संक्षिप्त समीक्षा 

सकारात्मक अर्थपूर्ण सूक्तियाँ
लेखक हीरो वाधवाणी


जीवन एक संघर्ष है। उतार-चढ़ाव आते हैं, सुख-दु:ख आते हैं, लाभ-हानि होती है। बहुधा प्रतिकूल परिस्थितियों में इंसान को निराशा, भय और अवसाद के भंवर घेर लेते हैं। आदरणीय वाधवानी जी की 168 पृष्ठों की ‘सकारात्मक अर्थपूर्ण सूक्तियाँ’ नामक पुस्तक में, जिसका प्रथम संस्करण ‘अयन प्रकाशन नई दिल्ली’ से हुआ है; जिन अमूल्य प्रेरणास्पद व सकारात्मक जीवनोपयोगी सूक्तियों का सारगर्भित संकलन किया है वे निश्चितत: पाठक के मन में उमड़ते संशयों, भ्रमों, चिंता व दुश्चिंताओं का शमन कर तपती धूप में शीतल बयार के झोंके की भांति एक अभिनव सोच और ऊर्जा प्रवाहित कर उसमें पुन: जीवन रूपी संघर्ष को सहज भाव से जीने की ओजस्वी चेतना फूँक देती हैं।

गागर में सागर ये सूक्तियाँ हमें बरबस महान संत कबीर और रहिम दास के दोहों की याद दिलाती है। हिन्दी साहित्य को ऐसी संग्रहणीय कृति प्रदान करने के लिए वाधवानी जी को साधुवाद और अनंत शुभकामनाएं।

समीक्षक-दयाराम वर्मा, भोपाल (एमपी) 29.09.2018




                  हीरो वाधवानी



अन्य पुस्तकें







समीक्षा: चौपाल की कहावतें :- लेखक डॉ. मोहन तिवारी ‘आनंद’
प्रकाशक लोक साहित्य प्रकाशन 17-ए, शिवकुटी, इलाहाबाद , प्रथम संस्कारण 2017



डॉ. मोहन तिवारी-भोपाल


प्राचीन काल में कहावतों और लोकोक्तियों का समाज में न केवल एक महत्वपूर्ण स्थान था वरन वे समय की कसौटी पर जाँचे परखे कटु सत्य के रूप में स्वीकार्य थी। यह वह दौर था जब विज्ञान किसी मौसम या बीमारी की भविष्यवाणी करने के लिए उपलब्ध नहीं था। प्राकृतिक आपदा हो, बारिश या अकाल हो, बीमारी हो या कोई शुभ कार्य के लिए प्रस्थान करना हो, इंसान में सदैव परिणाम के पूर्वानुमान की जिज्ञासा रही है। 

आदिकाल में इंसान की पशु-पक्षियों से अति निकटता रही। वह उनकी हर गतिविधि को देखता और परखता रहा। कभी कभी उनकी विशेष आवाज, कोलाहल या असामान्य व्यवहार, भविष्य में होने वाली किसी घटना से जुड़ जाते। जब मनुष्य ने इन संकेतों का बार-बार विश्लेषण किया और जो निष्कर्ष अधिकांशत: सच साबित हुए तो उनसे मनुष्य ने एक अवधारणा का निर्माण किया होगा। शैने-शैने इन अवधारणाओं ने लोक कहावतों का रूप ले लिया और वे पीढ़ी दर पीढ़ी विरासत के रूप में सौंपी जाती रही। गाय व घोड़े के शुभ शकुन पर कवि ने लिखा है, “दूध पिलाती शिशु को, दाएँ दिखवे गाय। अति शुभकारी शकुन है, पंडित रहे बताय॥” अर्थात यदि यात्रा पर जाते समय गाय दाईं ओर से शिशु को दूध पिलाती हुई दिखे तो शुभ शकुन है। “दाएँ पाँव से अश्व यदि, धरती खोदे जोय। शुभकारी है शकुन यह, यात्रा मंगल होय॥” अर्थात यदि बाईं ओर से घोड़े के हिनहिनाने की आवाज सुनाई ड़े तो शुभ माना जाता है। 

इसी प्रकार कौवे को लेकर लिखा है, “गृह-प्रवेश करते समय, कौआ बोले बैन। तो शुभ मानो मिलेगा, लाभ और सुख-चैन॥” अर्थात, यदि आप घर में प्रवेश कर रहे हैं और कौआ आकार बोले तो शुभ शकुन है। आपको सुख और शांति की प्राप्ति होगी। मेघों पर कवि ने लिखा है, “भाद्र बड़ी एकादशी, बदरा नहीं दिखायं। चार माह बरसात के, सूखे-सूखे जायं॥” अर्थात, यदि भद्रपद कृष्ण पाक्स की एकादशी को आसमान निर्मल रहे, अर्थात बादल न हों और चंद्रमा पर श्वेत घेरा दिखे तो चौमासा सूखा जाएगा। आज आधुनिक विज्ञान के आधार पर मनुष्य ने अनुभव जन्य कहावतों को भले ही बिसरा दिया हो लेकिन बहुतार्थ में वे आज भी प्रासांगिक है। यद्यपि शकुन, अपशुकन की धारणा को विद्वानों की एक विचारधारा, अवैज्ञानिक, अतार्किक और अंधविश्वास से जोड़कर देखती है तथापि समय की कसौटी पर बार-बार खरी उतरती बहुत सी ऐसी लोक कहावतें यह तो प्रमाणित करती ही हैं कि पशु-पक्षियों में कुछ ऐसी अज्ञात शक्तियाँ या विशेषताएँ होती हैं जो उन्हे आने वाले किसी खतरे या प्राकृतिक परिवर्तन का पूर्व-बोध करा देती है। 

डॉ. मोहन तिवारी रचित,‘चौपाल की कहावतें’ मुख्य रूप से ग्रामीण अंचल के कृषकों और कृषि मजदूरों से संकलित सैंकड़ों दुर्लभ कहावतों का एक अनूठा दस्तावेज़ है। यद्यपि इस प्रकार की कहावतें हर भाषा और क्षेत्र में कमोबेश विभिन्न स्वरूपों में उपलब्ध होंगी लेकिन डॉ. मोहन तिवारी ने ग्रामीण क्षेत्रों में भ्रमण कर पुरानी पीढ़ी के लोगों से न केवल इनका संकलन किया बल्कि उन्हे दोहा-छंद की सधी हुई उत्कृष्ट साहित्यिक विधा में ढाला। इस दृष्टि से यह एक पठनीय व संग्रहणीय कृति है और विलुप्त होती जा रही हमारी दुर्लभ कहावतों को चिरकाल तक जीवित रखने में सक्षम और सफल है। ऐसी अनुभवजन्य कृति के सृजन के लिए डॉ. मोहन तिवारी ‘आनंद’ को साधुवाद और अनंत शुभकामनाएं। 

समीक्षक दयाराम वर्मा, 02.10.2018 भोपाल

बाल कविता: रिमझिम बादल बरसा




रिमझिम-रिमझिम बादल बरसे
पेङ-पत्तियां, बाग-बगीचे, हुलसित-पुलकित हरखे
गौरैया फुदके, मेंढक टरके!

छत, आंगन धूप न आए
उमङ-घुमङ बादल छाए, सूरज बैठा मुँह छिपाए
गीले कपङे कहाँ सुखाएं!

गलियाँ डूबीं, डूबे खेत खलिहान
कीचङ में फंसी बैल गाङी, हो रही खींचतान
हुए लबालब ताल-तलैया, नोनू चलाए कागज की नैया!

छुपा रोमी बिस्तर में, घन-गर्जन से डरता
टप्पू का टप-टप टपरा टपकता, झंडू का झोंपङा झरता
मारे ठंड के, ‘मोती’ बेचारा कूँ-कूँ करता!


खिङकी- दरवाजे फूले न समाएं
जाम हुआ गेट संडास का, फंस गए दद्दू जोर लगाएं
अंदर बैठे चीखें चिल्लाएं!


© दयाराम वर्मा, जयपुर. 17 जनवरी, 2025




परिचय: डॉ. ज्योत्सना राजावत: छोटे पंख-ऊंची उड़ान



डॉ. ज्योत्सना राजावत


हाल ही में डॉ. ज्योत्सना राजावत रचित दो काव्य संग्रहों का पढ़ने का सुअवसर प्राप्त हुआ। प्रथम, ‘संदर्भ प्रकाशन’ भोपाल से प्रकाशित ‘अंतहीन पथ’ और दूसरा वर्ष 2016 में जे.एम.डी. नई दिल्ली से प्रकाशित ‘हाइकु छटा’। ‘अंतहीन पथ’ की रचनाओं में पिता, माँ, बेटी, भाई जैसे रिश्तों की प्रकृतिजन्य अंतरंगता सुवासित है तो वहीं किसान, अनाथ, शिक्षक और मजदूर के जीवित उद्घोष हैं। दूसरी ओर ‘ख़्वाहिश’, ‘स्त्री का अंतर्मन’, ‘शक’, ‘दिया’, ‘माँ आयेगी’ सरीखी दर्शन और चिंतन के धरातल पर खींची अर्थपूर्ण लकीरें भी हैं। समग्र रूप से यह संग्रह किसी एक विषय पर केन्द्रित न होकर कवयित्री की कल्पनाओं और संवेदनाओं के असीम विस्तार का समागम प्रतीत होता है।

संग्रह की कविताओं से उद्धृत कुछ पंक्तियाँ मात्र ही इनकी काव्यात्मक गहराई और पैनेपन को पुष्ट करने के लिए पर्याप्त हैं। यथा, संग्रह के आगाज में ‘आईना’, अपने स्वभाव के अनुरूप ‘मुखौटे’ को अनावृत करते हुए कहता है “देखता हूँ हर रोज सौन्दर्य तुम्हारा/ जो ढका रहता है अनेक परतों के आवरण में/तुम्हारी हकीकत और तुम्हारा बनावटीपन/ दोनों से भली भांति परिचित हूँ”। क्या कभी हँसी भी एक ठोस हिम खंड सी जड़ हो सकती है? हाँ, लेकिन कवयित्री को हँसी का यह रूप स्वीकार नहीं और वह कह उठती है, ‘ठोस हिम खंड सी हँसी को पिघल जाने दो/ बन जाने दो सहस्र धारा……… तुम्हारी हँसी अमृत रस है/ किसी की खुशी के लिए/ किसी की चाहत के लिए/ आज गम को बिखर जाने दो.....’ इसी प्रकार ‘अंतहीन पथ’ कविता की पंक्तियाँ.... ‘हृदय में चंचलता/ विचारों में व्याकुलता लिए/ ढूँढती हूँ पथ/ बंद आँखों से/ अज्ञानता की लाठी से/ अविवेकी बन/ झूठे ढकोसलों संग/ जीवन का यथार्थ जाने बिना/ प्रभु को पहचाने बिना/ अंतहीन पथ पर/ ढूँढने चली अपना पथ...’ रचनाकार के लेखन का दर्शनीय फ़लक है।

दूसरा काव्य संग्रह ‘हाइकु छटा’ भी उतना ही अनूठा और अद्वितीय है। साहित्य की ‘हाइकु’ शैली का प्रादुर्भाव जापान में हुआ। तीन पंक्तियों में लिखी जानी वाली कविताओं में बिम्ब समीपता, इस शैली का मूल लक्षण है। पुस्तक की भूमिका लिखते हुए डॉ. विद्यालंकार ने हाइकु की बारीकियों और विशेषताओं का अत्यंत सारगर्भित शब्दों में जो वर्णन किया है उससे सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि इस विधा में रचना करना किसी सामान्य रचनाकार के लिए संभव नहीं।

हाइकु में उपयुक्त शब्दों का चयन, उनका क्रमागत अनुप्रयोग और अत्यंत सूक्ष्म कलेवर के साथ कवि हृदय की बात पाठक के अंत: मन तक सफलता पूर्वक पहुँचाने को डॉ. विद्यालंकार ने एक योगी की साधना से भी उच्चतर महत्व दिया है। यह अपने आप में बड़ी बात है। आलोच्य संग्रह में 62 शीर्षक और 10 हाइकु छटाएं हैं। संग्रह की कुछ रचनाएँ;

भूख: ‘कंगाली भूख/ निगल जाती/ बासी सूखी रोटियाँ; व्याकुल भूख/ तृप्ति पर लुटाती/ ढेरों आशीष; छोड़ के चिंता/ फिर सोती जी भर/ चैन की नींद’

हमारे नेता: ‘हमारे नेता/ स्वार्थी सत्ता लोलुप/मौका परस्त; खुद ही लूटें/ महमूद गजनवी/ बन कर देश; हरण करे/देश की अस्मिता को/ दुर्योधन सा; पूजें देवी सा/ भ्रष्टाचार का दैत्य/ चारों पहर; देश उत्थान/ सत्ता के खेल पर/ बना मोहरा’; हमारे नेता/ अपराधी नदियों/ के सिंधु बने’

बने कविता: ‘अनवरत/ तरंगित हो भाव/ बने कविता; पानी की बूंदें/ टपके आसमान से/ बने कविता; उड़े तितली/ फड़फड़ाये-झूमे/ बने कविता; बढ़े बेचैनी/ हो उथल-पुथल/ बने कविता; आयी आसमान/ से भोर की किरण/ बने कविता’

गांधी का पाठ; ‘सहमा सत्य/ घायल मानवता/ गाँधी को ढूँढे; गाँधी के घाट/ पर रोती अहिंसा/ ढूँढे वजूद; गाँधी का पाठ/ भूल गया इंसान/ करे दिखावा; अँग्रेजी भूत/ चढ़ा इंसान पर/ भूला वतन’

उक्त कविताओं के अवलोकन मात्र से डॉ. विद्यालंकार द्वारा रचनाकार के लिए की गई टिप्पणी पर किसी भी प्रकार की अतिशयोक्ति की संभावना समाप्त हो जाती है। निःसंदेह, प्रचलित भाषा और सरल शब्दावली के सहारे, रोचक काव्यात्मक शैली में गूँथी रचनाओं से कवयित्री ने उक्त दोनों ही काव्य संग्रहों में अपने मर्मस्पर्शी, संवेदनशील और बोधगम्य लेखन की परिपक्वता को सिद्ध किया है।

इन सबके इतर हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में विभिन्न पत्रिकाओं का प्रतिनिधि संपादन, शोध पत्र, समीक्षाएं, आलेख आदि का सतत लेखन, राजकीय सेवा और घर गृहस्थी की समानान्तर जिम्मेवारी का निर्वहन, निश्चित रूप से साहित्य के प्रति आपके अटूट लगाव, समर्पण और अत्यधिक मानसिक व शारीरिक ऊर्जा का प्रतिफल है।

आप साहित्य अकादमी भोपाल की पाठक मंच इकाई भोपाल की सक्रिय सदस्य भी हैं और इन्हें इनकी विशिष्ट साहित्यिक उपलब्धियों के मद्देनजर समय-समय पर अनेकों साहित्यिक सम्मान यथा ‘कालिदास एकेडमी एवं भवभूति समिति सम्मान’, ‘अखिल भारतीय साहित्य परिषद भिंड इकाई सम्मान’, ‘डॉ पी दत्त बर्थवाल समिति सम्मान’, ‘राष्ट्रीय कवि संगम एवं राष्ट्रीय महिला मंच ग्वालियर सम्मान’, ‘संस्कार भारती आगरा रंगोत्सव सम्मान’, ‘साहित्य सृजन एवं हिन्दी सेवी सम्मान लोकमंगल पत्रिका’, ‘नारी शक्ति सम्मान 2016 बेटी मंच ग्वालियर’, ‘सोशल रिसर्च फाउंडेशन की ओर से सम्मान’ आदि से नवाजा गया है। हिन्दी साहित्य में आप निरंतर इसी प्रकार अपना योगदान देती रहें। अनंत शुभकामनाएँ ।

समीक्षक- दयाराम वर्मा, ई- 5, कम्फर्ट गार्डन, चूना भट्टी, कोलार रोड, भोपाल- 462016 (मध्यप्रदेश) 23 अप्रैल, 2019

publication-साहित्य एक्सप्रेस ग्वालियर (मई, 2019)







पाँच लघु कथाएं

(1) अविश्वास

आज साँयकाल एक प्रदर्शन है। सुरति और उसकी बस्ती के मर्द व औरतों को कभी कभार किसी प्रदर्शन में नारेबाजी के लिए रोशन की ओर से काम मिल जाता था। दो चार घंटे की नारे बाजी और मेहनताना भी ठीक ठाक। अपराह्न चार बजते ही बस्ती की झुमकी उसे पुकारती आ धमकी। सुरति ने सोई हुई अपनी दो वर्षीय बच्ची के भोले भाले मुखड़े को प्यार से निहारा और फिर उसे बाहर खटिया पर बैठे बद्री दद्दा की गोद में डाल दिया। प्राय: ऐसा ही होता था। सुरति का पति मजदूरी करने अलसुबह निकल जाता था। घर में कोई और नहीं था। पड़ौस के बद्री दद्दा, गठिया की वजह से कोई काम धंधा नहीं कर पाते थे और दिनभर घर से बाहर खटिया पर बैठे रहते। सुरति को जब कहीं बाहर जाना होता तो अपनी लाड़ली को दद्दा के पास छोड़ जाती। सच में उनका बड़ा सहारा था उसे।

“चल-चल जल्दी कर।” झुमकी ने सुरति की बाँह खेंचते हुए कहा।

“अच्छा दद्दा ख्याल रखना बिटिया का।”

और फिर दोनों तेज कदम उठाते हुए मुख्य सड़क पर बस्ती की कुछ और औरतों के झुंड में शामिल हो गई। सिविल लाईंस के करीब सड़क पर लोगों की संख्या बढ़ने लगी थी और चौराहे तक पहुँचते-पहुँचते सड़क के बाईं और लोगों का विशाल हुजूम नजर आने लगा। बस्ती की औरतों के पास पुरानी जींस और काली टी-शर्ट पहने दादा किस्म का एक अधेड़ आया और उन सबको नारे लिखी तख्तियाँ पकड़ा गया। थोड़ी देर बाद भीड़ ने बड़े जूलुस की शक्ल ले ली। आगे चल रहे किसी व्यक्ति ने ज़ोर से नारा लगाया; उसके पीछे-पीछे भीड़ भी नारे लगाने लगी।

“खुशबू के हत्यारों को”

“फांसी दो....फांसी दो”

“मुख्यमंत्री होश में आओ”

“होश में आओ....... होश में आओ”

“आजाद भेड़ियों को गिरफ्तार करो”

“गिरफ्तार करो.....गिरफ्तार करो”

सहसा, कौतूहल वश सुरति पूछ बैठी। “झुमकी क्या हुआ?..... आज ये नारे किसलिए लग रहे हैं”?

“अरे, एक बच्ची के साथ कई लोगों ने रेप किया और फिर जलाकर मार डाला....अभी तक कोई गिरफ्तार नहीं हुआ।”

“हे भगवान.......”! सुरति की रूह कांप उठी। “बच्ची की उम्र क्या थी”?

“यही कोई सात आठ साल।”

“क्या”? क्रोध और भय के मिलेजुले भाव तेजी से सुरति के चेहरे को मलीन कर गए।

“दरिंदे थे दरिंदे।”

“अब तो दूधपीती बच्चियाँ भी सुरक्षित नहीं।”

जुलूस आगे बढ़ रहा था लेकिन सुरति के पैर लड़खड़ाने लगे। उसका सर चकराने लगा। हाथ की तख्ती गिर पड़ी। भीड़ से अलग हटकर उसने सड़क के किनारे, एक खंबे का सहारा लिया। झुमकी ने पीछे मुड़कर उसे पुकारा परंतु सुरति ने जैसे कुछ सुना ही नहीं। रोशन दादा गुर्राते हुए उसके पास से निकला। “चलो चलो ... भीड़ में, और ज़ोर से नारे लगाना।”

लेकिन सुरति की आँखों के सामने बद्री की गोद में लेटी अपनी नन्ही जान का मासूम चेहरा लगातार घूम रहा था और साथ ही घूम रहा था बद्री दद्दा का एक अलग ही रूप! उसकी आँखें आज हवस में डूबी थी। नापाक इरादे लिए उसके हाथ बच्ची को जकड़ रहे थे और बच्ची आजाद होने के लिए छटपटा रही थी।

“नहीं... कमीने.. छूना नहीं मेरी बच्ची को।” सुरति की चीख दूर तक गूंज उठी। नारे लगाती भीड़ सहसा ठिठक गई। और बदहवास सुरति, उल्टे कदम, बस्ती की और दौड़ती जा रही थी।

Publication-लघुकथा टाइम्स भोपाल



(2) नशेड़ी कहीं का

जनवरी माह की एक अत्यंत सर्द सुबह। शहर के मुख्य सरकारी अस्पताल के सर्जरी विभाग के प्रभारी, डॉक्टर भार्गव की चमचमाती सफ़ेद ऑडी, कॉलोनी से बाहर निकली ही थी कि यकायक तेज ब्रेक लगने से उनका सर आगे की सीट से टकरा गया। माथे पर हल्की चोट आ गई और खून बह निकला।

“अरे क्या कर रहे हो? संभल के चलाओ....” उन्होनें ड्राईवर को डाँटा और रूमाल से चोट को दबाया।

“सॉरी सर। .... वह नशेड़ी अचानक गाड़ी के आगे आ गया था।” ड्राईवर ने दाहिनी ओर इशारा करते हुए सफाई दी।

डॉक्टर भार्गव ने बाहर नजर दौड़ाई। नंगे पैर, बिखरे बाल और उलझी हुई दाढ़ी वाला एक भिखारी नुमा कृशकाय सख्स, मैले-कुचले लिबास में लिपटा किसी तरह सड़क किनारे, दोनों हाथ फैलाये किसी प्रकार जमीन पर अपना संतुलन बनाने की कोशिश कर रहा था। सहसा डॉक्टर भार्गव के मन में उस इंसान के प्रति करुणा के भाव उमड़ पड़े। “ओह कितनी ठंड है आज! यह बेचारा कैसे रात बिताता होगा? कैसे पेट भरता होगा...?” लेकिन वे कुछ करने का सोचते, उससे पूर्व ही गाड़ी मुख्य सड़क पर आ चुकी थी। चौथा गियर बदलते हुए ड्राईवर ने अपना दर्शन झाड़ा।

“सर, ऐसे लोग बेचारे नहीं होते। ये नशेड़ी लोग हैं। काम धंधा कुछ करना नहीं चाहते। भीख मांग लेते हैं और पड़े रहते हैं नशा करके।”

“लेकिन इसकी हालत से लगता नहीं कि यह कोई काम करने लायक है भी।”

“सर, ऐसा स्वांग नहीं रचेगा तो भीख कैसे मिलेगी ....”?

अगले दिन सुबह की सैर करते समय प्रशासनिक अधिकारी आर.पी. नागर और प्रोफेसर दिलीप कलमकर ने जब डॉक्टर भार्गव से माथे की चोट के बारे में पूछा तो प्रसंगवश उन्होनें कल की घटना उनसे साझा की। श्री नागर और श्री कलमकर का भी मानना था कि ऐसे सख्स शराबी व चोर-उच्चके होते हैं और इन्हे भीख नहीं देनी चाहिए। अखबारों में तो ऐसे लोगों की ठगी और चोरी की खबरें अक्सर आती रहती है। ‘ये लोग कोढ़ हैं सोसाइटी पर, परजीवी कहीं के! इनको सहायता देकर तो इन्हे और बिगाड़ना है।’ उक्त दलीलों से, डॉक्टर भार्गव के मन में उपजी क्षणिक संवेदना मुरझाने लगी। कुछ दिन और बीत गए। वह भिखारी नुमा सख्स कभी कभार उनकी कॉलोनी के बाहर किसी गुमटी के पास दुबका नजर आ जाता। उसके फैले हाथ और डरावनी आँखें डॉक्टर भार्गव की गाड़ी का पीछा करती लेकिन वे हिकारत से मुंह फेर लेते, ‘नशेड़ी कहीं का’!

एक दिन अस्पताल में पुलिस वाले एक लावारिस लाश को पोस्टमॉर्टम के लिए लेकर आए। संयोगवश डॉक्टर भार्गव उस समय ड्यूटी पर थे। लाश को देखते ही चौंक पड़े- “अरे ये तो वही नशेड़ी है।” जूनियर डॉक्टर ने पोस्टमॉर्टम की औपचारिकता पूरी की और रिपोर्ट उनके सन्मुख रख दी। डॉक्टर भार्गव के चेहरे से अनुभव और वरिष्ठता की गंभीरता टपक रही थी। उन्होनें बिना रिपोर्ट पढे ही जूनियर डॉक्टर की आँखों में झाँकते हुए कहा।

“सिरोयसिस, अत्यधिक अल्कोहल से लिवर खत्म हो गए, क्यों? यही है ना?”

‘नो सर! उसके शरीर में कम से कम दो सप्ताह से अन्न का कोई दाना नहीं गया था। संभवत: मानसिक रूप से भी ठीक नहीं था। डेथ ड्यू टू स्टारवेशन।”

Publication-लघुकथा टाइम्स भोपाल (मार्च, 2020), सत्य की मशाल भोपाल (मार्च, 2020)

(3) संकल्प

“महात्मा गांधी” चौराहे के पास रिक्शा पर सुस्ताते भीमा ने एक बार फिर, तपती सड़क पर दूर तक दृष्टि दौड़ाई। लेकिन कोई पैदल राहगीर नजर नहीं आया। उसके चेहरे पर चिंता की लकीरें, चढ़ते सूरज की धूप के साथ साथ और गहराने लगी। कोई सवारी मिले तो कुछ खाने का जुगाड़ बने। भोजन के ख्याल मात्र से ही भीमा के पेट की ऐंठन तेज हो उठी। ‘हे भोले नाथ आज जो बौनी होगी उसमें से पाँच रूपये का प्रसाद तेरे चरणों में चढ़ाऊँगा’। लंबे इंतजार के बाद भीमा ने आँखें बंद कर मन ही मन संकल्प लिया।

सेठ कश्मीरी लाल ने “महात्मा गांधी” चौराहे पर पहुँचकर अपने ललाट पर उभरी पसीने की बूंदों को पौंछा और फिर इधर-उधर नजरें दौड़ाई। सवारी देख, भीमा ने तुरंत अपने अंगोछे से सीट साफ की और सेठ की ओर याचक नजरों से देखा। दोनों की आंखे चार हुई। कचहरी तक का किराया 20 रूपये था। कश्मीरी लाल ने तुरंत हिसाब लगाया। ये रिक्शा वाले तो सवारी को लूटते हैं, इनको अधिक किराया देने से क्या लाभ? पाँच रूपये का वह भोले को प्रसाद चढ़ाएगा, भगवान का आशीर्वाद रहा तो आज फैसला हो जाएगा. और वह 15 रूपये पर अड़ा रहा। ‘चलना है तो चलो, ये सामने ही तो है कचहरी’ । ‘साहब चढ़ाई है और बिल्कुल वाजिब किराया है’, भीमा गिड़गिड़ाया। लेकिन सेठ 15 रूपये से ऊपर एक नया पैसा देने को तैयार न हुआ।

अंतत: मन मसोसकर भीमा ने हाँ कर दी। ‘तनिक मंदिर पर रोक कर चलना भाई’। रास्ते में सेठ जी ने असीम श्रद्धाभाव से शिव जी के चरणों में पाँच रूपये का प्रसाद अर्पित किया। भगवान की आँखों में दया का सागर लहरा रहा था।

लौटते समय भीमा ने मंदिर के पास रिक्शा रोका और श्रद्दानवत उनके चरणों में पाँच रूपये का प्रसाद अर्पित किया। ‘हे भोले शुक्र है तेरा जो सवारी भेज दी।’ भगवान की आँखों में अब भी दया का सागर लहरा रहा था।

Publication-सत्य की मशाल भोपाल (सितंबर, 2019)

(4) साफ़-सफ़ाई अभियान

वह एक पत्रकार था, स्वतंत्र पत्रकार. सच को जानने, उजागर करने की जैसे हमेशा उस पर धुन सवार रहती. हाल ही में उसे एक बङे सनसनीख़ेज मामले की भनक लगी. मुद्दा सीधे-सीधे, मौजूदा सरकार के एक बहुत बङे नेता की अस्मिता से जुङा था एतएव मुख्य धारा के मीडिया और अख़बारों ने एक छोटी सी गोल-मोल ख़बर निकाल कर इतिश्री कर ली.

लेकिन वह ठहरा एक जुनूनी पत्रकार, कुछ विशेष कर गुज़रने की इच्छा और पत्रकारिता धर्म, उसे उद्वेलित करने लगे. अपनी प्रारंभिक जाँच में उसने पाया कि सच, अनगिनत छद्म आवरणों के नीचे कहीं दफ़न है. पत्रकार ने सच को अनावृत करने की ठान ली. रास्ता ख़तरों से भरा था, अत: उसने वेश बदला और संभावित जगहों को खोदना शुरु किया. अनेक असफल प्रयासों के पश्चात, एक स्थान पर उसे सच की सुगबुगाहट सुनाई पङी. वह दोगुने उत्साह से फावङा चलाने लगा. झूठ और फ़रेब की कठोर परतें टूटने लगीं. पत्रकार ने अपनी पूरी उर्जा झौंक दी और अंतत: गहराई में दफ़न सच की झलक उसे मिली ही गई.

हाथ बढाकर वह सच को छू लेने वाला ही था कि अचानक भारी भरकम बुलडोज़र की आवाज से चौंक पङा. इससे पहले कि वह सच को लेकर गड्ढे से निकल पाता, बाहर एकत्र मलबे का ढेर भरभराकर अंदर गिरा और दोनों दफ़न हो गए. अगले दिन अख़बारों में बङे-बङे शीर्षकों में ख़बर छपी, ‘साफ़-सफ़ाई अभियान के अंतर्गत प्रशासन ने शहर के खतरनाक गड्ढों को पाटा.’

दयाराम वर्मा, जयपुर 20.10.2022

(5) डॉ. दिलीप महालनोबिस

“हिटलर को तो सारी दुनिया जानती है. लगभग कितने लोग उसके नफ़रती नरसंहार के शिकार हुए होंगे?”

“मेरे ख्याल से मानवीय इतिहास में हिटलर से अधिक क्रूर इंसान अभी तक पैदा नहीं हुआ. मात्र छ: वर्ष में उसने 60 लाख यहुदियों को मौत के घाट उतार दिया. इनमें 15 लाख तो केवल बच्चे थे.”

“बिल्कुल सही. आपने निठारी कांड वालों का नाम भी सुना होगा?”

“हाँ, हाँ, क्यों नहीं. 2005-06 के दौरान दर्जनों बच्चियों और लङकियों के बलात्कार और हत्या के दोषी, सुरेंदर कोली और मोहिंदर सिंह पंढेर! इन नरपिशाचों को कौन नहीं जानता, दोनों को फ़ाँसी हुई थी.”

“और 9/11 के बारे में भी आपको जानकारी होगी?”

“9/11! हाँ, वो ट्विन-टॉवर वाला हमला! नवंबर, 2011 में अमेरिका के न्यूयॉर्क और वाशिंगटन शहरों में अल-कायदा आतंकवादियों ने अपहृत विमानों से आत्मघाती हमले किए थे. इनमें करीब तीन हज़ार लोग मारे गए थे. इसके पीछे ओसामा बिन लादेन का हाथ माना जाता है.”

“बहुत ख़ूब! और मुम्बई में वो ताज होटल पर आतंकी हमला............ ”

“ओह, कसाब, उस हराम... को फ़ाँसी हुई. वर्ष 2008 में मुम्बई के कई रेलवे स्टेशनों, अस्पतालों, कैफ़ेटेरिया और होटल आदि को निशाना बनाया. इसमें भी करीब 150-200 लोग मारे गए थे.”

“हूँ. और 1984 के दिल्ली दंगों, 2002 के गोधरा दंगो के बारे में आपकी क्या राय है? कितने लोग मारे गए होंगे ऐसे दंगों में?”

“भारतीय इतिहास की बेहद दुखद घटनाओं में से हैं ये. एक अनुमान के अनुसार 1984 के सिख विरोधी दंगों में दिल्ली और अन्य शहरों में तीन हज़ार से अधिक लोग मारे गए थे. गुजरात के गोधरा में भी दो से तीन हज़ार लोग मारे गए होंगे.”

“अच्छा! आपका सामान्य ज्ञान बहुत बढ़िया है. बस एक अंतिम सवाल, क्या आपने डॉ. दिलीप महालनोबिस का नाम सुना है?”

“डॉ. दिलीप महालनोबिस! ......नहीं. माफ़ कीजिए. यह नाम तो मैंने पहली बार सुना है. कौन था यह डॉक्टर? क्या किसी नक्सली आंदोलन से जुङा था?”

“जी नहीं. 16 अक्टूबर, 2022 को 88 वर्ष की उम्र में उनका निधन हो गया है. डायरिया के मरीजों को डीहाइड्रेशन से होने वाली मौत से बचाने वाले ओ.आर.एस. (ओरल रीहाइड्रेशन सोल्युशन) घोल के वे जनक थे. 1971 में बांग्लादेश युद्ध के पश्चात पश्चिम बंगाल के विभिन्न शरणार्थी शिविरों में व्यापक स्तर पर हैजा फैल गया था. उस समय डॉ. महालनोबिस ने अपने कर्मचारियों के साथ वहाँ जाकर ओ.आर.एस. का इस्तेमाल किया और लाखों लोगों की जान बचाई. विश्व स्वास्थ्य संघटन के अनुसार ओ.आर.एस. से दुनिया भर में 6 करोङ से ज़्यादा जानें बचाई गई हैं. इनमें अधिकांश बच्चे हैं. भविष्य में कितनी और जिंदगियाँ इस घोल से बचाई जाती रहेंगी, अनुमान लगाना संभव नहीं है. और जानते हो, उन्होंने इस घोल का कोई पेटेंट नहीं करवाया था.”

“.........................!!!”

(c) दयाराम वर्मा, जयपुर (राज.)
नज्म: मुसलसल गुफ्तगू




याद है उस रोज
जब लहरें थी बेतकल्लुफ[1] और
दरिया था ख़ुमार[2] पर
ढलती रही घरौंदों में, साहिल की रेत रात भर

जुबान खुली भी न थी
लब थे खामोश
होती रही गुफ्तगू मुसलसल[3]
कभी इस बात पर, कभी उस बात पर

देता रहा तसल्ली सितमगर
तमस में, रंज-ओ-अलम[4] में, फ़िराक़[5] में
शाहकार[6] एक नायाब[7]
हुआ नुमायाँ, जज़्बात ही जज़्बात में

फासले दरम्यान लाख सही
कल तय हो भी जाएंगे
तेरी तमन्ना, तेरा तसव्वुर[8], तेरा इंतिज़ार
धङकता है दिल में, इफ़रात[9] में

कोहरे की चद्दर में लिपटी
हर शय ख़ुद-रफ़्ता[10] है
लेकिन मेरी जिद्द भी है की है, ग़ैर-मुतहर्रिक[11]
पिघलेगी एक रोज बर्फ, इसी हयात[12] में



© दयाराम वर्मा, जयपुर 19.01.2025


[1] बेतकल्लुफ-निस्संकोच
[2] ख़ुमार-मदहोशी
[3] मुसलसल-लगातार
[4] रंज-ओ-अलम-दुख तकलीफ में
[5] फ़िराक़-बिछोह, जुदाई
[6] शाहकार- कला संबंधी कोई महान कृति
[7] नायाब- उत्कृष्ट, जो दुर्लभ हो
[8] तसव्वुर-ख्याल
[9] इफ़रात- जरूरत से अधिक
[10] खुद-रफ्ता- संज्ञाहीन, निश्चेष्ट
[11] ग़ैर-मुतहर्रिक-अचल
[12] हयात-जीवन


नज़्म: इत्तिफ़ाक़




गर तुमसे मुलाकात न होती, आलम-ए-दीवानगी पास न होती
रहा साथ तो ख्वाबों में, होश में वस्ल[1] फ़रेबी, तेरी आस न होती


कसमें जीने की-मरने की, ‘जुनूनी[2] गुफ़्तगू[3]’, वो बेबाक न होती
हो भी जाते दफ़न अफ़साने सौ, सितमगर मेरी जाँ आप न होती


धुआँ-धुआँ है सोज़-ए-दिल[4], उम्मीद-ए-विसाल[5] पाक न होती
कर लेते तय सफर तन्हा, जो हुई मुलाक़ात इत्तिफ़ाक़[6] ही होती


हवाएँ थीं आवारा, खुशबू-ए-नग़्मा-ए-वफ़ा कम-ज़ात नहीं होती
चलते चले जाना बेसाख़्ता दीप, इन राहों की कभी रात नहीं होती


@ दयाराम वर्मा, जयपुर (राज.) 23 जनवरी, 2025


[1] वस्ल-मेल मिलाप, मिलन
[2] जुनूनी- दीवानगी भरा
[3] गुफ़्तगू- बातचीत
[4] सोज़-ए-दिल- ह्रदय में जलती प्रेम की अग्नि
[5] उम्मीद-ए-विसाल—मिलन की आस
[6] इत्तिफ़ाक़—अचानक, संयोग




कविता: चल उठा बंदूक




पहले खलता था, अब आदत में शुमार है
ढ़लती शाम के साथ
थके कदमों बैरक में लौटना
और अलाव की धुँधली रोशनी में
घूरते रहना, कठोर-खुरदरे चेहरे
सपाट, मदहोश, हंसमुख तो कुछ भावुक
रफ़्ता-रफ़्ता पिघलते चेहरे!

अंधेरे की चादर
सीमा पर फैली पहाड़ियों को
बहुत तेजी से ढकती चली जाती है
स्याह-सर्द रातों में ख़्वाब तक सो जाते हैं
तब भी चार खुली आँखें
सुदूर सूने आसमान में कुछ टटोलती हैं!

गलवान घाटी की इस चोटी पर एक बंकर में
हर आहट से चौंकता मैं और मीलों दूर
बूढ़ी बावल वाले घर के आँगन में
करवटें बदलती तुम!

कल सोचा था तुम्हें देखूँगा मैं चाँद में
मेरी तरह जिसे
हर रोज तुम भी तो निहारती हो, मगर!
सारी रात घटाएँ छाई रहीं
और आज हिमपात शुरू हो गया है!

बर्फीली चोटियों पर सुन्न हो जाता है शरीर
और जम सा जाता है रक्त
मगर अरमान सुलगते रहते हैं!

आहिस्ता-आहिस्ता
कानों में बजती है पायल की झंकार
बंद पलकों के पीछे
गर्मी में तुम्हारा तमतमाया चेहरा
और गोबर सने हाथ, अक्सर उभर आते हैं!

यहाँ मोबाइल नेटवर्क नहीं है
तुम्हारी अंतिम चैट के बिखरे से जज़्बातों को
समेट कर मैं पढ़ता हूँ

और तब मेरे सिमटे से जज़्बात
बिखरते चले जाते हैं!

दिन-सप्ताह और महीने
बहुत से बीत गए हैं
जबकि हर पल साल की तरह बीता है!

अधूरे से स्वप्न की, अधूरी मुलाकात
गोलियों की तङ-तङ से
भंग हो जाती है!

र बावळे जादा ना सोच्या करदे
बंद कर मोबाइल, सिराणं तळ धरदे
चल उठा बंदूक, कर दुश्मन का नाश
बहुत हुई भावुकता, छोङ ये सारे मोह पाश!
जय हिंद!


© दयाराम वर्मा, जयपुर (राज.) 19.01.2025

कविता: शीशमहल बनाम राजमहल

शीशमहल सजा सबसे न्यारा
वियतनामी मारबल से दमके आंगन प्यारा-प्यारा
रेशमी परदे ढाते कमाल
काष्ठ-कला, असबाब की है अद्भुत, बेमिसाल
मचल उठा ‘राजमहल’ का रौनक लाल!

लूंगा लुत्फ स्पा का, पहन लंगोट
पेलूंगा डंड जिम में, ट्रेड-मील पर दौङ लगाऊँगा
उठाकर डंबल-संबल
मैं भी सिक्स-पैक बनाऊँगा
छपती सुर्खियां शीशमहल की, दिल्ली-पटना-भोपाल
तङप उठा रौनक लाल!

दस रुपल्ली वाला टांगकर पेन
प्रेस कांफ्रेंस में, फोटो स्टाइलिश खिंचवाऊँगा
तरणताल में तैरूँगा, तन-बदन, मल-मल नहाऊँगा
डूब गया रौनक सपनों में शाम-ओ-सहर
लगती आँख बस पहर दो पहर!

डालूँगा पैरों में स्लीपर सस्ती
बन आम आदमी, वोटर रिझाऊँगा
पहनूँगा ‘अतिरिक्त बङी’ चैक वाली कमीज
हाथों में झाङू, गुलूबंद गले में अटकाऊँगा
शीशमहल जब मैं जाऊँगा!

सुना है वहाँ, है एक खूबसूरत मिनी बार
सुरा पान, टकराते जाम, आह! करना होगा दीदार
मन डोल गया, रौनक लाल सच बोल गया
शीशमहल अवश्य जाऊँगा
चैन तब कहीं पाऊँगा!

राजमहल जाऊँगा
वरना खाना नहीं खाऊँगा
कभी टोयोटा, कभी मर्सिडीज, कभी लैंड-क्रूजर
एक से बढ़कर एक, गाङी दौड़ाऊँगा
मचल उठा शीशमहल का नौनिहाल
नटखट, जिद्दी शिशु पाल!

नहीं रखना बटुआ-सटुआ
टांगूँगा कंधे पर मैं तो, झोला झालरदार
पहनूँगा नित जूते नए, बदलूँगा टाई-सूट कई बार
शान-ओ-शौकत, दुनिया को दिखलाऊँगा
राजमहल जरूर जाऊँगा!

सुनो माताओं, सुनो बहनों
देखो कालीन बिछा राज दरबार
लगे हैं जिसमें बाईस कैरेट सोने के तार
झूमर हीरे जङे, बङी दूर से मारे हैं चमकार
देखेंगे जाकर हम भी ये शाहकार!

स्वांग फकीरी, असल अमीरी
जुमलों की भरमार
हो सवार ‘एयर-इंडिया-वन’ में
उङ जाऊँगा आसमान, सात समंदर पार
करूंगा सैर देश, दुनिया-जहान की
जपेंगे माला ट्रम्प, पुतिन, जिनपिंग मेरे नाम की!

ईडी, सीबीआई, इनकम-टैक्स, केंचुआ
रिमोट सभी का हथियाऊँगा
रोब-दाब, धाक-धौंस, प्रतिपक्ष पर खूब जमाऊँगा
गर राजमहल नहीं जा पाऊँगा
बन जाऊँगा आपदा, कर दूंगा बेहाल 
सनक गया चिरंजीवी शिशु पाल!

© दयाराम वर्मा, जयपुर. 14 जनवरी, 2025


कविता: इंसानी भूख




विस्तारवाद की भूख
सत्ता पर चिर-आधिपत्य की भूख
संसाधनों पर स्वामित्व की भूख
व्यापार और बाजार पर एकाधिकार की भूख
जिस्मानी भूख से इतर
तमाम तरह की ‘इंसानी’ भूख!

निगल चुकी है एक-एक कर
इंसानियत के अंग-प्रत्यंग
संवेदना, संतोष, उदारता, प्रेम, करुणा आदि-आदि
इसका हृदय न धङकता है, न पिघलता है
हृदयगति थम जो चुकी है
निस्तेज पुतलियों में निःशेष है दृष्टि
आओ पढ़ते हैं मर्सिया
करते हैं अंतिम अरदास, कहते हैं ‘रेस्ट-इन-पीस’
और सजाते हैं अर्थी!

बारूदी शहरों में
चतुर्दिक धधकती चिताओं पर लेटी है इंसानियत
संभव है
इसकी अंत्येष्टि के पश्चात
हो सकेंगे सभी द्वंद्व समाप्त
वर्चस्व, आन-बान-शान और अभिमान की
सभी लङाइयाँ तोङ देंगी दम
और खत्म हो जाएगी ‘इंसानी’ भूख!

मुखाग्नि देने को आतुर
बैठे हैं कतारबद्ध, युग-प्रवर्तक, महामानव
रूस, चीन, अमेरिका, इजराइल, ईरान, अफगानिस्तान, म्यांमार…….
फेहरिस्त लंबी है!


© दयाराम वर्मा, जयपुर (राज.) 09 जनवरी, 2025


कविता: भीम भगवान




अल्लाह नहीं था, गॉड नहीं था
न था भगवान, वह कोई अवतार नहीं था
करोङों दिलों में बसने वाला, भीम मसीहा मानवता का
था शाश्वत, महज किताबी किरदार नहीं था!


जो भी है यहीं है, कल्पित है परलोक
मिटे जब भेदभाव-शोषण, बने स्वर्ग इहलोक
कहे कानून भीम का, सब जन बराबर के हकदार
राजा-रंक, स्वर्ण-अवर्ण, एक समान मत-मताधिकार!


पास नहीं था उसके कोई दिव्यास्त्र
न था चक्र सुदर्शन सा, न गदा न ब्रह्मास्त्र
नहीं सुझाई उसने पूजा-पाठ, दान-पुन की युक्ति
नमाज-प्रार्थना-अर्चना दिलवाते पाप-कर्म से मुक्ति!


भीम बाण चला, हुआ नामुमकिन, मुमकिन
भस्म हुईं तालाब-कुँओं की बाङें तमाम कुलीन
हुए तृप्त वंचित-शंकित, विवश थे पीने को नीर मलीन
जल-जमीन-जंगल, अधिकार हमारा, अभिभूत सर्वहारा!


नहीं निकाली जटाओं से गंगा
न भभूत से, शरीर उसने कभी था रंगा
न बांटे जन्म-जन्मांतर के आभासी स्वर्ग प्रवेश-पत्र
नहीं लगाई प्रस्तर प्रतिमा अहिल्या को ठोकर!

सहस्राब्दियों से चल रही, नफरत पल रही
जातीय उत्पीङन, वर्जना:, बंदिशें और अत्याचार
उतरन पहनो, झूठन खाओ, दूर गाँव से बस्ती बसाओ
बना स्पर्श अपराध अक्षम्य, पाते कैसे शिक्षा-दीक्षा-संस्कार!

संविधान में ऐसे अधिकार दिए
अबला बनी सबला, हक-हुकूक़ समान लिए
मिला दबे-कुचलों को भीम-मुक्तिदाता तारणहार
पतित नहीं पावन हैं, करना पङा अभिजात्यों को स्वीकार!


नहीं थी पास उसके, कोई वानर सेना
न मिला सुग्रीव सा सखा, हनुमान सा खली
न मिला धनुर्धर अर्जुन, न मिला भीष्म महाबली
मात्र शिक्षा ही बनी भुजा दाहिनी, शक्ति-सैन्य वाहिनी!


समता मूलक समाज का था भीम आधार
इंसानियत का सच्चा हितैषी, इंसाफ का पैरोकार
खुद ही सेना, खुद ही सेनापति, तूफानों से जा टकराता
भीङ से भिङ जाता, तर्कों से हराता, डरता नहीं-था डराता!

अप दीपो भव- दर्शन अपनाया
‘शिक्षित बनो, संगठित रहो, संघर्ष करो’ समझाया
न्याय मिले, जीने का अधिकार मिले, मिले आत्मसम्मान
हुआ होगा धरती पर अगर भगवान कोई, होगा भीम समान!


© दयाराम वर्मा, जयपुर 27 दिसंबर, 2024



कविता: कलम की अभिलाषा



मुझे जानना चाहते हो
अंतर्मन में मेरे झांकना चाहते हो
तो सुनो-मैं चाहती हूँ उस हृदय का साथ
अनुकंपा, इंसानियत, निष्ठा धङकती जिसके पास!


नहीं चाहती होना मंचासीन
पढ़ना क़सीदे सरकार के, करना झूठे गुणगान
प्रायोजित महफिल, गोदी मीडिया, सहमे कद्रदान
बँटते जहाँ चाटुकारिता के बदले, शोहरत-शाल-सम्मान!


है मेरी अभिलाषा
खुलकर करूँ विरोध-प्रतिरोध दमन का
लिखूँ वाकया हर्फ़-ब-हर्फ़[1] राजकीय शमन का
करूँ नित अनावृत[2] भेद- प्रपंच, पाखंड, गबन का!


बन जाऊं मैं रणचंडी
दुराचारी की काल बनूँ, अबला की ढाल बनूँ
तन जाऊँ गांडीव[3] सी, जुल्मी-जुल्म-सितम के आगे
जलूँ बन बाती ऐसी, अंधियारा दर्प, द्वेष, जङता का भागे!


मैं पिद्दी[4] हूँ फिर भी जिद्दी हूँ
खिलाफ हुक्मरानों के चलूँ निडर
नहीं डिगूँ कभी उसूलों से, रहूँ बेलौस[5] बेफ़िक्र
सर उठाकर सवाल करूँ, हो खुदा, गॉड या ईश्वर!


अरमान सजाती, उम्मीद जगाती
सवार तल्ख सवालों पर भरूँ ऊँची उङान
लिखूँ संघर्ष मृग का, शिकारी व्याघ्र नहीं महान
विस्मृत, तिरस्कृत, दबे-कुचलों की बनूँ बुलंद जुबान!

शब्दों की वह धार मिले
नित मानस बगिया में, नव सुविचार खिले
असर अदम-पाश-दुष्यंत सा, हों सब खामोश
अंकुश लगे निरंकुश पर, भर दे लेखन में ऐसा जोश!


© दयाराम वर्मा, जयपुर 19 दिसंबर, 2024


[1] हर्फ़-ब-हर्फ़-अक्षरश:
[2] अनावृत्त-आवरण रहित
[3] गांडीव-महाभारत के पात्र अर्जुन के धनुष का नाम
[4] पिद्दी-अत्यंत तुच्छ जीव, एक छोटा पक्षी
[5] बेलौस-सच्चा या खरा, बेमुरव्वत, ममताहीन

प्रकाशन विवरण- 
1. भोपाल से प्रकाशित होने वाली मासिक हिंदी साहित्यिक पत्रिका- अक्षरा के अप्रैल, 2025 के अंक में चार अन्य कविताओं के साथ प्रकाशित 
2. राजस्थान साहित्य अकादमी की मुख पत्रिका मधुमती के दिसंबर-2024 के अंक में 6 अन्य कविताओं के साथ प्रकाशन







कविता: भीङ का तंत्र



भरे परिसर अदालत में, डंके की चोट
किया स्वयं मुंसिफ़ ने उद्घोष
बहुसंख्यकों के अनुसार चलेगा ये देश महान
एक डंडा, एक फंडा, होगी एक पहचान
शपथ गई तेल लेने
बोले जो भीङ, वही अंतिम निर्णय जान!

संविधान-विधान वही होगा
नफा-नुकसान, इल्जाम-इकराम[1] वही होगा
अदालत का संज्ञान वही होगा
संवेदना, सबूत, न साक्ष्यों की होगी दरकार[2]
वही होगा गुनाह, वही होगा गुनाहगार
जाही विधि साजे भीङतंत्र-सरकार!

लब खोलने की
आजादी यत्र-तत्र डोलने की
हँसने-रोने, चलने-रुकने, उठने-बैठने-झुकने की
कहाँ डले छत-छाँह, कहाँ बने इबागत-गाह
होगी आजादी, कब, कैसी और कितनी
भीङ तय करेगी जितनी!

बांटते मुंसिफ ऐसा भी ज्ञान
धेनु[3] लेती-देती सदा ऑक्सीजन
रोए मयूर टपके अश्रु, होए मयूरी का गर्भाधान
बर्बाद गुलिस्तां करने को …..
रामचंद्र कह गए सिया से ऐसा कलजुग आएगा
हंस चुगेगा दाना-दुनका कौआ मोती खाएगा!

उम्मीद किससे, मांगें किससे इंसाफ
नमूने कर रहे रहनुमाई, ओढे छद्म लिहाफ[4]
लोकतंत्र हैरान है, पशेमान[5] है
होता आईना[6] अपमानित, नित परेशान है
खुल कर खेलो, है स्पष्ट संकेत
करे कौन अब रखवाली, जब बाङ ही खाए खेत!


© दयाराम वर्मा, जयपुर (राज.) 12 दिसंबर, 2024




















[1] इकराम- दान, बख्शीश
[2] दरकार-आवश्यकता
[3] धेनु-गाय
[4] लिहाफ- रजाई
[5] पशेमान-लज्जित, शर्मिंदा
[6] आईना-संविधान


कविता: वे लोग




क्या तुम्हें है उस जहर की तलाश
‘उन लोगों’ का कर सके जो समूल नाश
हठधर्मी, अस्पृश्य, विधर्मी, एवं जाहिल जमात
नूतन शब्दावली-संस्कार, समाज को खतरा
हैं गद्दार, अवांछित कचरा!


आस्था विश्वास में घुला एक जहर
घर, मोहल्ले, शहर-शहर
खिंची तलवारें, चले पत्थर, पसरा कहर
हर रोज चंद घूँट पिलाते हो
उकसाऊ नारे, भङकाऊ संगीत बजाते हो!


डाल दिया धर्म, धंधे और पोशाक में
दाढी, टोपी, भाषा और तलाक में
‘जहर’ खान-पान, साक-सब्जी और पाक में
चिन्हित कर प्रतिबंध लगाते हो
सोसाइटी-बाजार, मेले-व्यापार से दूर भगाते हो!


प्यार में, व्यवहार में, लोकाचार में 
राहों में, अफवाहों में बदनाम हुआ जिहाद
कुछ और न मिले तो आओ
कर लेते हैं तकरार लेकर हिजाब
जहरीला चश्मा ढूँढता हर शय में फसाद!


जहरीली हवा, जहरीले विचार
ईद-बकरीद, दीप-दिवाली, तीज-त्योहार
जुबान मैली, दिलों में कदाचार
चुन-चुन बरसाते हो गाली और गोली
रौंदती ‘उनके’ घर ठिकाने, बुलडोजर-टोली


खोज रहे हो अब तुम जमीन तले
जहर खतरनाक ऐसा मिले
पलट जाए इतिहास, पुश्तें ‘उनकी’ जा हिलें
‘वे लोग’ जब हों एकत्र एक जगह
कुचल डालें, मसल डालें, कर लें सबको फतह!


इंसानियत आज भयाक्रांत है
गली-कूचा देश का, देखो अशांत है
गोधरा से संभल तक, अतिरेक हो चुका
है अब भी अवसर, बुनियाद-ए- हिंद बचा लो
वरना, ‘धीरज’ विवेक खो चुका!


मूढ़ता त्यागो, दिवा-स्वप्नों से जागो
जोङ सको तो जोङो, अदावत[1], जलालत[2] छोङो
गौतम, महावीर, नानक, कृष्ण की यह धरती है
मेरी-तेरी नहीं, ‘हम सब’ की बात करो
नफरत, इंसाफ कभी नहीं करती है!



© दयाराम वर्मा, जयपुर (राज.) 8 दिसंबर, 2024




[1] अदावत- शत्रुता
[2] ज़लालत- अपमान, बेइज़्ज़ती
कविता: खो देंगे लेकिन खोदेंगे




वे चाहते हैं
कर देना अपने पुरखों के नाम
स्वर्ग- नर्क के रहस्योद्घाटन, विकास के समग्रआयाम
तमाम आविष्कार और करामात
क्योंकि केवल और केवल
उनके पुरखे ही थे सर्वश्रेष्ठ मनुजात
निरुपम सभ्यताओं और संस्कृतियों के तात!


उनका है दृढ़ विश्वास
था भाला लंबा इतना उनके पुरखों के पास
आसमान छू लेता था
करता ऐसा छेद, बादल चू देता था
चीर धरा को प्रकट करता जल की धारा
बहती नदियां, मिटता अकाल
भाला था बङा कमाल!


और सिद्ध करने के लिए
वे खींचते हैं
नित नई, लंबी और गहरी लकीरें
खुरचते हैं, फाङते हैं, जलाते हैं तमाम वो तहरीरें
जो फुसफुसाती हैं, बुदबुदाती हैं
कभी-कभी चीखती हैं, चिल्लाती हैं
‘यहाँ तुमसे पहले भी कोई था’!


वे खोदते हैं
रोज गहरी खाई और खंदक
अभिमत है नीचे उनका ही खुदा होगा
निशान अवश्यमेव पुरखों का जहाँ गुदा होगा
उन्हें है यह भी यकीन
उनका खुदा सबसे जुदा होगा
बंधुभाव, सद्भाव, प्रेम-सौहार्द-बेशक सब खो देंगे
लेकिन जिद है कि खोदेंगे!



© दयाराम वर्मा, जयपुर (राज.) 6 दिसंबर, 2024


कविता: रेखाचित्र





रेखाओं ने उकेरी आकृतियाँ
परवाज करते सारस, बाज, गरुङ
लहरों पर डोलती नौका, खेवट और पतवार
धनुष, तीर, तलवार
शशक, सारंग, बाघों का शिकार
रेखाओं में गोपित[1] मोना लिसा की मुस्कान
हतप्रभ सारा जहान!


प्रस्तर लकीरों में लिपटे
इंसानी कदमों के निशान, हल थामे किसान
सुस्ताते श्वान, तिनकों के परिधान
रहट में जुते बैल, झुमते छैल
अचल, उदात्त, हिमाच्छादित शैल
कंठी, कर्णफूल, समुद्री सीपियों की माला
सजती-संवरती आदि-बाला!


छोटे-छोटे बिंदुओं के अद्भुत संयोजन
अपरिमित इनके प्रयोजन
बिंदुओं से रेखा, रेखा से त्रिभुज-चतुर्भुज बने
बने आयत, वृत, घन, घनाकार
ढल गए असंख्य अनुहार[2]
अंक-बीज-रेखा गणित, भौतिकी और भूगोल में
नापी दूरी सितारों की खगोल ने!


रेखाओं से उपजी लिपि
लिपि से भाषा, भाषा से व्याकरण
व्याकरण से भाषाई शुचिता, नियमन, संगठन
स्पष्ट और प्रभावी हुआ पाठन-पठन
शब्द-वर्ण-वाक्य विचार
रेखाओं पर अवलंबित
ज्ञान-ध्यान-विज्ञान, ग्रंथ-पोथी-शास्त्राचार!


रेखाओं के पंख सजाए
उङी कल्पना सुदूर, सप्तरंगी जगत अनजान
आदित्य, अंगारक, चंद्र-नक्षत्र
मुग्ध मंदाकिनी दैदीप्यमान
विस्तृत व्योम, परिमित व्यष्टि, अनंत सृष्टि
देव-दानव, सुर-असुर, गंधर्व या थे जो निराकार
रेखाचित्रों में हुए सब साकार!


© दयाराम वर्मा, जयपुर (राज.) – 23 नवंबर, 2024




[1] गोपित: गुप्त या छुपा हुआ


[2] अनुहार -आकृति या रचना



कविता- अनेक थे नेक थे




हमारे मोहल्ले में रहते थे
भांति-भांति के लोग
जाट जमींदार कारीगर कुम्हार सुथार
ठाकुर तेली सुनार चमार
हमारे ठीक पङोस में थे एक दर्जी
कमरुद्दीन भाई
लेखराम धोबी भोला बनिया हंसराज नाई
वैसे तो हम अनेक थे
लेकिन दिल के सब नेक थे
भाईचारा और प्रेम आपस में बंटता था
समय आराम से कटता था


वहाँ गली के आखिरी छोर पर था
सरदार केहरसिंह का बङा सा पक्का मकान
पीपल के पास था एक छोटा देवस्थान
देवस्थान के अहाते में
रहते थे लंबी चोटी वाले पंडित घनश्याम
सुबह शाम
बजती थीं मंदिर में मधुर घंटियाँ
और आती थी दूर मस्जिद से सुरीली अजान
सेवइयां लड्डू तो कभी हलवा बंटता था
कुहासा भेद भ्रम का छंटता था
यद्यपि हमारे इष्ट अनेक थे
लेकिन पैगाम सबके एक थे नेक थे


ढाब वाले स्कूल में
बरगद के पेङों तले लगती थी क्लास
अमर अर्जुन शंकर बलबीर हरदीप अल्ताफ़
बैठते थे टाट पट्टी पर पास-पास
पंद्रह अगस्त छब्बीस जनवरी होते थे पर्व खास
जब चलता सफाई अभियान
खेल मैदान में करवाया जाता श्रमदान
नंद पीटीआई काम बांटते
गड्ढे पाटते बबूल छांटते घास काटते
हमारे दीन-धर्म जात-कर्म अनेक थे
गुरुजी की नजरों में सब एक थे


दिवाली ईद गुरु-परब
हर साल हर हाल मनाए जाते
सिलवाते कपङे नए घर द्वार सजाए जाते
कुछ महिलाएं निकालती थीं घूंघट
कुछ पहनती थीं हिजाब
कभी कभार आपस में हो जाती थी तकरार
इससे पहले कि उगती कोई दीवार
सही गलत तुरंत आँकते
सौहार्द सद्भाव शांति बुजुर्ग बांटते
बेशक
खान-पान रिती-रिवाज अनेक थे
इरादे सबके नेक थे


© दयाराम वर्मा, जयपुर (राज.) 11-11-2024

Publication details: 
Sandesh Apr-Sep 2025, HY Magazine of Punjab National Bank ZO-Jaipur
Satya Kee Mashal Jan-2025, Monthly magazine





कविता: अनुकंपा और अभिशाप



शिखर से आया ऐलान
सुन बे छोटे इंसान
हमारे बाग-बगीचे,  खेत-खलिहान
बैंक-बैलेंस, नकदी, सोना, चांदी, खान
शहर-दर-शहर फैले दफ्तर, कारखाने, कारोबार
चमचमाती गाङियां, आभिजात्य[1] सरोकार

भूखंड, बंगले
ऊँची प्रतिष्ठा, ऊँची पहुँच, पद और जात
वंशानुगत पराक्रम, प्रज्ञा, अर्हता और चतुराई
है ईश्वरीय अनुकंपा की निष्पत्ति
जिसकी लाठी उसकी भैंस
शास्त्रीय उपपत्ति[2]!


तुम्हारी संतप्त झुग्गियां
भीङ भरी चाल, संकरी गन्धदूषित गलियां
सर पर तसले, गोबर सने हाथ
भूख, बीमारी, लाचारी, छोङे न साथ
पसीने से तर बदन, मैले कुचले परिधान
हाशिए की जिंदगी, सिसकता आत्माभिमान

हल, हंसिए, हथौड़े
जमीं फोङे, पत्थर तोङे, लोहा मरोङे, रहे निगोङे
छोटी सोच, छोटी समझ, काम और जात
वंशानुगत अज्ञता, अक्षम्यता[3], जड़बुद्धि और प्रमाद
है यह ईश्वरीय अभिशाप
जैसा बोए वैसा काटे
काहे करता प्रलाप!


© दयाराम वर्मा, जयपुर (राज.) 03 सितंबर, 2024


[1] उत्कृष्टता, शालीनता, और उच्च सामाजिक स्तर से संबंधित गुण या अवस्था
[2] किसी तथ्य, सिद्धांत, या विचार को प्रमाणित करने के लिए दी गई तार्किक या वैज्ञानिक व्याख्या
[3] असक्षम


प्रकाशन विवरण: 
(1) जनजातीय चेतना, कला, साहित्य, संस्कृति एवं समाचार के राष्ट्रीय मासिक 'ककसाङ' के 107 वें अंक, फरवरी, 2025 में प्रकाशित. 
(2) भोपाल से प्रकाशित होने वाली मासिक हिंदी साहित्यिक पत्रिका- अक्षरा के अप्रैल, 2025 के अंक में 'कलम की अभिलाषा' और तीन अन्य कविताओं के साथ प्रकाशित 
(3) राजस्थान साहित्य अकादमी की मुख पत्रिका मधुमती के दिसंबर-2024 के अंक में 6 अन्य कविताओं के साथ प्रकाशन

















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