही घूम रहा था बद्री दद्दा का एक अलग ही रूप! उसकी आँखें आज हवस में डूबी थी। नापाक इरादे लिए उसके हाथ बच्ची को जकड़ रहे थे और बच्ची आजाद होने के लिए छटपटा रही थी।

“नहीं... कमीने.. छूना नहीं मेरी बच्ची को।” सुरति की चीख दूर तक गूंज उठी। नारे लगाती भीड़ सहसा ठिठक गई। और बदहवास सुरति, उल्टे कदम, बस्ती की और दौड़ती जा रही थी।

Publication-लघुकथा टाइम्स भोपाल



(2) नशेड़ी कहीं का

जनवरी माह की एक अत्यंत सर्द सुबह। शहर के मुख्य सरकारी अस्पताल के सर्जरी विभाग के प्रभारी, डॉक्टर भार्गव की चमचमाती सफ़ेद ऑडी, कॉलोनी से बाहर निकली ही थी कि यकायक तेज ब्रेक लगने से उनका सर आगे की सीट से टकरा गया। माथे पर हल्की चोट आ गई और खून बह निकला।

“अरे क्या कर रहे हो? संभल के चलाओ....” उन्होनें ड्राईवर को डाँटा और रूमाल से चोट को दबाया।

“सॉरी सर। .... वह नशेड़ी अचानक गाड़ी के आगे आ गया था।” ड्राईवर ने दाहिनी ओर इशारा करते हुए सफाई दी।

डॉक्टर भार्गव ने बाहर नजर दौड़ाई। नंगे पैर, बिखरे बाल और उलझी हुई दाढ़ी वाला एक भिखारी नुमा कृशकाय सख्स, मैले-कुचले लिबास में लिपटा किसी तरह सड़क किनारे, दोनों हाथ फैलाये किसी प्रकार जमीन पर अपना संतुलन बनाने की कोशिश कर रहा था। सहसा डॉक्टर भार्गव के मन में उस इंसान के प्रति करुणा के भाव उमड़ पड़े। “ओह कितनी ठंड है आज! यह बेचारा कैसे रात बिताता होगा? कैसे पेट भरता होगा...?” लेकिन वे कुछ करने का सोचते, उससे पूर्व ही गाड़ी मुख्य सड़क पर आ चुकी थी। चौथा गियर बदलते हुए ड्राईवर ने अपना दर्शन झाड़ा।

“सर, ऐसे लोग बेचारे नहीं होते। ये नशेड़ी लोग हैं। काम धंधा कुछ करना नहीं चाहते। भीख मांग लेते हैं और पड़े रहते हैं नशा करके।”

“लेकिन इसकी हालत से लगता नहीं कि यह कोई काम करने लायक है भी।”

“सर, ऐसा स्वांग नहीं रचेगा तो भीख कैसे मिलेगी ....”?

अगले दिन सुबह की सैर करते समय प्रशासनिक अधिकारी आर.पी. नागर और प्रोफेसर दिलीप कलमकर ने जब डॉक्टर भार्गव से माथे की चोट के बारे में पूछा तो प्रसंगवश उन्होनें कल की घटना उनसे साझा की। श्री नागर और श्री कलमकर का भी मानना था कि ऐसे सख्स शराबी व चोर-उच्चके होते हैं और इन्हे भीख नहीं देनी चाहिए। अखबारों में तो ऐसे लोगों की ठगी और चोरी की खबरें अक्सर आती रहती है। ‘ये लोग कोढ़ हैं सोसाइटी पर, परजीवी कहीं के! इनको सहायता देकर तो इन्हे और बिगाड़ना है।’ उक्त दलीलों से, डॉक्टर भार्गव के मन में उपजी क्षणिक संवेदना मुरझाने लगी। कुछ दिन और बीत गए। वह भिखारी नुमा सख्स कभी कभार उनकी कॉलोनी के बाहर किसी गुमटी के पास दुबका नजर आ जाता। उसके फैले हाथ और डरावनी आँखें डॉक्टर भार्गव की गाड़ी का पीछा करती लेकिन वे हिकारत से मुंह फेर लेते, ‘नशेड़ी कहीं का’!

एक दिन अस्पताल में पुलिस वाले एक लावारिस लाश को पोस्टमॉर्टम के लिए लेकर आए। संयोगवश डॉक्टर भार्गव उस समय ड्यूटी पर थे। लाश को देखते ही चौंक पड़े- “अरे ये तो वही नशेड़ी है।” जूनियर डॉक्टर ने पोस्टमॉर्टम की औपचारिकता पूरी की और रिपोर्ट उनके सन्मुख रख दी। डॉक्टर भार्गव के चेहरे से अनुभव और वरिष्ठता की गंभीरता टपक रही थी। उन्होनें बिना रिपोर्ट पढे ही जूनियर डॉक्टर की आँखों में झाँकते हुए कहा।

“सिरोयसिस, अत्यधिक अल्कोहल से लिवर खत्म हो गए, क्यों? यही है ना?”

‘नो सर! उसके शरीर में कम से कम दो सप्ताह से अन्न का कोई दाना नहीं गया था। संभवत: मानसिक रूप से भी ठीक नहीं था। डेथ ड्यू टू स्टारवेशन।”

Publication-लघुकथा टाइम्स भोपाल (मार्च, 2020), सत्य की मशाल भोपाल (मार्च, 2020)

(3) संकल्प

“महात्मा गांधी” चौराहे के पास रिक्शा पर सुस्ताते भीमा ने एक बार फिर, तपती सड़क पर दूर तक दृष्टि दौड़ाई। लेकिन कोई पैदल राहगीर नजर नहीं आया। उसके चेहरे पर चिंता की लकीरें, चढ़ते सूरज की धूप के साथ साथ और गहराने लगी। कोई सवारी मिले तो कुछ खाने का जुगाड़ बने। भोजन के ख्याल मात्र से ही भीमा के पेट की ऐंठन तेज हो उठी। ‘हे भोले नाथ आज जो बौनी होगी उसमें से पाँच रूपये का प्रसाद तेरे चरणों में चढ़ाऊँगा’। लंबे इंतजार के बाद भीमा ने आँखें बंद कर मन ही मन संकल्प लिया।

सेठ कश्मीरी लाल ने “महात्मा गांधी” चौराहे पर पहुँचकर अपने ललाट पर उभरी पसीने की बूंदों को पौंछा और फिर इधर-उधर नजरें दौड़ाई। सवारी देख, भीमा ने तुरंत अपने अंगोछे से सीट साफ की और सेठ की ओर याचक नजरों से देखा। दोनों की आंखे चार हुई। कचहरी तक का किराया 20 रूपये था। कश्मीरी लाल ने तुरंत हिसाब लगाया। ये रिक्शा वाले तो सवारी को लूटते हैं, इनको अधिक किराया देने से क्या लाभ? पाँच रूपये का वह भोले को प्रसाद चढ़ाएगा, भगवान का आशीर्वाद रहा तो आज फैसला हो जाएगा. और वह 15 रूपये पर अड़ा रहा। ‘चलना है तो चलो, ये सामने ही तो है कचहरी’ । ‘साहब चढ़ाई है और बिल्कुल वाजिब किराया है’, भीमा गिड़गिड़ाया। लेकिन सेठ 15 रूपये से ऊपर एक नया पैसा देने को तैयार न हुआ।

अंतत: मन मसोसकर भीमा ने हाँ कर दी। ‘तनिक मंदिर पर रोक कर चलना भाई’। रास्ते में सेठ जी ने असीम श्रद्धाभाव से शिव जी के चरणों में पाँच रूपये का प्रसाद अर्पित किया। भगवान की आँखों में दया का सागर लहरा रहा था।

लौटते समय भीमा ने मंदिर के पास रिक्शा रोका और श्रद्दानवत उनके चरणों में पाँच रूपये का प्रसाद अर्पित किया। ‘हे भोले शुक्र है तेरा जो सवारी भेज दी।’ भगवान की आँखों में अब भी दया का सागर लहरा रहा था।

Publication-सत्य की मशाल भोपाल (सितंबर, 2019)

(4) साफ़-सफ़ाई अभियान

वह एक पत्रकार था, स्वतंत्र पत्रकार. सच को जानने, उजागर करने की जैसे हमेशा उस पर धुन सवार रहती. हाल ही में उसे एक बङे सनसनीख़ेज मामले की भनक लगी. मुद्दा सीधे-सीधे, मौजूदा सरकार के एक बहुत बङे नेता की अस्मिता से जुङा था एतएव मुख्य धारा के मीडिया और अख़बारों ने एक छोटी सी गोल-मोल ख़बर निकाल कर इतिश्री कर ली.

लेकिन वह ठहरा एक जुनूनी पत्रकार, कुछ विशेष कर गुज़रने की इच्छा और पत्रकारिता धर्म, उसे उद्वेलित करने लगे. अपनी प्रारंभिक जाँच में उसने पाया कि सच, अनगिनत छद्म आवरणों के नीचे कहीं दफ़न है. पत्रकार ने सच को अनावृत करने की ठान ली. रास्ता ख़तरों से भरा था, अत: उसने वेश बदला और संभावित जगहों को खोदना शुरु किया. अनेक असफल प्रयासों के पश्चात, एक स्थान पर उसे सच की सुगबुगाहट सुनाई पङी. वह दोगुने उत्साह से फावङा चलाने लगा. झूठ और फ़रेब की कठोर परतें टूटने लगीं. पत्रकार ने अपनी पूरी उर्जा झौंक दी और अंतत: गहराई में दफ़न सच की झलक उसे मिली ही गई.

हाथ बढाकर वह सच को छू लेने वाला ही था कि अचानक भारी भरकम बुलडोज़र की आवाज से चौंक पङा. इससे पहले कि वह सच को लेकर गड्ढे से निकल पाता, बाहर एकत्र मलबे का ढेर भरभराकर अंदर गिरा और दोनों दफ़न हो गए. अगले दिन अख़बारों में बङे-बङे शीर्षकों में ख़बर छपी, ‘साफ़-सफ़ाई अभियान के अंतर्गत प्रशासन ने शहर के खतरनाक गड्ढों को पाटा.’

दयाराम वर्मा, जयपुर 20.10.2022

(5) डॉ. दिलीप महालनोबिस

“हिटलर को तो सारी दुनिया जानती है. लगभग कितने लोग उसके नफ़रती नरसंहार के शिकार हुए होंगे?”

“मेरे ख्याल से मानवीय इतिहास में हिटलर से अधिक क्रूर इंसान अभी तक पैदा नहीं हुआ. मात्र छ: वर्ष में उसने 60 लाख यहुदियों को मौत के घाट उतार दिया. इनमें 15 लाख तो केवल बच्चे थे.”

“बिल्कुल सही. आपने निठारी कांड वालों का नाम भी सुना होगा?”

“हाँ, हाँ, क्यों नहीं. 2005-06 के दौरान दर्जनों बच्चियों और लङकियों के बलात्कार और हत्या के दोषी, सुरेंदर कोली और मोहिंदर सिंह पंढेर! इन नरपिशाचों को कौन नहीं जानता, दोनों को फ़ाँसी हुई थी.”

“और 9/11 के बारे में भी आपको जानकारी होगी?”

“9/11! हाँ, वो ट्विन-टॉवर वाला हमला! नवंबर, 2011 में अमेरिका के न्यूयॉर्क और वाशिंगटन शहरों में अल-कायदा आतंकवादियों ने अपहृत विमानों से आत्मघाती हमले किए थे. इनमें करीब तीन हज़ार लोग मारे गए थे. इसके पीछे ओसामा बिन लादेन का हाथ माना जाता है.”

“बहुत ख़ूब! और मुम्बई में वो ताज होटल पर आतंकी हमला............ ”

“ओह, कसाब, उस हराम... को फ़ाँसी हुई. वर्ष 2008 में मुम्बई के कई रेलवे स्टेशनों, अस्पतालों, कैफ़ेटेरिया और होटल आदि को निशाना बनाया. इसमें भी करीब 150-200 लोग मारे गए थे.”

“हूँ. और 1984 के दिल्ली दंगों, 2002 के गोधरा दंगो के बारे में आपकी क्या राय है? कितने लोग मारे गए होंगे ऐसे दंगों में?”

“भारतीय इतिहास की बेहद दुखद घटनाओं में से हैं ये. एक अनुमान के अनुसार 1984 के सिख विरोधी दंगों में दिल्ली और अन्य शहरों में तीन हज़ार से अधिक लोग मारे गए थे. गुजरात के गोधरा में भी दो से तीन हज़ार लोग मारे गए होंगे.”

“अच्छा! आपका सामान्य ज्ञान बहुत बढ़िया है. बस एक अंतिम सवाल, क्या आपने डॉ. दिलीप महालनोबिस का नाम सुना है?”

“डॉ. दिलीप महालनोबिस! ......नहीं. माफ़ कीजिए. यह नाम तो मैंने पहली बार सुना है. कौन था यह डॉक्टर? क्या किसी नक्सली आंदोलन से जुङा था?”

“जी नहीं. 16 अक्टूबर, 2022 को 88 वर्ष की उम्र में उनका निधन हो गया है. डायरिया के मरीजों को डीहाइड्रेशन से होने वाली मौत से बचाने वाले ओ.आर.एस. (ओरल रीहाइड्रेशन सोल्युशन) घोल के वे जनक थे. 1971 में बांग्लादेश युद्ध के पश्चात पश्चिम बंगाल के विभिन्न शरणार्थी शिविरों में व्यापक स्तर पर हैजा फैल गया था. उस समय डॉ. महालनोबिस ने अपने कर्मचारियों के साथ वहाँ जाकर ओ.आर.एस. का इस्तेमाल किया और लाखों लोगों की जान बचाई. विश्व स्वास्थ्य संघटन के अनुसार ओ.आर.एस. से दुनिया भर में 6 करोङ से ज़्यादा जानें बचाई गई हैं. इनमें अधिकांश बच्चे हैं. भविष्य में कितनी और जिंदगियाँ इस घोल से बचाई जाती रहेंगी, अनुमान लगाना संभव नहीं है. और जानते हो, उन्होंने इस घोल का कोई पेटेंट नहीं करवाया था.”

“.........................!!!”

(c) दयाराम वर्मा, जयपुर (राज.)
नज्म: मुसलसल गुफ्तगू




याद है उस रोज
जब लहरें थी बेतकल्लुफ[1] और
दरिया था ख़ुमार[2] पर
ढलती रही घरौंदों में, साहिल की रेत रात भर

जुबान खुली भी न थी
लब थे खामोश
होती रही गुफ्तगू मुसलसल[3]
कभी इस बात पर, कभी उस बात पर

देता रहा तसल्ली सितमगर
तमस में, रंज-ओ-अलम[4] में, फ़िराक़[5] में
शाहकार[6] एक नायाब[7]
हुआ नुमायाँ, जज़्बात ही जज़्बात में

फासले दरम्यान लाख सही
कल तय हो भी जाएंगे
तेरी तमन्ना, तेरा तसव्वुर[8], तेरा इंतिज़ार
धङकता है दिल में, इफ़रात[9] में

कोहरे की चद्दर में लिपटी
हर शय ख़ुद-रफ़्ता[10] है
लेकिन मेरी जिद्द भी है की है, ग़ैर-मुतहर्रिक[11]
पिघलेगी एक रोज बर्फ, इसी हयात[12] में



© दयाराम वर्मा, जयपुर 19.01.2025


[1] बेतकल्लुफ-निस्संकोच
[2] ख़ुमार-मदहोशी
[3] मुसलसल-लगातार
[4] रंज-ओ-अलम-दुख तकलीफ में
[5] फ़िराक़-बिछोह, जुदाई
[6] शाहकार- कला संबंधी कोई महान कृति
[7] नायाब- उत्कृष्ट, जो दुर्लभ हो
[8] तसव्वुर-ख्याल
[9] इफ़रात- जरूरत से अधिक
[10] खुद-रफ्ता- संज्ञाहीन, निश्चेष्ट
[11] ग़ैर-मुतहर्रिक-अचल
[12] हयात-जीवन


नज़्म: इत्तिफ़ाक़




गर तुमसे मुलाकात न होती, आलम-ए-दीवानगी पास न होती
रहा साथ तो ख्वाबों में, होश में वस्ल[1] फ़रेबी, तेरी आस न होती


कसमें जीने की-मरने की, ‘जुनूनी[2] गुफ़्तगू[3]’, वो बेबाक न होती
हो भी जाते दफ़न अफ़साने सौ, सितमगर मेरी जाँ आप न होती


धुआँ-धुआँ है सोज़-ए-दिल[4], उम्मीद-ए-विसाल[5] पाक न होती
कर लेते तय सफर तन्हा, जो हुई मुलाक़ात इत्तिफ़ाक़[6] ही होती


हवाएँ थीं आवारा, खुशबू-ए-नग़्मा-ए-वफ़ा कम-ज़ात नहीं होती
चलते चले जाना बेसाख़्ता दीप, इन राहों की कभी रात नहीं होती


@ दयाराम वर्मा, जयपुर (राज.) 23 जनवरी, 2025


[1] वस्ल-मेल मिलाप, मिलन
[2] जुनूनी- दीवानगी भरा
[3] गुफ़्तगू- बातचीत
[4] सोज़-ए-दिल- ह्रदय में जलती प्रेम की अग्नि
[5] उम्मीद-ए-विसाल—मिलन की आस
[6] इत्तिफ़ाक़—अचानक, संयोग




कविता: चल उठा बंदूक




पहले खलता था, अब आदत में शुमार है
ढ़लती शाम के साथ
थके कदमों बैरक में लौटना
और अलाव की धुँधली रोशनी में
घूरते रहना, कठोर-खुरदरे चेहरे
सपाट, मदहोश, हंसमुख तो कुछ भावुक
रफ़्ता-रफ़्ता पिघलते चेहरे!

अंधेरे की चादर
सीमा पर फैली पहाड़ियों को
बहुत तेजी से ढकती चली जाती है
स्याह-सर्द रातों में ख़्वाब तक सो जाते हैं
तब भी चार खुली आँखें
सुदूर सूने आसमान में कुछ टटोलती हैं!

गलवान घाटी की इस चोटी पर एक बंकर में
हर आहट से चौंकता मैं और मीलों दूर
बूढ़ी बावल वाले घर के आँगन में
करवटें बदलती तुम!

कल सोचा था तुम्हें देखूँगा मैं चाँद में
मेरी तरह जिसे
हर रोज तुम भी तो निहारती हो, मगर!
सारी रात घटाएँ छाई रहीं
और आज हिमपात शुरू हो गया है!

बर्फीली चोटियों पर सुन्न हो जाता है शरीर
और जम सा जाता है रक्त
मगर अरमान सुलगते रहते हैं!

आहिस्ता-आहिस्ता
कानों में बजती है पायल की झंकार
बंद पलकों के पीछे
गर्मी में तुम्हारा तमतमाया चेहरा
और गोबर सने हाथ, अक्सर उभर आते हैं!

यहाँ मोबाइल नेटवर्क नहीं है
तुम्हारी अंतिम चैट के बिखरे से जज़्बातों को
समेट कर मैं पढ़ता हूँ

और तब मेरे सिमटे से जज़्बात
बिखरते चले जाते हैं!

दिन-सप्ताह और महीने
बहुत से बीत गए हैं
जबकि हर पल साल की तरह बीता है!

अधूरे से स्वप्न की, अधूरी मुलाकात
गोलियों की तङ-तङ से
भंग हो जाती है!

र बावळे जादा ना सोच्या करदे
बंद कर मोबाइल, सिराणं तळ धरदे
चल उठा बंदूक, कर दुश्मन का नाश
बहुत हुई भावुकता, छोङ ये सारे मोह पाश!
जय हिंद!


© दयाराम वर्मा, जयपुर (राज.) 19.01.2025

कविता: शीशमहल बनाम राजमहल

शीशमहल सजा सबसे न्यारा
वियतनामी मारबल से दमके आंगन प्यारा-प्यारा
रेशमी परदे ढाते कमाल
काष्ठ-कला, असबाब की है अद्भुत, बेमिसाल
मचल उठा ‘राजमहल’ का रौनक लाल!

लूंगा लुत्फ स्पा का, पहन लंगोट
पेलूंगा डंड जिम में, ट्रेड-मील पर दौङ लगाऊँगा
उठाकर डंबल-संबल
मैं भी सिक्स-पैक बनाऊँगा
छपती सुर्खियां शीशमहल की, दिल्ली-पटना-भोपाल
तङप उठा रौनक लाल!

दस रुपल्ली वाला टांगकर पेन
प्रेस कांफ्रेंस में, फोटो स्टाइलिश खिंचवाऊँगा
तरणताल में तैरूँगा, तन-बदन, मल-मल नहाऊँगा
डूब गया रौनक सपनों में शाम-ओ-सहर
लगती आँख बस पहर दो पहर!

डालूँगा पैरों में स्लीपर सस्ती
बन आम आदमी, वोटर रिझाऊँगा
पहनूँगा ‘अतिरिक्त बङी’ चैक वाली कमीज
हाथों में झाङू, गुलूबंद गले में अटकाऊँगा
शीशमहल जब मैं जाऊँगा!

सुना है वहाँ, है एक खूबसूरत मिनी बार
सुरा पान, टकराते जाम, आह! करना होगा दीदार
मन डोल गया, रौनक लाल सच बोल गया
शीशमहल अवश्य जाऊँगा
चैन तब कहीं पाऊँगा!

राजमहल जाऊँगा
वरना खाना नहीं खाऊँगा
कभी टोयोटा, कभी मर्सिडीज, कभी लैंड-क्रूजर
एक से बढ़कर एक, गाङी दौड़ाऊँगा
मचल उठा शीशमहल का नौनिहाल
नटखट, जिद्दी शिशु पाल!

नहीं रखना बटुआ-सटुआ
टांगूँगा कंधे पर मैं तो, झोला झालरदार
पहनूँगा नित जूते नए, बदलूँगा टाई-सूट कई बार
शान-ओ-शौकत, दुनिया को दिखलाऊँगा
राजमहल जरूर जाऊँगा!

सुनो माताओं, सुनो बहनों
देखो कालीन बिछा राज दरबार
लगे हैं जिसमें बाईस कैरेट सोने के तार
झूमर हीरे जङे, बङी दूर से मारे हैं चमकार
देखेंगे जाकर हम भी ये शाहकार!

स्वांग फकीरी, असल अमीरी
जुमलों की भरमार
हो सवार ‘एयर-इंडिया-वन’ में
उङ जाऊँगा आसमान, सात समंदर पार
करूंगा सैर देश, दुनिया-जहान की
जपेंगे माला ट्रम्प, पुतिन, जिनपिंग मेरे नाम की!

ईडी, सीबीआई, इनकम-टैक्स, केंचुआ
रिमोट सभी का हथियाऊँगा
रोब-दाब, धाक-धौंस, प्रतिपक्ष पर खूब जमाऊँगा
गर राजमहल नहीं जा पाऊँगा
बन जाऊँगा आपदा, कर दूंगा बेहाल 
सनक गया चिरंजीवी शिशु पाल!

© दयाराम वर्मा, जयपुर. 14 जनवरी, 2025


कविता: इंसानी भूख




विस्तारवाद की भूख
सत्ता पर चिर-आधिपत्य की भूख
संसाधनों पर स्वामित्व की भूख
व्यापार और बाजार पर एकाधिकार की भूख
जिस्मानी भूख से इतर
तमाम तरह की ‘इंसानी’ भूख!

निगल चुकी है एक-एक कर
इंसानियत के अंग-प्रत्यंग
संवेदना, संतोष, उदारता, प्रेम, करुणा आदि-आदि
इसका हृदय न धङकता है, न पिघलता है
हृदयगति थम जो चुकी है
निस्तेज पुतलियों में निःशेष है दृष्टि
आओ पढ़ते हैं मर्सिया
करते हैं अंतिम अरदास, कहते हैं ‘रेस्ट-इन-पीस’
और सजाते हैं अर्थी!

बारूदी शहरों में
चतुर्दिक धधकती चिताओं पर लेटी है इंसानियत
संभव है
इसकी अंत्येष्टि के पश्चात
हो सकेंगे सभी द्वंद्व समाप्त
वर्चस्व, आन-बान-शान और अभिमान की
सभी लङाइयाँ तोङ देंगी दम
और खत्म हो जाएगी ‘इंसानी’ भूख!

मुखाग्नि देने को आतुर
बैठे हैं कतारबद्ध, युग-प्रवर्तक, महामानव
रूस, चीन, अमेरिका, इजराइल, ईरान, अफगानिस्तान, म्यांमार…….
फेहरिस्त लंबी है!


© दयाराम वर्मा, जयपुर (राज.) 09 जनवरी, 2025


कविता: भीम भगवान




अल्लाह नहीं था, गॉड नहीं था
न था भगवान, वह कोई अवतार नहीं था
करोङों दिलों में बसने वाला, भीम मसीहा मानवता का
था शाश्वत, महज किताबी किरदार नहीं था!


जो भी है यहीं है, कल्पित है परलोक
मिटे जब भेदभाव-शोषण, बने स्वर्ग इहलोक
कहे कानून भीम का, सब जन बराबर के हकदार
राजा-रंक, स्वर्ण-अवर्ण, एक समान मत-मताधिकार!


पास नहीं था उसके कोई दिव्यास्त्र
न था चक्र सुदर्शन सा, न गदा न ब्रह्मास्त्र
नहीं सुझाई उसने पूजा-पाठ, दान-पुन की युक्ति
नमाज-प्रार्थना-अर्चना दिलवाते पाप-कर्म से मुक्ति!


भीम बाण चला, हुआ नामुमकिन, मुमकिन
भस्म हुईं तालाब-कुँओं की बाङें तमाम कुलीन
हुए तृप्त वंचित-शंकित, विवश थे पीने को नीर मलीन
जल-जमीन-जंगल, अधिकार हमारा, अभिभूत सर्वहारा!


नहीं निकाली जटाओं से गंगा
न भभूत से, शरीर उसने कभी था रंगा
न बांटे जन्म-जन्मांतर के आभासी स्वर्ग प्रवेश-पत्र
नहीं लगाई प्रस्तर प्रतिमा अहिल्या को ठोकर!

सहस्राब्दियों से चल रही, नफरत पल रही
जातीय उत्पीङन, वर्जना:, बंदिशें और अत्याचार
उतरन पहनो, झूठन खाओ, दूर गाँव से बस्ती बसाओ
बना स्पर्श अपराध अक्षम्य, पाते कैसे शिक्षा-दीक्षा-संस्कार!

संविधान में ऐसे अधिकार दिए
अबला बनी सबला, हक-हुकूक़ समान लिए
मिला दबे-कुचलों को भीम-मुक्तिदाता तारणहार
पतित नहीं पावन हैं, करना पङा अभिजात्यों को स्वीकार!


नहीं थी पास उसके, कोई वानर सेना
न मिला सुग्रीव सा सखा, हनुमान सा खली
न मिला धनुर्धर अर्जुन, न मिला भीष्म महाबली
मात्र शिक्षा ही बनी भुजा दाहिनी, शक्ति-सैन्य वाहिनी!


समता मूलक समाज का था भीम आधार
इंसानियत का सच्चा हितैषी, इंसाफ का पैरोकार
खुद ही सेना, खुद ही सेनापति, तूफानों से जा टकराता
भीङ से भिङ जाता, तर्कों से हराता, डरता नहीं-था डराता!

अप दीपो भव- दर्शन अपनाया
‘शिक्षित बनो, संगठित रहो, संघर्ष करो’ समझाया
न्याय मिले, जीने का अधिकार मिले, मिले आत्मसम्मान
हुआ होगा धरती पर अगर भगवान कोई, होगा भीम समान!


© दयाराम वर्मा, जयपुर 27 दिसंबर, 2024



कविता: कलम की अभिलाषा



मुझे जानना चाहते हो
अंतर्मन में मेरे झांकना चाहते हो
तो सुनो-मैं चाहती हूँ उस हृदय का साथ
अनुकंपा, इंसानियत, निष्ठा धङकती जिसके पास!


नहीं चाहती होना मंचासीन
पढ़ना क़सीदे सरकार के, करना झूठे गुणगान
प्रायोजित महफिल, गोदी मीडिया, सहमे कद्रदान
बँटते जहाँ चाटुकारिता के बदले, शोहरत-शाल-सम्मान!


है मेरी अभिलाषा
खुलकर करूँ विरोध-प्रतिरोध दमन का
लिखूँ वाकया हर्फ़-ब-हर्फ़[1] राजकीय शमन का
करूँ नित अनावृत[2] भेद- प्रपंच, पाखंड, गबन का!


बन जाऊं मैं रणचंडी
दुराचारी की काल बनूँ, अबला की ढाल बनूँ
तन जाऊँ गांडीव[3] सी, जुल्मी-जुल्म-सितम के आगे
जलूँ बन बाती ऐसी, अंधियारा दर्प, द्वेष, जङता का भागे!


मैं पिद्दी[4] हूँ फिर भी जिद्दी हूँ
खिलाफ हुक्मरानों के चलूँ निडर
नहीं डिगूँ कभी उसूलों से, रहूँ बेलौस[5] बेफ़िक्र
सर उठाकर सवाल करूँ, हो खुदा, गॉड या ईश्वर!


अरमान सजाती, उम्मीद जगाती
सवार तल्ख सवालों पर भरूँ ऊँची उङान
लिखूँ संघर्ष मृग का, शिकारी व्याघ्र नहीं महान
विस्मृत, तिरस्कृत, दबे-कुचलों की बनूँ बुलंद जुबान!

शब्दों की वह धार मिले
नित मानस बगिया में, नव सुविचार खिले
असर अदम-पाश-दुष्यंत सा, हों सब खामोश
अंकुश लगे निरंकुश पर, भर दे लेखन में ऐसा जोश!


© दयाराम वर्मा, जयपुर 19 दिसंबर, 2024


[1] हर्फ़-ब-हर्फ़-अक्षरश:
[2] अनावृत्त-आवरण रहित
[3] गांडीव-महाभारत के पात्र अर्जुन के धनुष का नाम
[4] पिद्दी-अत्यंत तुच्छ जीव, एक छोटा पक्षी
[5] बेलौस-सच्चा या खरा, बेमुरव्वत, ममताहीन

प्रकाशन विवरण- 
1. भोपाल से प्रकाशित होने वाली मासिक हिंदी साहित्यिक पत्रिका- अक्षरा के अप्रैल, 2025 के अंक में चार अन्य कविताओं के साथ प्रकाशित 
2. राजस्थान साहित्य अकादमी की मुख पत्रिका मधुमती के दिसंबर-2024 के अंक में 6 अन्य कविताओं के साथ प्रकाशन







कविता: भीङ का तंत्र



भरे परिसर अदालत में, डंके की चोट
किया स्वयं मुंसिफ़ ने उद्घोष
बहुसंख्यकों के अनुसार चलेगा ये देश महान
एक डंडा, एक फंडा, होगी एक पहचान
शपथ गई तेल लेने
बोले जो भीङ, वही अंतिम निर्णय जान!

संविधान-विधान वही होगा
नफा-नुकसान, इल्जाम-इकराम[1] वही होगा
अदालत का संज्ञान वही होगा
संवेदना, सबूत, न साक्ष्यों की होगी दरकार[2]
वही होगा गुनाह, वही होगा गुनाहगार
जाही विधि साजे भीङतंत्र-सरकार!

लब खोलने की
आजादी यत्र-तत्र डोलने की
हँसने-रोने, चलने-रुकने, उठने-बैठने-झुकने की
कहाँ डले छत-छाँह, कहाँ बने इबागत-गाह
होगी आजादी, कब, कैसी और कितनी
भीङ तय करेगी जितनी!

बांटते मुंसिफ ऐसा भी ज्ञान
धेनु[3] लेती-देती सदा ऑक्सीजन
रोए मयूर टपके अश्रु, होए मयूरी का गर्भाधान
बर्बाद गुलिस्तां करने को …..
रामचंद्र कह गए सिया से ऐसा कलजुग आएगा
हंस चुगेगा दाना-दुनका कौआ मोती खाएगा!

उम्मीद किससे, मांगें किससे इंसाफ
नमूने कर रहे रहनुमाई, ओढे छद्म लिहाफ[4]
लोकतंत्र हैरान है, पशेमान[5] है
होता आईना[6] अपमानित, नित परेशान है
खुल कर खेलो, है स्पष्ट संकेत
करे कौन अब रखवाली, जब बाङ ही खाए खेत!


© दयाराम वर्मा, जयपुर (राज.) 12 दिसंबर, 2024




















[1] इकराम- दान, बख्शीश
[2] दरकार-आवश्यकता
[3] धेनु-गाय
[4] लिहाफ- रजाई
[5] पशेमान-लज्जित, शर्मिंदा
[6] आईना-संविधान


कविता: वे लोग




क्या तुम्हें है उस जहर की तलाश
‘उन लोगों’ का कर सके जो समूल नाश
हठधर्मी, अस्पृश्य, विधर्मी, एवं जाहिल जमात
नूतन शब्दावली-संस्कार, समाज को खतरा
हैं गद्दार, अवांछित कचरा!


आस्था विश्वास में घुला एक जहर
घर, मोहल्ले, शहर-शहर
खिंची तलवारें, चले पत्थर, पसरा कहर
हर रोज चंद घूँट पिलाते हो
उकसाऊ नारे, भङकाऊ संगीत बजाते हो!


डाल दिया धर्म, धंधे और पोशाक में
दाढी, टोपी, भाषा और तलाक में
‘जहर’ खान-पान, साक-सब्जी और पाक में
चिन्हित कर प्रतिबंध लगाते हो
सोसाइटी-बाजार, मेले-व्यापार से दूर भगाते हो!


प्यार में, व्यवहार में, लोकाचार में 
राहों में, अफवाहों में बदनाम हुआ जिहाद
कुछ और न मिले तो आओ
कर लेते हैं तकरार लेकर हिजाब
जहरीला चश्मा ढूँढता हर शय में फसाद!


जहरीली हवा, जहरीले विचार
ईद-बकरीद, दीप-दिवाली, तीज-त्योहार
जुबान मैली, दिलों में कदाचार
चुन-चुन बरसाते हो गाली और गोली
रौंदती ‘उनके’ घर ठिकाने, बुलडोजर-टोली


खोज रहे हो अब तुम जमीन तले
जहर खतरनाक ऐसा मिले
पलट जाए इतिहास, पुश्तें ‘उनकी’ जा हिलें
‘वे लोग’ जब हों एकत्र एक जगह
कुचल डालें, मसल डालें, कर लें सबको फतह!


इंसानियत आज भयाक्रांत है
गली-कूचा देश का, देखो अशांत है
गोधरा से संभल तक, अतिरेक हो चुका
है अब भी अवसर, बुनियाद-ए- हिंद बचा लो
वरना, ‘धीरज’ विवेक खो चुका!


मूढ़ता त्यागो, दिवा-स्वप्नों से जागो
जोङ सको तो जोङो, अदावत[1], जलालत[2] छोङो
गौतम, महावीर, नानक, कृष्ण की यह धरती है
मेरी-तेरी नहीं, ‘हम सब’ की बात करो
नफरत, इंसाफ कभी नहीं करती है!



© दयाराम वर्मा, जयपुर (राज.) 8 दिसंबर, 2024




[1] अदावत- शत्रुता
[2] ज़लालत- अपमान, बेइज़्ज़ती
कविता: खो देंगे लेकिन खोदेंगे




वे चाहते हैं
कर देना अपने पुरखों के नाम
स्वर्ग- नर्क के रहस्योद्घाटन, विकास के समग्रआयाम
तमाम आविष्कार और करामात
क्योंकि केवल और केवल
उनके पुरखे ही थे सर्वश्रेष्ठ मनुजात
निरुपम सभ्यताओं और संस्कृतियों के तात!


उनका है दृढ़ विश्वास
था भाला लंबा इतना उनके पुरखों के पास
आसमान छू लेता था
करता ऐसा छेद, बादल चू देता था
चीर धरा को प्रकट करता जल की धारा
बहती नदियां, मिटता अकाल
भाला था बङा कमाल!


और सिद्ध करने के लिए
वे खींचते हैं
नित नई, लंबी और गहरी लकीरें
खुरचते हैं, फाङते हैं, जलाते हैं तमाम वो तहरीरें
जो फुसफुसाती हैं, बुदबुदाती हैं
कभी-कभी चीखती हैं, चिल्लाती हैं
‘यहाँ तुमसे पहले भी कोई था’!


वे खोदते हैं
रोज गहरी खाई और खंदक
अभिमत है नीचे उनका ही खुदा होगा
निशान अवश्यमेव पुरखों का जहाँ गुदा होगा
उन्हें है यह भी यकीन
उनका खुदा सबसे जुदा होगा
बंधुभाव, सद्भाव, प्रेम-सौहार्द-बेशक सब खो देंगे
लेकिन जिद है कि खोदेंगे!



© दयाराम वर्मा, जयपुर (राज.) 6 दिसंबर, 2024


कविता: रेखाचित्र





रेखाओं ने उकेरी आकृतियाँ
परवाज करते सारस, बाज, गरुङ
लहरों पर डोलती नौका, खेवट और पतवार
धनुष, तीर, तलवार
शशक, सारंग, बाघों का शिकार
रेखाओं में गोपित[1] मोना लिसा की मुस्कान
हतप्रभ सारा जहान!


प्रस्तर लकीरों में लिपटे
इंसानी कदमों के निशान, हल थामे किसान
सुस्ताते श्वान, तिनकों के परिधान
रहट में जुते बैल, झुमते छैल
अचल, उदात्त, हिमाच्छादित शैल
कंठी, कर्णफूल, समुद्री सीपियों की माला
सजती-संवरती आदि-बाला!


छोटे-छोटे बिंदुओं के अद्भुत संयोजन
अपरिमित इनके प्रयोजन
बिंदुओं से रेखा, रेखा से त्रिभुज-चतुर्भुज बने
बने आयत, वृत, घन, घनाकार
ढल गए असंख्य अनुहार[2]
अंक-बीज-रेखा गणित, भौतिकी और भूगोल में
नापी दूरी सितारों की खगोल ने!


रेखाओं से उपजी लिपि
लिपि से भाषा, भाषा से व्याकरण
व्याकरण से भाषाई शुचिता, नियमन, संगठन
स्पष्ट और प्रभावी हुआ पाठन-पठन
शब्द-वर्ण-वाक्य विचार
रेखाओं पर अवलंबित
ज्ञान-ध्यान-विज्ञान, ग्रंथ-पोथी-शास्त्राचार!


रेखाओं के पंख सजाए
उङी कल्पना सुदूर, सप्तरंगी जगत अनजान
आदित्य, अंगारक, चंद्र-नक्षत्र
मुग्ध मंदाकिनी दैदीप्यमान
विस्तृत व्योम, परिमित व्यष्टि, अनंत सृष्टि
देव-दानव, सुर-असुर, गंधर्व या थे जो निराकार
रेखाचित्रों में हुए सब साकार!


© दयाराम वर्मा, जयपुर (राज.) – 23 नवंबर, 2024




[1] गोपित: गुप्त या छुपा हुआ


[2] अनुहार -आकृति या रचना



कविता- अनेक थे नेक थे




हमारे मोहल्ले में रहते थे
भांति-भांति के लोग
जाट जमींदार कारीगर कुम्हार सुथार
ठाकुर तेली सुनार चमार
हमारे ठीक पङोस में थे एक दर्जी
कमरुद्दीन भाई
लेखराम धोबी भोला बनिया हंसराज नाई
वैसे तो हम अनेक थे
लेकिन दिल के सब नेक थे
भाईचारा और प्रेम आपस में बंटता था
समय आराम से कटता था


वहाँ गली के आखिरी छोर पर था
सरदार केहरसिंह का बङा सा पक्का मकान
पीपल के पास था एक छोटा देवस्थान
देवस्थान के अहाते में
रहते थे लंबी चोटी वाले पंडित घनश्याम
सुबह शाम
बजती थीं मंदिर में मधुर घंटियाँ
और आती थी दूर मस्जिद से सुरीली अजान
सेवइयां लड्डू तो कभी हलवा बंटता था
कुहासा भेद भ्रम का छंटता था
यद्यपि हमारे इष्ट अनेक थे
लेकिन पैगाम सबके एक थे नेक थे


ढाब वाले स्कूल में
बरगद के पेङों तले लगती थी क्लास
अमर अर्जुन शंकर बलबीर हरदीप अल्ताफ़
बैठते थे टाट पट्टी पर पास-पास
पंद्रह अगस्त छब्बीस जनवरी होते थे पर्व खास
जब चलता सफाई अभियान
खेल मैदान में करवाया जाता श्रमदान
नंद पीटीआई काम बांटते
गड्ढे पाटते बबूल छांटते घास काटते
हमारे दीन-धर्म जात-कर्म अनेक थे
गुरुजी की नजरों में सब एक थे


दिवाली ईद गुरु-परब
हर साल हर हाल मनाए जाते
सिलवाते कपङे नए घर द्वार सजाए जाते
कुछ महिलाएं निकालती थीं घूंघट
कुछ पहनती थीं हिजाब
कभी कभार आपस में हो जाती थी तकरार
इससे पहले कि उगती कोई दीवार
सही गलत तुरंत आँकते
सौहार्द सद्भाव शांति बुजुर्ग बांटते
बेशक
खान-पान रिती-रिवाज अनेक थे
इरादे सबके नेक थे


© दयाराम वर्मा, जयपुर (राज.) 11-11-2024

Publication details: 
Sandesh Apr-Sep 2025, HY Magazine of Punjab National Bank ZO-Jaipur
Satya Kee Mashal Jan-2025, Monthly magazine





कविता: अनुकंपा और अभिशाप



शिखर से आया ऐलान
सुन बे छोटे इंसान
हमारे बाग-बगीचे,  खेत-खलिहान
बैंक-बैलेंस, नकदी, सोना, चांदी, खान
शहर-दर-शहर फैले दफ्तर, कारखाने, कारोबार
चमचमाती गाङियां, आभिजात्य[1] सरोकार

भूखंड, बंगले
ऊँची प्रतिष्ठा, ऊँची पहुँच, पद और जात
वंशानुगत पराक्रम, प्रज्ञा, अर्हता और चतुराई
है ईश्वरीय अनुकंपा की निष्पत्ति
जिसकी लाठी उसकी भैंस
शास्त्रीय उपपत्ति[2]!


तुम्हारी संतप्त झुग्गियां
भीङ भरी चाल, संकरी गन्धदूषित गलियां
सर पर तसले, गोबर सने हाथ
भूख, बीमारी, लाचारी, छोङे न साथ
पसीने से तर बदन, मैले कुचले परिधान
हाशिए की जिंदगी, सिसकता आत्माभिमान

हल, हंसिए, हथौड़े
जमीं फोङे, पत्थर तोङे, लोहा मरोङे, रहे निगोङे
छोटी सोच, छोटी समझ, काम और जात
वंशानुगत अज्ञता, अक्षम्यता[3], जड़बुद्धि और प्रमाद
है यह ईश्वरीय अभिशाप
जैसा बोए वैसा काटे
काहे करता प्रलाप!


© दयाराम वर्मा, जयपुर (राज.) 03 सितंबर, 2024


[1] उत्कृष्टता, शालीनता, और उच्च सामाजिक स्तर से संबंधित गुण या अवस्था
[2] किसी तथ्य, सिद्धांत, या विचार को प्रमाणित करने के लिए दी गई तार्किक या वैज्ञानिक व्याख्या
[3] असक्षम


प्रकाशन विवरण: 
(1) जनजातीय चेतना, कला, साहित्य, संस्कृति एवं समाचार के राष्ट्रीय मासिक 'ककसाङ' के 107 वें अंक, फरवरी, 2025 में प्रकाशित. 
(2) भोपाल से प्रकाशित होने वाली मासिक हिंदी साहित्यिक पत्रिका- अक्षरा के अप्रैल, 2025 के अंक में 'कलम की अभिलाषा' और तीन अन्य कविताओं के साथ प्रकाशित 
(3) राजस्थान साहित्य अकादमी की मुख पत्रिका मधुमती के दिसंबर-2024 के अंक में 6 अन्य कविताओं के साथ प्रकाशन



















कविता: झूठ अनंत अपार



सच के आगे स पीछे च
न व्यंजना, न मात्रा, न अलंकार
न फरेब, न चमत्कार
सत्यमेव जयते नानृतम्
यही दर्शन, विश्वास यही आधार!

बिना लाग, बिना लपेट
जो है वही सच, सचमुच कहता है
बदले में होता ट्रोल
लानत, मलामत, ताङना-प्रताड़ना
सब फिर सहता है!

शिल्प में, अभिनय में
है झूठ बेजोङ, बेहद दमदार है
इ के साथ खङी पाई
तिस पर बङे ऊ की मूँछ सजाई
ठ ठसके ज्यूँ सरदार है!

झूठ बहुत खास है
विमर्श में घोलता शहद सी मिठास है
ठग, बेईमान, चोर-उचक्के
मंत्री, संतरी, मांत्रिक या तांत्रिक रखते
इससे उत्कट अभिलाष है!

सच कहूँ तो झूठ
भाववाचक संज्ञा सरूप है
वृत्ति में, राज में, काज में, व्यवहार में
घाट, बाट, हाट, व्यापार में
अगणित बहुरूप हैं!

आश्वासन, भय, भ्रम
कहीं लालच, कहीं जरूरत, कहीं अनाचार
झूठे झांसे में बुलबुल भटकी
सैयाद को समझी रांझे का अवतार
झूठ रूपक अलंकार!

उङे झूठ जब
अफवाहों के पंख लगाए
चंपत चपलु, चतुर सुजान कहलाए
ज्ञानी पपलु, भए मूढ़ अज्ञानी
घर-घर पहुँचे ये कहानी

सच बंधा सीमाओं से
रहता सकुचाता, सिकुङा, मौन
बदले पाला, पहने माला, ओढे दुशाला
राजा, प्रजा करते जैजैकार
झूठ अनंत अपार!


© दयाराम वर्मा, जयपुर (राज.)- 24 अगस्त, 2024



कविता: मनमौजी



राज सिंहासन का
है बङा गजब इकबाल
छल कपट से वोट झपट के
आँख दिखा के लाल!

जो विराजते इस गद्दी पर
बल-बुद्धि माया से
हो जाते मालामाल!

हरखू परखू घुग्गी या हो दौला
मनमौजी भी बन बैठता
हरफनमौला[1]!

खिलाफत में जो बोले
हल्का सा कभी मुँह भी खोले
कलम उसकी कहलाती
दुश्मन प्रायोजित औजार!

विरोधी सुर-स्वर-अक्षर
गुनगुनाने-सुनने-लिखने वाले
समझाते मनमौजी
हैं जयचंद देश के गद्दार!

हो जाए गरचे अपराध
प्रतिकारी प्रतिपक्षी के हाथों
ध्यान-विधान विशेष दिया जाता
घर है अवैध
प्रथम दृष्टया जान लिया जाता!

बिना अपील बिना दलील
सबल-मनमौजी
चपल-बुलडोजर न्याय दिलाता!

सङकों पर जब होते
धरने अनशन विरोध प्रदर्शन
हो जाते दंगे फ़साद
कोई मांगे अभिव्यक्ति की आजादी
मीडिया बोले करते जेहाद!

आंदोलनजीवी या अर्बन नक्सल
जुट जाते लोग चुनिंदा
करे संशय मनमौजी
शामिल इनमें साज़िश-कुनिंदा[2]!



© दयाराम वर्मा, जयपुर (राज.)-10 अगस्त, 2024




[1] हरफनमौला- हर क्षेत्र का जानकार व्यक्ति; अनेक विद्याओं का ज्ञाता और आविष्कारक
[2] साज़िश-कुनिंदा- षड्यंत्री, कुचक्री, साजिश रचने वाला


कविता: जाति कबहूँ न जाती



एक जाति सुशोभित मुख से
एक सजी स्कंध पर
जंघा से भई एक प्रकट
अंतिम पर आया भारी संकट!

बाँध दी गई पाँवों में जैसे जंजीर
लिखा यही था उसकी तकदीर
जाति अब छूटेगी नहीं
कर लो चाहे कोई भी तदबीर!

मिलेगा किसको अधिकार
या करना होगा इंतिज़ार
आएगा किसके हिस्से में तिरस्कार
मुखमंडल-जंघा-स्कंध या पाँव
समझो पैमाने ये चार!

ऊँच नीच की पहचान भी
है बहुत सरल-सटीक
तय हो जाता जन्म से
बामण-खत्री-बनिया-खटीक!

लम्बी मूँछें हरिया की
देख दिमाग भैरू का सटके
घुड़चढ़ी लालू की बालू को खटके!

दलित-आदिवासी गरीब के
मुख पर मूते सरे बाजार
जातीय श्रेष्ठता का बेखौफ अहंकार!

नंगा करते कालिख लगाते
डाल गले में माला जूतों की गाँव घुमाते
बाईसवीं सदी के बोले अखबार
क्या होती मानवता शर्मसार!

मास्साब ने लिखी
बालक ननकू की जात
गाँव चौपाल का हुक्का पूछे
बोळ कुण तेरी पात
रिश्ते नातों को सदा सुहाती
दादी मांगे पोते से-बहू स्व-जाति!

तन-बदन ही नहीं
आत्मा से भी रहती लिपटी
जाति चली संग मुर्दे मरघट तक
बाद तेरहवीं
तस्वीर के बैठक में जा चिपटी!

जाति ने जोङा है या है तोङा
हक़ीक़त सब जानते हैं
नेता लोग यह मर्म पहचानते हैं!

तभी तो
भरी संसद में भी पूछी जाती
इसकी जाति उसकी जाति
जाति कबहूँ न जाती!

© दयाराम वर्मा, जयपुर 06 अगस्त, 2024

विवेचना: विषाक्त बीज 


जहरीला कुकुरमुत्ता-प्रकाशन वर्ष 1938 लेखक अर्नेस्ट हाइमर 

जनवरी 1933 में जर्मनी में यहूदियों की  जनसंख्या 5.23 लाख थी जो कुल जनसंख्या 670 लाख का 1 % से भी कम (0.78%) थी. नाजी पार्टी के आने के बाद बङी संख्या में यहूदी आस पास के देशों में पलायन करने लगेजून 1933 में जर्मनी में इनकी आबादी घटकर 5.05 लाख (0.75%) रह गई. उस समय पङोसी देश पोलैंड में इनकी जनसंख्या 33.35 लाखसोवियत यूनियन में 30.20 लाखलिथुआनिया में 1.68 लाखचेकोस्लोवाकिया में 3.57 लाखऑस्ट्रिया में 1.85 लाखरोमानिया में 7.57 लाखफ्रांस में 3.30 लाख और ब्रिटेन में 3.85 लाख थी. कुल मिलाकर यूरोप में इनकी आबादी 95 लाख थी जो विश्व में कुल यहूदी जनसंख्या का लगभग 60% थी. बहुत से यूरोपीयन देशों में इनकी जनसंख्या का प्रतिशत 4 प्रतिशत या उससे भी अधिक था फिर भी जर्मनी के अलावा किसी भी अन्य देशवासियों को यहूदियों से कोई खतरा नहीं हुआ.

लेकिन नाजियों को लगता था कि यहूदीहमारी संस्कृतिराष्ट्रवादधर्म और व्यवसाय आदि के लिए खतरा है. ऐतिहासिक दृष्टि से देखें तो सन 1933 में नाजियों के उदय से बहुत पहले से ही दोनों समुदायों के बीच अविश्वास और घृणा की चौङी खाई थी. नाजियों ने उस चिंगारी को हवा दी और उसे शोलों में बदल दिया. धार्मिक और नस्लीय कट्टरता सदैव पहले अपने लिए अनुकूल वातावरण तैयार करता है. अख़बारों-पत्र-पत्रिकाओं के जरिएचलचित्र और नाटकों के माध्यम सेराजनैतिक सभाओं-सम्मेलनों आदि में प्रत्येक संभव चैनल के द्वारा अफ़वाहें फैलानाफ़र्जी ख़बरें छापनाझूठे और मनगढ़ंत इल्ज़ाम लगाना और इनका बार-बार दोहराव-एक ऐसी कारगर कूटनीति है जो धीरे-धीरे परवान चढ़ती है. 

एक समय के बादजनमानस के मनोविज्ञान को जकङ कर ये नरेटिव उसके दिल-दिमाग और विचारों पर इस कदर हावी हो जाते हैं कि वह इस विषय के किसी भी सही-गलत या उचित-अनुचित पहलू पर तार्किक रूप से सुननासोचनासमझना और बोलना बंद कर देता है. एक धर्म या नस्ल विशेष के प्रति नफ़रती पूर्वाग्रह उसे एक उन्मादी भीङ में बदल देते हैं. जब कभी इस भीङ को सत्ता का समर्थन हासिल हो जाता है तब यह खुलकर नंगा नाच करने लगती है. नाजियों ने न केवल वयस्क जर्मन आबादी में यहूदी विरोध का जहर छिङका अपितु ऐसा प्रबंध करने की भी कोशिश की कि भावी पीढ़ी के डी.एन.ए. तक में यहूदी नफरत घुस जाए! इसी सोच का परिणाम थी सन 1938 में प्रकाशित एक कार्टून पुस्तक- ‘डेर गिफ्टपिल्ज’ अर्थात 'जहरीला कुकुरमुत्ता'. छोटे बच्चों के मन-मस्तिष्क में इस पुस्तक के जरिए नाजियों ने यहूदी-घृणा को पैवस्त करने का प्रयास किया.  

64-पृष्ठों की इस पुस्तक को वर्ष 1938 में अर्नेस्ट हाइमर ने लिखा. पुस्तक में न केवल नेशनल सोशलिस्ट प्रचार की शैली में लिखे गए पाठ शामिल हैंबल्कि यहूदी-विरोधी चित्र भी शामिल हैं. इस पुस्तक में व्याख्या सहित बहुत से यहूदी विरोधी कार्टून हैं. उदाहरण के तौर परपुस्तक के कवर-पेज पर तोते जैसी नाक और घनी दाढी वाले एक व्यक्ति को कुकुरमुत्ता नुमा टोप पहले दर्शाया गया है. लिखा हैजैसे अक्सर जहरीले कुकुरमुत्ते को खाने योग्य कुकुरमुत्ते से पहचानना मुश्किल होता हैवैसे ही एक यहूदी को धोखेबाज और अपराधी के रूप में पहचानना भी बहुत कठिन होता है.’  पुस्तक में एक डॉक्टर की कहानी है जो जर्मन युवतियों के साथ बदसलूकी करता है. एक यहूदी वकील और व्यापारी की कहानी है जो जर्मन के साथ धोखाधङी करते हैं.  एक कार्टून बतला रहा है कि यहूदी को उसकी छह नंबर की तरह दिखने वाली मुङी हुई नाक से पहचानें! साम्यवाद और यहूदी धर्म के बीच संबंध होने का भी पुस्तक दावा करती है. अंतिम अध्याय में लिखा है कि कोई भी ‘सभ्य यहूदी’ नहीं हो सकता और यहूदी प्रश्न का हल खोजे बिना मानवता का उद्धार नहीं हो सकता. एक जगह लिखा है-इन लोगों (यहूदियों) को देखो! जूओं से भरी दाढ़ी! गंदेउभरे हुए कान….

एक कार्टून में दर्शाया गया है कि एक यहूदी ने कैसे एक जर्मन को उसके खेत से बेदखल कर दिया और प्रतिक्रिया स्वरूप लिखा है –पापाएक दिन जब मेरा खुद का खेत होगातो कोई यहूदी मेरे घर में प्रवेश नहीं करेगा...

एक लघुकथा में एक औरत खेत से लौटते हुए ईसा मसीह की सलीब  के पास रुकती है और अपने बच्चों को समझाती है कि देखो जो यह सलीब पर लटका है वह यहूदियों का सबसे बङा दुश्मन था. उसने यहूदियों की धृष्टता और नीचता की पहचान कर ली थी. एक बार उसने यहूदियों को चर्च से चाबुक मार कर भगा दिया क्योंकि वहाँ वे अपने धन का लेनदेन कर रहे थे. यीशु ने यहूदियों से कहा कि वे सदा से इंसानों के हत्यारे रहे हैंवे शैतान के वंशज हैं और शैतानों की तरह ही एक के बाद दूसरा अपराध करते हुए जीवित रह सकते हैं.

क्योंकि यीशु ने दुनिया को सच्चाई बताईइसलिए यहूदियों ने उसे मार डाला. उन्होंने उसके हाथों और पैरों में कीलें ठोंक दीं और धीरे-धीरे उसका खून बहने दिया. इसी प्रकार से उन्होंने कई अन्य लोगों को भी मार डालाजिन्होंने यहूदियों के बारे में सच कहने का साहस किया…... बच्चोंइन बातों को हमेशा याद रखना. जब भी तुम कोई सलीब देखो तो “गोलगोथा” पर यहूदियों द्वारा की गई भयानक हत्या के बारे में सोचना. याद रखो कि यहूदी शैतान की संतान और मानव हत्यारे हैं.

गोलगोथायेरुशलम शहर के पास स्थित एक जगह का नाम हैमाना जाता है कि यीशु मसीह को उक्त स्थान पर सूली पर लटकाया गया था. यीशु एक यहूदी थे और तत्कालीन रोमन राजा ने उनको सूली की सजा सुनाई. उनके अनुयाई ईसाई कहलाएजर्मन नाजी भी ईसाई धर्म को मानते हैं. कालांतर में नाजियों ने हर यहूदी पर ईशा के हत्यारे का लेबल चिपका दिया.

हिटलर ने प्रथम विश्व युद्ध में जर्मनी की अपमानजनक हार के लिए यहूदी समर्थित तत्कालीन वामपंथी सरकार को जिम्मेवार ठहराया. 1 प्रतिशत से भी कम लोगों की विरोधी राजनैतिक विचारधाराहिटलर के लिए इस हद तक असहनीय हो गई थी कि धरती पर यहूदियों का समूल नाश उसके जीवन का ध्येय बन गया!

समाज की जङों में धर्मांधता या नस्लांधता का जहर डालकर कैसे नफ़रती फसलें तैयार की जाती हैंयह पुस्तक उसका एक बेहतरीन उदाहरण है. यहूदी विरोध की सोच जब जर्मन समाज के खून में समा गई तो हिटलर को अपने मंसूबों को अंजाम देने के लिए अधिक मेहनत नहीं करनी पङी. यहूदियों के खिलाफ कोई भी नफ़रती शगूफाउन्मादी भीङ को हिंसक और पाशविक बनाने के लिए पर्याप्त था. यही रणनीतियही कूटनीति विश्व भर में तानाशाही विचारधारा के लोग आज भी अपना रहे हैं. 

               अब देखिए यह भी कितनी बङी विडंबना है कि जिस होलोकॉस्ट में साठ लाख लोग मारे गए और जिसके लाखों साक्ष्य मौजूद थे, उसके बारे में नाजी विचारों के समर्थक और हिटलर से सहानुभूति रखने वाले लोगों ने कहना शुरू कर दिया कि इतिहास में होलोकॉस्ट जैसी कोई घटना नहीं हुई! यहाँ तक कि उन्होंने गैस चैंबरों के अस्तित्व से भी इनकार कर दिया और कहा कि जो कुछ भी मित्र देशों की सेनाओं ने 1945 में देखाउसे बहुत अधिक बढ़ा-चढ़ाकर दुनिया के सामने पेश किया गया है. 24 जुलाई, 1996 कोनेशनल सोशलिस्ट व्हाइट पीपल्स पार्टी के नेताहैरोल्ड कोविंगटन ने कहा,

"होलोकॉस्ट को हटा दो और तुम्हारे पास क्या बचता हैकीमती होलोकॉस्ट के बिनायहूदी क्या हैंबस अंतरराष्ट्रीय डाकुओं और हत्यारों का एक गंदा सा समूहजिन्होंने मानव इतिहास में सबसे बड़ासबसे कपटी धोखा दिया..."

होलोकॉस्ट में प्रताङित और मारे गए लोगों के साथ हुए अत्याचारों की दुनिया की कोई भी अदालत कभी भरपाई नहीं कर सकती. लेकिन अंतरराष्ट्रीय समुदाय से यह तो अपेक्षित था कि वे इन अत्याचारों को स्वीकार करें. इसके लिए भी संयुक्त राष्ट्र संघ में लंबी लङाई लङनी पङी.  13 जनवरी 2022 को संयुक्त राष्ट्र संघ ने जर्मन नाजियों के द्वारा ‘होलोकॉस्ट से इनकार’ पर एक प्रस्ताव पारित करते हुए पुष्ट किया कि,

होलोकॉस्ट के परिणामस्वरूप लगभग 60 लाख यहूदियों की हत्या हुईजिनमें से 15 लाख बच्चे थेजो यहूदी लोगों का एक तिहाई हिस्सा थे. इसके अतिरिक्त अन्य देशवासियोंअल्पसंख्यकों और अन्य लक्षित समूहों और व्यक्तियों के लाखों सदस्यों की भी हत्या हुई. होलोकॉस्ट हमेशा सभी लोगों को नफरतकट्टरतानस्लवाद और पूर्वाग्रह के खतरों के प्रति चेतावनी देता रहेगा.’

यू.एन.ओ. ने इस प्रस्ताव में नस्लवादनस्लीय भेदभावज़ेनोफोबिया और संबंधित असहिष्णुता पर नाजीवाद और फासीवाद जैसी विचारधाराओं को अपनाने से उत्पन्न घटनाओं और मानवीय उत्पीड़नअल्पसंख्यकों से संबंधित लोगों के इतिहासपड़ोसी देशों के साथ संबंधों इत्यादि को अच्छी तरह से प्रशिक्षित शिक्षकों के माध्यम से इतिहास की कक्षाओं में पदाने के महत्व पर जोर दिया. प्रस्ताव में सदस्य राज्यों से आग्रह किया गया कि वे ऐसे शैक्षिक कार्यक्रम विकसित करें जो भावी पीढ़ियों को होलोकॉस्ट के पाठों से अवगत कराएं ताकि भविष्य में नरसंहार की घटनाओं को रोकने में मदद मिल सके.

लेकिन आज विश्व भर में बढ़ती जा रही धार्मिक और नस्लीय कट्टरता से तो यही लगता है कि संयुक्त राष्ट्र के इस प्रस्ताव का सदस्य देशों ने न तो कोई गंभीर संज्ञान लिया है और न ही होलोकॉस्ट जैसी घटना से उन्होंने कोई सबक लिया है. 


© दयाराम वर्मा, जयपुर 25 जुलाई 2024 

 


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